शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

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"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग


 सपेरा 
                               - अंकित झा 
कहाँ आज  वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल
भूतियों का दिगंत छविजाल 
ज्योति चुम्बित जगती का भाल 
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन विस्तार?
                                                                   - सुमित्रा नंदन पंत (परिवर्तन) 

बात इसी गर्मी की है, सेमेस्टर के अंतिम कुछ क्लास लेने कॉलेज जा रहा था, सुबह का समय था. कड़ी धूप होने की तैयारी थी,  फिर जेठ की दुपहरी कौन नहीं जानता? पसीना सुबह से ही आना शुरू हो गया था. घर से पैदल दूरी पर कॉलेज है, पर बस पास की रईसी ने कम्बख्त पैरों में जंग लगा दिए थे. अब ऊंट पहाड़ के नीचे था, अपनी वाली पे. 11 का रेड लाइट पार करके सेक्टर 8 के बस स्टॉप के करीब था. तभी सामना हो गया एक सपेरे से. सपेरा क्या कहिये खौफ से. बचपन से यदि किसी भी चीज़ से डरा हूँ तो वो है साँप। गन्ने के रस के स्टाल से थोड़ा आगे बढ़ा और सपेरे के करीब। दान पुण्य का कोई ख़ास शौक नहीं रहा और सवेरे-सवेरे वो भी किसी मजबूर व त्रस्त भिखारी को नहीं वरन एक साधुनुमा भगवा वस्त्र व जटाधारी सपेरे को? कदापि नहीं। बिना ध्यान दिए आगे बढ़ गया. हाथ फैलाये वो पास आ रहा था, बिना ध्यान दिए आगे बढ़ रहा था. पिटारे से साँप निकल दिया उसने, फ़न काढ़े साँप मेरे बाईं ओर पिटारे में कुण्डली मारे बैठा था, जेब से एक सिक्का निकाल आगे बढ़ते हुए असहजता में पिटारे पिटारे कि और फेंक दिया, सिक्का साँप के फ़न से जा टकराया। साँप बौखला उठा, जटाधारी उससे ज्यादा। मेरी और बढ़ा। मैं बुरी तरह घबराया और आगे बढ़ गया। बढ़ा क्या भागा। ऐसी हालातों में हाथ अपने आप प्रार्थना में जुड़ जाते हैं और प्रार्थनायें समूचे हृदय में गूंजने लगता है। मैं घबरा के भागने लगा, सड़क के दायीं ओर भारी भीड़ जा रही थी  और मैं इधर अकेला घबराया सा भागा जा रहा था। श्रद्धा और भय में बड़ा ग़जब का रिश्ता है, उस दिन यकीन सा हो गया। कुछ ही दूर पे सेक्टर 20 कि कोतवाली, जान में जान आयी। कोतवाली के सामने जाकर खड़ा हो गया, एक ग़ज़ब सा यक़ीन कि यहाँ तो मुझे कुछ नहीं हो सकता। कुछ देर बाद जब फिर से पीछे मुड़ के देखा तो वह घूम गया था। वह आगे बढ़ गया, मैं कुछ देर खड़ा रहा, फिर से एक बार मुड़ के देखा। देखा कि एक और लड़का मेरी ही तरह मेरी ही ओर भगा आ रहा है। पता नहीं क्यों पर हंसी छूट गयी इस बार, ये सब देख के, डर मिट चूका था।

यह घटना कतई उतना खतरनाक नहीं है, परन्तु श्रद्धा के नाम पर डर दिखा के ऐसी लूट वर्षीं से चली आ रही है। सीता भी तो दान-पुण्य के चक्कर में ही रावण द्वारा हरी गयी थी। भारत में यदि सबसे आसान तरीकों से लुटना है तो श्रद्धा-भक्ति व दान-पुण्य के चक्कर में पड़ जाइये।।   

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