शनिवार, 28 दिसंबर 2019

चलते चलते

पाकिस्तान के पूर्व तेज़ गेंदबाज़ शोएब अख्तर के दानिश कनेरिया के साथ किये जाने वाले भेदभाव की बात भारत में मोदी मीडिया ज़ी न्यूज़, टीवी 9 भारतवर्ष आदि के लिए संजीवनी बन के आया है। पाकिस्तान को बुरा कहने के इस सुनहरे अवसर को ये चैनल ऐसे भुना रहे हैं जैसे कुछ नया हो रहा हो और वो साबित करने में जुट गए हैं कि उनके पिता श्री मोदी ने और सौतेले पिता अमित शाह ने कितना आवश्यक काम किया है भारत के नागरिकता कानून में संशोधन ला कर।
मुझे यह अचरज में नहीं डालता क्योंकि 2005 के आस पास जब पाकिस्तान के बेहतरीन बल्लेबाज यूसुफ योहाना ने जब धर्मांतरण कर अपना नाम मोहम्मद यूसुफ किया था तब भी धर्म के नाम और किये जाने वाले भेदभाव व शोषण का मुद्दा खूब उठा था। यह सब पाकिस्तान में होना आम नहीं है परंतु इतना अचंभित करने वाला भी नहीं है। इसीलिए वो पाकिस्तान है, एक हताश देश जो अपनी नींव में उलझा हुआ है। लेकिन इससे भारत अपनी पीठ क्यों थपथपा रहा है? अगर शोएब अख्तर का खुलासा इतना आवश्यक है तो क्या मुम्बई रणजी खिलाड़ी अभिषेक नायर का खुलासा भूल गए जिसमें वो अजीत अगरकर, अमोल मजूमदार जैसे खिलाड़ियों पर उनपर जातिगत टिप्पणी व उनके साथ किये गए भेदभाव की बात करते हैं? नहीं भूलना चाहिए। शोषण समाज मे निहित है। जाति, धर्म, वर्ग, रंग, नस्ल और ना जाने कितने ही रूप में। भारत कतई पाकिस्तान नहीं है। भारत वो है जो पाकिस्तान नहीं है। और भारत को पाकिस्तान जैसा बनना भी नहीं चाहिए।
ख़ैर, दानिश कनेरिया ने सफाई दिया कि वो पाकिस्तानी हिन्दू होने में गर्व करते हैं और तमाम भेदभाव के बावजूद उस देश ने उसे प्यार दिया है।
PS: और जो देश में आज संघर्ष जारी है, इसी भेदभाव को खत्म करने की है। ताकि हमारे वर्ल्ड कप के हीरो जो देश मे अल्पसंख्यक धर्म से हैं फिर वो ज़हीर खान हों, मुनाफ पटेल, हरभजन सिंह या वर्ल्ड कप के महानायक युवराज सिंह, इन सब पर भविष्य में भारतीय नागरिक होने का सबूत देने की आवश्यकता ना पड़े।
जय हिंद। ज़िन्दाबाद।

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

चलते चलते

फ़ीस सिर्फ़ एक बहाना है
- अंकित झा 
इस समाज में किसी लड़की पर सबसे बड़ा लांछन किस बात का लग सकता है? यही ना कि उसका आचरण ठीक नहीं है। कपड़े छोटे पहनती है, सिगरेट शराब पीती है, लड़कों के साथ घूमती है और शायद शादी से पहले शारीरिक संबंध बना चुकी है। यही न? और लड़कों के लिए?
* इस पोस्ट को आप कहीं जेंडर एंगल से ना देख लें।
पहले पढ़िए।
हाँ, और लड़कों को? यही कि इतना बड़ा हो गया कमाता नहीं है, नशा करता है, बड़ा बेटा है और फिर भी खाली बाप से पैसे मंगवाता रहता है। लेकिन दोनों के ऊपर संयुक्त रूप से यदि एक कुपढ़ समाज में लांछन लगेगा तो यह लगेगा कि ये लोग पढ़ाई लिखाई के नाम पे खाली गन्द मचा रहा है। ज्यादा लिबरल हो गए हैं। यही सब न?
हम सब ने इतने वर्षों से मिलकर एक कुपढ़ समाज बनाया है। वो समाज जिसके पढ़ने का भी कोई अर्थ निकला नहीं। यही स्थिति तो है वर्ना अपने हॉस्टल में बढ़े फीस के विरुद्ध आवाज उठा रहे छात्र-छात्राओं के विरुद्ध ही कोई क्यों बोलेगा?
इसलिए कि वो लोग देशद्रोही हैं?
उस संस्थान में पढ़ने वाले कितने छात्र-छात्रा बैंक से लोन लेकर विदेश भाग गए हैं?
कितने छात्र-छात्राओं ने झुंड बनाकर किसी एक व्यक्ति को जान से मार दिया है?
कितने छात्र-छात्राओं ने एक दुर्घटना में मृत व्यक्तियों की चिता की झांकी बनाकर शहर भर में घुमाया है?
कितने छात्र-छात्राओं ने 50 दिन में बदलाव ना हो तो चौराहे पर लटका देना बोलकर सैकड़ों की जान ली हो सिर्फ अपने हिस्से का पैसा निकालने में?
कितने छात्र छात्राओं ने 1 के बदले 10 मारने की खुली चुनौती दी है?
कितने छात्र छात्राओं ने 15 मिनट के लिए पुलिस हटाने की धमकी दी है?
कितने छात्र छात्राओं पर शारीरिक शोषण, यौन शोषण, हत्या, दंगे के आरोप हैं?
कितने? कोई संख्या है?
क्या आपको पता है बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हॉस्टल का फीस कितना है? 3000 रुपये सालाना। मतलब? 250 रु महीने। क्या बोलेंगे पंडे एक बारे चंदन लगाने का ले लेते हैं। और हाँ नार्थ ईस्ट हिल विश्वविद्यालय का? 1800 रु सालाना। मतलब? 150 रु महीने। बोलेंगे इससे ज्यादा तो गुवाहाटी से शिलांग आने में लग जाते हैं। लगभग सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय में फीस ऐसी ही होती है। क्या यह भी बताने की आवश्यकता है कि शिक्षा किसी भी सरकार का एक मुख्य कर्तव्य है। ये मोदु बाबू कुछ खास नहीं है जिनपर दवाब पड़ रहा हो।
फीस और देशद्रोह जैसे मुद्दों की आर में अपनी वैचारिक मतभेद का रोटी सेंकना बन्द करें। ये देश संघ का नहीं है। संघ से पहले भी देश था, संघ के बाद भी देश रहेगा और संघ के दौरान भी देश है। ये देश संघ को चुनौती वाला देश है। वैचारिक मतभेद का सम्मान करना सीखिए, वैचारिक मतभेद पर घुसपैठ करना इस देश में परंपरा रही है। वो परंपरा आपको मुबारक। इस देश में अपने विचार की रक्षा के लिए वर्षों बलिदान भी दिया गया है, अपनी स्वायत्ता की रक्षा के लिए देश वर्षों लड़ा है। आगे भी लड़ेगा। आज जे एन यू। कल कोई और। फिर कोई और। यूँ ही चलता रहेगा।
लेकिन आज तो जे एन यू जीतेगा। ये तय है।
ज़िन्दाबाद।।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

परिवर्तन से परे

'संघ'र्ष का दौर है, संघर्ष तो करना पड़ेगा।।

- अंकित झा 

वर्ष 2015, तारीख़ 19 मई। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में एम ए प्रवेश के लिए ‘समाज शास्त्र’ की प्रवेश परीक्षा देने जा रहा था। पिछले तीन वर्षों में दिल्ली में रहते हुए जो सपने देखे थे वो सब आज काग़ज़ पर लिखने का समय था। टाटा इन्स्टिटूट में जाना चाहता था पर फ़ीस ज़्यादा थी, अब एम ए के लिए इतना ख़र्च करने का मन नहीं था और इसीलिए जामिया के कन्वर्जेंट जर्नलिज़म और मास कम्यूनिकेशन में भी अप्लाई नहीं किया था। ऐसा नहीं था कि अगर पापा को कहता तो वो पैसों की व्यवस्था नहीं कर पाते लेकिन तीन बच्चों को पढ़ा चुके पिता पर और दवाब डालने का मेरा मन नहीं किया। फिर जे एन यू का ही सहारा था। लेकिन जब प्रश्न पत्र आया तो सारे सपने चकनाचूर होते दिखे। इतना पढ़ने और समझने के बाद भी शब्दों और विचारों का अभाव लगने लगा और नतीजा यह रहा कि परीक्षा में असफल रहे। ऐसा लगा अब शायद पत्रकारिता में नौकरी ही लेनी पड़ेगी और जे एन यू का वो हसीन सपना अगले साल फिर से देखा जाएगा। हालाँकि दिल्ली विश्वविद्यालय में दाख़िला हो गया और फिर जे एन यू का सपना 2 साल के लिए टाल दिया। जे एन यू का सपना सिर्फ़ एक सपना नहीं था, वो उस जगह जाने का, वहाँ पढ़ने का, वहाँ की दीवारों से मित्रता करने का, वहाँ के पुस्तकालय में किताबों की गंध लेने का, वहाँ के हॉस्टल में अपनी दीवारों को सजाने का और सबसे आवश्यक विचारों के महसागर में गोते लगाने का सपना था।
फिर उस सपने के 1 वर्ष के अंदर ही जे एन यू पूरी तरह राष्ट्रीय न्यूज़ बन चुका था। सामाजिक-राजनैतिक व राष्ट्रीय चेतना के लिए जाना जाने वाला संस्थान आज देश द्रोही बन चुका था। उस संस्थान पर आरोप लगे कि वहाँ पर ख़तरनाक नारे लगे, देश विरोधी टाइप के। ख़ैर, ये वो दौर था जब एक वर्ष के अंदर एक तरफ़ गोविंद पनसारे और एम एम कलबुर्गी को मारा जा चुका था, एफ टी आइ आइ में छात्र-छात्राएँ एक निहायत ही अयोग्य निदेशक के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे, यू जी सी द्वारा नॉन नेट वज़ीफ़ा ख़त्म करने के विरुद्ध अलग अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले ‘ऑक्युपाई यू जी सी' का संघर्ष कर रहे थे, और संस्थानात्मक चक्की में पिस कर रोहित वेमुला ने अपना जीवन समाप्त किया था। 20 फ़रवरी 2015 को कॉमरेड पनसारे की हत्या से शुरू हुए कोलाहल ने एक वर्ष के अंदर ही छात्र संघर्ष का नया इतिहास लिख दिया था। कश्मीर-पंजाब से लेकर तमिलनाडु के छात्र संघर्ष कर रहे थे। इसी बीच वो हुआ जो छात्र संघर्ष इतिहास में पहले नहीं हुआ था। प्रदर्शन तो बहुत हुए थे परंतु 1 फ़रवरी को छात्र-छात्राओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किया जिसमें पुलिस बर्बरता में कई विद्यार्थी बुरी तरह घायल हो गए। यहाँ से शुरू हुआ एक संस्थान बनाम संघ का संघर्ष। वर्षों से आ रहा वैचारिक मतभेद अब वैचारिक कलह बन गया। क्योंकि सत्ता थी संघ के पास तो सिद्धि भी उसे ही मिलनी थी।
देश में प्रगतिशील छात्र-छात्रा आंदोलन अब अपने सबसे मुश्किल दौर में आने वाला था। अब प्रश्न करने वाले सिर्फ़ क़ानून को ही नहीं आम जैन को नापसंद होने लगे। पहले कहा जाता था “पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब” उससे आगे बढ़कर अब उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को “करदाताओं के पैसे पर ऐश करने वाले” क़रार दे दिए गये। ये विचार में आग लगाने वाला दौर आ गया। छात्र-छात्रा एक समृद्ध समाज की नींव हैं लेकिन यहाँ पर उन्हें दूसरों के पैसों पर पालने वाले नकारा वर्ग घोषित कर दिया गया, प्रश्न करने की समझ को सरकारविरोधी और चर्चाओं को देशद्रोह के लिए किया जाने वाला षड्यंत्र घोषित कर दिया गया। ये आश्चर्य और अचरज का ही दौर है। यहाँ 26 वर्ष की उम्र में नौकरी करने वाला युवा 28 वर्ष में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र पर एहसान करने की मुद्रा से बात करने लगा ऐसे जैसे उसकी शिक्षा का ख़र्च वो वहन कर रहा हो। कहने लगे यदि माँ-बाप के पास पढ़ाने को पैसा नहीं तो बेहतर है नौकरी करो और इस क़ाबिल बनो कि माँ-बाप का ख़र्च उठा सको। हम सबको इस ‘श्रवण कुमार सिंड्रोम’ से बाहर आना होगा। माँ-बाप हमें पालते हैं, व्यापार के लिए निवेश नहीं करते, वो उम्मीद करते हैं परंतु कॉंट्रैक्ट साइन नहीं करते। उनकी भी इच्छा हो सकती है एक शिक्षित पुत्री-पुत्र के माँ बाप कहलवाने का। और ऐसा सबको होना चाहिए। सभी अलग हैं और सबकी अपनी प्राथमिकता। शिक्षा ग्रहण करने की कोई उम्र नहीं और ना ही उसके लिए ख़र्च वहन करने की विवशता। शिक्षा राष्ट्र के प्रति की गयी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। कोई इस 26 वर्षीय ज़िम्मेदार करदाता को बताए कि इस देश में “प्रौढ़ शिक्षा, जीवनपर्यंत शिक्षा जैसे कोर्स भी हैं और उन्हें पढ़ने वाले विद्यार्थी भी। वही प्राथमिकताएँ।
अब आते हैं फ़ीस पर। क्या जब आप छोटे थे तो महीने के वो दिन याद हैं जब आपके माता-पिता को आपके स्कूल के दरमाहे के लिए व्यवस्था करना पड़ा हो? अगर याद है तो मुझे विश्वास है हॉस्टल की बढ़ी फ़ीस पर आप भी क्रोधित हुए होंगे। और अगर नहीं भी याद तो एक बार उस स्थिति को सोंच कर ही देखिए। मुझे याद है। घर में सबसे महँगी शिक्षा मेरी रही है। और मेरे स्कूल में बढ़ते बढ़ते लगभग सभी भाई-बहन कॉलेज पहुँच चुके थे। फिर भी महीने में वो एक दिन तो आता ही है जब चिंता करनी ही पड़ती है। पिता आपको एहसास नहीं करवाते लेकिन उन्होंने चिंता की होती है। आप उस चिंता को उस उम्र में नहीं समझ सकते। लेकिन इस उम्र में तो समझ सकते हैं। अगर समझ पाते तो विश्वविद्यालय को धर्मशाला कहकर प्राइम टाइम में ख़बर नहीं दिखाते। ये वो पत्रकार हैं जिन्होंने सैकड़ों करोड़ माँगे थे एक ख़बर को ना दिखाने के। ख़ैर, हम लोग भावनाशून्य हो रहे हैं नहीं पता था। क्या शिक्षा सस्ती नहीं होनी चाहिए? अमीर को फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उनके पास ग़रीब बहुत हैं अपना सर्वस्व सौंपने को। लेकिन इस मध्यम वर्ग का क्या? आपको अपने बच्चों की सचूलम कोचिंग और कॉलेज फ़ीस ज़्यादा नहीं लगती? और किताबों के पैसे? नहीं लगते? मैं तो काँप उठता हूँ सोंच कर शिक्षा किस क़दर महँगी हो रही है। ऐसे दौर में उच्च शिक्षा को सस्ता बनाए रखने के लिए किए जा रहे संघर्ष को इस तरह क्यों देखा जा रहा है जैसे कोई मुफ़्तख़ोरी की लड़ाई लड़ रहा हो? और यदि शिक्षा के लिए मुफ़्तख़ोरी की लड़ाई तो वही सही। ‘प्रथम' संस्था ने वर्षों अपने रिपोर्ट में इस मिथक को सत्य बनाने की पूरी कोशिश की कि सरकारी विद्यालयों में आठवीं तक फ़ेल ना करने की नीति उनका नुक़सान कर रही है और वो बस मध्याह्न भोजन के लिए स्कूल आ रहे हैं। हमें आदत है चीज़ों को सामान्य करके देखने की। 70 प्रतिशत मतलब अधिकांश, अधिकांश मतलब सब। ऐसा नहीं है। यह कोई चुनाव तो हाँ नहीं कि 30% पाकर हम लहर लहर चिल्लाने लगें। यहाँ बात है ‘एक’ के महत्व की। जिसे दरकीनार किया जा रहा है। हमारे बीच सिर्फ़ बेहतरीन विद्यार्थियों को ही अधिकार नहीं है अच्छी शिक्षा का। सबको है। सब को मतलब सबको। जो पास हो रहा है उसे भी, जो फ़ेल हो रहा है उसे भी। और परीक्षा कोई पैमाना नहीं है आगे बढ़ने का, वो आगे सीखने का पैमाना हो सकता है। और अधिक महंत करने का हो सकता है।
यही हैं हम। देश में बहुत कुछ चल रहा है। कई विश्वविद्यालय के छात्र-छात्रा संघर्ष कर रहे हैं। महीनों-वर्षों से। फ़ीस को लेकर, उपस्थिति को लेकर, हॉस्टल में सुविधाओं को लेकर, हॉस्टल के गेट खुलने को लेकर, पुस्तकालयों की स्थिति को लेकर, छात्र-छात्रा के बुनियादी अधिकारों को लेकर और सबसे महत्वपूर्ण गर्व से अपनी विचारधारा को मानने और उसका अनुसरण करने को लेकर। जे एन यू एक उदाहरण है, संघर्ष को जीवंत कैसे रखा जाए, 45 दिनों से उत्तराखंड में आयुष अस्पतालों के विरुद्ध किया जा रहा आंदोलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है और उतना ही महत्वपूर्ण है मदरसों की स्वायत्ता, मंदिरों में पंडिताई का शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्रों को सिर्फ़ पंडिताई पढ़ाने का संघर्ष और बहुत कुछ। संघर्षों का चलना बहुत ज़रूरी है। हम सब इस बात को याद रखें कि हम यहाँ तक कैसे पहुँचे, राजा-महरजाओं-कम्पनी राज और कॉलोनी से यहाँ तक। संघर्ष। बहुत सारा संघर्ष। चोट। हार। मायूसी। लेकिन आगे कार्य करते रहने की सोंच। और सबसे आवश्यक अपने विचारों पर गर्व करना। जे एन यू को भी करना चाहिए और हमें भी। उनको भी जो विचरभिव्यक्ति को वैचारिक ग़ुलामी मान बैठे हैं। वो प्रश्न नहीं करना चाहते वो धर्मांध होते हैं, जो प्रश्न नहीं करते वो भक्त और जो प्रश्न करना नहीं जानते वो ग़ुलाम। प्रश्न करिए, स्वयं से भी, अपनों से भी और जहाँ शंका हो उससे भी।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

परिवर्तन से परे

ओला-ऊबर नहीं समस्या बहुत विकट है

- अंकित झा 

निर्मला सीतारमण कहती हैं कि ओला, उबर और मेट्रो के उपयोग के बढ़ने के कारण लोग अब कार और उसके ईएमआई वाले मामले में नहीं फंसना चाहते। ये बात ठीक उस दिन आयी जब कोर्ट के आदेश से गुड़गांव के रैपिड मेट्रो का कार्यकाल और बढ़ाया जा रहा है।
क्या ये बात सही है? मेरे ख्याल से बिल्कुल नहीं। भारत के कितने शहरों में ओला-उबर की सेवा उपलब्ध है? 63 और 29 में। कितने में मेट्रो है? 9 में। भारत मे कुल 6 लाख से अधिक ग्रामीण और करीब 4500 शहरी क्षेत्र हैं। फिर क्या इतनी बड़ी जनसँख्या इतने बड़े गिरावट को प्रभावित कर सकती है? पता नहीं।
फिर आते हैं तीन अहम मुद्दे।
पहला गाड़ियों की पार्किंग।
दूसरा सड़क की व्यवस्था।
और तीसरा भारत का औसत परचेसिंग पावर।
पहले पर आते हैं, 2 सितंबर को सर्वोच्च न्यायलय ने एक मामले में कहा कि हमारे देश मे 2 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास गाड़ियां हैं। लेकिन उन गाड़ियों को पार्क करने हेतु स्थान का भयंकर अभाव है। आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में प्रति 150 वर्ग मीटर के प्लाट पर 8 गाड़ियां हैं। फिर सवाल ये कि लोग रहे कहां और गाड़ी पार्क कहाँ करें। उस आदेश की समीक्षा में ये भी कहा गया है कि दिल्ली में पार्किंग क्षमता से 130 गुना अधिक गाड़ियां हैं। और ये बात सिर्फ दिल्ली की है, दिल्ली की तरह भारत मे 9 और बड़े शहर हैं और उसके अलावा कितने ही अन्य शहर। यदि गाड़ी खड़ी करने की जगह नहीं होगी तो गाड़ी खरीद के उसे कहां पार्क करेंगे? जहां ओला उबेर वाले पार्क करते हैं? और कहीं भी पार्किंग शहरी आधारभूत संरचना के सबसे आवश्यक संरचनाओं में तो है नहीं कि वो चाहिए ही। हर बार सरकार केवल अमीरों के लिए जमीन क्यों उपलब्ध करवाए? पार्किंग का उपलब्ध ना होना भी एक कारण हो सकता है।
दूसरा है सड़कों की पर्याप्तता। 2018 के नवम्बर में भारत के 154 शहरों में किये गए एक शोध के अनुसार भारतीय सड़कों की औसत रफ्तार 24 किमी प्रति घण्टा है जो कि पीक ऑवर में घट के 10 के आस पास रह जाता है। जब सड़कों पर रेंगना ही है तो गाड़ियां होने से क्या फायदा? सड़क से अधिक क्षमता की गाड़ियां आ गयी हैं। जितने हम तैयार हैं उससे बहुत ज्यादा। हो सकता है युवा आबादी दौड़ना चाहती हो, उड़ना चाहती हो, गिरना चाहती हो, फिर उठना चाहती हो, लेकिन ट्रैफिक अर रुकना और रेंगना नहीं चाहती है।
अब है तीसरा, भारतीय नागरिकों की औसत परचेसिंग पावर। इसे परचेसिंग पावर पैरिटी से कंफ्यूज ना किया जाए। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि इस समय एक औसत भारतीय की क्या इतनी कमाई है कि वह गाड़ी खरीद सके?
उससे भी जरूरी है समझना गाड़ी खरीदने की आवश्यकता।
हमें गाड़ियां क्यों खरीदनी है? ताकि हम शान से अपनी निजता का जश्न मनाएं, या मौसम की मार से बचने के लिए, या अपनी खुशियों की चाभी घर लाने के लिए, या इसलिए कि सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ानी है। हमने हमारे देश में कभी भी सार्वजनिक वाहनों का सम्मान नहीं किया। हम सब निजता पसंद लोग हैं और दिखावटी भी। ई एम आई भर के गाड़ी खरीदना लोग नहीं चाहते क्योंकि नौकरी को लेकर वो असमंजस में हैं।
ख़ैर, कुछ भी लिख दें, क्या ही फायदा। राम जी का नाम लीजिये, गाय को रोटी खिलाइये, मोदी जी सब ठीक कर देंगे।

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

मित्र के नाम

युद्ध और शांति 

- अंकित झा  


युद्ध और शांति,
दोनों के मध्य छिपा होता है
एक वर्ग।
एक वर्ग जो नहीं चाहता
इनमें से एक।
कई बार एक ही झेलते हैं
दोनों अपने अंदर
युद्ध और शांति।
युद्ध स्वयं से कि इस में हम कहां खड़े हैं
शांति कि अंदर यह युद्ध चल रहा है।
मित्र तुम्हारी इस लड़ाई के साथ
मैं रोज़ यह झेलता हूँ
युद्ध और शांति अपने अंदर।
तुम चाहो तो हमे युद्ध की बधाई दो,
हम शांति के लिए लड़ते रहेंगे
एक पिता के लिए कि वो वापस
आये अपने छोटी सी क्रांति मशाल के पास
एक भाई के लिए जो
अपनी 'प्रिय' को फिर से पढ़े।
एक जीवनसाथी के लिए जो
हाथ थामे अपनी सताक्षी का
और दोनों एक दूसरे को देख कर
कुछ यूं मुस्कुराये कि
युद्ध शर्म से शांति के सामने घुटने टेक दे।।

सोमवार, 10 जून 2019

प्रशंसक का पोस्ट


धन्यवाद युवराज, देश को क्रिकेट से इश्क़ करवाने के लिए.
- अंकित झा 

दुनिया के लिए युवराज 2011 विश्व कप और 2007 टी20 विश्वकप का हीरो होगा. मेरे लिए युवराज क्रिकेट का मेरा पहला पोस्टर बॉय था. मैंने उस दौर में क्रिकेट शुरू किया जब सचिन सहज हो चुके थे, गांगुली कप्तान बन गये थे और हमने विदेश में नए कीर्तिमान रचने शुरू कर दिए थे. अब बाहर जाती गेंदो पर ड्राइव लगाते समय बल्लेबाज़ एक बार सोंचता ज़रूर थे अगर थोड़ी सी भी टाइमिंग में गड़बड़ी हुई तो बैक्वर्ड पोईंट में एक उड़ता पंजाब खड़ा है. नाम युवराज सिंह. ऊँची क़द का वो खिलाड़ी जो नैट्वेस्ट ट्रोफ़ी 2002 के फ़ाइनल में इंगलैंड के ख़िलाफ़ खेले अपने उस 69 रन की पारी से मेरे दिल में बस गया. उसका वो आउट होने के बाद निराश हो के जाना मेरे बचपन की सबसे बड़ी टीस थी. फिर मुझे उसका न्यूजीलैंड में संघर्ष करती भारतीय बल्लेबाज़ी का इकलौता चमकता सितारा याद है जो रन कम बनाता था पर आके खड़ा होता था. जेकब ऑरैम, डीमन टफ़्फ़ी, शेन बॉंड की गेंदें झेलता था. ऑस्ट्रेल्या के विरुद्ध सिड्नी में खेली गयी 139 रन की वो पारी मैं कभी नहीं भूल सकता. रेडीओ पर सुनी गयी वो पारी आज तक मेरे ज़हन में है. ईयन हार्वी को लगाए गये वो छक्के भारत के क्रिकेट में आने वाले बेहतरीन दौर की शुरुआत थी, अगर बारिश नहीं हुई होती तो वो मैच भारत कभी नहीं हारता. फिर 2004 पाकिस्तान के विरध लाहोर टेस्ट में वो शतक जिसमें उसने साबित किया कि टेस्ट में भी वो किसी से कम नहीं है.
2005 में फ़ॉर्म ख़राब और फिर टीम में वापसी के बाद वेस्टइंडीज़ के विरुद्ध लगाया वो शतक भी कम यादगार नहीं था, जब युवराज के मुँह से गालियाँ फूट पड़ी थी. वो ग़ुस्सा उसके चरित्र की द्योतक थी. दौड़ूँगा, गिरूँगा, फिर उठूँगा, दौड़ूँगा, फिर गिरूँगा, फिर उठूँगा, और यूँ ही क्रम चलता रहेगा. युवराज द्रविड़ की टीम का वो हिस्सा था जिसके बिना जीतना नामुमकिन सा था. प्रमाण के लिए 2006 में लगातार 3 सिरीज़ (दक्षिण अफ़्रीका, पाकिस्तान और इंगलैंड) में मैन और दी सिरीज़ रहे तो टीम तीनों सिरीज़ नहीं हारी और फिर वेस्ट इंडीज़ में जब बल्ला कुछ शांत हुआ तो भारत वो सिरीज़ 4-1 से हारा. 2007 के बाद क्रिक्केट का एक नया दौर शुरू हुआ. टी20 वाला दौर जब क्रिकेट पर चकाचौंध छा गयी. इस चकाचौंध में युवराज सिंह ने अपनी अलग चमक बनायी, फिर वो छः छक्के हों, या कमर दर्द के साथ राजकोट में खेली गयी 138 की अद्भुत पारी. युवराज वो सब हैं जो फ़ैन उसे कहते हैं, वो सब जो आलोचक उसे कहते हैं, वो सब जो उसने हासिल किया, वो सब जो वो नहीं कर पाया, वो सब जो उसके पहले क्रिकेट में था, वो सब उसके बाद भी होगा. युवराज मेरे लिए क्रिकेट था और क्रिकेट मेरे लिए युवराज. युवराज कैन्सर के विरुद्ध लड़ाई है, युवराज 2014 टी20 वि श्व कप फ़ाइनल की नाकामी है, युवराज विश्व कप का हीरो है, युवराज वो यादें हैं जिसने कितनी ही बार हमें उस दौर में मुस्कुराने का मौक़ा दिया जब क्रिकेट इतनी तेज़ नहीं हुआ करती थी.
युवराज मेरे लिए वो सब पारी हैं, जिन सब के बदौलत उनके प्रति मेरी दीवानगी बढ़ती गयी.
युवराज भारतीय क्रिकेट का वो नाम है जिसने अज़हरुद्दीन युग के मध्यक्रम बल्लेबाज़ी की निराशा से गांगुली युग की आशा, द्रविड़ युग के आरोहण और धोनी युग की दबंगई से दुनिया को अवगत करवाया. क्रिकेट के मैदान पर युवराज मुझे हमेशा याद रहेंगे, उनके अलविदा कहने से दुःख तो है लेकिन खेल यही है, जीवन यही है, कुछ भी हमेशा के लिए नहीं है. बाक़ी और भी लिखेंगे, तब तक के लिए इतना ही कि युवराज एक भावना है, आज भारतीय क्रिकेट में एक भावना की लहर थोड़ी कम हो गयी.

रविवार, 9 जून 2019

कविता

परेशानी

- अंकित झा 


सुनों,
उन्हें तुम्हारे चुटकुलों से
परेशानी होने लगी है।
हो सकता है कल तुम्हारे
बोलने से भी होने लगे।
आज हंसाने से हुई है,
कल हँसने से भी होने लगे।
परेशानी ही तो है,
ना जाने कब हो जाये,
किससे हो जाये,
कौन समझाता फिरे,
कौन बताता फिरे,
हमारे हिस्से में कल तक प्रतिरोध था,
आज बस विरोध बचा है,
हो सकता है कल सिर्फ
अनुरोध बचे।
ये सब होने से पहले,
हमें तय करना होगा,
हमारे संघर्ष के आयाम,
जहाँ किसी धर्म के चक्कर में
दो बेटियों में फर्क नहीं करेंगे,
जहाँ जाति को लेकर
मृत मनुष्यों में फर्क नहीं करेंगे,
जहाँ दल को लेकर दो
नेताओं में फर्क नहीं करेंगे,
और भी बहुत कुछ।
जिससे हमारी करुणा
सबके साथ रहे,
हमारा सम्मान
सबके प्रति रहे,
और हमारा मज़ाक
सबके लिए बराबर हो।
इतना ही करना है
इन स्वयंभुओं से लड़ने के लिए,
जो धिक्कारते और ललकारते रहेंगे
तुम्हारी अच्छाई के पीछे छिपी
ज़ाहिलियात को।
लेकिन हम यूँ ही रहेंगे
तटस्थ।
अपने विचारों और संघर्षों के साथ।।

सोमवार, 3 जून 2019

परिवर्तन से परे

यातायात का अधिकार होना ही चाहिए, इसमें यद्यपि-कदापि कुछ नहीं 
- अंकित झा 

शहर में जीवन यापन करने का अर्थ है कमाई व खर्च का हिसाब। कितनी कमाई होती है और उसका कितना हिस्सा हम अपनी सबसे आवश्यक आपूर्तियों के लिए करते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से समाज के उस श्रेणी से आता हूँ जिसमें ये हिसाब रखना पड़ता है, कुछ दिनों के अपवाद के साथ। शहर में रहने के कई खर्चों में मुख्य 4 खर्च हैं: आवास, भोजन, स्वास्थ्य और काम पे जाने का किराया। इनमें से किसी एक के भी बढ़ने पर हमें विचार करना पड़ता है। संतुलन शहरी जीवन का मूल सिद्धांत है।
कभी कभी इन सभी खर्चों के साथ हमें चाहिए सुविधा, सम्मान और सुरक्षा। आवास की। भोजन की। स्वास्थ्य की। और यातायात की?? क्या दिल्ली के यातायात में सुविधा, सम्मान और सुरक्षा है? शायद हाँ और शायद नहीं। फिर भी हम सार्वजनिक यातायात के साधनों से मुंह नहीं मोड़ सकते। दिल्ली के पहले 5 वर्ष 2012 से 2017 तक अधिकांश सफर डीटीसी की बसों में किया है (साथ में क्लस्टर बस भी शामिल हैं)। कुछ समय मेट्रो में भी किया और कुछ दोस्त की गाड़ी में भी। फिर जब कमाने लगे तो कार्यक्षेत्र दूर था और विभिन्न भी तो मेट्रो पे आ गए। दिन के 72 रुपये सिर्फ काम और जाने और आने के। जीटीबी नगर से हौजखास तक। यह बहुत महंगा सफर है। लेकिन यहाँ सुविधा भी है, सुरक्षा भी कुछ हद तक और सम्मान भी कुछ देर तक। मैं अक्सर सोंचता हूँ कि मेट्रो में इतने मर्द क्यों भरे रहते हैं? मेट्रो में एक महिला डिब्बे का होना कोई सम्पूर्णता नहीं है। यह एक खालीपन है। एक डिब्बा विशेष होने के बाद भी संख्या एक तिहाई क्यों है महिला यात्रियों का मेट्रो में? क्या वे यात्रा नहीं करती? मतलब क्या वे काम पर नहीं जाती? क्या वे पढ़ाई करने नहीं जाती? क्या वे घूमने नहीं जाती? क्या वे भी एयरपोर्ट और स्टेशन जाने के लिए मेट्रो को भूल जाती हैं? फिर सार्वजनिक यातायात का क्या मतलब शहर में?
दिल्ली में जब महिलाओं के लिए मेट्रो व डीटीसी बसों में सफर मुफ्त करने का प्रस्ताव आया तो लगा कि सरकार आखिरकार उस चौथे खर्च को समझी है। अगर चौथा खर्चा नहीं होगा तो बाकी तीन पर ध्यान दे पाएंगे। बस और मेट्रो के नाम और अगर सुविधा, सुरक्षा और सम्मान मिलेगा तो शायद दनदनाती कैब और ऑटो से निज़ात मिलेगी। वो महिलाएं जो काम पर जाती हैं अब निश्चिंत होकर बस में सफर कर सकती हैं वो उस 30 रुपये के किराए को वह शायद अपने लिए खर्च कर पाए। रोटी पर, या जो भी वो खरीदना चाहे। कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा को अब मेट्रो कार्ड रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं मांगने पड़ेंगे। उस पैसे से शायद वो किताब खरीद ले, या जो मन में आये वो करे।
हाँ मुफ्त की चीज़े बांटने से मुफ्तखोरी की आदत लग जाती है। गलत। सार्वजनिक सुविधाओं का मुफ्त में मिलना एक वेलफेयर सरकार की जिम्मेदारी है। बुनियादी सुविधाएं यदि मुफ्त की जाएं तो वह उन सुविधाओं को समावेशी बनाता है। जो ये तर्क आ रहा है कि महिलाएं अपने खर्च वहन कर सकती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं है। शौक से करें। लेकिन आप समाज में प्रतिनिधित्व को अवश्य देखें। सशक्त महिलाएं इसे अपने अभिमान पर ना ले कि हम मुफ्त में कुछ नहीं लेते। मुफ्त कोई एहसान नहीं है सरकारी कर्तव्य है और वो होना ही चाहिए। दिल्ली एक बहुत बड़े शहरी परिवेश का नाम है जिसमे दिल्ली के अलावा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भी हिस्से आते हैं। और दिल्ली में काम करने वाली जनसंख्या चहुँ ओर से आती है। यह प्रस्ताव शायद देश मे यातायात के अधिकार को और सशक्त करेगा ऐसी आशा है। सार्वजनिक यातायात के साधनों को तवज्जो देना आवश्यक है। सामाजिक आर्थिक मायनों पर भी यह निर्णय खरा है। अब प्रश्न है खर्च के संतुलन का। सरकार के लिए। वो सरकार देखेगी। और देखना भी चाहिए। आप महिलाओं के साथ खुश हो कि कामकाजी हो या ग़ैरकामकाजी, छात्रा हो दूर शहर से घूमने आए कोई परदेसी सरकारी यातायात के साधनों में चढ़ने से पहले सोंचना नहीं पड़ेगा। सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ सबसे पहले उस परत को मजबूत करने से होता है जो सशक्त होते हुए भी दवाब अधिक सहती है। जैसे महिलाएं।
ज़िंदाबाद।।

परिवर्तन से परे

यातायात का अधिकार: महिलाओं से शुरुआत, रास्ते और भी तय होने बाक़ी हैं। 

- अंकित झा
शहर में जीवन यापन करने का अर्थ है कमाई व खर्च का हिसाब। कितनी कमाई होती है और उसका कितना हिस्सा हम अपनी सबसे आवश्यक आपूर्तियों के लिए करते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से समाज के उस श्रेणी से आता हूँ जिसमें ये हिसाब रखना पड़ता है, कुछ दिनों के अपवाद के साथ। शहर में रहने के कई खर्चों में मुख्य 4 खर्च हैं: आवास, भोजन, स्वास्थ्य और काम पे जाने का किराया। इनमें से किसी एक के भी बढ़ने पर हमें विचार करना पड़ता है। संतुलन शहरी जीवन का मूल सिद्धांत है। 

कभी कभी इन सभी खर्चों के साथ हमें चाहिए सुविधा, सम्मान और सुरक्षा। आवास की। भोजन की। स्वास्थ्य की। और यातायात की?? क्या दिल्ली के यातायात में सुविधा, सम्मान और सुरक्षा है? शायद हाँ और शायद नहीं। फिर भी हम सार्वजनिक यातायात के साधनों से मुंह नहीं मोड़ सकते। दिल्ली के पहले 5 वर्ष 2012 से 2017 तक अधिकांश सफर डीटीसी की बसों में किया है (साथ में क्लस्टर बस भी शामिल हैं)। कुछ समय मेट्रो में भी किया और कुछ दोस्त की गाड़ी में भी। फिर जब कमाने लगे तो कार्यक्षेत्र दूर था और विभिन्न भी तो मेट्रो पे आ गए। दिन के 72 रुपये सिर्फ काम और जाने और आने के। जीटीबी नगर से हौजखास तक। यह बहुत महंगा सफर है। लेकिन यहाँ सुविधा भी है, सुरक्षा भी कुछ हद तक और सम्मान भी कुछ देर तक। मैं अक्सर सोंचता हूँ कि मेट्रो में इतने मर्द क्यों भरे रहते हैं? मेट्रो में एक महिला डिब्बे का होना कोई सम्पूर्णता नहीं है। यह एक खालीपन है। एक डिब्बा विशेष होने के बाद भी संख्या एक तिहाई क्यों है महिला यात्रियों का मेट्रो में? क्या वे यात्रा नहीं करती? मतलब क्या वे काम पर नहीं जाती? क्या वे पढ़ाई करने नहीं जाती? क्या वे घूमने नहीं जाती? क्या वे भी एयरपोर्ट और स्टेशन जाने के लिए मेट्रो को भूल जाती हैं? फिर सार्वजनिक यातायात का क्या मतलब शहर में? 

दिल्ली में जब महिलाओं के लिए मेट्रो व डीटीसी बसों में सफर मुफ्त करने का प्रस्ताव आया तो लगा कि सरकार आखिरकार उस चौथे खर्च को समझी है। अगर चौथा खर्चा नहीं होगा तो बाकी तीन पर ध्यान दे पाएंगे। बस और मेट्रो के नाम और अगर सुविधा, सुरक्षा और सम्मान मिलेगा तो शायद दनदनाती कैब और ऑटो से निज़ात मिलेगी। वो महिलाएं जो काम पर जाती हैं अब निश्चिंत होकर बस में सफर कर सकती हैं वो उस 30 रुपये के किराए को वह शायद अपने लिए खर्च कर पाए। रोटी पर, या जो भी वो खरीदना चाहे। कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा को अब मेट्रो कार्ड रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं मांगने पड़ेंगे। उस पैसे से शायद वो किताब खरीद ले, या जो मन में आये वो करे। 
हाँ मुफ्त की चीज़े बांटने से मुफ्तखोरी की आदत लग जाती है। गलत। सार्वजनिक सुविधाओं का मुफ्त में मिलना एक वेलफेयर सरकार की जिम्मेदारी है। बुनियादी सुविधाएं यदि मुफ्त की जाएं तो वह उन सुविधाओं को समावेशी बनाता है। जो ये तर्क आ रहा है कि महिलाएं अपने खर्च वहन कर सकती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं है। शौक से करें। लेकिन आप समाज में प्रतिनिधित्व को अवश्य देखें। सशक्त महिलाएं इसे अपने अभिमान पर ना ले कि हम मुफ्त में कुछ नहीं लेते। मुफ्त कोई एहसान नहीं है सरकारी कर्तव्य है और वो होना ही चाहिए। दिल्ली एक बहुत बड़े शहरी परिवेश का नाम है जिसमे दिल्ली के अलावा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भी हिस्से आते हैं। और दिल्ली में काम करने वाली जनसंख्या चहुँ ओर से आती है। यह प्रस्ताव शायद देश मे यातायात के अधिकार को और सशक्त करेगा ऐसी आशा है। सार्वजनिक यातायात के साधनों को तवज्जो देना आवश्यक है। सामाजिक आर्थिक मायनों पर भी यह निर्णय खरा है। अब प्रश्न है खर्च के संतुलन का। सरकार के लिए। वो सरकार देखेगी। और देखना भी चाहिए। आप महिलाओं के साथ खुश हो कि कामकाजी हो या ग़ैरकामकाजी, छात्रा हो दूर शहर से घूमने आए कोई परदेसी सरकारी यातायात के साधनों में चढ़ने से पहले सोंचना नहीं पड़ेगा। सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ सबसे पहले उस परत को मजबूत करने से होता है जो सशक्त होते हुए भी दवाब अधिक सहती है। जैसे महिलाएं।
ज़िंदाबाद।।

रविवार, 2 जून 2019

असम्भव के किनारे

विध्वंश 

- अंकित झा

क्या नज़रिए के साथ हमारी
आँखें और नज़र भी अलग हैं
जो हम नहीं देख पाते समाज को 
एक तरह से? 
क्यों नहीं देख पाते हैं कुछ लोग 
गरम सड़क पर उबलते पैरों को, 
खेत की मेड़ पर आसमान में 
एक तक निहारती आँखों को,
जिन्हें तलाश है पानी एक बूँद की, 
क्यों नहीं देख पाते लाल हो चुके 
हरे-भरे जंगलों को, 
क्यों नहीं दिखता सिर पर मैला उठाए 
मनुष्य 
और भी बहुत कुछ जो कुछ को दिखता है
और कुछ को बिलकुल नहीं 
क्या आँखों के ऊपर भी कोई परत होती है
अलग सी, लेंस की तरह? 
अगर नहीं होती है तो क्यों हमारी आँखें 
भरती नहीं है, 
भीड़ द्वारा मार दिए गये 
किसी परिवार के मुखिया की मृत शरीर को देखकर, 
क्यों ये आँखें भावनाशून्य हो जाती हैं, 
अपनी ज़मीन की रक्षा करते हुए 
शहीद हो रहे आदिवासियों की मृत्यु पर। 
क्या विचारों की तरह 
हमारे दिमाग़ भी अलग हो गए हैं, 
जो नहीं याद कर पाते वो ज़ुल्म, 
वो अपघात, वो दरिंदगी 
जो हम मनुष्यों ने ही की है, 
किसी अन्य मनुष्य पर
जाती, लिंग, धर्म और रंग के नाम पर। 
हमारी कहानियाँ अब अलग 
क़लम से लिखी जाती है, 
हमारी कहानियों में अब काग़ज़ भी अलग 
हो चले हैं, 
हम ऐतिहासिक रूप से 
प्रेम में धिक्कारे हुए समाज हैं, 
कुछ ऊब चुके हैं इस धिक्कर से, 
अतः उन्हें बस अब प्रतिशोध में जीना है, 
कुछ आज भी तलाश में हैं, 
उस प्रेम के जो निस्वार्थ है,
समर्पण और प्रगति के प्रति हमें 
प्रेरित करती है, 
और शायद यही वो अंतर है 
जो नज़र, नज़रिया, आँखें, विचार 
और दिमाग़ को अलग करती हैं। 
वरना कोई मनुष्य 
किसी भी मनुष्य की मृत्यु पर
उन्माद में नाचेगा क्यों?