सोमवार, 30 जून 2014

फिल्म समीक्षा



प्रेम, प्रताड़ना, प्रतिशोध व प्रतिघात: अर्थात एक विलेन 
                                                                                         
                                                                                                 - अंकित झा 

एक दुसरे से जुडी 2 कहानियाँ, परन्तु कहीं भी मेल नहीं खाती. एक प्रेम कहानी में दुनिया की भीड़ से जुदा एक गुनाहगार, जिसे बददुआयें किसी सौगात की तरह मिलती है, उसी प्रेम कहानी में एक लड़की है जो दुनिया के हर घटना में एक ख़ुशी देखती है. एक डायरी है, जिसमे उस लड़की ने अपनी इच्छाएं छुपा रखी हैं, उसके सपनें, उसके कुछ अरमान, उसकी अभिलाषाएं. वहीँ अपनी सारी इच्छाओं को वो लड़का अपने पिता समान अपने मालिक को समर्पित कर चूका है, मौत के खौफ़ से परे उसकी ज़िन्दगी जिसका कण-कण वो उस माफ़िया को अर्पित कर चुका है. अपने ज़िन्दगी से जिसे किसी तरह के ऋण की अपेक्षा नहीं है,  स्वयं को मृत समझने वाला वो अपराधी, जो एक असुर की तरह शहर के लोगों का संहार करता है अपने मालिक के सिर्फ एक इशहरे पर. इस अपराधी की मुलाकात उस लड़की से होती है, दो विपरीत जिंदगियां, दो विपरीत संस्कार, ज़िन्दगी के प्रति दो विपरीत नज़रिया एक दुसरे से मिलते हैं, कितना सुखद व कितना अद्भुत रहा होगा वो समय जब आयशा व गुरु की मुलाकात हुई होगी. न जाने कैसे परन्तु जब भी कभी दो विपरीत शक्तियां आपस में मिलती है तो स्वतः ही आकर्षण पैदा होता है, इस आकर्षण में प्रेम था. कहानी का आधार ही गुरु की हैवानियत तथा आयशा की मासूमियत है. वो सभी के ज़िन्दगी में खुशियाँ भर देना चाहती है, वो खुशियों की परवाह किये बिना, ज़िन्दगी छीन लेता है. अच्छाई सदा से ही बुराई से उत्तम रहा है, और आयशा की अच्छे गुरु के बुराई को मार दे देती है. अपने अधूरेपन को गुरु आयशा की इच्छाओं से पूरा करने लगता है, ज़िन्दगी के प्रति आयशा के रवैये का वो मुरीद हो जाता है, और उसे अपना दिल हार बैठता है. आयशा की इच्छाएं जिसे वो अपने किसी बीमारी के कारण मृत्यु से पूर्व पूरा कर लेना चाहती है, जैसे- पहली बरसात में मोर को नाचते देखना, तितली पकड़ना, किसी की ज़िन्दगी बचाना इत्यादि. ये सभी सपने हमें ज़िन्दगी के प्रति हमारे सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है. और कहीं न कहीं हृषिकेश मुख़र्जी की अमर महाकाव्य "आनंद" की याद भी दिलाता है, जिसमें एक गीत के बोल हैं, 'ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हसाए कभी ये रुलाये'. परन्तु इस वर्ष का ये आनंद जब गोवा से मुंबई पहुँचता है तो हमें दूसरी कहानी मिलती है.

 एक शादीशुदा जोड़ा, उनका एक बेटा, एक छोटी सी दुनिया. उस दुनिया में प्रेम नहीं है, अभिलाषाएं पूर्ण ना हो पाने की उच्चाहट है, अभाव में ज़िन्दगी व्यतीत करने की आदत. पति सरकारी विभाग का एक आम सा कर्मचारी, पूर्णतः उपेक्षित. कार्यालय में अपने बॉस द्वारा, कार्यस्थलों पर घरके मालकिनों द्वारा, शहर की लड़कियों द्वारा, घर में अपनी पत्नी द्वारा, हर ओर से उपेक्षित. सभी द्वारा उसे स्वयं के प्रति शिकायत ही सुनने कोमिलती है, जवाब में कुछ नहीं है, सीधापन कहे या बेव्कोऊफी परन्तु वो जवाब नहीं देता है, बस फिर शिकायत का मौका न मिलने का आश्वासन देता है. घर में उसकी पत्नी उसे उलाहना देती है, कोसती है, अपने अभाव में जीवन यापन का दोष उस के सर मढती है, यहाँ तक की उसे मारती भी है. वो सबकुछ सहता है, क्योंकि अपने पत्नी से वो प्रेम करता है, अगाध प्रेम. इतना कि मन में सिर्फ एक स्वपन लिए है, किसी दिन तो उसकी पत्नी उससे अपने प्रेम का इज़हार करेगी. मन ही मन घुटता हुआ वो अपने अन्दर एक शैतान को पैदा कर लेता है. उस शैतान से वो उन औरतों को मारता है, जो भी उससे शिकायत करती हैं, उससे दुर्व्यवहार करता है. आँखों में भोलापन, वाणी में भोलापन परन्तु कर्मों में वो खूंखार हो जाता है, कोई दयाभाव नहीं. ये प्रतिघात की तरह प्रतीत होता है, समाज द्वारा उसके ऊपर किये गये प्रताड़ना का प्रतिकार. इसी क्रम में एक दिन आयशा, उस शैतान से शिकायत कर बैठती है, बस फिर क्या था? अपने अन्दर के शैतान को जगा कर वो सीधासाधा सरकारी कर्मचारी आयशा के घर पहुँच जाता है. आँखों में वही खौफ, हाथ में वही हथियार, तन पे वही काली पोशाक, और मन में वही उद्वेग. आयशा प्रलाप करती रह गयी, अपने गर्भवती होने की दुहाई देती रही, परन्तु उस दुष्ट का ह्रदय नहीं पसीजा और कभी उड़ने का ख्वाब देखने वाली आयशा को उसके ही घर से धक्का दे के सदा के लिए संसार में उड़ने को मुक्त कर दिया. 

यहाँ से आरम्भ होता है, प्रतिशोध की कथा. गुरु का प्रतिशोध अपने पत्नी के हत्यारे से. वो हत्यारा जो शहर की औरतों का शत्रु बन बैठा है. जिस किसी ने उसके प्रति उपेक्षा का भाव प्रदर्शित किया, उसके लिए वो सजा तय कर देता है. फिर क्या होगा जब दो दुष्ट एक दुसरे मिलेंगे? उस समय वातावरण का रंग क्या होगा जब चंडाल से मनुष्य बन चूका गुरु अपनी ज़िन्दगी की वजह के मौत का बदला लेगा? बस यही कहानी है फिल्म एक विलेन की. यह एक अद्भुत फिल्म है, यहाँ पर भावनाओं की इतनी तीव्रता है की समाज में रिश्तों व मानवीय करुना का पुनर्सत्यापन संभव सा लगता है. सामाजिक कटुता पर एक दुर्गम सा कटाक्ष है, वर्ग संघर्ष के प्रति विद्रोह है. यह मानवीय भावनाओं का एक महाकाव्य है. हालाँकि सिनेमा के हिसाब से इसमें कई कमियां हैं, हर फिल्म में होती है. कथा छोटी तथा इंटरवल के बाद पटकथा थोड़ी बिखरी हुई लगती है. मानव मन की पीड़ा को विद्रोह का रूप दिया गया है, वहीं अभाव को स्वभाव का. घरेलु हिंसा को वर्ग संघर्ष से जोड़ने की कोशिश की गयी है, वहीं प्रेम व ज़िन्दगी के विराट स्वरुप को प्रदर्शित किया गया है. संगीत फिल्म की जान है, हर गाना कर्णप्रिय है. गीतों के बोल से लेकर संगीत मधुर है. मोहित सूरी का निर्देशन भी अच्छा है, वो एक प्रेम कहानी तथा थ्रिलर को खूबसूरती से रचते हैं, फिल्म के हर दृश्य को वो एक स्वपन की तरह उतारते हैं. एक आम से लगने वाले अंत को वो शानदार अभिनय की सहायता से अद्भुत बनाते हैं. परन्तु फिल्म का संतोषजनक नहीं है, कुछ अधूरा सा प्रतीत होता है. फिल्म में छायांकन व ध्वनि निर्देशन का महत्वपूर्ण स्थान है, फिल्म के कुछ दृश्य ज़ेहन में खौफ पैदा करने में सफल होते हैं. आयशा की मृत्यु तथा अस्पताल में नर्स पर हमले का दृश्य खूबसूरती से रचा गया है. एक विलेन को देखने लायक यदि कुछ बनता है तो वो है, फिल्म के कलाकारों का शानदार अभिनय. सिद्धार्थ मल्होत्रा अपने तीसरे फिल्म में सहज नज़र आते हैं, पिच्च्ले दो फिल्मों में रोमांटिक अभने करने के पश्चात वो इस फिल्म में संजीदा अभिनय करते हैं, तथा अपने आप को ठीकठाक प्रस्तुत करते हैं, कुछ दृश्यों में हालांकि वो पीछे छूटते दिखते हैं. अपने संवाद बोलने पर उन्हें काम करने की आवश्यकता है, अथवा वो फिल्म में शानदार अभिनय करते हैं. श्रद्धा कपूर की मासूमियत फिल्म को साँसें देती है, उनका भोलापन तथा अभिनय किसी कवि के शानदार रचना की तरह लगता है. उनके संवादों को ख़ूबसूरती से व्यक्त करती हैं तथा उनके भाव आँखों को ख़ुशी देती है. रितेश की पत्नी की भूमिका में आमना शरीफ ठीक हैं, परन्तु उन्हें ज्यादा कुछ करने को दिया नहीं गया, हालाँकि उन्होंने कहानी के प्रवाह को ख़ूबसूरती से आगे बढ़ाया है. लेकिन यह फिल्म समर्पित है भारतीय सिनेमा के उन सभी खलनायकों को जिन्होंने नकारात्मक शक्ति को फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया. और हमें मिलता है एक और खलनायक. रितेश देशमुख, पत्नी से प्रताड़ित पति की भूमिका हो या कार्यालय में अपने बॉस से डांट खाता कर्मचारी या फिर औरतों को बेरहमी से मारता एक दुष्ट. इन तीनों भूमिकाओं को रितेश ने अमर कर दिया है. अपने करियर में उन्होंने बहुत कम संजीदा भूमिकाएं निभाई हैं, जिसमें रण में वो काफी सहज दिखे थे. एक विलेन में उन्होंने अपने सम्पूर्ण को झोंक दिया, अपने सर्वश्रेष्ठ को प्रस्तुत किया. एक विलेन को रितेश ने अपने फिल्म के रूप में जिया. एक विलेन रितेश के अभिनय को समर्पित है, उनकी आँखें सदा से ही खूबसूरत रही हैं, और इस बार तो वो गरज गरज कर बरसी हैं. 

मूलकथा की कुछ कमियों को छोड़ दिया जाए तो ये फिल्म देखने लायक है, जितनी बार देख सकें उतनी बार. संवाद थोड़े बनावटी प्रतीत होते हैं, परन्तु जब आँखें ही बात कर रही हों, तो होठों की तरफ कौन देखता है, अपनी आँखों को दिखाने जाइएगा, पसंद आएगा आपको. श्रद्धा व सिद्धार्थ की प्रेम कहानी, रितेश को मिलती प्रताड़नाएं, सिद्धार्थ का रितेश से प्रतिशोध तथा मानव का दुष्टता से प्रतिकार. रितेश का समाज से प्रतिघात. अकल्पनीय अभिनय तथा विराट प्रस्तुतीकरण, अर्थात एक विलेन.        

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