शिक्षा, संघर्ष तथा संगठन: असमान समाज
के समानता की ओर
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अंकित झा
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अंजलि लेखी
देश बनता है विविधता से, समाज टूटता है असामनताओं से. विवधता है कि देश में जलवायु वृहद् है, विवधता है कि एक ओर जब कहीं सूखा पड़ता है तो दुसरे क्षेत्र में फसल लहलहाती है. असामनता है कि एक जलविहीन राज्य महाराष्ट्र में 60% पानी मात्र तीन जिलों (मुंबई, ठाणे तथा पुणे) को प्राप्त होता है.
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P. Sainath delivering lecture at DSSW.
Photo: Vishal Bhandari |
एक देश, असंख्य विसंगतियां. विविधता. तथा पारस्परिक
सौहार्द्य. यह सब किसी परिकथा से कम नहीं है. एक ऐसा देश जो किसी राष्ट्र की
परिभाषा को शब्दतः चुनौती देता है. तत्पश्चात सामना होता है एक सत्य से जो भयानक
है, सामजिक तथा आर्थिक रूप से भारत की विविधता, मात्र विविधता नहीं है असामनता है.
विवधता तथा असामनता में एक भेद निहित है जिसे प्रस्तुत करते हैं पी. साईनाथ. एक
ऐसी अर्थयवस्था जहां देश के सबसे अमीर 67 व्यक्तियों के पास देश के 30 करोड़
व्यक्तियों जितना धन है, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ के सबसे अमीर व्यक्ति के पास
देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब व्यक्तियों (25 करोड़) जितना धन है, और फिर सामने आती
है असामनता. देश बनता है विविधता से, समाज टूटता है असामनताओं से. विवधता है कि
देश में जलवायु वृहद् है, विवधता है कि एक ओर जब कहीं सूखा पड़ता है तो दुसरे
क्षेत्र में फसल लहलहाती है. असामनता है कि एक जलविहीन राज्य महाराष्ट्र में 60%
पानी मात्र तीन जिलों (मुंबई, ठाणे तथा पुणे) को प्राप्त होता है, असामनता है कि
नगरी महाराष्ट्र, ग्रामीण महाराष्ट्र के मुकाबले 400% अधिक जल प्राप्त करता है. ऐसी
असामनता के मध्य पनपता है विषमता का विष जो कि समाज के संचालन के लिए घातक है.
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P. Sainath with Department Head Prof. Manoj K Jha (Right)
Photo: Vishal Bhandari |
दिल्ली समाज कार्य विद्यालय प्रांगण में 4 अप्रैल को अम्बेडकर
मेमोरियल लेक्चर समिति, समाज कार्य विभाग द्वारा आयोजित द्वितीय वार्षिक अम्बेडकर
मेमोरियल लेक्चर के उपलक्ष्य पर पी. साईनाथ द्वारा सभा को संबोधित किया गया. इस
अवसर पर उन्होंने मुंबई के शिवाजी पार्क में हुए एक आम सभा का ज़िक्र किया जिसे
मीडिया ने ज्यादा तूल नहीं दिया. नवनिर्वाचित सरकार के तीन महीने के अन्दर ही सीबीआई
निदेशक ने इस बात का अंदेशा जताया था कि देश के कई लोगों का विदेशी बैंकों में धन
जमा है जिस पर कार्रवाई आवश्यक है. समाज निर्माण एक प्रक्रिया है, और एक समय ऐसा
आता है जब प्रक्रिया से उन लोगों को ही वंचित कर दिया जाता है जो कि इस निर्माण
में भागीदार थे. जैसे कि भवन निर्माण के समय कार्य करने वाले मजदूरों को उसी भवन
में प्रवेश से वंचित कर दिया जाता है. यहाँ दिखता है हमारे समाज का वो चेहरा जिसे
हम असमान कहते हैं. एक ऐसा घिनौना तथा वीभत्स चेहरा जिसमें से रिसते हैं असमानता
के विषाणु. 26 नवम्बर 1949 को डॉ अम्बेडकर ने संविधान का मसौदा प्रस्तुत करते हुए
कहा था कि “26 जनवरी 1950 से हम अन्तर्विरोध के ऐसे समय में प्रवेश करेंगे जहां राजनैतिक
समानता तो होगी परन्तु आर्थिक व सामजिक असामनता से हम उबर नहीं पायेंगे. राजनैतिक पृष्ठ
पर हम एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत पर विश्वास करेंगे परन्तु सामाजिक पृष्ठ पर
हम उसी सिद्धांत को दरकिनार कर देंगे.
आखिर कब तक हम इस असमानता को इसी तरह लेकर फिरते
रहेंगे, कब तक हम इस सत्य से चेहरा छुपाये घूमते रहेंगे कि ये असमानता हमारे लिए
खतरनाक है? और कब तक हमारा समाज राजनैतिक समानता तथा आर्थिक असामनता के अंतर्विरोध
में जीता रहेगा? और जब तक यह रहेगा हमारा लोकतंत्र विषमताओं से घिरा रहेगा. या तो
हम इन असमानताओं को यथाशीघ्र समाप्त करें अथवा असमता से पीड़ित लोगों के द्वारा
अपने इस सुसज्जित लोकतंत्र की हत्या करने की प्रतीक्षा करें.” 67 वर्ष पूर्व कही
गयी वो बातें आज के परिपेक्ष में भी उतनी ही सार्थक और सहज है. इस प्रत्यक्ष को
किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं कि हमारा समाज आज भी सामजिक असमानताओं से ऊपर नहीं
उठ पाया है. जातिगत असामनताओं के साथ-साथ आर्थिक असामनता ने भी अपनी जडें मजबूत कर
ली हैं. हर समाज में एक उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग निर्मित किये गये हैं, और ये
निर्माण समाज के सुगम संचालन के लिए नहीं वरन समाज को विभाजित करने हेतु बनाये गये
हैं. जब सभी मनुष्य जन्म के समय सामान होता है तो फिर असमान कैसे हो गये? साईनाथ
कहते हैं, कोई भी मनुष्य समान पैदा नहीं होता है, आज के समाज में सभी मनुष्य अलग
पैदा होता है, इस सत्य को हमें स्वीकार करना होगा कि विभिन्न जातियों, विभिन्न
धर्मों में, विभिन्न आर्थिक वर्गों में पैदा होने वाले बच्चे अलग होते हैं. उनके
जीवन का प्रारंभ अलग होता है, उनका समाजीकरण अलग होता है, वो अलग परिदृश्य में
पलते हैं, अलग संस्कृति के संरक्षक बनते हैं, अलग पहचान के साथ, अलग विचार तथा अलग
अनुभवों के साथ बड़े होते हैं. फिर समानता कहाँ से आएगी?
शिक्षित बनो....
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P. Sainath unveiling Milestone Magazine
Photo: Vishal Bhandari |
शिक्षा से आंबेडकर का आशय मात्र विद्यालयीन शिक्षा से
नहीं था, शिक्षा का आधार है समाज में परिवर्तन की लौ को प्रज्वलित करना. प्रारंभ
से ही शिक्षा एक खास वर्ग की विरासत रही है अतएव एक खास वर्ग ने सदा समाज में अपने
हिसाब से परिवर्तन प्रवाहित किया है. साईनाथ ने काफी मुखर हो इस बात को रखा कि विद्यालय
तो शिक्षा प्रदान करते ही नहीं, वे तो मात्र कठिन प्रशिक्षण देती है कि आने वाले
समय में धन कैसे अर्जित किया जाए, और अपने इस खोखले उद्देश्य में भी भारतीय शिक्षण
प्रणाली बुरी तरह असफल रही है. यदि शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य रोजगार प्रदान
करना ही था, तो आज बेरोज़गारी क्यों है? यह जानने की आवश्यकता है. शिक्षा को सामाजिक
बंधनों से मुक्त माना जाता है परन्तु क्या हम सच में यह कह सकते हैं कि हमने कभी
भी शिक्षा को सामाजिक बन्धनों से मुक्त पाया हो? वर्णाश्रम के नाम पर जो शिक्षा के
साथ इस देश में मज़ाक हुआ है, वो दुखद है. यह जानने वाली बात है कि किस तरह हर वर्ग
के लिए शैक्षणिक आवश्यकताएं अलग अलग हैं. एक वर्ग के लिए शिक्षा से आशय बेहतर
सुविधाएं हैं तो दुसरे वर्ग के लिए मूलभूत सुविधा.
पंचायत चुनाव में न्यूनतम शिक्षा का पैमाना लाकर एक
बड़े वर्ग को चुनाव लड़ने से अनभिज्ञ कर दिया गया है. राजस्थान के 90% दलित महिलाओं
को इस तरह से सदा के लिए चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है, साथ ही साथ 62% दलित पुरुषों को भी इस
प्रक्रिया से विभाज्य कर दिया गया है. अब इस सब में समाज की विडंबना यह है कि अपनी
कमजोर इच्छा शक्ति तथा उन नीतियों के लिए जिसके कारण यह अशिक्षा पनपी, के लिए
सरकार को कोई सज़ा ना देकर उन महिलाओं को सज़ा मिल रही है जो कि सही शब्दों में
पीड़ित हैं. इन नीतियों के बावजूद यदि हम समाज को प्रगतिशील तथा समावेशिक कहते हैं
तो यह दुखद है. ऐसे समय में आवश्यकता होती है शिक्षा की जो सत्य व सही में अंतर कर
सके. अशिक्षा एक सत्य है परन्तु अशिक्षितों को मिलने वाली सज़ा क्या सही है? अशिक्षा
कोई अपराध नहीं है, यह सामजिक तथा संवेधानिक नीतियों की असफलता का जीता-जागता प्रमाण
है.
अशिक्षा के परे एक और समस्या है, यह समस्या शिक्षितों
की समस्या है. पढ़े-लिखों की पढ़ी-लिखी समस्याएं. यह समस्या है पूंजीवादी बाज़ार में
स्वयं को स्थापित करने की समस्या. मुंबई के प्रसिद्ध ‘बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल’ का
उदाहरण देते हुए साईनाथ समझाते हैं कि किस प्रकार पूंजीवाद भी एक वर्ग संघर्ष की
ओर बढ़ रहा है. ‘उस स्कूल में धनाढ्य परिवार के बच्चे ही पढ़ते हैं, मुंबई के व्यस्त
सड़क यातायात के बावजूद तीन लेन की पार्किंग रखने का माद्दा भी रखती है. कुछ वर्ष
पहले तक स्कूल में करोड़पति लोगों के लिए अलग से साम्याना होता था, धीरे-धीरे देश
में और खासकर मुंबई में करोड़पति बढ़ने लगे और कई लोग करोड़पति से अरबपति हो गये. अमीर
तो करोड़पति भी और अरबपति भी. अलग से साम्याना अब करोड़पति से छीन के अरबपति के
हवाले किया जाए अथवा उन साम्यानों के अन्दर एक साम्याना बनाकर अरबपति को लाया जाए?
यह बड़ा प्रश्न विद्यालय प्रशासन के समक्ष खड़ा है. आखिर इस सब का क्या निदान है?’ पूंजीवाद
अपनी झोली में अपनी तरह की समस्याएं लेकर आता है. निरर्थक तथा हास्यापद. यह नए
जमाने का कड़वा वर्ग संघर्ष है, जहां पर एक अत्याचारी वर्ग खुद एक पीड़ित के रूप में
उभरा है. यहाँ जन्म लेता है वैचारिक संघर्ष, संघर्ष कि समाज को अब सच में शिक्षा
की आवश्यकता है. समाज को शिक्षा मिलें या न मिलें उन्हें शिक्षित मिलना बहुत
आवश्यक है.
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Photo: Vishal Bhandari |
संघर्ष करो....
संघर्ष से अम्बेडकर का आशय एक ऐसे वैचारिक चेतना से
है जहां सत्य तथा सही का अर्थ सब के समझ में आये. कोई भी लड़ाई सत्य के लिए नहीं
अपितु सही के लिए लड़ा जाये, फिर वो किसी स्थापित सत्य के विरुद्ध ही क्यों हो.
सत्य तथा सही सभी किसी इंसानी मस्तिष्क की उपज है जो हर परिदृश्य में परिवर्तित हो
सकते हैं. यह संघर्ष एक ऐसे मस्तिष्क के घर्षण से है जो हर समय स्वयं से यह प्रश्न
पूछे कि जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है? विश्व के अधिकांश परिवर्तन उन विवेकशील
तथा संघर्षशील मस्तिष्कों की ही उपज रही है जिन्होंने हमेशा समाज से यह पूछा कि यह
क्यों हो रहा है, फिर वो गाँधी हो, अम्बेडकर हो, या मार्टिन लूथर किंग. कुछ भी
स्वतः नहीं बदलता है, समाज में सब कुछ एक समय के बाद बदलना ही पड़ता है परन्तु
परिवर्तन में तथा पर्याय में एक अंतर है. परिवर्तन यदि समूल न हो तो वो और बजी
खतरनाक हो जाता है. वर्तमान समाज के लिए सबसे दुखद बात यह है कि लोहों को
स्वत्न्र्ता का अर्थ तो पता है अपर इसके लिए किये गये संघर्ष का अर्थ नहीं पता.
लोगों ने उस संघर्ष को भी भाषा, धर्म, विचारों तथा विचारकों के नाम पर बाँट दिया
है. संघर्ष एक संघर्ष होता है और स्वतंत्रता के लिए किया गया संघर्ष हर रूप में एक
महान संघर्ष था. हम सब को उसका मतलब समझना आवश्यक है.
संगठित रहो....
शिक्षा तथा संघर्ष के बाद सबसे आवश्यक है संगठित
रहना. एक अर्थ तथा एक हित के लिए सदा एक जुट रहना. समाज का कोई भी वर्ग जब संघर्ष
करे तो यह आवाह्यक है कि संघर्ष संगठित हो, अथवा सम्पूर्ण संघर्ष बिखर जायेगा. आज
के समय बहुत सारे कर्मचारी संघ हैं परन्तु प्रश्न यह है कि संगठित कितने हैं. समकालीन
परिदृश्य में छिड़े छात्र संघर्ष को भी यदि संगठित किया जाता तो यह और भी भीषण
होता. परन्तु समाज के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करना था और वो बखूबी किया गया. सत्ताधारियों
द्वारा शिक्षण संस्थानों पर किये गये चार प्रहारों से जन्मे संघर्ष से यह सिद्ध
होता है कि किसी विचार का पनपना समाज में कितन आवश्यक है.
किसी विचार के पैदा होने से अधिक आवश्यक है उस विचार
का निर्वाह करना. और इस समय आवश्यकता है नये विचारों के निर्माण तथा उसके सफल
निर्वाह की. समाज को छात्र से बहुत उम्मीदें हैं, और इन उम्मीदों का नाम है
शिक्षा. सभी असमानताओं से परे एक समानता जो समाज को जोड़ती है वो इसका एक-दुसरे के
ऊपर परस्पर निर्भरता. इस निर्भरता को निर्वाह कर परिवर्तन की ओर देखना होगा, समाज
को आगे बढ़ना होगा.