है अँधेरी रात पर ख्वाब देखना कब मना है
- मनीष झा
नहीं चाहता कि वो गिरोह यहाँ से जाए, मोबाइल चार्ज करने के बहाने ही सही मेरे पास वो आये, मुझसे पूछे कि तुम्हारी आँखों में जो मेरी तस्वीर चली गयी है, उसे इतना सहेज कर क्यों रखा है. मैं तो अजनबी हूँ, मुझसे ये कैसा लगाव? दोनों चेहरों की परिभाषा को मैं भूलना नहीं चाहता. प्रतीक्षा कक्ष अब केवल प्रतीक्षा कक्ष नहीं रह गया है, मेरे अन्दर के स्वयं को उसने एक नयी पहचान देने की पहल की है.
नहीं चाहता कि वो गिरोह यहाँ से जाए, मोबाइल चार्ज करने के बहाने ही सही मेरे पास वो आये, मुझसे पूछे कि तुम्हारी आँखों में जो मेरी तस्वीर चली गयी है, उसे इतना सहेज कर क्यों रखा है. मैं तो अजनबी हूँ, मुझसे ये कैसा लगाव? दोनों चेहरों की परिभाषा को मैं भूलना नहीं चाहता. प्रतीक्षा कक्ष अब केवल प्रतीक्षा कक्ष नहीं रह गया है, मेरे अन्दर के स्वयं को उसने एक नयी पहचान देने की पहल की है.
चारों तरफ इंसान इधर उधर पसरे हुए हैं, सन्नाटा ही सन्नाटा छाया है. समझ नहीं आ रहा है, ये रात का सन्नाटा है या सन्नाटों की रात. इस परमशांति को ट्रेन के आगमन-प्रस्थान हेतु किये जाने वाले घोषणाओं से भंग कर दिया जाता है, तो कभी तेजी से आती रेलगाड़ी व मालगाड़ी के गुजरने की आवाज़ शांति भंग कर देती है. अपना ये अनुभव मैं काली रात के साये तले, मनमाड स्टेशन के यात्री प्रतिक्षयालय में बैठा लिख रहा हूँ. लोगों की भीड़ में अपनी तनहाइयों को आगोश में लिए सहज ही मन को आया कि कुछ लिखा जाए. कुछ लिखा जाए उस ट्यूब लाइट के बारे में जो इस रात में दुनिया को रोशन कर रही है, लिखा जाए उस प्रतीक्षा कक्ष के बारे में जिस में अभी मैं बैठा हूँ, लिखा जाए उस अकेली बैठी लड़की के बारे में जिसकी सुन्दरता इस बेजान कमरे में सांस फूंक रही है, लिखा जाए बलखाती रेल के बारे में जो कि मानव और मानवता दोनों के बोझ को ढ़ोती है. अपने ख्वाबों पर लिखने को मन कर रहा है, दुनिया की हक़ीकत पर लिखने को मन कर रहा है, मन कर रहा है किसी सुंदर लड़की के लिए बुने अपने सारे शब्द यहाँ उड़ेल दूँ, पर सहसा रुक जाता हूँ. इस प्रतीक्षा कक्ष के कोने में फैले अँधेरे को गौर से देख रहा हूँ, और सोंच रहा हूँ कि क्या सभी इंसान के दिल में एक ऐसा कोना नहीं होता जिसमे सिर्फ अँधेरा ही रहता है? इस कक्ष की कुर्सियां खाली है, फर्श पर इंसान कार्पेट की तरह पड़ा हुआ है, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बच्चे, क्या ब्राह्मण, और क्या दलित. कोई भेद नहीं है. अपने ट्रेन की प्रतीक्षा करते करते अपने स्वप्न लोक में विचरण करने चले गये हैं. हो सकता है यह भी प्रतीक्षा का ही कोई तरीका हो. मन तो कर रहा है, मैं भी एक चादर डालूं और बस सो जाऊं, लेकिन इस मूई नींद का क्या करूँ, आंखों से ऐसे उड़ चुकी है जैसे, गधे के सर से सिंग. नींद आती नहीं, थकान जाती नहीं. बैंक का काम ही कुछ ऐसा है, पहले बैठ के तैयारी करो, फिर बैठ के परीक्षा दो, फिर बैठ के ट्रेनिंग लो और फिर बैठे बैठे अपनी पूरी ज़िन्दगी बैंक के नाम कर दो. क्या बैठी हुई ज़िन्दगी है, धत्त. बैठने से याद आया, मेरे सीट के पास एक नवविवाहिता जोड़ा है. जिसमें पति तो अपने स्वप्नलोक में है परन्तु पत्नी बैठी है.
पिछले एक घंटे के करीब में उनकी ओर देखते हुए उनमें और मुझमें एक रिश्ता सा कायम हो गया है, मेरी खामोशी को जैसे वो पढ़ सी रही हो, उनके आँखों में एक शोर है, एक उच्चाहट है. एक प्रश्न है. इस समाज से करने हेतु कई प्रश्न है. पता नहीं क्यों पर उनके अन्दर एक विचार है, एक ऐसा विचार जिसे दबाने की अब तक कोशिश की गयी हो, उनका अपने अस्तित्व को ढूँढने हेतु किया जाने वाला संघर्ष शायद उनसे छीन लिया गया है. उनके आँखों द्वारा किये हर प्रश्न को अपनी आँखों से मैं टाल देता हूँ, उतनी ही तेजी से उनके प्रश्न मेरे पास आने भी लगते हैं, उनके प्रश्न इतने वाजिब हैं कि मैं शर्म से लाल हुए जा रहा हूँ. इस रिश्ते को मैं क्या नाम दूँ, उन्हें भाभीजी कहना उचित होगा. अब तक अच्छे से देख नहीं पाया हूँ, उनकी तरफ.बस उनके मुस्कुराते चेहरे पर एक नज़र चली गयी थी. वो अपने पति के पास बैठी अपने सामान कि रक्षा हेतु तैनात हैं. फिर भी सोंचिये, अपनी पत्नी को काम पर लगाकर वो बेसुध पडा हुआ है, पर कोई समस्या नहीं है. महिला सशक्तिकरण का दौर है, करने दो थोड़ी तपस्या भाभीजी को भी. और उनका बैठे रहना मुझे भी तो प्रेरित कर रहा था समय काटने के लिए. हो सकता है मेरा लिखना भी उसी प्रेरणा के फलस्वरूप हुआ हो. अचानक मेरी नज़रें फिर उनसे जा मिली. वो चुपचाप अपने पाँव समेट कर, घुटनों पर चेहरा टिकाए बैठी थीं, आँखों में काजल, थोड़ा सांवला सा रंग, सीप की तरह उनकी आँखें जिनमें अपनी गहराइयों को तलाशने की कोशिश कर रहा था मैं, नज़रें ही तो हैं, कोई सीमाएं नहीं रोक पाती हैं इन्हें. दिल में बार बार अपने भाई की लिखी कुछ पंक्तियाँ गूँज रही थी, ‘तुम्हारी आँखें कुछ कह रही हैं, मैं शर्म से पिघला जा रहा हूँ, अब तो पलकें गिरा लो, अँधेरा हो जाने दो. ऐसा ना हो कि अपने आपको आज मैं पूरी तरह खो दूं.’ हो सकता है उन्होंने मेरे इस कॉपी पर अपने नाम को पढ़ लिया होगा, मेरे दिल में उनके लिए उठ रही आवाज़ को सुन ली हो, दूर बैठे ही इस रहस्य को वो जान गयी होगी. इतने में करीब २०-२५ लोगों के एक जत्थे ने प्रतीक्षालय में प्रवेश किया, ये बड़ा अजीब गिरोह था, बूढ़े दादा से लेकर गोद में बैठे बच्चे सभी शामिल थे. सभी निश्चल पड़े लोगों में यकायक सांस का संचार हो गया. वो गिरोह सभी को adjust करने में लग गया(गिरोह शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि वो एक व्यक्ति विशेष के इशारे पर संचालित हो रहे थे). मेरी नज़र उस गिरोह के एक सदस्य पर जाकर टिक गयी, मैं चाहकर भी अपनी नज़र उसपर से नहीं हटा पा रहा हूँ. संभवतः कोई सम्मोहक तत्व था उसमें तभी तो अपने लेखन से ध्यान हटा कर बस उसे ही निहारता चला जा रहा हूँ. इस बात से अंजान कि अगर गिरोह के मुखिया ने मुझे देख लिया तो मेरा क्या होगा? इस तथ्य से भी मैं अंजान था कि भाभी जी को यह सब पसंद नहीं आ रहा है. “क्या लिख रहे हो इतनी रात में आप?” किसी महिला का एक प्रश्न मेरी बायीं ओर से, सौन्दर्य का रसपान बीच में ही भंग हो गया. प्रश्न किसी और का नहीं बल्कि भाभीजी का ही था, क्या भाभीजी ने इतने कम समय में उस सौन्दर्य को अपना प्रतिद्वंदी समझ लिया था, बड़ी अजीब बात है. बड़ी सभ्यता से मैंने अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए एक मुस्कान छेड़ा और कहा, “कुछ नहीं बस दिल की बातों को कुछ शब्द देने की कोशिश कर रहा हूँ.” लेकिन अब मेरा मन तो कहीं और भटक चूका था, उस सौन्दर्य के अप्रतीम दर्शन को मेरी आंखें जिद्द पकड़े हुई थी. भाभीजी को संबोधित करके मैं पुनः लिखने की चेष्टा करने लगा. (अब तो लिखने की चेष्टा ही कर सकता था, एकाग्रता तो सुन्दरता पर न्यौछावर कर चूका था.) मन कर रहा था काश आँखों में कोई कैमरा होता तो आँखों से एक तस्वीर लेकर अपने दिल में सदा के लिए सहेज कर रख लेता. स्त्री
के सौन्दर्य का वास्तविक दर्शन तब होता है जब उसकी झुकी नज़रें आपसे आग्रह कर रही हो कि कृपया ऐसे मुझे मत देखिये, उस गिरोह के सदस्य की आँखें भी बार बार मुझसे यही आग्रह कर रही थी. परन्तु भाभीजी को कोई कष्ट न हो इसलिए कलम उठा कर मैं कुछ लिखने लगा, क्या पता नहीं. “मुझे भी लिखना बहुत अच्छा लगता है.”
भाभी जी ने कहा. “अच्छा!!”
मैंने सहमती देते हुए कहा.
(प्रतीक्षा कक्ष में अब सब कुछ सामान्य हो चुका था, उस गिरोह ने अपने लिए जगह बना ली थी. मेरी नज़र तो बस उस एक ही सदस्य पर जा टिकी थी, उसे यह ज्ञात था इसलिए बार बार स्वयं को किसी भी तरह व्यस्त रखने का प्रयत्न कर रही थी. उस दिव्य दर्शन से मैं अभिभूत हुए जा रहा था, भाभीजी भी ये जान रही थी. अतः मेरी नज़रों को भटकाने के लिए वो प्रयास करती रही.) “हम लोग शिर्डी जा रहे हैं, क्या आप भी....” भाभी जी ने अपना कथन पूरा किया भी नहीं था कि मैं तपाक से बोल पड़ा- “नहीं”. वो बात मैंने इतनी निष्ठुरता से कही थी कि स्वयं को बुरा लगा, फिर अजनबी भाभीजी जो मुझमें अपना मित्र ढूँढने का प्रयत्न कर रही थी, कितना बुरा लगा होगा. मैंने अनायास ही झुंझलाहट में यह कह दिया, किस बात की झुंझलाहट मुझे ज्ञात नही. मेरा इस तरह अशिष्टता से बोलना भाभीजी को शायद पसंद नहीं आया, वो अपने जगह पर जाकर चुप चाप बैठ गयीं. इस अशिष्टपूर्ण व्यवहार के लिए मैं उनसे क्षमा मांगना चाह रहा था, परन्तु क्यों? मैंने पल भर को राहत की सांस ली. इतने में एक मीठी आवाज़ ने फिर मुझे टोका, “excuse
me, अगर आपका मोबाइल चार्ज हो गया हो तो क्या मैं अपना मोबाइल चार्जिंग में लगा सकती हूँ?” अब जब कोई इतने प्यार से पूछे तो मना कैसे कर सकते हो, फिर भले ही मोबाइल चार्ज ना हुआ हो. (ये मीठी आवाज़ और किसी की नहीं बल्कि उस गिरोह के उसी सौन्दर्य की थी, जिसने कुछ पल के लिए ही मेरे मन को मधुर एहसास से भर दिया.) “Hello, मैं आप ही से कह रही हूँ” फिर वही आवाज़. अपने आप को इस अभूतपूर्व मनोस्थिति से बाहर निकालते हुए, उससे बोला- “For Sure”. अंग्रेजी के शब्द मेरे मुंह से स्वतः ही निकल गये थे. उसने एक पल को मेरी आँखों में देखा और फिर पलकें झुका ली. उन आँखों का जादू ऐसा छाया कि अपने आप मेरे हाथ कार्य करने लगे, एक पल को लगा शायद इस सौन्दर्य के चांदनी तले ही ये सभी लोग सोये हुए हैं.
यह स्वप्न था या हक़ीकत पता नहीं परन्तु, उसके अपने पास होने का एहसास आज तक मेरे रूह में कहीं है. उस समय मेरी आँखों में कोई कैमरा नहीं था परन्तु उसकी तस्वीर आज भी मेरे दिल में है, कभी मिट भी नहीं सकती. उस रात की मैं कोई सुबह नहीं चाहता था. नहीं चाहता था कि अब कोई ट्रेन आये, अब मैं यहाँ से कहीं और जाऊं. नहीं चाहता था कि भाभीजी का पति फिर सो के उठे, और भाभीजी की शरारती नज़रों को मुझसे छीन ले, नहीं चाहता कि वो गिरोह यहाँ से जाए, मोबाइल चार्ज करने के बहाने ही सही मेरे पास वो आये, मुझसे पूछे कि तुम्हारी आँखों में जो मेरी तस्वीर चली गयी है, उसे इतना सहेज कर क्यों रखा है. मैं तो अजनबी हूँ, मुझसे ये कैसा लगाव? दोनों चेहरों की परिभाषा को मैं भूलना नहीं चाहता. प्रतीक्षा कक्ष अब केवल प्रतीक्षा कक्ष नहीं रह गया है, मेरे अन्दर के स्वयं को उसने एक नयी पहचान देने की पहल की है. २:३० बजने को है, मेरी ट्रेन आने वाली है, इच्छा नहीं है जाने की. परन्तु सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा. भाभीजी से मैं क्षमा नहीं मांग पाया, उस लड़की से मैं कुछ बोल नहीं पाया. मलाल रहेगा. हो सकता है, अगली बार जब यहाँ आऊँ तो मेरी प्रतीक्षा में भाभीजी बैठी हों, एक प्रश्न के साथ, ‘जब तुम्हे लगा कि तुमने अशिष्टता की है, तो क्षमा याचना क्यों नहीं की?’ उनकी यादों से मैं याचना करता रहता हूँ, इस उम्मीद से कि कभी तो वो यादें उनकी आँखों से जा मिलेगी. मेरे अन्दर का स्वयं अब फिर से दब रहा है, सुबह होने को है.
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