शनिवार, 28 दिसंबर 2013

Analysis

इंसानियत और हवस के मध्य चिंघारता इंसाफ  
                                                                                            - अंकित झा 

यह कुछ नया सा प्रयास है, साल के कलंको और कबिलियतों को नए ढंग से याद करने का। काफी कुछ घटा है साल, कुछ बातें भुला दी गयी, कुछ भुलाये नहीं भूलती। कहीं कुम्भ की भक्तिमय साँझ की आरतियाँ गूंजती रही तो, कुम्भ में फैली भगदड़ में हुई मौतों पर आँखें भी नम हो आयीं और रूह भी कांप गया, अफ़ज़ल गुरु को फांसी, हैदराबाद में बम धमाके, दामिनी को गुजरे कुछ महीने ही हुए थे, और एक 5 साल की नयी दामिनी सामने आयी, गुड़िया नाम दिया गया, वही आक्रोश और जनक्रांति। फिर सुदीप्त सेन की ऐतिहासिक धांधली, शारदा चिटफंड का पर्दाफ़ाश, उत्तराखंड में आया महाप्रलय, सचिन तेंदुलकर का संन्यास, प्राण का निधन,  आसाराम की गिरफ़्तारी, ऐतिहासिक फैसले, आप क्रांति की सफलता और न जाने कितने ही ऐतिहासिक और दुखदायी क्षण। 2013, उठापटक से भरा साल रहा,परन्तु एक घटना जिसने मानवता को अंदर तक झकझोर के रख दिया वो था, मासूम गुड़िया के साथ किया गया दुष्कर्म। पृष्ठभूमि पर जाना नही चाहता, फिर भावनाएं उफान पे आ जाएंगी, शांत ही बैठना चाहता हु, परन्तु चुप नहीं।   नीचे लिखे पंक्तियों को पढ़ें- 

तो उसने भर कर आंखों में आंसू का मोती कहा
तेरी अच्छी किस्मत है जो तू जनम नहीं लेती
जनम लेकर भी आखिर तू किया करेगी
इस दुनिया में औरत का कोई सामान नहीं 
(Save the girl CHILD)

गुड़िया के साथ किया गया ये दुष्कर्म, साल के वीभत्सतम घटनाओं में से एक रही, इस पर क्षोभ से लेकर, दुःख, आक्रोश और सजा की मांग मुझे दो फिल्मों की याद दिलाती है, पहली है महेश मांजरेकर निर्देशित संजय दत्त व नंदिता दस अभिनीत साल २००२ की 'पिता'। तथा दूसरी है, 2004 में आयी मेहुल कुमार निर्देशित 'जागो'। दोनों ही फिल्में नाबालिग के साथ दुष्कर्म जिसे अंग्रेजी में ( Child Sexual Abuse)  कहते हैं। इस अति संवेदनशील मुद्दे पर मुख्यधारा की ये दो अच्छी फिल्में मेरी ज़ेहन में सुरक्षित हैं। हालाँकि दोनों ही फिल्में कमाई  में असफल रहो परन्तु इन्साफ के लिए किये गए संघर्ष की ये दोनों ही फिल्में एक अद्भुत उदहारण के रूप में पेश की जा सकती हैं। 
पिता: एक्शन फिल्मों के दो जाने पहचाने चेहरे संजय दत्त व महेश मांजरेकर, इससे पूर्व वास्तव जैसी फ़िल्म दे चुके थे, वास्तव कई मामलो में उत्तम फ़िल्म थी। तथा संजय दत्त ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी इसी फ़िल्म में दिया है, परन्तु जब मुख्यधारा के दो चेहरे कला साम्राज्ञी नंदिता दास के साथ एक शांत व उत्तेजक सिनेमा के लिए साथ आये तो उसका नतीजा रहा, एक विलक्षण सिनेमा। जिसका नाम है, पिता। हालांकि ये श्याम बेनेगल व सुधीर मिश्रा नुमा सराहनीय प्रयास नही था, परन्तु एक अच्छी फ़िल्म थी। फ़िल्म का पहला घण्टा इतने नाटकीय रूप से गढ़ा गया है कि फिल के किरदार दो भागो में बटते हैं, अच्छे और ज़ालिम। कहानी एक गांव की जहाँ पर ठाकुर अवध नारायण सिंह की हुकूमत है, उसके दो बेटे हैं और एक बेटी है, वहीँ दूसरी ओर उसके सबसे वफादार नौकर,रूद्र का परिवार है, उसकी पत्नी पारो, दो जुड़वाँ बेटे और एक ९ साल की बेटी, दुर्गा। कहानी में मोड़ तब आता है, जब रूद्र को पता चलता है कि उसकी मासूम बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ है, और ये जघन्य दुस्साहस किसी और ने नहीं बल्कि ठाकुर के दोनों बिगड़ैल बेटों ने किया है, फिर शुरू होता है दो पिता का अद्भुत संघर्ष। इन्साफ और साख की अनोखी लड़ाई। एक तरफ पैसे और पॉवर है तो दूसरी ओर सत्य और इन्साफ का जूनून। अंततः सत्य की विजय होती है, परन्तु बहुत कुछ खोने के बाद। 
फ़िल्म में रूद्र के किरदार में संजय दत्त है, उन्होंने इससे पहले ऐसा चरित्र कभी नही निभाया, और ऐसा अभिनय भी कभी नहीं किया, ये उनके करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था, पहली बार किसी फ़िल्म में उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से झोंक दिया, दूसरी ओर नंदिता दास हमेशा की तरह  ख़ामोशी से बहुत कुछ बोलने का प्रयास करती हैं, और हर दृश्य में बेहतरीन अभिनय का मुजायरा, ठाकुर के किरदार में ओम पूरी जान डालते हैं, परन्तु कई बार वो अति आत्मविश्वास का शिकार होते हैं, परन्तु वो एक विलक्षण अभिनता हैं,  किरदार में जॅकी श्रॉफ संतुष्ट करते हैं। संगीत बहुत कमजोर है, पार्श्व संगीत और कला निर्देशन फ़िल्म की जान है। 
परन्तु ये एक अच्छी फ़िल्म थी, इसलिए नहीं क्योंकि ये ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित थी, और एक अहम् मुद्दा उठती है बल्कि इसलिए क्योकि तेज के द्वारा लिखित इस कहानी में सामंती व्यवस्था पर कटाक्ष है तथा साम्य वाद की एक झलक है, एक पिटा का दुसरे पिता से संघर्ष है, एक बचपन के लूटने की व्यथा है, एक माँ के दो बेटों को बचने की दारुण कथा है, एक माँ के आत्मा के दागदार होने की कथा है, एक ठाकुर के साख व इन्साफ के अग्निपरीक्षा की कथा है, और एक नाबालिग के अस्मिता लूटने के दुस्साहस की कथा है। मनुष्य के उत्तम से न हटने की ज़िद्द का आह्वान करने वाली ये फ़िल्म भारत के 100 वर्षों के सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में कटाई स्थान नहीं बनाता परन्तु मानवीय करुणा के गलियारों में ये शीर्ष मुकुट का हक़दार है

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

Articlesss

गर्मी की लपट में ठिठुरती ज़िंदगियाँ 
                                                                    - अंकित झा 

"दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा  चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं,  हक़ बाँटने वाले बहुत कम। समस्या बाँटने वाले बहुत होतेहैं, परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले।"

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
                                                   - रामनाथ सिंह “अदम” गोंडवी
कुछ आवश्यक सा लगा इन पंक्तियों को लिखना, काफी विचारोत्तेजक पंक्तियाँ हैं, अंदर तक झकझोरने वाली। आज कल के हालत भी तो ऐसे ही हैं, 4 महीनो से अधिक हो चुके हैं, उस काले अध्याय को गुजरे, कई गिरफ्तारियां, कई केस और सजाएं परन्तु दर्द तो कम नही हुआ, एक अज़ीब से ज़िद्द से जन्मी वो झंझट आज एक विकराल से दर्द में तब्दील हो चुका है। ये दर्द है अपने ज़मीन से बिछरने का, ये दर्द है अपनों से बिछरने का, ये दर्द है राजनीतिक मोहरा बन जाने के डर का, ये दर्द है अपनों के खोने का, ये दर्द है निरंतर एकाकी में ज़िन्दगी बिताने का। चहुँ ओर दर्द ही दर्द। उनका भी जिनके अपने मारे गए, उनका भी जो मारे गए, उनका भी जिन्होंने मारा। जिन्होंने मरने दिया उनका कोई दर्द नहीं, बस डर है साख जाने का। सब समझ गए कि बात कहाँ की चल रही है, नाम ही ऐसा है, दर्द ही ऐसा है, मुज़फ्फरनगर। अगस्त महीने का वो आखिरी सप्ताह, सावन की फुहार के बाद उमसा सा वातावरण, ये उमस ये उदासीनता एक अनहोनी की सौगात थी, वो अनहोनी जो मुज़फ्फरनगर के कवाल गांव में घटने वाली थी। प्रकृति को सब पता है, कारण स्पष्ट न हो सका; ये रोड एक्सीडेंट से शुरू हुए नोकझोंक का परिणाम था या तथाकथित ज़िहाद लव का, कि एक मुस्लिम लड़के (शाहनवाज क़ुरैशी) ने पडोसी गांव की जाट लड़की से छेड़छाड़ की, जिसके बदले में, लड़की के भाइयों(सचिन व गौरव) ने शाहनवाज को जान से मार दिया और इसके विरोध में गांव के चौराहे पर एक संप्रदाय विशेष के लोगों ने दोनों भाइयों को समाप्त कर दिया? इस घटना ने तूल पकड़ी और बढ़ती राजनीतिक हस्तक्षेप के पश्चात महासमर में परिवर्तित हो गया। वो महासमर जिसने 43 ज़िंदगियों को अपने ग्रास में ले लिया। कारण सिर्फ एक, मतभेद, क्रोध, प्रतिशोध। जो नाम दे उस दीवानगी को, निर्भर करता है। 
वो एक जूनून था जो गुजर गया, पर अपने निशान छोड़ गया। दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं, हक़ बाँटने वाले बहुत कम समस्या बाँटने वाले बहुत होते हैं,परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले। इस दंगे के भी यही कुछ परिणाम होते गए। धीरे-धीरे जान बचा के सभी लोग गांव छोड़ने पर मजबूर हो गये, विस्थापन का दंश मानव इतिहास के सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है, विस्थापन और एक दंगे के बाद अपनों से अलग होना, अपनों की सुरक्षा के लिए, उसका दर्द कौन बयां कर सकता है? आंकड़ों की माने तो 9000 परिवारों के 50,000 लोगों ने कैंप में शरण लिया। मुज़फ्फरनगर व शामली ज़िलों को मिला के कुछ ४० कैंप लगाये गए थे। हालत सुधरने के बाद कुछ लोगों ने लौटना चाहा परन्तु, फिर से छोटी मोटी हिंसा इलाके को दहलता रहा, जिससे ख़ौफ़ बढ़ता ही गया, और अब वो समय आ गया है, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ठण्ड अपने चरम पर है, तथा राजनीतिक विवशताएं ऐसी कि न लौटने को कह सकते हैं न रुकने को। अब तक कोई 34 बच्चे ठण्ड से अपना दम तोड़ चुके हैं, इन कैम्पों में। सुध लेने वाला कोई नहीं, लकड़ी और दवाइयां पहुँच रही हैं पर पर्याप्त नहीं। गोद खुद कांप रहे है, वो ठण्ड से कैसे बचाये? कौन क्या करेगा और क्या कर लेगा? कुदरत को तुमने चुनौती दी तो कुदरत तुम्हारी आजमाइश क्यों न करे? ऊपर से अकर्मण्य प्रशासन, हालत काबू करने के बजाए गंद बयानों से मुद्दा भटकाने की भद्दी कोशिश। कोई कहे कि कैम्प में अब कोई पीड़ित नहीं, विपक्षी पार्टियों के लोग छुपे बैठे हैं। कोई कुछ तो कोई कुछ। रोटियां सेंकने वालों की भी कमी नही है। सब बारी-बारी पहुँच रहे हैं, मदद ले कर नहीं, आश्वासन लेकर। उन्हें आश्वासन दे कर क्या कर लेंगे? क्या शाज़िया को उसका बेटा लौटा देंगे आप नेताजी जिसकी पिछले दिनों ठिठुरते हुए मौत हो गयी या फिर इरफ़ान की बूढी खाला को लौटा देंगे, जो गांव से कैंप के रस्ते में ज़िंदगी से हार गयी। या फिर रमेश के दोस्त शाहिद को वापस ले आएंगे जिसे वो आज भी स्कूल जाते समय अनजाने ही बुलाने चला जाता है, तौफ़ीक़ का वो मासूम बचपन जो आज भी यही प्रार्थना गाता है, "ये अँधेरा घना छा रहा, तेरा इंसान घबरा रहा, हो रहा बेसबर कुछ न आता नज़र। सच का सूरज छिपा जा रहा
अब तो हे प्रभु तुमसे ही ये गुहार है कि है तेरी रौशनी में वो दम जो अमावस को कर दे पूनम। इंसान आखिर कब इंसान से लड़ना बंद करेगा? ये समर कब समाप्त होगा, जिससे सिर्फ नबफरत और दर्द ही उपजते हैं। कैसे कोई ये कह गुजरता है कि कूड़ेदान में 10 वोट आ गिरे हैं, उसे लूटने की तैयारी चल रही है। 
कब तक गर्मी की लपट में तबाह हुआ जीवन ठण्ड में ठिठुरता रहेगा? कब तक ठण्ड में भी राजनीती माहौल को गर्म बनाये रख्रगी? कब तक? कब तक? जवाब का इंतज़ार रहेगा 

रविवार, 22 दिसंबर 2013

Movie Review

धूम 3 :प्रतिघात के महाकाव्य से परे
                                                                          - अंकित झा 

आमिर खान की फ़िल्म और उसका रोमांच। पता है कि कुछ तो अच्छा होगा पिक्चर में बस दिल कहता है कि सब ठीक ही हो। आखिर मिस्टर परफेक्शनिस्ट जो हैं आमिर। उम्मीदें रहती हैं उनसे, और हम जैसे उनके फेन को तो कुछ ज्यादा ही। और नए नए जन्मे ये  जो हर दूसरी भारतीय सिनेमा के दृश्यों को उनकी किसी फ़िल्म कि चोरी का कहतें हैं।  और जब ऐसी धूम धड़ाका वाली एक्शन फ़िल्म हो तो फिर क्या कहने। आमिर के नाम के साथ। आशाएं, आकांक्षाएं व अद्वितीय चीज़े स्वतः ही जुड़ जाती हैं। २० को उनकी ये फ़िल्म आयी, आयी तो फिर देखना है ही, कोई देखे उससे पहले, मतलब फर्स्ट डे- फर्स्ट शो। फिर क्या था एडवांस बुकिंग कि होड़। टिकट मिलने का मतलब ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली ख़ुशी। पिछले 10  वर्षों में सिर्फ 8 फिल्में और एक सामाजिक रियलिटी शो, इतनी बार ही आमिर खान ने काम किया है. 7 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद यशराज बैनर की अतिमहत्वकांछी सीरीज धूम 3 आ ही गयी. साथ ही आमिर खान भी एक साल बाद परदे पर लौटें। यह आश्चर्य कि बात थी कि इतनी बड़ी फ़िल्म की जिम्मेदारी आदित्य चोपड़ा ने 'टशन' जैसी फ़िल्म बनाने वाले विजय कृष्ण आचार्य के हाथों में दी गयी। यह उनकी बतौर निर्देशक दूसरी फ़िल्म थी। ट्रेलर को देख के लगा मनो क्या होगा इस बार अलग, वही गाड़ियां तो दौड़ रही हैं, वही अभिषेक बच्चन पकड़ेगा। अंत में हार जायेगा। संगीत सुना, पिछले बार के मुक़ाबले, अधिक कर्णप्रिय। मलंग और बन्दे हैं हैम उसके तो दिल में बस गया है, धूम मचाले पुराना वाला अच्छा था, कमली कमली कुछ क्रेजी किया रे जैसा ही है। पर अच्छा है, एक और गीत है, तू ही जूनून; मोहित चौहान ने गाया है। इस गायक से तो दिन व दिन उम्मीद बढ़ती ही जा रही है। पहले पड़ाव में तो पास हो गयी मेरे लिए। संगीत पक्ष अच्छा रहा, साल के ४ महतवपूर्ण या कहें 4 बड़ी फ़िल्म का संगीत इतना अच्छा नहीं था; कृष3, चेन्नई एक्सप्रेस, बेशरम का संगीत बेजान था। 
फ़िल्म देखने पहुचे, बड़ी भीड़, जैसा कि उम्मीद था। फ़िल्म शुरू हुई, चौथे मिनट पे जॅकी श्रॉफ का वो दमदार संवाद और संदेशात्मक आवाज। मजा। और उसके बाद फ़िल्म पूर्णतः आमिर खान को समर्पित। पिछली बार की तरह इस बार भी क्रेडिट डांस के साथ ही होता है, आमिर की मेहनत  साफ़ नज़र आती  है, उनका थिरकना युवाओं को भी थिरकने पर विवश करता है, उत्तम। कोई ये न कहे कि आमिर ज्यादा अच्छे नाचे या ऋतिक? कोई मुक़ाबला नहीं। दोनों का दौर अलग है, और दरकार भी। धीरे धीरे फ़िल्म इतनी तेज़ी से आगे बढ़ती है कि उदय चोपड़ा के असहनीय संवाद भी तुरंत नेपथ्य में चले जाते हैं। एंट्री सीन काफी लम्बे हैं, छोटे हो सकते थे। पहला हाफ काफी चुस्त है, और उतनी ही तेज़ी से ये आगे बढ़ता है, पीछे क्या हुआ इसकी परवाह किये बिना। सभी एक्शन सीन शानदार तरीके से फिल्माए गए हैं, उतनी ही सुंदरता से शिकागो को फ्रेम में उतारा गया है, हां great Gatsby जितना सुंदर नहीं, पर उससे कम भी नहीं। कुछ स्टंट सांसे रोक देने वाली है, उनको आमिर खान सहजता से निभाते हैं।
कहानी अच्छी है, पर बहुत छोटी। आमिर का प्रभुत्व यहाँ साफ़ दिखता है, जब फ़िल्म की हीरोइन को महज चंद गानों में थिरकने के लिए रखा गया हो। अभिषेक को आमिर के बाद सबसे अधिक स्पेस मिला है, परन्तु युवा होने के बावजूद वो गानों से नदारद हैं। भूमिकाएं छोटी होने के बावजूद, किरदारो पर मेहनत की गयी है। पटकथा शानदार है, और पहले और दुसरे हाफ को पूर्णतः अलग करती है, परन्तु कथा का मूल है, प्रतिशोध। प्रतिशोध भारत की फिल्मों का ही मूल है, हर तीसरी फ़िल्म में बदला ही मकसद है। यहाँ पे कहानी इस तरह लिखी गयी है, कि  सहानुभूति खलनायक के लिए है। आमिर दूसरी बार खलनायक की भूमिका कर रहे हैं, और इस बार भी यश राज के लिए, फना के बाद। आमिर ऐसे अभिनेता है जिनपर खलनायक का चरित्र अच्छा नहीं लगता। अर्थव्यवस्था के कमर माने जाने वाले बैंक व बैंकरों को फ़िल्म में खलनायक दिखाया गया है, सच भी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का वो बुरा दौर कही न कही बैंको के गलत नीतियों का ही नतीजा था। यहाँ पृष्ठभूमि अमेरिका ही है, और पठकथा की शुरुआत बैंक के क़र्ज़ वसूली से है, जहाँ पर कि अपने जीवन के सबसे बेहतरीन करतब दिखाने के बावजूद इक़बाल(जॅकी) बैंक वालो को मना नहीं पाटा और नतीजतन उसे आत्महत्या का कदम उठाना पड़ता है। यहीं से शुरू होता है, बैंक को बर्बाद करने कि शाहिर(आमिर) कि ज़िद्द। उसे रोकने के लिए भारत से पुलिस अफसर जय दीक्षित(अभिषेक) व अली (उदय) को शिकागो बुलाया जाता है, क्योंकि मरते वक़्त जॅकी के शब्द 'बैंक वालो तुम्हारी ऐसी कि तैसी' को हर बार शाहिर बैंक लूटने के बाद लिख के जाता है, और एक जोकर का मुखौटा भी छोड़ जाता है। उनका साथ देने के लिए टैब्रेट बेथेल एक संक्षिप्त सी  भूमिका में हैं। वहीँ आमिर के साथ थिरकने के लिए कैटरीना को रखा गया है, वो बहुत अच्छा थिरकती भी हैं। चोर पुलिस का ये खेल दुसरे हाफ में चरम पर पहुँचता है, जब शाहिर के सबसे बड़े राज़ के बारे में कि उसका एक जुड़वाँ भाई है, जय को पता चल जाता है। कहानी के साथ आँख मिचौली चलती ही रहती है, और हम एक पहले से तय अंत की ओर बढ़ जाते हैं, कोई बताये कि इतने मुश्किल से बच के निकले दो चोर सुबह में क्यों भागने की कोशिश करेंगे? ये कुछ हजम नहीं होता।
फ़िल्म की जान आमिर और उनकी शानदार अदायगी है, वो हर सीन में जान डालते हैं, फिर वो गुसैल और शातिर शाहिर हो या चुलबुला और बचपने से भरा समर। अभिषेक भी अच्छा करते हैं, पिछले दो बार से ज्यादा अच्छा। इस बार हालाँकि रोल कम है, फिर भी। आमिर के साथ उनकी केमेस्ट्री शानदार है, भले ही वो चोर पुलिस कि दुश्मनी हो या मासूम समर से उनकी दोस्ती। उदय चोपड़ा ठीक हैं, उनकी ये अपनी फ़िल्म है, गाड़ियां अच्छा दौड़ा लेते हैं। कटरीना ने ये फ़िल्म चुनकर निराश किया है, वो महज गानों में थिरकने के लिए और अंग प्रदर्शन के लिए हैं, कोई दो राय नहीं कि पिछले संस्करण में विपाशा कि इससे लम्बी भूमिका थी।  बेथेल ठीक हैं, और जॅकी प्रभावित करते हैं, फ़िल्म में और कोई नहीं है जिसकी आभने को सराहा जाये। फ़िल्म के असली नायक इसके क्रू मेंबर हैं, कहानी, संवाद और पटकथा तीनो को निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य ने लिख है और सभी काफी अच्छे हैं, आमिर के संवाद बहुत अच्छे हैं, खासकर नरेशन में चलते उनके संवाद। सुदीप चट्टर्जी जो कि इक़बाल, चक दे इंडिया जैसी फिल्मो में अपने सिनेमेटोग्राफी का लोहा मनवा चुके हैं, शानदार तरीके से हर फ्रेम को रचते हैं, वो शानदार रहे हैं। संपादन रितेश सोनी के जिम्मे रही और उनका काम सराहनीय है, परन्तु अभिषेक के एंट्री सीन को छोटा कर सकते थे। संगीत व नृत्य फ़िल्म के मजबूत पक्ष हैं, और इसके लिए फ़िल्म को जरूर देखा जा सकता है। प्रीतम हमेशा से ही अच्छे संगीतकार रहे हैं, और यहाँ वो खुल के निखरे हैं। फ़िल्म अंततः थोडा निराश करती है, इसलिए नहीं कि ये एक ख़राब फ़िल्म है, नहीं, यह एक सुगठित व सुनिर्मित महाकाव्य है,. परन्तु आमिर से लोग इससे बेहतर कि उम्मीद करते हैं, अब आमिर महज एक अभिनेता नहीं हैं, वो मार्गदर्शक हैं, धूम 3 उनके मार्गदर्शन का एक चरण है। इसे अवश्य देखा जाये, और किसी अफवाहों पर ध्यान न दे कि ये किसी हॉलीवुड की चोरी है, होगी, परन्तु हॉलीवुड में कोई आमिर नहीं है, कोई बीटा नहीं है जो अपने पिता के प्रति अपनी भावनायें इस तरह व्यक्त करे, वहाँ कोई भाई नहीं जो कहता हो बाबा ने कहा था हाथ नहीं छोड़ना, वहाँ कोई पुलिस नहीं जो कहता हो मैं तुम्हे बचाना चाहता हु। ये भारत के आत्मा कि अंग्रेजी लिबास वाली फ़िल्म है। जरुर देखा जाये। 

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

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"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग


 सपेरा 
                               - अंकित झा 
कहाँ आज  वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल
भूतियों का दिगंत छविजाल 
ज्योति चुम्बित जगती का भाल 
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन विस्तार?
                                                                   - सुमित्रा नंदन पंत (परिवर्तन) 

बात इसी गर्मी की है, सेमेस्टर के अंतिम कुछ क्लास लेने कॉलेज जा रहा था, सुबह का समय था. कड़ी धूप होने की तैयारी थी,  फिर जेठ की दुपहरी कौन नहीं जानता? पसीना सुबह से ही आना शुरू हो गया था. घर से पैदल दूरी पर कॉलेज है, पर बस पास की रईसी ने कम्बख्त पैरों में जंग लगा दिए थे. अब ऊंट पहाड़ के नीचे था, अपनी वाली पे. 11 का रेड लाइट पार करके सेक्टर 8 के बस स्टॉप के करीब था. तभी सामना हो गया एक सपेरे से. सपेरा क्या कहिये खौफ से. बचपन से यदि किसी भी चीज़ से डरा हूँ तो वो है साँप। गन्ने के रस के स्टाल से थोड़ा आगे बढ़ा और सपेरे के करीब। दान पुण्य का कोई ख़ास शौक नहीं रहा और सवेरे-सवेरे वो भी किसी मजबूर व त्रस्त भिखारी को नहीं वरन एक साधुनुमा भगवा वस्त्र व जटाधारी सपेरे को? कदापि नहीं। बिना ध्यान दिए आगे बढ़ गया. हाथ फैलाये वो पास आ रहा था, बिना ध्यान दिए आगे बढ़ रहा था. पिटारे से साँप निकल दिया उसने, फ़न काढ़े साँप मेरे बाईं ओर पिटारे में कुण्डली मारे बैठा था, जेब से एक सिक्का निकाल आगे बढ़ते हुए असहजता में पिटारे पिटारे कि और फेंक दिया, सिक्का साँप के फ़न से जा टकराया। साँप बौखला उठा, जटाधारी उससे ज्यादा। मेरी और बढ़ा। मैं बुरी तरह घबराया और आगे बढ़ गया। बढ़ा क्या भागा। ऐसी हालातों में हाथ अपने आप प्रार्थना में जुड़ जाते हैं और प्रार्थनायें समूचे हृदय में गूंजने लगता है। मैं घबरा के भागने लगा, सड़क के दायीं ओर भारी भीड़ जा रही थी  और मैं इधर अकेला घबराया सा भागा जा रहा था। श्रद्धा और भय में बड़ा ग़जब का रिश्ता है, उस दिन यकीन सा हो गया। कुछ ही दूर पे सेक्टर 20 कि कोतवाली, जान में जान आयी। कोतवाली के सामने जाकर खड़ा हो गया, एक ग़ज़ब सा यक़ीन कि यहाँ तो मुझे कुछ नहीं हो सकता। कुछ देर बाद जब फिर से पीछे मुड़ के देखा तो वह घूम गया था। वह आगे बढ़ गया, मैं कुछ देर खड़ा रहा, फिर से एक बार मुड़ के देखा। देखा कि एक और लड़का मेरी ही तरह मेरी ही ओर भगा आ रहा है। पता नहीं क्यों पर हंसी छूट गयी इस बार, ये सब देख के, डर मिट चूका था।

यह घटना कतई उतना खतरनाक नहीं है, परन्तु श्रद्धा के नाम पर डर दिखा के ऐसी लूट वर्षीं से चली आ रही है। सीता भी तो दान-पुण्य के चक्कर में ही रावण द्वारा हरी गयी थी। भारत में यदि सबसे आसान तरीकों से लुटना है तो श्रद्धा-भक्ति व दान-पुण्य के चक्कर में पड़ जाइये।।   

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

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मिथिला में मॉल???!!!!!!
                                                          - अंकित झा 

उस राह पर चलते गए जिस राह पर राहगीर न मिले,
शहर की भीड़ में मुझे शायर तो मिले, पर कबीर न मिले।।।

3 सालों कि खबासी और सूद अब तक चूका रहे हैं, कुछ नया हुआ नहीं कि अपनी मनहूस यादें लेकर बैठ जाते हैं मिथिला की बात करने के लिए. सब सोचेंगे अब नया क्या हो गया? फिर लड़ाई हो गयी क्या मेरी मिथिला के नए आशिकों से?(http://mraindian.blogspot.in/2013_06_01_archive.html) नहीं फिर से नहीं। इस बार कुछ ज्यादा बड़ा घटा है. सुना है मिथिला में मॉल खुला है, जी हाँ मिथिला में मॉल खुला है. सीतामढ़ी, अरे वहीँ जहाँ माता सीता प्रगट हुई थीं, लिच्छिवियों कि भूमि व बिज्जीका भाषियों का गढ़. सीतामढ़ी। मेरे गाओं के करीब ही है, ज्यादा दूर नहीं। सुनने में आया था कि वहाँ कि बहनें आज भी अपने भाइयों के लिए 'सामा-चकेबा' के गीत गाती हैं कार्तिक में. सच कह रहा हु बस सुनने में आया है. जितना मैं उस भूमि के बारे में बताना चाहता हु उतना ही पीछे हटने का मन करता है, न जाने क्यों, पर करता है. सबसे बड़ी बात कि वो मेरे पिता सहित हमारे पूरे परिवार कि जन्मभूमि है, उसपे से आने जीवन के अहम् ४ वर्ष वहां बिताये हैं तो फिर कैसे न वो यादें सताएं मुझे। मध्य प्रदेश का भूत तो मुआ अब जवानी में जा के चढ़ा है, वर्ण बचपना तो आज भी बिहार कि उस गंगा कि चिकनी सफ़ेद मिट्टी में लोट लगा रही है. बासोपट्टी का वो बभिन्दयी पुल, जो ना  जाने  कब से बन रहा है, अब भी पूरा नहीं हुआ है. उस तालाब  के बारे में किवदंतियां, जिसे 12 राक्षसों ने एक रात में बनाया था, या फिर धत्ता पर का वो भूतहा आम की गाछी, जहां पर जा के ठहरने की वीरगाथाएं सभी युवा झूठा ही सही पर सुनाते हैं. उसी माटी कि सौ ख़ुशी नहीं हुई मॉल के बारे में सुनकर बिलकुल भी. मिथिला को मॉल कि क्या जरुरत आन पड़ी, वो भी मुजफ्फरपुर या समस्तीपुर या दरभंगा में नहीं बल्कि सीतामढ़ी में? कमाई या खर्च का नया रास्ता। अच्छा रास्ता तो है। परन्तु कितना समृद्ध होगा कौन बतायेगा? 
फ़ोटो :the indian express
मिथिला के लोगों कि एक बड़ी ख़राब आदत है, तुलना करने की. इतनी खराब कि उन्हें लंदन घुमा दीजिये, कहेंगे कि पटना से खली जगह में बड़ा है, नहीं तो कंकरबाग का मार्किट छोटा है का? नहीं तो गांधी मैदान क्या लॉर्ड्स से छोटा भी है. इसीलिए कभी कभी चिढ जाता हु पर यही तो उसे खास बनती है. अब मुझे ही देखिये तुलना ही तो करने जा रहा हूँ. मॉल का खुलना कटाई कोई नयी घटना नहीं है, मार्केट हुआ करते थे अब ऊपर से छत लगा के वो मॉल कहलायेंगे पर वो ऊपर कि छत सिर्फ एक बार ही सुकून दे पायेगा। मीना बाज़ार कि तरह बार बार नहीं या फिर गोगिया सर्कार के जादू कि तरह बार नहीं। आइयेगा एक बार, याद करियेगा बार बार. दरी पे बैठना है 15 रुपैया, कुर्सी पर बैठना है 25 रुपैया और किसी न किसी औरत का दरी को महत्व्पूर्ण समझकर उसका दोहन करना। मिथिला का रास है. मॉल खुल गया अर्थात, मेले अब मर जाएंगे, जो सिर्फ हुकुर हुकुर सांसे भर रहे थे वो साँसे भी अब छीन ली. अभी नवम्बर के पहले ही हफ्ते में अर्थात दीवाली पर ही तो मिथिला को अपना ये मॉल मिला है, राजनीतिक ईंट, कांच और सीमेंट से निर्मित। भाजपा विधायक सुनील कुमार पिंटू ने ही टी इसका अनावरण किया, राजनीती के बिसात पर. काफी दुःख और खेद के साथ कहना पद रहा है कि सीतामढ़ी जैसा ज़िला जो अपने मिथिलेश नंदिनी के जन्म के लिए जाना जाता है, अब तीन मंज़िले बाज़ार कलकत्ता के बाहर अपने युवाओं का हुरदंग देखेगी। होता आया है होता रहेगा। इंद्र पूजा और गणेश पूजा के मेले अब बस यादों का हिस्सा बन जायेंगे, हो सकता है मेरी बातें कुछ कुछ रूढ़िवादी लग रही हो पर सत्य कई बार ऐसा ही होता है. आगे बढ़ने का मतलब अपने रिवाजों को पीछे छोड़ना कब से हो गया? शादी में अब पनीर और फ्राइड चावल परोसे जाने लगे हैं परन्तु गौना के दिन का बपफर कौन भुला सकता है? कोई नहीं मैं तो कतई नहीं। मॉल तो आवश्यक हैं, आधारभूत संरचना के इए भी व अर्थव्यवस्था के लिए भी. पर रिवाज़, परम्पराएं व संस्कृति का क्या? ऐरावत हाथी पर बैठे देवराज का क्या? एकदंत गणेश का क्या? जनकनंदिनी का क्या? कुछ तो सोंचो मिथिलावासियों कि मॉल में जब साम कार्नर होगा तो कितना मज़ा आएगा। दुसरे मंज़िले पर जब आल्हा गया जाएगा और पिज़्ज़ा व बर्गर कि जगह बघिया व स्पंज मिठाई अलोंग विथ मालपुआ खिलाया जाएगा। 
तब तक मॉल का मज़ा लो, जब तक कुछ नया नहीं होता या फिर मुझे मिथिला के लीचियों कि याद नहीं आती, सिनुरिया आम के बाद।।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

Articlesss


मोह भंग, तत्पश्चात् ??
                                                               - अंकित झा
स्वर्णिम प्रभात की आभा, तत्पश्चात? सर पर नाचती आदित्य की किरण, तत्पश्चात्? अरुण दिवाकर की लालिमा, तत्पश्चात्? खनखन करती आती संध्या का मुस्कुराता राकेश, तत्पश्चात्? रजनी में पसरता मोह का अभिसार, तत्पश्चात्? पुनः स्वर्णिम प्रभात व मोह भंग. मोह भंग, तत्पश्चात?

बड़ी अजीब शुरुआत थी. बहुत दिनों बाद लौटा हु न इसलिए। दैनिक अखबारों में हमसफ़र व हमदर्द कि कुछ बातें चल रही हैं. उच्चतम न्यायलय ने अपने एक निर्देश में स्पष्ट कर दिया कि  'लिव-इन रिलेशनशिप' कतई जुर्म या अमान्य नहीं है. अब प्रश्न यह कि ये 'लिव-इन रिलेशनशिप' क्या? भारत कि प्रगति के कई सूचक हैं, उनमें से ये नए फसल की भाषाएं भी हैं. हिंदी की नयी नस्ल। अपभ्रंशीय नस्ल। सांकेतिक व विचारोत्तेजक नस्ल। कुछ शब्दों कि तो ऐसी बहुलता हो गयी है कि पता लगाना मुश्किल है ये हिंदी है या अंग्रेज़ी? तारीफ़ है या तौहीन? बड़ी विडम्बना है. इन्ही शब्दों में से एक है- 'लिव-इन रिलेशनशिप। इसे अंग्रेजी में आप 'प्री-मेरिटल रिलेशनशिप' भी शौक से कह सकते हैं. उसी का अव्यय मात्र है. अंतर बस फ्रीक्वेंसी का है व ट्रांसमिटिंग का. इस अंतर में एक यथार्थ निहित है, यह अंतर बदलते समय व नए वर्ग कि परिपक्वता का है. परिणय अब कोई आवश्यक रस्म रह ही नहीं गया, पूर्व-परिणय सहचरी भी रहने लगे हैं अब. ये ही तो नयी नस्ल है. ज़रा याद कीजिये, सिद्धार्थ आनंद निर्देशित 'प्रीती ज़िंटा- सैफ अली खान' अभिनीत फ़िल्म "सलाम-नमस्ते". मुद्दा कुछ याद आया? नहीं, फिर ज़रा स्मरण कीजिये यश चोपड़ा निर्देशित 'अमिताभ-शशि-निरूपा' की "दीवार" के 'अमिताभ-परवीन' का रिश्ता? अब याद आया कुछ।  जी. परिणय के परे एक सम्बन्ध। प्रेम की नयी पहचान। प्रगति-प्रेम-परिणय व प्रफुल्लता का नया नाम -'लिव-इन रिलेशनशिप। भारत में ये सब कब से होने लगा? यहाँ तो परिणय का निर्णय भी अभिभावक करते हैं फिर ये सहचरी का, दो नवयुगल कैसे? भारत में? विदेशी गांड है क्या? नहीं बस नाम विदेशी है. काम व इतिहास देशी है. सम्बन्ध देशी है. प्रेम तो भारतीय इतिहास का प्रतीक रहा है. आज से नही आदिकाल से. सतयुग से अब तक. सहधर्म, सहचर, सहकर्म सभी. इस प्रेम में त्याग निहित है, सम्मान निहित है व निहित है भावना। कलयुगी प्रेम में मिलता है ये सब? मोबाइल फ़ोन के नंबर से शुरू होने वाला प्रेम व नॉट वर्किंग एनीमोर पर समाप्त होने वाला प्रेम क्या सच में वही भारतीय प्रेम है? राधा-कृष्ण व दुष्यंत-शकुंतला वाला? त्याग व समर्पण वाला? परिभाषाएं व मानक तो बदलते ही रहते हैं, प्रेम के साथ भी ऐसा ही हुआ है. तरीकें बदल गए हैं. त्याग नहीं रहा, पाने कि ज़िद्द आ गयी है. सम्मान नहीं रहा, समर्पण नहीं रहा; ख़ुशी कि चाह आ गयी है. अतः प्रेम अब प्रेम ही नहीं रह गया, जरुरत है सभी की. सभी की का अर्थ यहाँ सभ से है.
फिर आयी ये परिणय। छोड़िये कोई अनुभव नहीं है. और अनुभूति को क्या व्यक्त करूँ? आते हैं 'लिव-इन रिलेशनशिप' पर. प्रेम की कोई वैद्यता नहीं होती, धोखे तो होते ही रहते हैं. पहले ये त्याग कहलाते थे. परन्तु परिणय की वैद्यता आवश्यक है, उतनी ही आवश्यक है प्रेम व परिणय के बीच की कड़ी कि वैद्यता। सबसे आवश्यक। उच्चतम न्यायलय का ये अहम फैसला है।  ऐसे हज़ारों उदहारण देखने, सुनने व पढ़ने को मिल जायेंगे जिसमे २ से लेकर २० वर्षों तक के रिश्तों के पश्चात एक दम से सभी नाते तोड़ दिए गए व सहचरी को कानून का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा. इन्साफ मिला, मुआवज़ा मिला परन्तु हक़ नहीं। रिश्ता नहीं। प्रेम नहीं। फिर ऐसे बीच में लटके ऐसे रिश्ते का क्या मतलब? जहाँ पर मजबूरी के इतने अधिक आशाएं हैं. प्रेम में बच्चे गलतियां करते हैं. न्यायपालिका कब से करने लगी? नहीं, ये कोई गलती नही, क्रन्तिकारी बदलाव के प्रति प्रथम कदम है. कईं सारे उदहारण है, पढ़ियेगा अवश्य। 
सब कहते हैं कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' पाश्चात्य सभ्यता कि देन है, गलत. कतई नहीं। भारत से अधिक  कानूनी करामातें हैं विदेशों में. कनाडा, अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में या पूर्णतः विधि के अंतर्गत आता है व कानूनी प्रक्रिया पूर्ण करने के बाद प्रारम्भ होता है. समस्या ये है कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' अधिकांशतः दुखांत ही हुए हैं. सफलता के ज्यादा उदहारण नहीं है. जहाँ पर अपना अधिकार माँगा जा सका है न बच्चे के लिए पिता का नाम. फिर ये तो होना ही था. सपनो कि नगरी को ध्वस्त होने में समय ही कितना लगता है? सिर्फ नींद खुलने तक का. प्रेम को किसी नाम कि अपेक्षा नहीं , आवश्यकता नहीं। बेनाम ही अच्छा, बदनाम होने से तो. यौवन कि विषमताएं बहुत हैं. बुद्धि व समझ को टाक पर रख कर लिया गया फैसला अंततः घटक ही सिद्ध होता है. इसका कटाई ये मतलब नहीं कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' बुरा है. वैवाहिक औपचारिकताओं कि न सोंच यदि कानूनी रूप से प्रेम सम्बन्धों को नया नाम व आयाम दिया जा रहा है तो क्या गलत है? विचार कीजिये।
सोंचने का कोई कर नहीं लगता।।।।।।।

बुधवार, 27 नवंबर 2013

Analysis

The MANGO Revolution-I
                                - Ankit Jha

If I need to elect a thief, I would prefer a new one to the traditional, ask any intellectual in the capital these days, whom are they voting to, and you will get the same answer. One answer that simply indicates that circumstances are on the verge to conversion. It has been hardly a year and few months for the formation of this revolution turned Political Party and its effect in coming election is estimable. Unveiling its first and so called, well researched Manifesto of Arvind Kejriwal led Aam Aadmi Party for the upcoming Delhi Legislative Election, and Party has redefined the socialist and populist issues that always attracts the common men of India.
On the contrary of Greater Delhi dream of Congress and Well-structured Delhi of BJP, AAP has emphasised on the well-mannered, democratised and well organised Delhi. In its box of promises, AAP didn’t promise of any Tablet-Laptop or romanticised subsidy. It talked of its origin the same, Delhi Jan Lokpal Bill, Mohalla sabha and Citizen Force. Attending any political rally of AAP seems like attending the agitation of Anna Hazare or the Kavi sammelan or a debate competition. Wherever Kumar Vishwas, the poet turned politicians, he is asked to recite his famous lines ‘Koi Deewana Kehta Hai…’ remember the Jeet ki Goonj, the music concert organised by AAP at Jantar Mantar, this Saturday. They continuously claim other parties and politicians of being corrupt, thief and even con.

Their agenda is well defined but Kejriwal (Bhrashtachar ka ek hi kaal, Kejriwal Kejriwal.) wherever he goes, his anti-corruption slogans follows. He needs to come out and get forward of these all, he must talk of Security, inflation and sanitation in Capital but he doesn’t. Cast doesn’t play a big role in Delhi but community plays, his biggest challenge is not to bring new voters but to save his voters before they choose other wing. It doesn’t cross all classes, especially he is the hero of those migrated voters who have settled in Delhi, the unorganised business class and above all Lower middle class. Yes, it is new flow of politicians in the Indian politics but one thing that AAP needs to remember that who their antagonisms are? They are the king of the empire where they are trying to triumph. Till then remember a slogan “Paise pe Na Daaru pe, Mohar lage bas Jhaadu Pe.”

रविवार, 17 नवंबर 2013

Anaysis...

Indian Cinema and Social Irresponsibility-2
                                                         - Ankit JHA
The Saga Continues

From Parrot in a cage to Tandoori Murgi: Depiction of women in Hindi Cinema..

Do anyone remember the era of Indian Cinema when leading ladies in a beautiful Sari and always ready to avoid fun with the hero? That was the time when a woman in society had to put a veil in front of their Father in law and many a times even with their husband. But time has changed, so the condition of a woman in society has become lot better, so the depiction of woman in Indian Cinema has changed. It looks more or less inspired by the global dung. Today an Indian Girl in film, proposes a man almost double his age, because girl in Indian Society feels more independent. If an independent woman is to be depicted then certainly it wouldn’t be lady her 30s, who along with her husband works, and successfully nurture their generation next, rather it will be a woman, in her 20s, who drinks, wears dresses which reveals more than protecting, smacks with the guys, goes for a Rave and many more to depict. Makers can’t escape by saying it is the part and partial of new Urban India. Urban India has somewhere adopted this culture from the cinema. And no fact can deny this, there are several realities which do not need proof, it is better known as Axioms.

It certainly has affected the condition of woman and crime against them. If we look at the data, from 2009 on, almost every 3 out of 5 movies released in India had at least one item song. Item Song be better defined as Musical performance in a film, that has a little to do with the story plot of the film, performed by actor, male or female, to increase marketability of the film(Barrett, Grant 2006,The official dictionary of unofficial English, McGraw-Hill Professional. pp. 189, 190. ISBN 0-07-145804-2. ). The archetypal meaning of "item number" refers to highly sexualized songs with racy imagery and suggestive lyrics, picturised especially on a girl. Release of song “Fevicol se” and the infamous incident of ‘Delhi Gang Rape’ on December 16th 2012, song was brought under the huge criticism. Peppy and provocative lyrics influence crime in society. As rape cases has increased from 19348 in 2006 to 21937 in 2009 and 24923 in 2012, a growth of more than 10%.(NCRB, Government of India) Likely Kidnapping and abduction has increased from 17414 in 2006 to 38262 in 2012, which was 25741 in 2009. Reasons for the kidnapping are more perilous; 24781 kidnappings were done for the marriage where as 2999 were for the illicit intercourse. Thing to remember is that, the cases were registered for Kidnapping not Illicit Intercourse or molestation. 523 Kidnapping was also for forceful Prostitution, which is worth mourning condition.
The next big issue is protection of modesty of a woman, where Indian Cinema and its consumers lack far behind, so the society. The origin of the term "item number" is obscure; it is likely that it derives its meaning from objectification of sexually attractive women. This is because item in filmy Mumbai slang is a sexy woman. (Peter Morey and Alex Tickell, ed. Alternative Indias: writing, nation and communalism. Rodopi. p. 221,178. ISBN 90-420-1927-1.). With each passing Item Song, modesty of a woman is brutally hurt by us. But data say some other story there has been just 9173 cases of Insult to women modesty, which used to be 11009 in 2009. However, Around 62 Crore Women of India feels humiliated when they are asked ‘Choli ke Peechey Kya Hai? Or Pinki hai Paise walon ki.” These are the cases unregistered and will always be.
And depiction of a woman has shifted from a parrot in a cage to Tandoori Murgi, who is ready to be served, what you need is to have a glass full of Alcohol. Any hesitations? Tune to Fevicol se, Dabangg 2, 2012.


Pack Shack tey Chicken Khurana: Behind the prominence of Gym:  

From Bruce Lee to Dwayne Johnson, Syslvester Stallone and Arnold Schwarzenegger, Films produced outside had a history of well built or well crafted heroes, many a times even a heroine. But for India, it was introduction of Dara Singh, a wrestler by profession in the hindi films. Then, Dharmendra and now there are various hunks in Indian Film Industry like, John Abraham, Hritik Roshan and Vidyut Jamwal to name a few. After the presentation of a Shirtless, 6 packed Salman Khan in a song of 1998 Pyar Kiya to Darna Kya, whole depiction of a man in Indian films started to change. Now a hero like, Sanjay Khan or Manoj Kumar were not neede, who could smile and create a charm or Rajesh Khanna who could express even an ant’s smile, or Amitabh Bacchan whose gaze was enough to provoke audiences and to get prejudiced of his power that he even can triumph a gang with revolvers in their hands. So has changed the fitness habits of youth in this country, the traditional Ghee, Malai formula has gone and new formula of Gyming, Sugarfree and cyrup, Capsules has taken their place. At any cost they want a shape like Salman or Hritik.   
Influence of Cinema and the entry of international fitness chains such as UK's Fitness First and US-based Gold's Gym besides expanding footprints of homegrown Talwalkars has given a facelift to the Rs 500-crore gym industry.  Even the girls do ot lack behind, they too need a perfect shape, at any cost. Something like, Kareena or Priyanka.(Kareena Kapoor Khan and Priyanka Chopra). According to Fitness First managing director Vikram Aditya Bhatia "they are adding close to 800 people every month, The UK-based chain has around 10,600 users in India, of which around one third are women. The number of people using health clubs in India currently stands at 0.23 million. Of this experts say, 40% are women. Fitness freaks in the age group of 20-35 years alone constitute around 65% of total members in Talwalkers across India.
Take any random movie and you will find a hunk playing actor. The 6 pack Ram on television or an 8 packed 45 years actor in a Hindi movie is the result of social appeal of an Indian movie. From metro cities like Mumbai, Delhi to smaller cities like Indore, Ludhiana or even smaller cities like Saharanpur or Jalgaon has adopted this gym culture. Consumers in the country with a monthly income of Rs 75,000-Rs 1.4 lakh spend anywhere between Rs 1,000-3000 on health clubs per month. As per several industry estimates, people dropping out of membership on a monthly basis in India would be 3-5% of the total number of users, while globally it is around 4 %.(http://articles.economictimes.indiatimes.com/2009-08-14).

World of Cuss & Fuss words: Rise of Profanity and 18+ movies:  

Profanity and Indian Cinema, two brothers lost in some fair in their infancy and now have they met. The strict Censorship norms have been well modified to be lenient enough to allow Abuses on screen. The biggest example came last year, when in the month of June released ‘Gangs of Wasseypur’, a revenge saga of Querashis and Pathans of Wasseypur near Dhanbad in Jharkhand. There were more abuses than normal dialogues; Ch****a, G***u and Bh**** K* were too common to be heard. Indian Society is one of those civilizations of world which uses to abuse most. But certainly you come to have so much of cuss words on screen that you can’t enjoy a movie with your family. There are plenty of such movies after 2009, examples are Gulaal, Saheb Biwi Aur Gangster, Delhi Belly,Ye Sali Zindagi, Murder 2, Jannat 2, Bhindi Bazaar Inc, Shootout at Wadala and Gangs of Wasseypur, to name a few. Dialogue writers defend themselves by saying that, when there are real locations, wardrobe then why dialogues should be modified? As in the case of Delhi Belly or recently released Go Goa Gone or Grand Masti, abuses have been used to show the real face of India Urban Youth.
There was a time when Veteran Director Mahesh Bhatt had to get ‘A’ certificate from Censor Board for his movie ‘Zakhm’ just for using word ‘Ha***za**’. But now an actor abuses even Mother Sisters of villain and it falls in the category of ‘A’ Certificate. In 2013 there are some 20 films which were certified “Adults only” certificates and as many as 60 films with U/A certificates till the month of September, which was 21 & 56 in 2012 till December.. (wikipedia.org/wiki/List_of_Bollywood_films_of_2013). The craze of genres like Adult Comedy, Black Comedy and Adult Crime Thriller is increasing significantly. A crime thriller like Don in 1978 was a family entertainer whereas a family entertainer like Bol Bacchan was U/A certified. It is almost impossible to think of a crime thriller without cuss words something like Teesri Manzil or Zanjeer. They give it a name of humour where as it is simly a manipulation of reality. It is affecting society in the manner that 27,936 cases were registered against juveniles in 2012, in which 66.6% cases were against the age group of 16-18 years(NCRB, Government of India).Somewhere down the line certification matters. From 2011, crime rate has increased by 2.41% in 2012 (NCRB, Government of India), like number of U/A and A certificated films has increased.

The tale continues......

बुधवार, 13 नवंबर 2013

Analysis..



Indian Cinema & Social Irresponsibility…
                                             -Ankit JHA

December of 2012, a girl in her early 20s met an accident on the streets of Indore, she was found guilty of rash driving. As her friend quoted that she said, ‘let’s try.’ This try was to imposter the speed sequence performed by Actress Asin in her movie Khiladi 786, but she didn’t know that it’s going to cost her life. This is among those cases that shows that why do we say Cinema, the mirror of society. It mirrors the episodes in such a manner that leaves an impact on the coming generations. Cinema is an important mean for the mass communication. Recent growth in the technology and response of consumerism has marked Cinema the strongest medium for the social communication. No Literature or Radio or Television Programs touches the mark has been placed by Cinema. Cinema has the ability to combine entertainment with communication of ideas. It has the potential appeal for its audience. It certainly leaves other media far behind in making such an appeal. As in literature, cinema ahs produced much which touches the innermost layers of the man. Cinema presents an image of the society in which it is born and the hopes, aspirations, frustration and contradictions present in any given social order. In this manner it lacks behind in fulfilling the social responsibility that many a times is connected with it.


The biography of Vengeance: the Source of Crime in Country:
Barge in the library of Indian films, rummage through it and take out any random movie and it will be a revenge drama. Any genre but end is same good’s win over evil. Every big movie of any decade has been an avenge drama whether its Sholay or Zanjeer of 1970s, Karz, Karma or Meri Jung of 1980s, Darr. Anjaam, or Agneepath of 1990s. Then came Ghajini, Gadar or Dabangg in 2000s. When we entered the second decade of 21st century, new revenge saga were created, take Agneepath, Shootout At Wadala, Gangs of Wasseypur etc. Experts say Vengeance in a bollywood film is the source of all crimes in India. It provokes, inspires and teaches to kill, molest and triumph at any cost. Example of Madhuri Dixit and Shahrukh Khan starrer Anjaam, where a man in love with a girl kills her husband and sends the girl behind bars. Girl takes revenge even when boy has become stationery suffering an accident or Trimurti, where a mother orders his brother to rear her 3 sons in order to kill the demon who killed their father. There are many examples of such movies whose central idea is revenge. It delivers a wrong message in the society. 241986 voilent crimes were registered in 2010, which consisted of Murders and many a murders were for the personal reasons so were the rapes. 



Dhoom, Tashan to Gangs of Wasseypur: Being inhuman:

It all began with Shekhar Kapur’s Bandit Queen, then it elongated so significantly that today it has become a culture. Indians do have a habit to make a culture out of a habit. Bandit Queen-Satya-Vastav-Kaante-Khakee-Dus-Kurbaan-Ishaqzaade-Ye Saali Zindagi-Tashan-Dabangg-Gangs of Wasseypur and Shootout at Wadala, if we add the number od firings in these movies we will get a number that will almost beyond the bullets used in World War 2. It was just a satire though. Then some films like Dhoom, Dhoom 2 and Blue inspires for nothing but towards the hell. Chain Snatching, Rash Driving and petty Thefts increased drastically. Crime rate in 2004 was increased by 168% in comparison of 2003, on an average 1 IPC crime every 17 seconds were registered and 7317839 persons were arrested in the year(http://ncrb.nic.in/ciiprevious/Data/CD-CII2007/cii-2004). The condition even worsened in 2007 after the release of Apaharan, Dhoom2 and Dus. Crime rate increased from 167 to 176% in 2007, also arrests for theft was 17,1 % of all total arrests and thefts (12284) accounted for the 64.1 % total crime in railways. 118 Custodial deaths were reported along with 1 custodial rape. This was the same year when Shootout at Lokhandwala was released.
Then as soon as Indian Cinema entered its 97th year or the second decade of 21st century; crime rate of country along with Crime thriller genre started to increase. The father of all crime movies in India Gangs of Wasseypur came on the floors in 2012 Saawan and the Bahaar of crime kicked off. Crime rate increased by a considerable rate of 2.3% from 2011, it was the same time when Delhi became the story hub and it accounted for 10.1 % of total crimes reported in 53 Mega cities. Because the type of movies shot in Delhi were Jannat 2, Delhi Belly, Zila Ghaziabad etc.244270 cases were registered against women, which increased by the rate of 41.74%. for every hour 273 cases were registered and 373 persons were arrested in 2012, Which also included the heinous gang rape of Medical Student in Delhi. 


 The saga of Indian Cinema and social irresponsibility will be continued.....

शनिवार, 21 सितंबर 2013

"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग

                     दतमन 
                                                               - अंकित झा 

वर्ष 2003 की बात थी. अब की ठण्ड ने छठ की बाट न देखी, दिवाली पर ही धमक आयी. दिवाली से शुरू हुई शीतलहरी, अगहन के आते आते अपने चरम पर जा पहुची थी. रोजाना दैनिक पत्रों में पिछली तसदिकों के टूटने की खबरें पढ़ता। मिथिला में ठण्ड का अर्थ सिर्फ ठण्ड नहीं होता, परेशानियाँ भी होती हैं. बात अगहन ही की थी, ठण्ड के कारण साँपों के यहाँ वहां से निकलने की खबरें कानों में पड़ने लगी. रजाई के नीचे, तकिये के नीचे, धोती के नीचे, मिटटी के चूल्हों में जमे राख में, हर जगह. दहशत तब बढ़ गई जब पडोसी के चूल्हे से गहुमन निकला। गहुमन मतलब कोबरा। हमारा पक्का का घर था, अर्थात गहुमन, सांखर व करैत को खुला आमंत्रण।
उन्ही दिनों घर के सामने से दो भाई दतमन बेचने को निकला करते थे. बांस की करछी, नीम के दतमन, धातरिक (आंवला) के दतमन; २ से 5 रुपये में. तीन-चार महीनो से रोज हमारे घर के सामने से निकलते। ठण्ड कितनी भी हो, आते जरुर। पिताजी रिक्शा हांकते हैं और माँ घर पे रहती है. कहते हैं माँ बहुत सुन्दर है. कोई ख़ास अंदाज़ नहीं था, बेचने का. बस मासूमियत थी, बोली में. माँ खूब रिझती थी उनसे। बड़ा भाई कोई सात आठ साल का होगा छोटा कोई पांच छः साल का, एक और भाई है 1-2 साल का ही है, वो अम्मा के गोद से नहीं उतरता है. माँ उनसे ही दतमन लिया करती, छोटी-छोटी दो गठरी, एक बांस की और एक नीम का. फिर कई दिनों तक वो नहीं आये. मैं सुबह सुबह दोरुखे के बाहर निकल उनकी प्रतीक्षा करता, परन्तु वो नहीं आते.  निराशा होती। कौतूहलता मटियामेट हो जाती। माँ भी कहीं न कहीं परेशान तो थी उनके लिए. उन दोनों भाइयों से एक बंधन सा बंध गया था.
कोई 8-9 दिनों बाद सुबह के सात बजे घर के बाहर आवाज़ आई- 'हे माई! दतमन नै लेब?' (अम्मा! दतमन नहीं लेंगी क्या?) ये सुनना था की सब दरवाजे की ओर दौड़ पड़े. वही दोनों भाई खड़े थे. बड़ा मेहरूनी रंग के दो छेद वाले स्वेटर में और दूसरा वही शेर छाल वाला रुई का जैकेट पहने। माँ की ख़ुशी का ठिकाना न था. जाते ही पुछा- "आबत कैलै नई रही रे?" (इतने दिनों से क्यों नहीं आ रहे थे?) 
उसका जवाब आया- 'नै ऐतियई, बौआ चाची के दूध नइ पिबइ छइ. (नहीं आते, पर छोटा भाई चाची का दूध नहीं पीता। )
माँ ने पुछा- "माई कतै गेलऊ?" (माँ कहाँ गयी?)
जवाब आया- 'सिरमा में करैत रहइ, भोरे-भोरे काइट लेलकई माथा में, माई मर गेलइ। (तकिये के नीचे करैत था, सुबह सुबह काट लिया, माँ अब नहीं रही.)

सब स्तब्ध रह गए. जमे के जमे रह गए. किसी के मुह से कुछ न निकला। ध्यान तब भंग हुआ जब बच्चो ने पुछा- कौहु न दतमन लेब? (कहिये ना दतमन लेंगी कि नहीं,) बौआ के लेल दूध सेहो किना के छै. (छोटे भाई के लिए दूध भी खरीदना है.)

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

Articlesss

क्योंकि सपनों की कोई कीमत नहीं होती।।
- अंकित झा 
अब एक नए इतिहास बनाने की तयारी की जा रही है, सावधान!! विश्व में पहली बार कोई सरकार अपने देश के एक बड़े हिस्से को सब्सिडी पर अनाज प्रदान करवाने जा रही है

"बिगड़ी बात बने नहीं , लाख करो किन होए।
रहिमन फटे दूध को, मथे न माखन होए।।।"
                                                                      - रहीम 

ज़हालत, फरेब, झूठ, अकर्मण्यता व बडबोलेपन के गठबंधन की सरकार चल रही है. अपमान, धोखे व बेशर्मी की साड़ी सीमाएं तोड़ रही है वर्तमान राजनीति। अकर्मण्य सरकार को फिरते दिनों में देश के पेट का ख्याल आ रहा है. 65 वर्षों में जो देश के आधे हिस्से को दो वक़्त की रोटी न खिल सके, अन खुद्दारी पर प्रहार करने चले हैं. राजनैतिक हालात अपने वश में नहीं, भूगोल पर विदेशी पैठ और सपने इतिहास बनाने के देखे जा रहे हैं. अच्छा सामाजिक विज्ञानं है. यूँ तो अर्थशास्त्र भी सामजिक विज्ञानं का हिस्सा है पर दुर्बल को और कितना सताया जाये। अर्थव्यवस्था तो वुगत कुछ वर्षों से कंपकंपा ही रही है. तो बात सामाजिक सरंचना की ही करें। समकालीन सरकार ने इतिहास बनाने के कई अवसर प्रदान किये और हर बार असफल रही. सूचना का अधिकार लाई, चुनिन्दा छिद्र के साथ, धीरे धीरे समूचा अधिनियम ही छलनी होने की कगार पर है, मगनरेगस लाई, भ्रष्टाचार की नई बिसात, पोल खुले, तबादले-स्थगन का दौर शुरू हुआ. परमाणु करार पर सरकार संकट में, संसद में नोट उछले, इतिहास; घिनौना ही सही. विभत्सतम अभी बाकी था, राज्यसभा में लोकपाल बिल के मसौदे को फाड़ के धरातल पर धूसित कर देना। सभी इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं. अब एक नए इतिहास बनाने की तयारी की जा रही है, सावधान। विश्व में पहली बार कोई सरकार अपने देश के एक बड़े हिस्से को सब्सिडी पर अनाज प्रदान करवाने जा रही है. ये एक भारतीय माता श्री मती सोनिया गाँधी जी का स्वप्न है की उनके देश की जनता भूखी न रहे. ये सपना अब सोनिया जी का है तो कौन कुछ कहे? भले ही कोई भी कीमत चुकानी पड़े, फिर सपने की कोई कीमत होतीहै क्या? और सोनिया जी के सपने की कोई कीमत, प्रश्न ही नही.

अगर गणना की जाये तो सरकार ने देश के 67% जनता को इस वर्ग में शामिल किया है, जबकि 2011 के जनगणना के अनुसार २६% जनता ही गरीबी रेखा के नीचे हैं।  ये नए 41% कौन है? कहाँ छुपे बैठे थे? 67% का इतिहास या फिर 3 वर्षों में 41% नए गरीब ले आने का इतिहास? सस्ते दामों पर अनाज कोई नै बात नहीं है, छत्तीसगढ़ में तो ये केंद्र सर्कार इ भी पहले और उससे भी सस्ता है तो फिर क्या ये चुनौती का नया इतिहास है? इस इस अध्यादेश को पारित कर लागू करने हेतु 1 लाख 40 हज़ार करोड़ रू चाहिए, लगभग अनुमानित। कहाँ से आएंगे? ऋण ले के खीर खिलायेंगे? ऋण लेने का नया इतिहास? हमारा देश एक नाज़ुक डोर पर दौड़ रहा है, बिना किसी सहारे के, एक गलत कदम और धराशायी। कपट और ज़हालत को दूर करना ही होगा। कहाँ से आयेगा इतना फण्ड? खाद्य सब्सिडी और मिड डे मील को मिलकर भी इतना खर्च नहीं होता। खर्चे में बढ़ोत्तरी का सीधा अर्थ है, बचत में कटौती। पहले से कोई ज्यादा बचत है नहीं। वैश्विक आर्थिक संकट बीच-बीच में थपेड़े लगा जाते हैं. इस समय आवश्यकता है देश में निवेश की. जहाँ से ए, जैसे भी आये. राष्ट्रिय आय में वृद्धि की। सबसे बड़ी समस्या अनुपालन की है. भ्रष्टतंत्र में क्या इतना नाजुक फैसला लिया जाना सही है? वितरण प्रणाली को पहले सुगृढ किया जाये, तत्पश्चात खाद्य सुरक्षा की बात की जाये। सपनो को हकीक़त में अवश्य बदलना चाहिए परन्तु समय पर, अन्यथा खोखले सपनो को विभत्स हक़ीक़त बनते वक्त नहीं लगता। सोनिया जी! सपनो की कोई कीमत नहीं होती, जब तक कि इससे करोड़ो उम्मीदें न जुडी हों.

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

Movie Review

The Precarious Reel to Deal: An Appreciation Note for The Conjuring
                                                        - Ankit Jha

Amityville, US, 2 girls horrified by the presence of an Annabelle Doll, which writes a note ‘MISS ME?’ to them, they ask the Paranormal Investigators & Devout Catholic Christian Couple ‘Ed & Lorraine Warren’ played by Patrick Wilson and Vera Framiga. Then story moves to Harrisville, Rhode Island, down in 1970s when a family of 7, sorry 8 if we include Sandie, the dog, moves in a secluded Farm House, having bought in an auction. Family consists of Roger Perron (Ron Livingston), Carolyn Perron (Lily Taylor) and their 5 different sized daughters. As soon as they enter the house, the paranormal & demonic activities begin to take place, which surely reminds us the Kilos of Horror movies crafted till date. Dog denies enter the haunted house, All the clocks stop functioning at 3:07 AM, there is a smell of rotten meat in house, there is a spooky cellar, mother gets some mysterious bruises on her body & the scary noises which makes it a horror movie.
It admonishes you not to play ‘Hide & Clap’  especially when you are all alone in home with a girl of 5 who already has befriended with a ghost called Rory. I am not going to play it even in crowd nor going to have any doll. This movie is based on the allegedly true events told by Lorraine Warren and the screenplay by Chad and Carey Hayes, who scripted remake of ‘House of Wax’, crafts it in the new style adjoining both the families ‘The Warrens & the Parrens.’ Australian Director James Wan, who in past has directed & wrote all time thriller classic ‘SAW’, comes again in a break through appearance with his partner of good times, cinematographer John Leonetti (famous for the Mask, The Scorpion King). This movie is different from various horrors, because it’s not just scary but performed & narrated in its truest form. There are various sequences, where you are compulsed to admire, like the sequence where Carolyn searches for her daughter in the cellar while playing ‘Hide & Clap’, Carolyn falling in the haunted basement, Annabelle doll scaring Judy, the daughter of ED and the best sequence of my recent memory where Ed performs Exorcism & he stops it with calling Bathsheba. These all sequences come at different intervals and scares you. Movie spurts and gives you no time to engulf the smartly penned dialogues which sound philosophical at times. Editing by Kirk Morrey and Cinematography by Leonetti is admirable.
This is not of common horror movies. This is the newest classic from Hollywood. I wish this movie be remade in India. Its needed. Star cast of movie justify their roles, especially Lily Taylor & Vera Farmiga acts so sympathetically that you feel your presence in that demonic basement where a nanny says, ‘Look what she made me to do’? The emotion flown at the climax is heart breaching. The curse of a witch, Mom wishes to surfeit her own daughter, events swaying from scary to sentimental and the evangelical end of all horror drama makes The Conjuring an all-time horror classic. If you liked the concept of Ek Thi Daayan which asked more questions than it answered, Here’s another that kind of creation. A scary treat to watch & a precarious reel to deal with, The Conjuring leads you to the world where you get to know that Demon is the absence of Giest.  

शनिवार, 27 जुलाई 2013

Movie Review

One short of History; Bhag Milkha Bhag 
Ankit Jha

Any movie is adjudged on the essence that, how it has pulled the crowd, when Milkha sprints and conquer in Pakistan, crowd gave him a standing ovation with the claps nearly less than that for Swami Vivekananda in Chicago. I didn’t witness it at the Gaddafi Stadium of Lahore in Pakistan but in the cinema hall of my city, when each action of Milkha played resplendently by ‘Movie Kumar’, Farhan Akhtar, had an equal and opposite reaction from the crowd that must be said, zealots.
An alluring confluence of the Lagaan, Iqbal, Chak de India and Pan Singh Tomar with the poignant and tendering background of Indo-Pak partition, makes ‘Bhaag Milkha Bhaag’, Indian Cinema’s best gift to its history in the 100th year. A biopic drama crafted on the life of ‘Super Sprinter’ Milkha Singh is the example of how Indian Cinema pays tribute to the legends. Although, BMB lacks the ‘Cinematic caliber of Iqbal, zeal of Chak De India, poetic narration of Lagaan and the performances of the Paan Singh Tomar, it at times betters up from all these. There are certain stupid flaws of screenplay and art direction in some scenes, like Milkha singing ‘Nanha Munha Rahi Hoon’, in 1954, whereas the song was released in 1962 and the spelling of Helsinki etc. Apart from these, movie is flawlessly scribbled and naturally acted al through, if Farhan would have adapted the violence & romance equally along with sweaty biceps & chest, this would have been a historic performance by any Indian actor.
Thing that I feel, impelled me was that, it is more stirring, emotional & it is nimbly woven into a pastiche of pathos, adversities, heartbreak & victory and it soothes the very spirit of everyone watching it. Some scenes like Milkha bringing back the golden earrings of her sister, Milkha nostalgicly meeting his childhood friend Sapreet in Pakistan, Milkha slapping him self in bathroom after losing in qualifiers, let your eyes go humid & the ultimate picturisation of Milkhas’s father asking him to run, crowd squirms. The most prominent of all is the melifulously & at times too cynical and pungent dialogues which are provoking as well as inspirational. All the dialogues are swiftly driven, more over the crimson picturisation of partition scene queers. Audiences wriggle on their seats when Milkha starts winning the races, women in Pakistan removed their veil to see him running, some moments have been exaggerated.  
At the end, it leaves behind a simple question that, ‘A sports person who was admired by even the Pakistani president ‘General Ayub Khan & the name of ‘Flying Sikh’, a super sprinter who earned Independent India its first Commonwealth gold, why is he not remembered in the manner he ought to be? Why has not Milkha, Usha or Dhyan chand got the highest civilian award of India? Why is the highest sports award not named after any sportsperson?
These questions would never be answered but we need to rummage the answers from the history. Till then we need to consider, “Sportsperson ki zindagi tapasya se banti hai, discipline se banti hai, sangharsh se banti hai…..”

शनिवार, 20 जुलाई 2013

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Howzatt!!!   Third Umpire?
                                                             - Ankit Jha
Is it justified to blame technology for the failure of an individual player on the cricket pitch? Is UDRS really swallowing the role of on field umpire or it just makes the game of Cricket more unblemished?
It was a no shiny day in Trent bridge of Nottingham, England, when Sachin Tendulkar on the verge of another magnificent hundred, having played 195 deliveries & scored 91 individual runs he defended one outside delivery from Paul Collingwood by pads, an unison appeal & God of cricket departed. Umpire was 3 times ICC Umpire of the year Simon Taufel. When the replays came out, it was clearly seen that ball was nowhere in the line of stumps, but the damage was done. Then came India’s tour Down under, new year test, Sydney, 3rd January, Australia were marginalized on 127 for 6, then 2 wrong decisions in the Australian innings & Andrew Symonds went on to make an unforgettable century. This match is counted to be one of the most controversial matches of all time. The Bucknor-Benson school of wrong decisions harmed India to lose the match by some 30 runs after suffering 9 wrong decisions.
Indian Captain MS Dhoni asking for a review
Indian Captain MS Dhoni asking for a review
The Umpire Decision Review System is a technology based system used for reviewing or questioning the decision made by the on field umpires in the game of cricket. This system was firs trialed in India vs Sri Lanka Test series of 2008, but since then it has been disliked by the Indian Cricket officials. It was officially relaunched in 2009 in Newzealand-Pakistaan Test Series. Earlier ICC made this system mandatory for all international matches which later was decided to leave it on the mutual decision of both playing teams, but it is still mandatory in all the ICC events. There are 3 basic components of this system these are, Hawk eye, Snickometer & Hot spot technology. These all technologies need no introduction for any cricket fans but for those who do not have much interest in cricket, Hawk eye is a ball tracking technology which is used for the LBW appeals. Snickometer is used for detecting sounds made by a cricket bat or pads, where as Hot spot is a technology which illuminates the contact of ball with bat or pad. A batsman or fielding captain makes a t shape for questioning the decision of on field umpires.
From the very first time it was announced, it started getting positive & negative responses. After losing the series 2-1 from Sri Lanka, then Indian captain Anil Kumble criticised this system saying it can't be 100 percent correct. There has been various arguments for & against Decision Review System but it was being implemented in the international matches except in which it was mutually decided not to be used. But During the first test match of Ashes 2013, when English Batsman Jonathan Trott was given out by the third umpire because of a certain fault in the Hot Spot technology & at the the very climax of the same test last wicket of Australia fell in the form of Brad Haddin, this time also controversially, there were many questions arisen. Although, the production company apologised from Trott was it was too late for the Right Handed no. 3 batsman for England. In the case of Haddin too, decision was given on the basis of snickometer but Hotspot didn't find any edge. More questionable was the posture of on field umpire Aleem Dar when he apologised & raised his index finger for giving out, he clearly was amazed.
Every Technology is first criticised & then it is universally accepted, in the game of cricket, Day-night matches, Third Umpire Decision System, No Runner decisions were also questioned but now it had been well settled. The first & the strongest argument against UDRS is that it diminishes the credibility of the on field umpire as questioning for a review means Batsman or a bowler is not satisfied. The sole purpose of the UDRS is to correct the wrong decision made by the on field umpire. The argument from the ICC, the governing body of international Cricket is that their motive is to make the game flawless, there should be no sope for any controversy but there has been various controversies on the third umpire decisions. There is also one school of thought that says that some faults only make the game of cricket interesting.
There is no doubt that technology assists the human, but any technology can not be 100% corect especially in the sport like cricket where Ball swing, take turns, & moves on the different surfaces differently, how can a technology be so effective. For example, an LBW appeal on the Kingsmead Durban & Green Park, Kanpur will be on different accounts as later is a slow bouncing pitch from earlier. Still today on field umpires are the more important than review system as the success rate of referals are not even 50%. The only possible way to make Cricket flawless is to use Robot on the place of umpire & those robots should have Hawk eye technology installed in them, along with hot spot & Snickometers. Like wise we will lose Umpire too like Runners & Super