समझदार
-
अंकित
झा
मेरे मोहल्ले का वो पागल
लड़का,
जो नहीं मानता था राम और
कृष्ण को,
लेकिन मानता था उनकी कहानी
में.
जो सपनों में भी नहीं
चाहता था,
कि बने कहीं पर मंदिर,
और टूटते रहे लोगो के
सपनों का घर,
किसी अतिक्रमण की आर में.
वो लड़का जिसने कभी किसी से
कोई प्रश्न नहीं किया, अपने
स्वभाव को लेकर.
वो लड़का जो अन्दर ही अन्दर
कुढ़ता था
अपनी माँ के ढंके चेहरे को
देखकर.
वो लड़का जो चाहता था उसकी
बहन भी
पढ़े उसके साथ कॉलेज में,
जिसने नहीं पहनी थी
शेरवानी उसकी शादी में,
वो लड़का जो नहीं चढ़ना
चाहता था,
घोड़ी, किसी अनजान की
किस्मत कुचलने के लिए,
वो लड़का जो लड़ना चाहता था,
एक बार समाज से अपनी
मोहब्बत के लिए,
जो उसे हुआ था मात्र 15
वर्ष की उम्र में,
वो लड़का जो नहीं देखता था
खेत की
हरियाली के सपने खुले
आँखों से,
वो लड़का जिसने देखा था
अपने दोस्त को लटकते
चौक के नीम से, अपनी
प्रेमिका संग.
वो लड़का जिसकी जिह्वा बड़ी
काली थी,
वो लड़का जो नहीं रखता था
शौक देह फुलाने के,
जो बैठता था कक्षा में
आखिरी सीट पर,
गाता था फैज़ के नज़्म और
सुनता था
पाश की कवितायेँ.
वो लड़का जिसने माँ से कभी
प्रश्न नहीं किया,
उसकी माँ प्रश्न वाली
आँखें लेकर खड़ी हैं,
उसके मृत शरीर के समक्ष,
पूछ रही है कि क्या हुआ है
इसे?
किसी ने जवाब दिया समझदार
हो गया था...
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