सोमवार, 3 जून 2019

परिवर्तन से परे

यातायात का अधिकार होना ही चाहिए, इसमें यद्यपि-कदापि कुछ नहीं 
- अंकित झा 

शहर में जीवन यापन करने का अर्थ है कमाई व खर्च का हिसाब। कितनी कमाई होती है और उसका कितना हिस्सा हम अपनी सबसे आवश्यक आपूर्तियों के लिए करते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से समाज के उस श्रेणी से आता हूँ जिसमें ये हिसाब रखना पड़ता है, कुछ दिनों के अपवाद के साथ। शहर में रहने के कई खर्चों में मुख्य 4 खर्च हैं: आवास, भोजन, स्वास्थ्य और काम पे जाने का किराया। इनमें से किसी एक के भी बढ़ने पर हमें विचार करना पड़ता है। संतुलन शहरी जीवन का मूल सिद्धांत है।
कभी कभी इन सभी खर्चों के साथ हमें चाहिए सुविधा, सम्मान और सुरक्षा। आवास की। भोजन की। स्वास्थ्य की। और यातायात की?? क्या दिल्ली के यातायात में सुविधा, सम्मान और सुरक्षा है? शायद हाँ और शायद नहीं। फिर भी हम सार्वजनिक यातायात के साधनों से मुंह नहीं मोड़ सकते। दिल्ली के पहले 5 वर्ष 2012 से 2017 तक अधिकांश सफर डीटीसी की बसों में किया है (साथ में क्लस्टर बस भी शामिल हैं)। कुछ समय मेट्रो में भी किया और कुछ दोस्त की गाड़ी में भी। फिर जब कमाने लगे तो कार्यक्षेत्र दूर था और विभिन्न भी तो मेट्रो पे आ गए। दिन के 72 रुपये सिर्फ काम और जाने और आने के। जीटीबी नगर से हौजखास तक। यह बहुत महंगा सफर है। लेकिन यहाँ सुविधा भी है, सुरक्षा भी कुछ हद तक और सम्मान भी कुछ देर तक। मैं अक्सर सोंचता हूँ कि मेट्रो में इतने मर्द क्यों भरे रहते हैं? मेट्रो में एक महिला डिब्बे का होना कोई सम्पूर्णता नहीं है। यह एक खालीपन है। एक डिब्बा विशेष होने के बाद भी संख्या एक तिहाई क्यों है महिला यात्रियों का मेट्रो में? क्या वे यात्रा नहीं करती? मतलब क्या वे काम पर नहीं जाती? क्या वे पढ़ाई करने नहीं जाती? क्या वे घूमने नहीं जाती? क्या वे भी एयरपोर्ट और स्टेशन जाने के लिए मेट्रो को भूल जाती हैं? फिर सार्वजनिक यातायात का क्या मतलब शहर में?
दिल्ली में जब महिलाओं के लिए मेट्रो व डीटीसी बसों में सफर मुफ्त करने का प्रस्ताव आया तो लगा कि सरकार आखिरकार उस चौथे खर्च को समझी है। अगर चौथा खर्चा नहीं होगा तो बाकी तीन पर ध्यान दे पाएंगे। बस और मेट्रो के नाम और अगर सुविधा, सुरक्षा और सम्मान मिलेगा तो शायद दनदनाती कैब और ऑटो से निज़ात मिलेगी। वो महिलाएं जो काम पर जाती हैं अब निश्चिंत होकर बस में सफर कर सकती हैं वो उस 30 रुपये के किराए को वह शायद अपने लिए खर्च कर पाए। रोटी पर, या जो भी वो खरीदना चाहे। कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा को अब मेट्रो कार्ड रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं मांगने पड़ेंगे। उस पैसे से शायद वो किताब खरीद ले, या जो मन में आये वो करे।
हाँ मुफ्त की चीज़े बांटने से मुफ्तखोरी की आदत लग जाती है। गलत। सार्वजनिक सुविधाओं का मुफ्त में मिलना एक वेलफेयर सरकार की जिम्मेदारी है। बुनियादी सुविधाएं यदि मुफ्त की जाएं तो वह उन सुविधाओं को समावेशी बनाता है। जो ये तर्क आ रहा है कि महिलाएं अपने खर्च वहन कर सकती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं है। शौक से करें। लेकिन आप समाज में प्रतिनिधित्व को अवश्य देखें। सशक्त महिलाएं इसे अपने अभिमान पर ना ले कि हम मुफ्त में कुछ नहीं लेते। मुफ्त कोई एहसान नहीं है सरकारी कर्तव्य है और वो होना ही चाहिए। दिल्ली एक बहुत बड़े शहरी परिवेश का नाम है जिसमे दिल्ली के अलावा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भी हिस्से आते हैं। और दिल्ली में काम करने वाली जनसंख्या चहुँ ओर से आती है। यह प्रस्ताव शायद देश मे यातायात के अधिकार को और सशक्त करेगा ऐसी आशा है। सार्वजनिक यातायात के साधनों को तवज्जो देना आवश्यक है। सामाजिक आर्थिक मायनों पर भी यह निर्णय खरा है। अब प्रश्न है खर्च के संतुलन का। सरकार के लिए। वो सरकार देखेगी। और देखना भी चाहिए। आप महिलाओं के साथ खुश हो कि कामकाजी हो या ग़ैरकामकाजी, छात्रा हो दूर शहर से घूमने आए कोई परदेसी सरकारी यातायात के साधनों में चढ़ने से पहले सोंचना नहीं पड़ेगा। सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ सबसे पहले उस परत को मजबूत करने से होता है जो सशक्त होते हुए भी दवाब अधिक सहती है। जैसे महिलाएं।
ज़िंदाबाद।।

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