शनिवार, 26 जुलाई 2014

फिल्म समीक्षा


एक अपेक्षित त्रासदी है "किक"
                         
                                                                                                            - अंकित झा 

फिल्म में समाज की आत्मा से खिलवाड़ किया गया है, सामाजिक चिंता की संज़ीदगी का मुखौल उड़ाया गया है. सलमान खान को अब एक किरदार की तरह नहीं, समाज में बसे किसी दैवीय शक्ति की तरह दिखाया जाने लगा है. फंतासी के नाम पर ऐसे खेल को यथाशीघ्र बंद कर देना चाहिए.  


सलमान खान क्या है? कौन है?कैसे है? इस प्रश्न का उत्तर सभी फिल्म जानकार सहित सिनेमा हॉल जाने वाले प्रबुद्ध वर्ग के लोग ढूंढ रहे हैं. एक फिल्म के अन्दर किसी भी अभिनेता के इतने विराट स्वरुप को कभी नहीं दर्शाया जाता था, जितना कि सलमान के किसी भी फिल्म में उनके किरदार को दिखाया जाने लगा है, एक युग में मिथुन चक्रवर्ती के किरदारों को भी कुछ ऐसे ही लिखा जाता था, परन्तु वो किरदार केवल अन्याय से लड़ने वाला हुआ करता था तथा इतनी कमजोर निर्देशन से उन फिल्मों को बनाया जाता था कि बस एक ग्रामीण अंचल में बसा उनका प्रशंसक वर्ग उन्हें देख के आनंद उठा सके. कई बार तो शर्ट के रंग का भी ध्यान नहीं रखा जाता था, एक ही सीन में 4 अलग रंगों का शर्ट पहन कर डिशुम डिशुम किया करते थे. यही कुछ हाल अमिताभ का था, यही हाल रजनीकांत का रहा और यही हाल आज कल सलमान खान का है. अमिताभ उस समय उभरे जब समाज राजनैतिक उथल पुथल तथा सामाजिक उत्थान के मध्य भारत का निम्न वर्ग उभरने की कोशिश कर रहा था, रजनीकांत ने किसी धर्म की तरह अपने प्रशंसक बनाये. परन्तु अब ऐसे समय में जब सामाजिक चिंतन अपने चरम पर है, कैसे फंतासी को सत्य के ऊपर रख दिया जाए.

ईद के मौके पर रिलीज़ हुई सलमान खान की फिल्म किक एक बेवजह सामाजिक चिंतन वाली फिल्म है. अपने पिछले फिल्म "जय हो" की ही तरह यहाँ भी सलमान सामाजिक सन्देश देते फिरते हैं. हालाँकि एक अच्छे इरादों से बनायीं गयी सलमाननुमा फिल्म की सांसें काफी जल्द रुकने को उतावली होती जा रही है. 'वांटेड' तथा 'दबंग' के पश्चात् सलमान के पुनर्रुत्थान के कयास लगाये जाने लगे. वांटेड रीमेक थी परन्तु सार्थक थी. दबंग अतुलनीय था, सलमान के करियर की सबसे उत्तम पेशकश. परन्तु आने वाले वर्षों में सलमान के उसी घिसे पिटे फोर्मुले को बार बार दिखाया जाने लगा. एक छोटी से कहानी, एक सुंदर सी लड़की, एक विलेन, बहुत सारे सामाजिक समस्याएं, तथा एक सलमान खान. पहले दृश्य से अंतिम दृश्य तक सलमान पुराण का विधिवत उच्चारण. 'किक' भी कोई अलग नहीं है. कहानी और चित्रण तो आपको कोई भी फिल्म समीक्षक बता देगा. यहाँ फिल्म के औचित्य की बात करते हैं. क्या किक की आवश्यकता थी? सलमान खान के लिए, हाँ. राजनैतिक चिंतन से जूझ रहे देश के युवा वर्ग के लिए, नहीं. कब तक देश में इस तरह के महामानववादी विचारों को पनपने दिया जाए, एक अभिनेता समाज में व्याप्त इतन बुराइयों से लड़ता है, देख के अच्छा लगता है, परन्तु उस भीड़ के बारे में सोंचिये जो इस कारनामे पर तालियाँ पीटती है, सीटियाँ मारती है. कहीं न कहीं ये भीड़ अपने समस्याओं का समाधान वहां खोजती है. फिल्म देखते समय रजनीकांत अभिनीत "शिवाजी: द बॉस" की याद आ गयी. एक समस्या से लड़ने के लिए बड़े धनवानों के पास जाना, ठुकरा दिया जाना, 1 रु का सिक्का ले के वापस आना, फिर लड़ने की सोंचना, सब कुछ उस जैसा ही है. हां बस समाज में बढती महंगाई की वजह से 1 रु अब 100 रु का रूप ले चुकी है. एक रोमांच की तलाश में भटकता आम आदमी कैसे अलग अलग कार्य करता है परन्तु सामाजिक कार्य में उसे वो रोमांच मिलता है. अच्छा सन्देश है. 40 की उम्र में सलमान खान ही भारतीय पुलिस में सीधे एसपी बन सकते हैं. और कोई नहीं. परन्तु देवी लाल का दुष्टों से बदला लेने हेतु डेविल बनना गले से नही उतरा. चूंकि देवीलाल ने सामाजिक कल्याण हेतु डकैती शुरू की वो भी बस उन्हीं के घर जिसने उसे ठुकराया था, तो अपना नाम डेविल क्यों रखा? खैर, सलमान खान के फिल्मों में इतना दिमाग लगाने से कुछ ख़ास प्राप्त नहीं होता है. सलमान एक सामाजिक अभिनेता है, अपनी फिल्म में अपने ट्रस्ट का प्रचार भी उन्होंने बाकायदा करवा ही लिया है.
Picture Courtesy: Indianexpress.com
फिल्म असहनीय पीड़ा देने वाली फिल्म है, कहानी नहीं, संवाद की कोई मर्यादा नहीं. सलमाननुमा फिल्मों में फूहड़ता कभी नहीं होती जोकि प्रशंसनीय है. इस फिल्म में सलमान खान ने अपने चित परिचित अंदाज़ में अभिनय किया है, वही जनता के लिए किया जाने वाला अभिनय. जहां उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता. फिल्म में 3 अन्य किरदार हैं, जिसमें रणदीप हुडा को काफी समय मिला, जिसे वो बिलकुल भुना नहीं पाए. उनके अभिनय में उनकी क्षमता तथा प्रतिभा निखरती हुई नज़र नहीं आती. जैकलिन सुंदर दिखती हैं, अच्छा डांस कर लेती हैं, चेहरे पर भावनाओं को आने से बखूबी रोकती हैं. बस संवाद बोलते समय बता देती हैं कि भारतीय नहीं हैं. परन्तु सलमान के अतिरिक्त जो किरदार छोटे से ही समय में सबसे ज्यादा उभरा वो है, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. इस में कतई दो राय नहीं कि नवाज़ एक अद्वितीय अभिनेता हैं. सलमान की ही तरह. एक अलग धरा के. फिल्म में उनका किरदार बहुत छोटा है. लेकिन जितने देर भी वो रहे, परदे पर छाये रहे. सलमान के समय हलके भी पड़े, मुआ पटकथा जो न करे. लेकिन इस बन्दे में दम है. सवा दो घंटे लम्बी इस फिल्म में वही सब है जो हम पहले भी देख चुके हैं, कुछ दृश्य दिल को छूने वाले हैं, बाकी सब भुला दिए जाने वाले.

किक मेरे लिए एक अपेक्षित फिल्म थी. एक ऐसी फिल्म जिसके बारे में नुझे पहले से ज्ञात था कि यह एक त्रासदी होगी, अतः यह एक अपेक्षित त्रासदी की तरह थी मेरे लिए. दिल्ली व पोलैंड के बीच फंसी पटकथा, डॉन संस्कृतियों के बीच ही कहीं दम तोड़ देती है. फिल्म की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसमें कुछ भी वास्तविक नज़र ही नहीं आता. सब कुछ दिखावे की तरह है. नकली. पुरानी दिल्ली की गलियाँ कभी इतने निर्दयी तरीके से नही फिल्माए गये थे. छायांकन में पैनापन नहीं दिखा, तभी तो वॉरसॉ तथा दिल्ली की गलियों में कोई अंतर ही नहीं कर पा रहा था. फिल्म के अंतस में बसा सामाजिक चिंतन भी "अनझेलेबल" था. फिल्म में समाज की आत्मा से खिलवाड़ किया गया है, सामाजिक चिंता की संज़ीदगी का मुखौल उड़ाया गया है. सलमान खान को अब एक किरदार की तरह नहीं, समाज में बसे किसी दैवीय शक्ति की तरह दिखाया जाने लगा है. फंतासी के नाम पर ऐसे खेल को यथाशीघ्र बंद कर देना चाहिए. इससे पहले कि सलमान खान विष्णु के अगले अवतार के रूप में किसी फिल्म में आये, उन्हें अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए. उनका दर्शक वर्ग इस समय वर्ग संघर्ष से अनभिज्ञ है, उन्हें बताया जाए कि ये क्या होता है. जिस तरह अमिताभ के फिल्मों में वो सामाजिक समस्याओं से स्वयं पीड़ित होते थे. जिस तरह रजनीकांत समस्याओं के भंवर में फंसे होते थे. कुछ उसी तरह सलमान को भी करना चाहिए. उनकी अगली फिल्म "प्रेम रतन धन पायो" है जिसे सूरज बर्जात्या बना रहे हैं. उनसे तो ऐसे फिल्मों की उम्मीद हम नहीं कर सकते, परन्तु सलमान रुपी देवता किस तरह उस प्रसाद को बंटवाएगा देखना दिलचस्प होगा. किक को देखना ना देखना एक समान है, न कुछ नया है, न किसी पुराने की कद्र.        

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