गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

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मिथिला में मॉल???!!!!!!
                                                          - अंकित झा 

उस राह पर चलते गए जिस राह पर राहगीर न मिले,
शहर की भीड़ में मुझे शायर तो मिले, पर कबीर न मिले।।।

3 सालों कि खबासी और सूद अब तक चूका रहे हैं, कुछ नया हुआ नहीं कि अपनी मनहूस यादें लेकर बैठ जाते हैं मिथिला की बात करने के लिए. सब सोचेंगे अब नया क्या हो गया? फिर लड़ाई हो गयी क्या मेरी मिथिला के नए आशिकों से?(http://mraindian.blogspot.in/2013_06_01_archive.html) नहीं फिर से नहीं। इस बार कुछ ज्यादा बड़ा घटा है. सुना है मिथिला में मॉल खुला है, जी हाँ मिथिला में मॉल खुला है. सीतामढ़ी, अरे वहीँ जहाँ माता सीता प्रगट हुई थीं, लिच्छिवियों कि भूमि व बिज्जीका भाषियों का गढ़. सीतामढ़ी। मेरे गाओं के करीब ही है, ज्यादा दूर नहीं। सुनने में आया था कि वहाँ कि बहनें आज भी अपने भाइयों के लिए 'सामा-चकेबा' के गीत गाती हैं कार्तिक में. सच कह रहा हु बस सुनने में आया है. जितना मैं उस भूमि के बारे में बताना चाहता हु उतना ही पीछे हटने का मन करता है, न जाने क्यों, पर करता है. सबसे बड़ी बात कि वो मेरे पिता सहित हमारे पूरे परिवार कि जन्मभूमि है, उसपे से आने जीवन के अहम् ४ वर्ष वहां बिताये हैं तो फिर कैसे न वो यादें सताएं मुझे। मध्य प्रदेश का भूत तो मुआ अब जवानी में जा के चढ़ा है, वर्ण बचपना तो आज भी बिहार कि उस गंगा कि चिकनी सफ़ेद मिट्टी में लोट लगा रही है. बासोपट्टी का वो बभिन्दयी पुल, जो ना  जाने  कब से बन रहा है, अब भी पूरा नहीं हुआ है. उस तालाब  के बारे में किवदंतियां, जिसे 12 राक्षसों ने एक रात में बनाया था, या फिर धत्ता पर का वो भूतहा आम की गाछी, जहां पर जा के ठहरने की वीरगाथाएं सभी युवा झूठा ही सही पर सुनाते हैं. उसी माटी कि सौ ख़ुशी नहीं हुई मॉल के बारे में सुनकर बिलकुल भी. मिथिला को मॉल कि क्या जरुरत आन पड़ी, वो भी मुजफ्फरपुर या समस्तीपुर या दरभंगा में नहीं बल्कि सीतामढ़ी में? कमाई या खर्च का नया रास्ता। अच्छा रास्ता तो है। परन्तु कितना समृद्ध होगा कौन बतायेगा? 
फ़ोटो :the indian express
मिथिला के लोगों कि एक बड़ी ख़राब आदत है, तुलना करने की. इतनी खराब कि उन्हें लंदन घुमा दीजिये, कहेंगे कि पटना से खली जगह में बड़ा है, नहीं तो कंकरबाग का मार्किट छोटा है का? नहीं तो गांधी मैदान क्या लॉर्ड्स से छोटा भी है. इसीलिए कभी कभी चिढ जाता हु पर यही तो उसे खास बनती है. अब मुझे ही देखिये तुलना ही तो करने जा रहा हूँ. मॉल का खुलना कटाई कोई नयी घटना नहीं है, मार्केट हुआ करते थे अब ऊपर से छत लगा के वो मॉल कहलायेंगे पर वो ऊपर कि छत सिर्फ एक बार ही सुकून दे पायेगा। मीना बाज़ार कि तरह बार बार नहीं या फिर गोगिया सर्कार के जादू कि तरह बार नहीं। आइयेगा एक बार, याद करियेगा बार बार. दरी पे बैठना है 15 रुपैया, कुर्सी पर बैठना है 25 रुपैया और किसी न किसी औरत का दरी को महत्व्पूर्ण समझकर उसका दोहन करना। मिथिला का रास है. मॉल खुल गया अर्थात, मेले अब मर जाएंगे, जो सिर्फ हुकुर हुकुर सांसे भर रहे थे वो साँसे भी अब छीन ली. अभी नवम्बर के पहले ही हफ्ते में अर्थात दीवाली पर ही तो मिथिला को अपना ये मॉल मिला है, राजनीतिक ईंट, कांच और सीमेंट से निर्मित। भाजपा विधायक सुनील कुमार पिंटू ने ही टी इसका अनावरण किया, राजनीती के बिसात पर. काफी दुःख और खेद के साथ कहना पद रहा है कि सीतामढ़ी जैसा ज़िला जो अपने मिथिलेश नंदिनी के जन्म के लिए जाना जाता है, अब तीन मंज़िले बाज़ार कलकत्ता के बाहर अपने युवाओं का हुरदंग देखेगी। होता आया है होता रहेगा। इंद्र पूजा और गणेश पूजा के मेले अब बस यादों का हिस्सा बन जायेंगे, हो सकता है मेरी बातें कुछ कुछ रूढ़िवादी लग रही हो पर सत्य कई बार ऐसा ही होता है. आगे बढ़ने का मतलब अपने रिवाजों को पीछे छोड़ना कब से हो गया? शादी में अब पनीर और फ्राइड चावल परोसे जाने लगे हैं परन्तु गौना के दिन का बपफर कौन भुला सकता है? कोई नहीं मैं तो कतई नहीं। मॉल तो आवश्यक हैं, आधारभूत संरचना के इए भी व अर्थव्यवस्था के लिए भी. पर रिवाज़, परम्पराएं व संस्कृति का क्या? ऐरावत हाथी पर बैठे देवराज का क्या? एकदंत गणेश का क्या? जनकनंदिनी का क्या? कुछ तो सोंचो मिथिलावासियों कि मॉल में जब साम कार्नर होगा तो कितना मज़ा आएगा। दुसरे मंज़िले पर जब आल्हा गया जाएगा और पिज़्ज़ा व बर्गर कि जगह बघिया व स्पंज मिठाई अलोंग विथ मालपुआ खिलाया जाएगा। 
तब तक मॉल का मज़ा लो, जब तक कुछ नया नहीं होता या फिर मुझे मिथिला के लीचियों कि याद नहीं आती, सिनुरिया आम के बाद।।

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