विध्वंश
- अंकित झा
क्या नज़रिए के साथ हमारी
आँखें और नज़र भी अलग हैं
जो हम नहीं देख पाते समाज को
एक तरह से?
क्यों नहीं देख पाते हैं कुछ लोग
गरम सड़क पर उबलते पैरों को,
खेत की मेड़ पर आसमान में
एक तक निहारती आँखों को,
जिन्हें तलाश है पानी एक बूँद की,
क्यों नहीं देख पाते लाल हो चुके
हरे-भरे जंगलों को,
क्यों नहीं दिखता सिर पर मैला उठाए
मनुष्य
और भी बहुत कुछ जो कुछ को दिखता है
और कुछ को बिलकुल नहीं
क्या आँखों के ऊपर भी कोई परत होती है
अलग सी, लेंस की तरह?
अगर नहीं होती है तो क्यों हमारी आँखें
भरती नहीं है,
भीड़ द्वारा मार दिए गये
किसी परिवार के मुखिया की मृत शरीर को देखकर,
क्यों ये आँखें भावनाशून्य हो जाती हैं,
अपनी ज़मीन की रक्षा करते हुए
शहीद हो रहे आदिवासियों की मृत्यु पर।
क्या विचारों की तरह
हमारे दिमाग़ भी अलग हो गए हैं,
जो नहीं याद कर पाते वो ज़ुल्म,
वो अपघात, वो दरिंदगी
जो हम मनुष्यों ने ही की है,
किसी अन्य मनुष्य पर
जाती, लिंग, धर्म और रंग के नाम पर।
हमारी कहानियाँ अब अलग
क़लम से लिखी जाती है,
हमारी कहानियों में अब काग़ज़ भी अलग
हो चले हैं,
हम ऐतिहासिक रूप से
प्रेम में धिक्कारे हुए समाज हैं,
कुछ ऊब चुके हैं इस धिक्कर से,
अतः उन्हें बस अब प्रतिशोध में जीना है,
कुछ आज भी तलाश में हैं,
उस प्रेम के जो निस्वार्थ है,
समर्पण और प्रगति के प्रति हमें
प्रेरित करती है,
और शायद यही वो अंतर है
जो नज़र, नज़रिया, आँखें, विचार
और दिमाग़ को अलग करती हैं।
वरना कोई मनुष्य
किसी भी मनुष्य की मृत्यु पर
उन्माद में नाचेगा क्यों?
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