सोमवार, 6 अगस्त 2018

परिवर्तन से परे


पंद्रह मर्दों का एक मंच पर हाथ थाम कर खड़े रहना बताता है कि देश में सब कुछ इतनी जल्दी ठीक नहीं होगा
- अंकित झा 

दिल्ली में रह कर महिला उत्पीड़न का विरोध मुझे हमेशा सांकेतिक ही लगता है और ख़ासकर पुरुषप्रधान सामंती सोंच के क्षेत्रीय दल के नेताओं द्वारा यदि वो विरोध जताया जा रहा हो तब तो अफ़सोस भी। 4 अगस्त को दिल्ली के जंतर मंतर पर एक बड़ी भीड़ इकट्ठा हुई। विरोध में। उस घटना के जो हम सब को अंदर तक झकझोर देती है। ये वो विरोध था जिसमें हम सब को एक स्वर में बोलना चाहिए था आख़िर कब तक? लेकिन ये स्वर राजनैतिक भाषणों में बंध के रह गयी। उस मंच पर खड़े होने के बाद सब की फ़िक्र राजनैतिक परिवर्तन पर जा टिकी। महिला सुरक्षा के मुद्दे को लेकर पुरुषों से सुसज्जित मंच पर जब एक महिला को जब बोलने का मौक़ा दिया जाता है तो लगता है वो उन पुरुषों को भी लपेटे में लेकर बात कहेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। महिला सुरक्षा का मुद्दा सिर्फ़ महिला का नहीं है, उतना ही पुरुष का भी है। क्योंकि असुरक्षा का भाव वहीं से उत्पन्न हुआ है। बड़े गर्व से पुरुष कहते रहे कि असली मर्द बलात्कार नहीं करते। यह पुरुषों द्वारा महिलाओं पर किया गया सबसे बड़ा एहसान है। कितनी अच्छी बात है, कि असली मर्द बलात्कार नहीं करते। तो? कुछ और करते होंगे। जैसे संसाधन से वंचित रखते होंगे, अपनी गालियों में शुमार करते होंगे, या फिर निर्मल-कोमल कह कर रानी बना कर छोड़ देते होंगे। सच तो ये हैं कोई भी पुरुष स्वयं से श्रेष्ठ महिला को बर्दाश्त नहीं कर सकता। बर्दाश्त तो दूर ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए तो महिलाओं के आगे बढ़ने को वो पुरुष की कमज़ोरी बताते हैं, महिलाओं के पिछड़ने को पुरुष की ज़्यादती। लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा नहीं है। पुरुषों के लिए हर रूप में पुरुष ही पुरुष है। बस हर कामयाब पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता आही। पीछे। फिर क्या अंतर ला दिया इस जमावड़े ने जब वहाँ ये कहा गया कि महिलाओं के मुद्दों पर पुरुष का आक्रोश सराहनीय है। पुरुषों ने आक्रोश जता कर कोई तीर नहीं मारा। यह निम्नतम है जो किया जा सकता है और शायद अधिकतम भी। 
मुज्ज़फरपुर में हुई घटना हम सब के सामूहिक अवचेतन को एक करारा तमाचा है। एक घर (शेल्टर होम) 40 के क़रीब बच्चियाँ। और उन में से 34 के साथ दुष्कर्म। जघन्य। ऐसी परिस्थितियों में कि नरेटिव सुन कर रूह काँप जाए। ये एक पल का बहकाव नहीं है। ये सदियों के उत्पीड़न का एक जीता-जागता मिसाल है। हमारे पूर्वग्रहों और मर्दानगि के सामंजस्य से बनी मिसाल। एक महिला को महिला होने तक सीमित करने की मिसाल। अफ़सोस, इस सब में शारीरिक रूप से महिला भी संलिप्त थी। इस सब के मध्य में मुख्य आरोपी उस शहर का एक शक्तिशाली व्यक्ति जो एक तथाकथित समाजसेवक है, पत्रकार है और साथ ही राजनेता भी। मतलब रसूख़ क़तई काम नहीं। और उस पर ऊँगली उठा पाना भी आसान नहीं है। यह सुधार गृह उन लड़कियों के लिए था जो किसी कारण वश पाने घर से दूर थी, अनाथ थी या समाज से बेदख़ल। फिर भी, किसी भी हालात में, इन सब के सम्मान का अधिकार क़तई काम नहीं हो जाता। सामाजिक शिथिलता के समय भी किसी का नागरिक मानव होने का अधिकार कम नहीं हो जाता। फिर इन 40 बचियों को कमतर मनुष्य और कमतर नागरिक क्यों समझा गया? हम सब की नज़र में सहानुभूति के परे वाली बात क्यों नहीं पा रही है? क्या यह सम्भव है कि किसी सुधार गृह में ये सब चल रहा हो और प्रशासन को कुछ पता ही ना हो, और वो भी विभिन्न घटकों द्वारा बार-बार बताने के बाद भी? बताने के बाद भी मीडिया और प्रशासन की चुप्पी क्या साबित करती है? यही कि उस सुधार गृह में रह रही बच्चियाँ मामूली हैं और प्रशासन से जुड़े वो लोग ख़ास। बिहार में दबंगों को हमेशा ख़ास स्थान मिला है। इतना ख़ास कि ये प्रेरणा भी बन जाते हैं, संरक्षक भी और कई बार तो ईश्वर के समकक्ष भी। इतना अधिक कि ये सब अंधश्रद्धा में बदल जाता है। और ये दौर तो वैसे भी अंधश्रद्धा का है। ये अंधश्रद्धा भय का भी दूसरा रूप है और शक्ति का भी। ब्रजेश ठाकुर यही शक्ति है जो भय बन कर भी व्याप्त है और श्रद्धा बन कर भी। 
फिर हैं वो जो एक हो रहे हैं। इस दुष्कर्म के विरुद्ध। होना भी चाहिए। बहुत पहले होना चाहिए था। ख़ैर जब भी हो ये हो रहा है। लेकिन मेरा प्रश्न अवचेतन में विषय को लेकर अस्पष्टता को लेकर है। एक ही मंच पर जब दो राय के लोग बैठे हो समझ में आता है परंतु जब एक मुद्दे पर दो विपरीत विचार रखने वाले हो यह समझ में नहीं आता। राजद के तेजस्वी यादव से मैं विचारों की स्पष्टता की उम्मीद नहीं करता, परंतु लेफ़्ट के नेता तथा जेएनयू के छात्र नेता रह चुके कन्हैया और शेहला का वहाँ होकर भी विचारों की अस्पष्टता पर असहज ना होना निराश करता है। इस समय एक बहुत बड़ा समाजफाँसी की सज़ाके विरुद्ध है। और इसमें लेफ़्ट के नेताओं से लेकर समुदायों में काम आकर रहे लोग भी हैं। शहला कन्हैया भी इस बात को मानेंगे कि किसी महिला के साथ दुष्कर्म उसके इज़्ज़त का लुटना नहीं होता है। दुष्कर्म पुरुष द्वारा किया गया एक अपराध है, और इज़्ज़त लुटना महिला पर थोपा गया एक अपराध बोध। फिर जब मंच से बार-बार ये इज़्ज़त लुटने वाली बात कही गयी तो उन्होंने असहमति क्यों नहीं जताई? बच्चियों की चीख़ यदि सोने नहीं देती तो मंच पर महिलाओं की आवाज़ क्यों नहीं थी? ये मंच महिला अधिकारों की रक्षा के लिए था या बिहार राजनीति को प्रभावित कर सत्ता में असुरक्षा पैदा करने के लिए? इस समय कोई भी राज्य पूर्णतः आश्वासन नहीं दे सकता कि महिलाओं के लिए वह सुरक्षित है। गुवाहाटी में जब रात के 9 बजे एक लड़की को एक भीड़ ने निर्वस्त्र किया था तब भी, जम्मू-कश्मीर-राजस्थान-मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में मासूम बच्चियों के साथ हुए दुष्कर्म। फिर बिहार में हुई ये घटना। 34 बच्चियाँ। ऐसी स्थिति सोंच के मन सिहर उठता है कि ये सब किस दौर से गुज़री हैं, और किस मनोस्थिति से गुज़र रही हैं। यह पूरी जद्दोजहद पूर्ण मनुष्य बनने की क़वायद मात्र है। हमारा समाज दुष्कर्म झेल चुकी महिला को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वो मान चुका है कि महिला का शरीर और ख़ासकर शरीर के कुछ अंग ही महिला है। तभी तो उसकी चीख़ों भारी अतिशयोक्ति बना बना कर राजनेता चिट्ठियाँ लिख रहे हैं। इस उम्मीद में कि पूरे समाज और पुरुष प्रधान सोंच का दोष एक सरकार पर थोप दिया जाए। सरकार गुनहगार है, बिलकुल है। इसलिए नहीं कि प्रमुख अभियुक्त उस पार्टी में रह चुका है, इसलिए नहीं कि मंत्री का पति भी अभियुक्तों की सूची में है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उसने एक अल्पावास गृह को यूँ ही वीरान छोड़ दिया। अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझी। बार-बार प्रश्न पूछे जाने पर भी कार्रवाई नहीं किया। माफ़ी माँगने में महीनों लगा दिए। अब बारी सरकारी तंत्र के गुनाह गिनाने का है। ख़ैर छोड़िए। इसको ना ही गिने तो ठीक।  
यह दोष एक सरकार या एक सरकारी तंत्र का तो है ही यह हम सब की एक सामूहिक हार है। वही हार जो हम वर्षों से हारते रहे हैं, और अभी सदियों तक हारते रहेंगे। क्योंकि हम सब में से किसी को न्याय और अनुचित बातों को रोकने की नहीं पड़ी हुई है। हम सब अंधेरे में लाठी पीट रहे हैं, उस परछाईं को ढूँढते हुए जो है ही नहीं। क्या ही बदल दिया हमने और क्या ही बदल लेंगे। क़ानून ले आएँगे। फाँसी की माँग कर लेंगे। दुनिया में एक लिस्ट के अनुसार हम सबसे असुरक्षित धरती है महिलाओं के लिए। बिलकुल हैं। जब तक सड़क पर वो घूरती नज़रें हैं, जब तक घरों में वो छुअन है, जब तक वो बस में लगे धक्के हैं, जब तक मेसिज में आए कुछ ख़ास अनुरोध है, और जब तक महिला के मुद्दों पर बात करने के लिए एक मंच पर चार महिलाएँ और 50 मर्द हैं असुरक्षा बना रहेगा।  

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