सोमवार, 2 दिसंबर 2013

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मोह भंग, तत्पश्चात् ??
                                                               - अंकित झा
स्वर्णिम प्रभात की आभा, तत्पश्चात? सर पर नाचती आदित्य की किरण, तत्पश्चात्? अरुण दिवाकर की लालिमा, तत्पश्चात्? खनखन करती आती संध्या का मुस्कुराता राकेश, तत्पश्चात्? रजनी में पसरता मोह का अभिसार, तत्पश्चात्? पुनः स्वर्णिम प्रभात व मोह भंग. मोह भंग, तत्पश्चात?

बड़ी अजीब शुरुआत थी. बहुत दिनों बाद लौटा हु न इसलिए। दैनिक अखबारों में हमसफ़र व हमदर्द कि कुछ बातें चल रही हैं. उच्चतम न्यायलय ने अपने एक निर्देश में स्पष्ट कर दिया कि  'लिव-इन रिलेशनशिप' कतई जुर्म या अमान्य नहीं है. अब प्रश्न यह कि ये 'लिव-इन रिलेशनशिप' क्या? भारत कि प्रगति के कई सूचक हैं, उनमें से ये नए फसल की भाषाएं भी हैं. हिंदी की नयी नस्ल। अपभ्रंशीय नस्ल। सांकेतिक व विचारोत्तेजक नस्ल। कुछ शब्दों कि तो ऐसी बहुलता हो गयी है कि पता लगाना मुश्किल है ये हिंदी है या अंग्रेज़ी? तारीफ़ है या तौहीन? बड़ी विडम्बना है. इन्ही शब्दों में से एक है- 'लिव-इन रिलेशनशिप। इसे अंग्रेजी में आप 'प्री-मेरिटल रिलेशनशिप' भी शौक से कह सकते हैं. उसी का अव्यय मात्र है. अंतर बस फ्रीक्वेंसी का है व ट्रांसमिटिंग का. इस अंतर में एक यथार्थ निहित है, यह अंतर बदलते समय व नए वर्ग कि परिपक्वता का है. परिणय अब कोई आवश्यक रस्म रह ही नहीं गया, पूर्व-परिणय सहचरी भी रहने लगे हैं अब. ये ही तो नयी नस्ल है. ज़रा याद कीजिये, सिद्धार्थ आनंद निर्देशित 'प्रीती ज़िंटा- सैफ अली खान' अभिनीत फ़िल्म "सलाम-नमस्ते". मुद्दा कुछ याद आया? नहीं, फिर ज़रा स्मरण कीजिये यश चोपड़ा निर्देशित 'अमिताभ-शशि-निरूपा' की "दीवार" के 'अमिताभ-परवीन' का रिश्ता? अब याद आया कुछ।  जी. परिणय के परे एक सम्बन्ध। प्रेम की नयी पहचान। प्रगति-प्रेम-परिणय व प्रफुल्लता का नया नाम -'लिव-इन रिलेशनशिप। भारत में ये सब कब से होने लगा? यहाँ तो परिणय का निर्णय भी अभिभावक करते हैं फिर ये सहचरी का, दो नवयुगल कैसे? भारत में? विदेशी गांड है क्या? नहीं बस नाम विदेशी है. काम व इतिहास देशी है. सम्बन्ध देशी है. प्रेम तो भारतीय इतिहास का प्रतीक रहा है. आज से नही आदिकाल से. सतयुग से अब तक. सहधर्म, सहचर, सहकर्म सभी. इस प्रेम में त्याग निहित है, सम्मान निहित है व निहित है भावना। कलयुगी प्रेम में मिलता है ये सब? मोबाइल फ़ोन के नंबर से शुरू होने वाला प्रेम व नॉट वर्किंग एनीमोर पर समाप्त होने वाला प्रेम क्या सच में वही भारतीय प्रेम है? राधा-कृष्ण व दुष्यंत-शकुंतला वाला? त्याग व समर्पण वाला? परिभाषाएं व मानक तो बदलते ही रहते हैं, प्रेम के साथ भी ऐसा ही हुआ है. तरीकें बदल गए हैं. त्याग नहीं रहा, पाने कि ज़िद्द आ गयी है. सम्मान नहीं रहा, समर्पण नहीं रहा; ख़ुशी कि चाह आ गयी है. अतः प्रेम अब प्रेम ही नहीं रह गया, जरुरत है सभी की. सभी की का अर्थ यहाँ सभ से है.
फिर आयी ये परिणय। छोड़िये कोई अनुभव नहीं है. और अनुभूति को क्या व्यक्त करूँ? आते हैं 'लिव-इन रिलेशनशिप' पर. प्रेम की कोई वैद्यता नहीं होती, धोखे तो होते ही रहते हैं. पहले ये त्याग कहलाते थे. परन्तु परिणय की वैद्यता आवश्यक है, उतनी ही आवश्यक है प्रेम व परिणय के बीच की कड़ी कि वैद्यता। सबसे आवश्यक। उच्चतम न्यायलय का ये अहम फैसला है।  ऐसे हज़ारों उदहारण देखने, सुनने व पढ़ने को मिल जायेंगे जिसमे २ से लेकर २० वर्षों तक के रिश्तों के पश्चात एक दम से सभी नाते तोड़ दिए गए व सहचरी को कानून का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा. इन्साफ मिला, मुआवज़ा मिला परन्तु हक़ नहीं। रिश्ता नहीं। प्रेम नहीं। फिर ऐसे बीच में लटके ऐसे रिश्ते का क्या मतलब? जहाँ पर मजबूरी के इतने अधिक आशाएं हैं. प्रेम में बच्चे गलतियां करते हैं. न्यायपालिका कब से करने लगी? नहीं, ये कोई गलती नही, क्रन्तिकारी बदलाव के प्रति प्रथम कदम है. कईं सारे उदहारण है, पढ़ियेगा अवश्य। 
सब कहते हैं कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' पाश्चात्य सभ्यता कि देन है, गलत. कतई नहीं। भारत से अधिक  कानूनी करामातें हैं विदेशों में. कनाडा, अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में या पूर्णतः विधि के अंतर्गत आता है व कानूनी प्रक्रिया पूर्ण करने के बाद प्रारम्भ होता है. समस्या ये है कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' अधिकांशतः दुखांत ही हुए हैं. सफलता के ज्यादा उदहारण नहीं है. जहाँ पर अपना अधिकार माँगा जा सका है न बच्चे के लिए पिता का नाम. फिर ये तो होना ही था. सपनो कि नगरी को ध्वस्त होने में समय ही कितना लगता है? सिर्फ नींद खुलने तक का. प्रेम को किसी नाम कि अपेक्षा नहीं , आवश्यकता नहीं। बेनाम ही अच्छा, बदनाम होने से तो. यौवन कि विषमताएं बहुत हैं. बुद्धि व समझ को टाक पर रख कर लिया गया फैसला अंततः घटक ही सिद्ध होता है. इसका कटाई ये मतलब नहीं कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' बुरा है. वैवाहिक औपचारिकताओं कि न सोंच यदि कानूनी रूप से प्रेम सम्बन्धों को नया नाम व आयाम दिया जा रहा है तो क्या गलत है? विचार कीजिये।
सोंचने का कोई कर नहीं लगता।।।।।।।

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