सोमवार, 14 नवंबर 2016

कविता

तकलीफ़ 
- अंकित झा 


मुझे तकलीफ़ है, मेरा नाम उस संस्था से जुड़ने में 
जहाँ आते हैं सौदागर,
जो पहले करते हैं बर्बाद 
और फिर समाज की आड़ में
ले के आते हैं प्रस्ताव
समाज सुधारने का।।
मुझे तकलीफ़ है उन साथियों से,
जिन्होंने हाथ में मोमबत्ती थाम
ली थी प्रतिज्ञा समाज के हित के लिए
काम करने की।
आज धन की आँधी में
अपने अस्तित्व से प्रश्न करते साथियों
से मुझे तकलीफ़ है,
मुझे तकलीफ़ है संस्था
के अवचेतन में बसे शिक्षा से,
जिसने हमें बताया था प्रश्न करने को,
पर उन प्रश्नों से बौखलाए वो हमें
दरकीनार कर रहे हैं,
इस द्विज़्मुख से मुझे तकलीफ़ है।।

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