शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

परिवर्तन से परे

'संघ'र्ष का दौर है, संघर्ष तो करना पड़ेगा।।

- अंकित झा 

वर्ष 2015, तारीख़ 19 मई। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में एम ए प्रवेश के लिए ‘समाज शास्त्र’ की प्रवेश परीक्षा देने जा रहा था। पिछले तीन वर्षों में दिल्ली में रहते हुए जो सपने देखे थे वो सब आज काग़ज़ पर लिखने का समय था। टाटा इन्स्टिटूट में जाना चाहता था पर फ़ीस ज़्यादा थी, अब एम ए के लिए इतना ख़र्च करने का मन नहीं था और इसीलिए जामिया के कन्वर्जेंट जर्नलिज़म और मास कम्यूनिकेशन में भी अप्लाई नहीं किया था। ऐसा नहीं था कि अगर पापा को कहता तो वो पैसों की व्यवस्था नहीं कर पाते लेकिन तीन बच्चों को पढ़ा चुके पिता पर और दवाब डालने का मेरा मन नहीं किया। फिर जे एन यू का ही सहारा था। लेकिन जब प्रश्न पत्र आया तो सारे सपने चकनाचूर होते दिखे। इतना पढ़ने और समझने के बाद भी शब्दों और विचारों का अभाव लगने लगा और नतीजा यह रहा कि परीक्षा में असफल रहे। ऐसा लगा अब शायद पत्रकारिता में नौकरी ही लेनी पड़ेगी और जे एन यू का वो हसीन सपना अगले साल फिर से देखा जाएगा। हालाँकि दिल्ली विश्वविद्यालय में दाख़िला हो गया और फिर जे एन यू का सपना 2 साल के लिए टाल दिया। जे एन यू का सपना सिर्फ़ एक सपना नहीं था, वो उस जगह जाने का, वहाँ पढ़ने का, वहाँ की दीवारों से मित्रता करने का, वहाँ के पुस्तकालय में किताबों की गंध लेने का, वहाँ के हॉस्टल में अपनी दीवारों को सजाने का और सबसे आवश्यक विचारों के महसागर में गोते लगाने का सपना था।
फिर उस सपने के 1 वर्ष के अंदर ही जे एन यू पूरी तरह राष्ट्रीय न्यूज़ बन चुका था। सामाजिक-राजनैतिक व राष्ट्रीय चेतना के लिए जाना जाने वाला संस्थान आज देश द्रोही बन चुका था। उस संस्थान पर आरोप लगे कि वहाँ पर ख़तरनाक नारे लगे, देश विरोधी टाइप के। ख़ैर, ये वो दौर था जब एक वर्ष के अंदर एक तरफ़ गोविंद पनसारे और एम एम कलबुर्गी को मारा जा चुका था, एफ टी आइ आइ में छात्र-छात्राएँ एक निहायत ही अयोग्य निदेशक के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे, यू जी सी द्वारा नॉन नेट वज़ीफ़ा ख़त्म करने के विरुद्ध अलग अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले ‘ऑक्युपाई यू जी सी' का संघर्ष कर रहे थे, और संस्थानात्मक चक्की में पिस कर रोहित वेमुला ने अपना जीवन समाप्त किया था। 20 फ़रवरी 2015 को कॉमरेड पनसारे की हत्या से शुरू हुए कोलाहल ने एक वर्ष के अंदर ही छात्र संघर्ष का नया इतिहास लिख दिया था। कश्मीर-पंजाब से लेकर तमिलनाडु के छात्र संघर्ष कर रहे थे। इसी बीच वो हुआ जो छात्र संघर्ष इतिहास में पहले नहीं हुआ था। प्रदर्शन तो बहुत हुए थे परंतु 1 फ़रवरी को छात्र-छात्राओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किया जिसमें पुलिस बर्बरता में कई विद्यार्थी बुरी तरह घायल हो गए। यहाँ से शुरू हुआ एक संस्थान बनाम संघ का संघर्ष। वर्षों से आ रहा वैचारिक मतभेद अब वैचारिक कलह बन गया। क्योंकि सत्ता थी संघ के पास तो सिद्धि भी उसे ही मिलनी थी।
देश में प्रगतिशील छात्र-छात्रा आंदोलन अब अपने सबसे मुश्किल दौर में आने वाला था। अब प्रश्न करने वाले सिर्फ़ क़ानून को ही नहीं आम जैन को नापसंद होने लगे। पहले कहा जाता था “पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब” उससे आगे बढ़कर अब उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों को “करदाताओं के पैसे पर ऐश करने वाले” क़रार दे दिए गये। ये विचार में आग लगाने वाला दौर आ गया। छात्र-छात्रा एक समृद्ध समाज की नींव हैं लेकिन यहाँ पर उन्हें दूसरों के पैसों पर पालने वाले नकारा वर्ग घोषित कर दिया गया, प्रश्न करने की समझ को सरकारविरोधी और चर्चाओं को देशद्रोह के लिए किया जाने वाला षड्यंत्र घोषित कर दिया गया। ये आश्चर्य और अचरज का ही दौर है। यहाँ 26 वर्ष की उम्र में नौकरी करने वाला युवा 28 वर्ष में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र पर एहसान करने की मुद्रा से बात करने लगा ऐसे जैसे उसकी शिक्षा का ख़र्च वो वहन कर रहा हो। कहने लगे यदि माँ-बाप के पास पढ़ाने को पैसा नहीं तो बेहतर है नौकरी करो और इस क़ाबिल बनो कि माँ-बाप का ख़र्च उठा सको। हम सबको इस ‘श्रवण कुमार सिंड्रोम’ से बाहर आना होगा। माँ-बाप हमें पालते हैं, व्यापार के लिए निवेश नहीं करते, वो उम्मीद करते हैं परंतु कॉंट्रैक्ट साइन नहीं करते। उनकी भी इच्छा हो सकती है एक शिक्षित पुत्री-पुत्र के माँ बाप कहलवाने का। और ऐसा सबको होना चाहिए। सभी अलग हैं और सबकी अपनी प्राथमिकता। शिक्षा ग्रहण करने की कोई उम्र नहीं और ना ही उसके लिए ख़र्च वहन करने की विवशता। शिक्षा राष्ट्र के प्रति की गयी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। कोई इस 26 वर्षीय ज़िम्मेदार करदाता को बताए कि इस देश में “प्रौढ़ शिक्षा, जीवनपर्यंत शिक्षा जैसे कोर्स भी हैं और उन्हें पढ़ने वाले विद्यार्थी भी। वही प्राथमिकताएँ।
अब आते हैं फ़ीस पर। क्या जब आप छोटे थे तो महीने के वो दिन याद हैं जब आपके माता-पिता को आपके स्कूल के दरमाहे के लिए व्यवस्था करना पड़ा हो? अगर याद है तो मुझे विश्वास है हॉस्टल की बढ़ी फ़ीस पर आप भी क्रोधित हुए होंगे। और अगर नहीं भी याद तो एक बार उस स्थिति को सोंच कर ही देखिए। मुझे याद है। घर में सबसे महँगी शिक्षा मेरी रही है। और मेरे स्कूल में बढ़ते बढ़ते लगभग सभी भाई-बहन कॉलेज पहुँच चुके थे। फिर भी महीने में वो एक दिन तो आता ही है जब चिंता करनी ही पड़ती है। पिता आपको एहसास नहीं करवाते लेकिन उन्होंने चिंता की होती है। आप उस चिंता को उस उम्र में नहीं समझ सकते। लेकिन इस उम्र में तो समझ सकते हैं। अगर समझ पाते तो विश्वविद्यालय को धर्मशाला कहकर प्राइम टाइम में ख़बर नहीं दिखाते। ये वो पत्रकार हैं जिन्होंने सैकड़ों करोड़ माँगे थे एक ख़बर को ना दिखाने के। ख़ैर, हम लोग भावनाशून्य हो रहे हैं नहीं पता था। क्या शिक्षा सस्ती नहीं होनी चाहिए? अमीर को फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उनके पास ग़रीब बहुत हैं अपना सर्वस्व सौंपने को। लेकिन इस मध्यम वर्ग का क्या? आपको अपने बच्चों की सचूलम कोचिंग और कॉलेज फ़ीस ज़्यादा नहीं लगती? और किताबों के पैसे? नहीं लगते? मैं तो काँप उठता हूँ सोंच कर शिक्षा किस क़दर महँगी हो रही है। ऐसे दौर में उच्च शिक्षा को सस्ता बनाए रखने के लिए किए जा रहे संघर्ष को इस तरह क्यों देखा जा रहा है जैसे कोई मुफ़्तख़ोरी की लड़ाई लड़ रहा हो? और यदि शिक्षा के लिए मुफ़्तख़ोरी की लड़ाई तो वही सही। ‘प्रथम' संस्था ने वर्षों अपने रिपोर्ट में इस मिथक को सत्य बनाने की पूरी कोशिश की कि सरकारी विद्यालयों में आठवीं तक फ़ेल ना करने की नीति उनका नुक़सान कर रही है और वो बस मध्याह्न भोजन के लिए स्कूल आ रहे हैं। हमें आदत है चीज़ों को सामान्य करके देखने की। 70 प्रतिशत मतलब अधिकांश, अधिकांश मतलब सब। ऐसा नहीं है। यह कोई चुनाव तो हाँ नहीं कि 30% पाकर हम लहर लहर चिल्लाने लगें। यहाँ बात है ‘एक’ के महत्व की। जिसे दरकीनार किया जा रहा है। हमारे बीच सिर्फ़ बेहतरीन विद्यार्थियों को ही अधिकार नहीं है अच्छी शिक्षा का। सबको है। सब को मतलब सबको। जो पास हो रहा है उसे भी, जो फ़ेल हो रहा है उसे भी। और परीक्षा कोई पैमाना नहीं है आगे बढ़ने का, वो आगे सीखने का पैमाना हो सकता है। और अधिक महंत करने का हो सकता है।
यही हैं हम। देश में बहुत कुछ चल रहा है। कई विश्वविद्यालय के छात्र-छात्रा संघर्ष कर रहे हैं। महीनों-वर्षों से। फ़ीस को लेकर, उपस्थिति को लेकर, हॉस्टल में सुविधाओं को लेकर, हॉस्टल के गेट खुलने को लेकर, पुस्तकालयों की स्थिति को लेकर, छात्र-छात्रा के बुनियादी अधिकारों को लेकर और सबसे महत्वपूर्ण गर्व से अपनी विचारधारा को मानने और उसका अनुसरण करने को लेकर। जे एन यू एक उदाहरण है, संघर्ष को जीवंत कैसे रखा जाए, 45 दिनों से उत्तराखंड में आयुष अस्पतालों के विरुद्ध किया जा रहा आंदोलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है और उतना ही महत्वपूर्ण है मदरसों की स्वायत्ता, मंदिरों में पंडिताई का शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्रों को सिर्फ़ पंडिताई पढ़ाने का संघर्ष और बहुत कुछ। संघर्षों का चलना बहुत ज़रूरी है। हम सब इस बात को याद रखें कि हम यहाँ तक कैसे पहुँचे, राजा-महरजाओं-कम्पनी राज और कॉलोनी से यहाँ तक। संघर्ष। बहुत सारा संघर्ष। चोट। हार। मायूसी। लेकिन आगे कार्य करते रहने की सोंच। और सबसे आवश्यक अपने विचारों पर गर्व करना। जे एन यू को भी करना चाहिए और हमें भी। उनको भी जो विचरभिव्यक्ति को वैचारिक ग़ुलामी मान बैठे हैं। वो प्रश्न नहीं करना चाहते वो धर्मांध होते हैं, जो प्रश्न नहीं करते वो भक्त और जो प्रश्न करना नहीं जानते वो ग़ुलाम। प्रश्न करिए, स्वयं से भी, अपनों से भी और जहाँ शंका हो उससे भी।

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