बुधवार, 25 दिसंबर 2013

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गर्मी की लपट में ठिठुरती ज़िंदगियाँ 
                                                                    - अंकित झा 

"दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा  चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं,  हक़ बाँटने वाले बहुत कम। समस्या बाँटने वाले बहुत होतेहैं, परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले।"

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
                                                   - रामनाथ सिंह “अदम” गोंडवी
कुछ आवश्यक सा लगा इन पंक्तियों को लिखना, काफी विचारोत्तेजक पंक्तियाँ हैं, अंदर तक झकझोरने वाली। आज कल के हालत भी तो ऐसे ही हैं, 4 महीनो से अधिक हो चुके हैं, उस काले अध्याय को गुजरे, कई गिरफ्तारियां, कई केस और सजाएं परन्तु दर्द तो कम नही हुआ, एक अज़ीब से ज़िद्द से जन्मी वो झंझट आज एक विकराल से दर्द में तब्दील हो चुका है। ये दर्द है अपने ज़मीन से बिछरने का, ये दर्द है अपनों से बिछरने का, ये दर्द है राजनीतिक मोहरा बन जाने के डर का, ये दर्द है अपनों के खोने का, ये दर्द है निरंतर एकाकी में ज़िन्दगी बिताने का। चहुँ ओर दर्द ही दर्द। उनका भी जिनके अपने मारे गए, उनका भी जो मारे गए, उनका भी जिन्होंने मारा। जिन्होंने मरने दिया उनका कोई दर्द नहीं, बस डर है साख जाने का। सब समझ गए कि बात कहाँ की चल रही है, नाम ही ऐसा है, दर्द ही ऐसा है, मुज़फ्फरनगर। अगस्त महीने का वो आखिरी सप्ताह, सावन की फुहार के बाद उमसा सा वातावरण, ये उमस ये उदासीनता एक अनहोनी की सौगात थी, वो अनहोनी जो मुज़फ्फरनगर के कवाल गांव में घटने वाली थी। प्रकृति को सब पता है, कारण स्पष्ट न हो सका; ये रोड एक्सीडेंट से शुरू हुए नोकझोंक का परिणाम था या तथाकथित ज़िहाद लव का, कि एक मुस्लिम लड़के (शाहनवाज क़ुरैशी) ने पडोसी गांव की जाट लड़की से छेड़छाड़ की, जिसके बदले में, लड़की के भाइयों(सचिन व गौरव) ने शाहनवाज को जान से मार दिया और इसके विरोध में गांव के चौराहे पर एक संप्रदाय विशेष के लोगों ने दोनों भाइयों को समाप्त कर दिया? इस घटना ने तूल पकड़ी और बढ़ती राजनीतिक हस्तक्षेप के पश्चात महासमर में परिवर्तित हो गया। वो महासमर जिसने 43 ज़िंदगियों को अपने ग्रास में ले लिया। कारण सिर्फ एक, मतभेद, क्रोध, प्रतिशोध। जो नाम दे उस दीवानगी को, निर्भर करता है। 
वो एक जूनून था जो गुजर गया, पर अपने निशान छोड़ गया। दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं, हक़ बाँटने वाले बहुत कम समस्या बाँटने वाले बहुत होते हैं,परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले। इस दंगे के भी यही कुछ परिणाम होते गए। धीरे-धीरे जान बचा के सभी लोग गांव छोड़ने पर मजबूर हो गये, विस्थापन का दंश मानव इतिहास के सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है, विस्थापन और एक दंगे के बाद अपनों से अलग होना, अपनों की सुरक्षा के लिए, उसका दर्द कौन बयां कर सकता है? आंकड़ों की माने तो 9000 परिवारों के 50,000 लोगों ने कैंप में शरण लिया। मुज़फ्फरनगर व शामली ज़िलों को मिला के कुछ ४० कैंप लगाये गए थे। हालत सुधरने के बाद कुछ लोगों ने लौटना चाहा परन्तु, फिर से छोटी मोटी हिंसा इलाके को दहलता रहा, जिससे ख़ौफ़ बढ़ता ही गया, और अब वो समय आ गया है, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ठण्ड अपने चरम पर है, तथा राजनीतिक विवशताएं ऐसी कि न लौटने को कह सकते हैं न रुकने को। अब तक कोई 34 बच्चे ठण्ड से अपना दम तोड़ चुके हैं, इन कैम्पों में। सुध लेने वाला कोई नहीं, लकड़ी और दवाइयां पहुँच रही हैं पर पर्याप्त नहीं। गोद खुद कांप रहे है, वो ठण्ड से कैसे बचाये? कौन क्या करेगा और क्या कर लेगा? कुदरत को तुमने चुनौती दी तो कुदरत तुम्हारी आजमाइश क्यों न करे? ऊपर से अकर्मण्य प्रशासन, हालत काबू करने के बजाए गंद बयानों से मुद्दा भटकाने की भद्दी कोशिश। कोई कहे कि कैम्प में अब कोई पीड़ित नहीं, विपक्षी पार्टियों के लोग छुपे बैठे हैं। कोई कुछ तो कोई कुछ। रोटियां सेंकने वालों की भी कमी नही है। सब बारी-बारी पहुँच रहे हैं, मदद ले कर नहीं, आश्वासन लेकर। उन्हें आश्वासन दे कर क्या कर लेंगे? क्या शाज़िया को उसका बेटा लौटा देंगे आप नेताजी जिसकी पिछले दिनों ठिठुरते हुए मौत हो गयी या फिर इरफ़ान की बूढी खाला को लौटा देंगे, जो गांव से कैंप के रस्ते में ज़िंदगी से हार गयी। या फिर रमेश के दोस्त शाहिद को वापस ले आएंगे जिसे वो आज भी स्कूल जाते समय अनजाने ही बुलाने चला जाता है, तौफ़ीक़ का वो मासूम बचपन जो आज भी यही प्रार्थना गाता है, "ये अँधेरा घना छा रहा, तेरा इंसान घबरा रहा, हो रहा बेसबर कुछ न आता नज़र। सच का सूरज छिपा जा रहा
अब तो हे प्रभु तुमसे ही ये गुहार है कि है तेरी रौशनी में वो दम जो अमावस को कर दे पूनम। इंसान आखिर कब इंसान से लड़ना बंद करेगा? ये समर कब समाप्त होगा, जिससे सिर्फ नबफरत और दर्द ही उपजते हैं। कैसे कोई ये कह गुजरता है कि कूड़ेदान में 10 वोट आ गिरे हैं, उसे लूटने की तैयारी चल रही है। 
कब तक गर्मी की लपट में तबाह हुआ जीवन ठण्ड में ठिठुरता रहेगा? कब तक ठण्ड में भी राजनीती माहौल को गर्म बनाये रख्रगी? कब तक? कब तक? जवाब का इंतज़ार रहेगा 

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