मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

कुपढ़ समाज में ‘बेला’ होने का अर्थ


कुपढ़ समाज में ‘बेला’ होने का अर्थ

-          अंकित झा

बस्तर तीन विचारों में बंटा हुआ है; एक विचार नक्सलवाद को आतंकवाद का आदिवासी चेहरा कहकर प्रशासन को सुगठित करने की ओर कार्य करती है, दूसरा विचार नक्सलवाद को असंतोष से उपजी एक आन्दोलन का नाम दे उसे समर्थन देती है और सबसे विकत है तीसरा विचार जो कि उपरोक्त दोनों के मध्य चल रहे संघर्ष में बेमौत मारे जाने के डर में जी रहे हैं. ये कैसी विवशता है कि अपनी ज़मीन से हमें ही बेदखल कर हम पर ही धौंस जमाया जाए. बेला इसी तीसरे विचार की संरक्षक हैं.

यह प्रश्न मात्र बेला के संघर्ष का नहीं है, यह प्रश्न बस्तर के संवैधानिक स्वायत्ता का है जिसे दिन-प्रतिदिन नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है. बेला भाटिया वर्तमान सामाजिक कार्य क्षेत्र में एक अद्वितीय चेहरा है, चार दशकों से भी अधिक का करियर. एक समाज सेविका, शिक्षाविद, पत्रकार तथा सक्रियतावादी कार्यकर्ता के रूप में किये गये उनके कार्य उनके जीवन आदर्श तथा सामजिक चिंतन को बखूबी दर्शाते हैं. टाटा सामजिक विज्ञान संसथान से स्नातकोत्तर करने के पश्चात विगत चार दशकों में उनके द्वारा किये गये कार्य साक्षी है कि किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक लोकतंत्र के अन्दर ही संघर्ष किया जा सकता है. नर्मदा बचाओ आन्दोलन से लेकर बथानी टोला जनसंहार तथा मध्य बिहार से लेकर आंध्रप्रदेश तथा अब छत्तीसगढ़ राज्य में नक्सल प्रभावित क्षेत्र में उनका संघर्ष, उनके समर्पण का जीवंत उदाहरण है.
बेला भाटिया
Source:newsghana.com.gh

प्रश्न यह है कि समाज में व्याप्त वो ऐसा कौन सा सद्गुण है जो किसी मनुष्य को बेला भाटिया जैसा बनाता है. ना परिवार की मोह, ना अकेलेपन का भय, ना प्रश्न करने से झिझक ना उत्तर देने में अस्पष्टता. कैसे किसी मनुष्य के अन्दर अपने मूल्यों तथा विचारों को लेकर इतनी स्पष्टता हो सकती है? ऐसी कौन सी शक्ति उनके अन्दर से उत्पादित होती है जो बेला को ऐसी विषम स्थितियों में मैदान ना छोड़ने की शक्ति प्रदान करता है? इस बुरी तरह कुपढ़ समाज में कोई बेला कैसे जन्म लेती है? किसी बेला का निर्माण कैसे होता है? यह एक आवश्यक प्रश्न है. अनपढ़ तथा कुपढ़ समाज में एक अंतर है, अनपढ़ समाज पढ़ नहीं पाता परन्तु कुपढ़ समाज पढता तो है परन्तु किसी अन्य को कुछ और ही बताता है. ये वो प्रजाति है जो सबसे अधिक प्रतिरोध उत्पन्न करते हैं.
विगत कुछ महीनों से बेला पर बस्तर छोड़ने का दवाब बनाया जा रहा है. इस बात का ज़िक्र उन्होंने अपनी चिट्ठी में की थी जिसे पत्रिका ने प्रकाशित भी किया था. बकौल भाटिया, “जगदलपुर में सामाजिक एकता मंच ने मुझपर नक्सल समर्थक होने का आरोप लगाकर मुझे बस्तर छोड़ने के लिए कहा है. शायद उन्हें पता नहीं कि मेरे लेखों में माओवादियों द्वारा किये गये मानवाधिकार उल्लंघनों तथा हिंसा के बारे में टिप्पणियां भी हैं. मैं बस्तर में रहने आई हूँ, जो कुछ भी हुआ, बावजूद उसके मैं बस्तर नहीं छोड़ने वाली हूँ.” बेला का यह विश्वास अपने आप में उनकी दृढ़ता का प्रमाण है कि वो किसी शोध पर्यटन पर बस्तर नहीं गयी हुई हैं. उनका बस्तर में रहना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो उन्होंने सामाजिक हालातों का अध्ययन करते हुए लिया है. इससे पहले भी वो कई समाजिक मुद्दों पर मुखर रही हैं, परन्तु छत्तीसगढ़ में पुलिस तथा माओवाद के मध्य चल रहे संघर्ष के मध्य एक समाज सेविका होने की कुछ कीमत चुकाने के लिए उन्हें विवश किया जा रहा है. किसी पीड़ित का साथ देना, उसकी सत्यानुभूति करना, उसके अधिकारों के लिए लड़ना कब से आतंकवाद हो गया, यह समझ के परे है. हमारा समाज कुपढ़ लोगों का अड्डा बनता जा रहा है. ऐसी विषमताओं के मध्य भी बेला का लोकतंत्र पर विश्वास यह दर्शाता है कि उनकी विचारधारा और समाजिक चिंतन कितना गहन है. गाँधी की जीवनशैली और अम्बेडकरवादी विचार पद्धति. बेला का मानना है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के उपर हो रहे दुराचार को राजनैतिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक परिदृश्य से देखना बहुत आवश्यक है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो कुछ बदले या न बदले परन्तु यह संघर्ष गहराता चला जाएगा और पीड़ितों की संख्या भी निरंतर बढती चली जाएगी.
Source: mediavigil.com 
18 अप्रैल को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में मीडिया को संबोधित करते हुए बेला ने कहा कि छत्तीसगढ़ इतिहास के उस दोराहे पर खड़ा है जहां से या तो यह पूरी तरह जीतेगा या पूरी तरह हारेगा. अपने संबोधन में उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि बस्तर में असली पीड़ित प्रशासन अथवा माओवादी नहीं बल्कि बेक़सूर आदिवासी हैं जो कभी सलवा जुडूम के नाम पर विस्थापित किये जाते हैं तो कभी दुष्कर्म और हत्या की ज्वाला में जलने पर विवश. छत्तीसगढ़ किसी साम्राज्य की तरह कार्य करता है जहां पर कांकेर में स्थित ‘जंगल वारफेयर कॉलेज’ से निकले सिपाही अपने जैसे ही कुछ लोगों पर हथियार ताने गश्त लगाए फिरते हैं, पुलिस वहां पर किसी क्रूर शासक की तरह करती है और जैसे ही किसी सामजिक चिंतन की बात उठी वो राष्ट्रद्रोह घोषित कर दिया जाता है. बस्तर तीन विचारों में बंटा हुआ है; एक विचार नक्सलवाद को आतंकवाद का आदिवासी चेहरा कहकर प्रशासन को सुगठित करने की ओर कार्य करती है, दूसरा विचार नक्सलवाद को असंतोष से उपजी एक आन्दोलन का नाम दे उसे समर्थन देती है और सबसे विकत है तीसरा विचार जो कि उपरोक्त दोनों के मध्य चल रहे संघर्ष में बेमौत मारे जाने के डर में जी रहे हैं. ये कैसी विवशता है कि अपनी ज़मीन से हमें ही बेदखल कर हम पर ही धौंस जमाया जाए. बेला इसी तीसरे विचार की संरक्षक हैं. किसी यिद्ध की तरह उनका ज़मीनी कार्य एक चुनौती है सरकारी तन्त्र के लिए जो विकास के नाम पर अद्दिवासियों से खेलती है और नक्सलवाद के नाम पर विकास से. आखिर क्यों सरकार सुकमा और बीजापुर को नया भिलाई, रायगढ़ और बिलासपुर बनाना चाहती है? क्या विकास और विस्थापन की कम भयंकर कहानियाँ हमने सुन रखी हैं?  
'ब्लैकआउट  इन बस्तर मीडिया वार्ता का एक दृश्य
फोटो: अंकित झा 

बेला के ऊपर भीषण आरोप लगाकर उन्हें बस्तर से बेदखल करने का षड्यंत्र किसके द्वारा रचा गया यह सोंचने का विषय है. प्रेस को संबोधित करते हुए बेला ने कहा कि जगदलपुर तथा आस पास के क्षेत्रों में माइक लगाकर यह उद्घोषणा की जा रही है कि यदि कोई बाहर वाला आपसे किराए पर मकान मांग रहा है तो इसकी सूचना पुलिस को अवश्य दें. अपने ही देश में ऐसी यंत्रणा सहना, एक आम नागरिक के लिए दुखद है. एक विचार और एक विचारधारा मनुष्य को कितना कुछ सहने पर विवश करती है यह बेला की स्थिति में साफ़ दिखता है. आखिर प्रदेश सरकार को किस बात का डर है, इस एक महिला और उसके कलम से? क्या छत्तीसगढ़ की सामजिक समरसता इतनी कमजोर है कि एक महिला अपना विचार रख एक गाँव में चैन से निवास भी नहीं कर सकती, यदि ऐसा कुछ है तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, एक बुरी सूचना है. बेला अपने बेला होने का फ़र्ज़ निभा रही हैं, दुनिया कोम यह बताने की असफल कोशिश कि यदि देश में सबकुछ ठीक होने का दावा किया जा रहा हो तो अवश्य ही किसी कोने में किसी पीड़ित के ऊपर ज़ुल्म हो ही रहे होंगे? वरना इतने कोलाहल मचे क्षेत्र में शोर का इस तरह दब जाना भी अपने आप में प्रश्न खड़े करता है. लोकतंत्र की रक्षा हेतु बेला की इस लड़ाई में मैं तो उनके साथ हूँ, मेरे हिस्से का समर्थन बेला को अवश्य मिलें. अगले अंक में कमल शुक्ल की बात, और बातें भूमकाल तथा घोटुल की. 

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