शनिवार, 28 दिसंबर 2013

Analysis

इंसानियत और हवस के मध्य चिंघारता इंसाफ  
                                                                                            - अंकित झा 

यह कुछ नया सा प्रयास है, साल के कलंको और कबिलियतों को नए ढंग से याद करने का। काफी कुछ घटा है साल, कुछ बातें भुला दी गयी, कुछ भुलाये नहीं भूलती। कहीं कुम्भ की भक्तिमय साँझ की आरतियाँ गूंजती रही तो, कुम्भ में फैली भगदड़ में हुई मौतों पर आँखें भी नम हो आयीं और रूह भी कांप गया, अफ़ज़ल गुरु को फांसी, हैदराबाद में बम धमाके, दामिनी को गुजरे कुछ महीने ही हुए थे, और एक 5 साल की नयी दामिनी सामने आयी, गुड़िया नाम दिया गया, वही आक्रोश और जनक्रांति। फिर सुदीप्त सेन की ऐतिहासिक धांधली, शारदा चिटफंड का पर्दाफ़ाश, उत्तराखंड में आया महाप्रलय, सचिन तेंदुलकर का संन्यास, प्राण का निधन,  आसाराम की गिरफ़्तारी, ऐतिहासिक फैसले, आप क्रांति की सफलता और न जाने कितने ही ऐतिहासिक और दुखदायी क्षण। 2013, उठापटक से भरा साल रहा,परन्तु एक घटना जिसने मानवता को अंदर तक झकझोर के रख दिया वो था, मासूम गुड़िया के साथ किया गया दुष्कर्म। पृष्ठभूमि पर जाना नही चाहता, फिर भावनाएं उफान पे आ जाएंगी, शांत ही बैठना चाहता हु, परन्तु चुप नहीं।   नीचे लिखे पंक्तियों को पढ़ें- 

तो उसने भर कर आंखों में आंसू का मोती कहा
तेरी अच्छी किस्मत है जो तू जनम नहीं लेती
जनम लेकर भी आखिर तू किया करेगी
इस दुनिया में औरत का कोई सामान नहीं 
(Save the girl CHILD)

गुड़िया के साथ किया गया ये दुष्कर्म, साल के वीभत्सतम घटनाओं में से एक रही, इस पर क्षोभ से लेकर, दुःख, आक्रोश और सजा की मांग मुझे दो फिल्मों की याद दिलाती है, पहली है महेश मांजरेकर निर्देशित संजय दत्त व नंदिता दस अभिनीत साल २००२ की 'पिता'। तथा दूसरी है, 2004 में आयी मेहुल कुमार निर्देशित 'जागो'। दोनों ही फिल्में नाबालिग के साथ दुष्कर्म जिसे अंग्रेजी में ( Child Sexual Abuse)  कहते हैं। इस अति संवेदनशील मुद्दे पर मुख्यधारा की ये दो अच्छी फिल्में मेरी ज़ेहन में सुरक्षित हैं। हालाँकि दोनों ही फिल्में कमाई  में असफल रहो परन्तु इन्साफ के लिए किये गए संघर्ष की ये दोनों ही फिल्में एक अद्भुत उदहारण के रूप में पेश की जा सकती हैं। 
पिता: एक्शन फिल्मों के दो जाने पहचाने चेहरे संजय दत्त व महेश मांजरेकर, इससे पूर्व वास्तव जैसी फ़िल्म दे चुके थे, वास्तव कई मामलो में उत्तम फ़िल्म थी। तथा संजय दत्त ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी इसी फ़िल्म में दिया है, परन्तु जब मुख्यधारा के दो चेहरे कला साम्राज्ञी नंदिता दास के साथ एक शांत व उत्तेजक सिनेमा के लिए साथ आये तो उसका नतीजा रहा, एक विलक्षण सिनेमा। जिसका नाम है, पिता। हालांकि ये श्याम बेनेगल व सुधीर मिश्रा नुमा सराहनीय प्रयास नही था, परन्तु एक अच्छी फ़िल्म थी। फ़िल्म का पहला घण्टा इतने नाटकीय रूप से गढ़ा गया है कि फिल के किरदार दो भागो में बटते हैं, अच्छे और ज़ालिम। कहानी एक गांव की जहाँ पर ठाकुर अवध नारायण सिंह की हुकूमत है, उसके दो बेटे हैं और एक बेटी है, वहीँ दूसरी ओर उसके सबसे वफादार नौकर,रूद्र का परिवार है, उसकी पत्नी पारो, दो जुड़वाँ बेटे और एक ९ साल की बेटी, दुर्गा। कहानी में मोड़ तब आता है, जब रूद्र को पता चलता है कि उसकी मासूम बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ है, और ये जघन्य दुस्साहस किसी और ने नहीं बल्कि ठाकुर के दोनों बिगड़ैल बेटों ने किया है, फिर शुरू होता है दो पिता का अद्भुत संघर्ष। इन्साफ और साख की अनोखी लड़ाई। एक तरफ पैसे और पॉवर है तो दूसरी ओर सत्य और इन्साफ का जूनून। अंततः सत्य की विजय होती है, परन्तु बहुत कुछ खोने के बाद। 
फ़िल्म में रूद्र के किरदार में संजय दत्त है, उन्होंने इससे पहले ऐसा चरित्र कभी नही निभाया, और ऐसा अभिनय भी कभी नहीं किया, ये उनके करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था, पहली बार किसी फ़िल्म में उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से झोंक दिया, दूसरी ओर नंदिता दास हमेशा की तरह  ख़ामोशी से बहुत कुछ बोलने का प्रयास करती हैं, और हर दृश्य में बेहतरीन अभिनय का मुजायरा, ठाकुर के किरदार में ओम पूरी जान डालते हैं, परन्तु कई बार वो अति आत्मविश्वास का शिकार होते हैं, परन्तु वो एक विलक्षण अभिनता हैं,  किरदार में जॅकी श्रॉफ संतुष्ट करते हैं। संगीत बहुत कमजोर है, पार्श्व संगीत और कला निर्देशन फ़िल्म की जान है। 
परन्तु ये एक अच्छी फ़िल्म थी, इसलिए नहीं क्योंकि ये ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित थी, और एक अहम् मुद्दा उठती है बल्कि इसलिए क्योकि तेज के द्वारा लिखित इस कहानी में सामंती व्यवस्था पर कटाक्ष है तथा साम्य वाद की एक झलक है, एक पिटा का दुसरे पिता से संघर्ष है, एक बचपन के लूटने की व्यथा है, एक माँ के दो बेटों को बचने की दारुण कथा है, एक माँ के आत्मा के दागदार होने की कथा है, एक ठाकुर के साख व इन्साफ के अग्निपरीक्षा की कथा है, और एक नाबालिग के अस्मिता लूटने के दुस्साहस की कथा है। मनुष्य के उत्तम से न हटने की ज़िद्द का आह्वान करने वाली ये फ़िल्म भारत के 100 वर्षों के सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में कटाई स्थान नहीं बनाता परन्तु मानवीय करुणा के गलियारों में ये शीर्ष मुकुट का हक़दार है

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