मंगलवार, 1 जुलाई 2014

Articlesss


अनुभूतिवश: संस्मरण के संग संग 

सचिन..... सचिन.....
            
                              - अंकित झा 

क्या आपने कभी सपना देखा है, उस आदमी ने मुझसे अचानक ही पूछ लिया. अपने किताब में खोया मैं असहज भाव से उसकी ओर देखने लगा. इस समय मेरे हाथ में मुंबई के सबसे बड़े डॉन के बनने की कहानी की किताब थी, उसे बंद किया. उसने फिर पूछा, क्यों आपने कभी सपना देखा है? कोई ऐसा सपना जिसे पूरा करने की ललक आज तक जिंदा हो? मैं सोंचने लगा, आखिर ये मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहा है? आखिर मेरे शहर से भोपाल की दूरी ही कितनी है? जो एक ट्रेन में मुझसे ये इतनी रहस्मयी प्रश्न का उत्तर जानना चाह रहा है. मैंने सिर हिला दिया, हाँ, देखा है. सब देखते हैं, पर पूरा कौन करता है? उसने मुस्कुराते हुए कहा, आपने नहीं किया तो क्या, कोई भी नहीं करता है. मैं थोड़ा चिढ़ा, माना कि मेरा सीट कन्फर्म नहीं है, और इसका है, ये अर्थ तो नहीं कि खुलेआम मेरे इच्छाशक्ति पर ये प्रश्न खड़ा कर दे. मैंने अपने भाव को सँभालते हुए, उससे पुछा, अच्छा कौन पूरे करता है अपने सपनों को? वो मुस्कुराया. उसके मुस्कुराने में एक तरह का अभिमान था, ऐसा अभिमान जो मुझे चिढ़ा रहा था. उसकी वेश-भूषा देख के कोई कह दे कि इस आदमी के सपने कभी पूरे भी हुए हों. छोटे बाल, मखमली शर्ट, लाल रंग की उसपर चित्रकारी, चेहरे पर इतने दाग कि लगता ही नहीं कि इसने कभी अपना चेहरा साफ़ किया भी होगा और उसपर से बिना किसी परिवार के वो सफ़र कर रहा था, मेरे ट्रेन में बैठते ही बताया था कि मानिकपुर जा रहा है. उसने मुस्कुराते हुए कहा, सचिन का नाम तो जानते ही होंगे, वो खिलाड़ी जिसे लोग क्रिकेट का ईश्वर कहते हैं. मैंने कटाक्ष की हंसी हँसते हुए कहा कि कौन नहीं जानता उन्हें? उसने कहा- 'फिर ठीक है, इ बात बहुत पुरानी नहीं है, एक बार मुंबई के स्टेडियम में सचिन जब आउट हुए तो सचिन को सब बुरा भला कहे थे, अपने ही दर्शकों से ऐसे बर्ताव की आशा न थी उन्हें, काफी दुखी हो गये थे. उसी दौरान हमें एक सपना आया कि सचिन ने संन्यास ले लिया है, वो मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में पकिस्तान के विरुद्ध आखिरी बार बल्लेबाजी कर रहे हैं, और हम स्टेडियम में बैठकर सचिन...... सचिन...... चिल्ला रहे हैं'. अब मुझे उसकी बातें कुछ रोचक लग रही थीं, सच बोल रहा है, या नहीं पता नहीं परन्तु देखें तो ऐसा क्या हुआ है इसके साथ. उसने फिर बोलना शुरू किया- 'जब हमारी आँख खुली तो हम अपने पत्नी को ये सब बताएं, उसने तो उलाहना कस दिया, 'हाँ, पेट में अन्न जाता नहीं और मैदान में बैठकर सचिन को खेलते हुए देख रहे हो. उस दिन मैंने तय किया कि सचिन जब भी अपना आखिरी मैच खेलेगा, हम सपरिवार वो मैच देखेंगे, मैदान में बैठकर. हम भी भीड़ के साथ सचिन...... सचिन..... चिल्लायेंगे. पूरे सात वर्ष प्रतीक्षा की हमनें उस दिन के लिए, इस बीच हमारा परिवार भी बड़ा हो गया, परन्तु जो ठान ली तो ठान ली. कम खायेंगे, पैसे बचाएंगे, जितना हो सके कम खर्च करेंगे लेकिन सचिन का आखिरी मैच देखेंगे'. मैं एक पल को सोंचने लगा की ये क्या चल रहा था यहाँ, सच था या सपना? वेस्टइंडीज के साथ था उनका आखिरी मैच, मुंबई में. वही मैदान जहां पर सात वर्ष पहले सचिन के साथ दर्शकों ने बुरा बर्ताव किया था, सब कुछ भूल जाया जाता है. इतने दिन कष्ट में जी कर हमनें पूरे 9000 रुपये इक्कट्ठे कर लिए थे, मुझे लगा कि ये तो काफी ज्यादा हैं, अब तो पक्के में आखिरी मैच देख पाएंगे. टिकटों की बिक्री जिस दिन शुरू हुई उस दिन से ही मैं लाइन में जा के लग जाया करता, पर इतनी भीड़ थी कि हिम्मत ही नहीं होती थी, आधी रात को उठकर जाते तो भी लाइन में पीछे ही लग के संतोष करना पड़ता. आखिर मैदान पर ईश्वर के आखिरी दिव्य स्वरुप का दर्शन कौन नहीं करना चाहेगा? धक्का मुक्की होने लगी, कोई कहता टिकट मिलना बंद हो गया है, तो कोई कहता की टिकट के दाम बढ़ा दिए गये हैं, टेस्ट मैच में तो कम कीमत होती है, टिकट की. एक आदमी मिला, मुझे परेशान देख के बोला, टिकट चाहिए? मैंने बिना कुछ सोंचे बोल दिया, और क्या यहाँ लंगर की लाइन में लगे हैं. उसने पूछा कितने? मैंने जवाब दिया 4. उसने कहा 2500 का एक है. मैंने कहा नहीं नहीं ऊपर के स्टैंड वाला चाहिए, कम कीमत वाला, धुप सह लेंगे, तूफ़ान सह लेंगे, पर मैच देखना है. उसने कहा वहीँ का 2500 का है, बाकी तो दसों हज़ार में बिक रहा है. 2500 का एक टिकट मतलब 10 हज़ार के 4. दिल टूट गया, एक पल लगा कि अब नहीं देख पाएंगे. मैंने आग्रह किया 9 हज़ार में 4 दे दोगे क्या? कुछ देर मना करने के बाद उसने हामी भर दी. 

फिर क्या था, मेरा पूरा परिवार वानखेड़े स्टेडियम में बैठकर सचिन के उनके पुण्य भूमि पर दिव्य स्वरुप के दर्शन करने आ गयें. पूरे मैदान में सचिन..... सचिन..... का शोर मन में उत्साह भर रहा था, आज का ये पल कभी समाप्त न हो, बस यही गुजारिश थी. मेरी दोनों बेटियाँ मुझसे भी ज्यादा उत्साहित होकर चिल्ला रही थीं, मेरी पत्नी सचिन की बैटिंग आते ही आँखें बंद कर लेती, हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगतीं. सचिन...... सचिन....... आज भी मेरे कान में एक जोश भरता है, मेरे सपने की नींव वहीँ से डली थी, आज कोई भी सपना हो एक सचिन का नाम लेके कार्य शुरू कर देता हूँ, आशा रहती है कि पूरा हो जाएगा.' उसकी आँखें भर आयीं थी, मेरी भी, मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे, ऐसा लग रहा था मानों किसी देव के अवतार को देख लिया हो. ना जाने कब घाटी समाप्त हो गयी. हबीबगंज आ गया था. मैं ट्रेन से उतर गया. पर कान में अभी भी सचिन..... सचिन...... ही गूँज रहा था. सपना,,, पूर्णता,,,, सचिन,,,, दिव्य स्वरुप,,,, नींव.

कोई टिप्पणी नहीं: