बुधवार, 6 अगस्त 2014

अंतर्मन से


आशिक़ी से महान होता है आशिक़
                  - अंकित झा  
दिन-रात और दिन के दरम्यां आने वाली उसकी याद जिसे अंकुर ने साँसों का नाम दिया था. आँखें बंद करने पर सामने आने वाला उसका वो सुंदर सा चेहरा जिसे अंकुर ने आशिक़ी का नाम दिया था. ख़ामोशी में छिपे अंकुर के बोल जिसे उसने प्रेमगीत का नाम दिया था. आँखों में बसी उसकी कहानी का यथार्थ जिसे वो प्रेम कहता था. गफ़लत में पल रहा एक स्वप्न जिसे अंकुर प्रेम कहानी का नाम देना चाहता था.
अस्पताल के एक कमरे में बेसुध पड़ा वो अपने मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था. डॉक्टरों का कहना है कि जीने के लिए कुछ खास बचा नहीं है, मृत्यु शरीर का अंत नहीं होता है बल्कि जब जीवन का मोह समाप्त हो जाए उस समय को वास्तविक मृत्यु होती है. हां, शरीर तो नश्वर है, एक दिन मिट जाएगा, इच्छाएं नहीं मरनी चाहिए. सपनें नहीं मरने चाहिए. इस कमरे के अन्दर अब कोई सपना सांस नहीं ले रहा है, कोई इच्छाएं अब जीवित नहीं है. जीजिविषा का समाप्त होना संसार की सबसे बड़ी त्रासदी होती है, यह बात उसने ही एक दिन कही थी. आँखें आज बंद हैं, किसी की प्रतीक्षा में, जान अभी निकली नहीं है, सांसें चल रही हैं, अभी भी आँखों से आँसू निकल रहे हैं. रह रह कर उसके होठों के बीच लाली छा जाती है. हाथ कभी कभी सहसा किसी को थामने के लिए उठ जाते हैं, शरीर यूँ ही रहता है, स्थिर, अटल. कोई प्रतिक्रिया नहीं. आँखों से आंसू तब निकलते होंगे जब बारिश में भींगे आहना के केश जो उसके गले से चिपक जाया करते थे और केश के उस घुमाव को वो आँखों में सहेज लिया करता. जैसे जैसे केश से पानी नीचे  गिरता, उसकी आँखें नम होती जाती. आंसुओं में उसकी वो प्रतिबिम्ब आज भी उसने अवश्य ही सहेज कर रखी होंगी. ये मोहब्बत भी . क्या क्या नहीं दिखाती है. कभी सोंच भी नहीं सकता कोई, किस दिशा में उठने वाले हैं उसके कदम? खैर, इश्क में दिशायें अधिक ख़लल डालती नहीं हैं. उसके होठों की लाली उसे आहना से अपने पहली मुलाकात की याद अवश्य दिलाती होगी. रोज़ के झमेले से त्रस्त होकर आज वो कुछ कहने जा रहा था, इस उम्मीद से कि आज के बाद उसके घर के शीशे सलामत रहेंगे. वो तिवारी जी का लड़का, पता नहीं प्रतिभाशाली था या बदमाश. बार बार उसी के घर की कांच तोड़ दिया करता. आज खबर लेगा उसकी. गुस्से में मदमस्त वो उसके घर की तरफ बढ़ा जा रहा था, ना जाने कब उसने एक औरत को ठोकर मार दी, वो औरत चित हो के धरती पे गिर पड़ी. औरत के होठों से खून निकल आया. सारी नज़रें उसकी तरफ हो गयी, गुस्सा गया चूल्हे में यहाँ तो सांस गले को गयी थी. जब भीड़ उसकी जान लेने को उतावली दिख रही थी, एक आवाज़ ने अचानक सभी को स्तब्ध कर दिया. ये आवाज़ आहना की थी, आहना ने भीड़ से उसका बचाव किया था, ये कह कर कि गलती इसकी नहीं थी. उस औरत के होठों पर लगा लाल निशान खून का नहीं बल्कि रूह अफज़ा का था, ये सुन कर अपनी हंसी नहीं रोक पाया था अंकुर. खिलखिला उठा था, दुनिया से अनजान हो अपने ही धुन में मदमस्त. वो बात काश आज भी आहना के बोल जाए, गलती इसकी नहीं थी. ये तो बेवजह ही इस मरणासन्न पर लेटा हुआ है. कह जाए कि उसके होठों के बीच वो लाल रंग खून नहीं है, उसकी याद में अंकुर द्वारा पिए गये शराब की है. अंकुर फिर हंस पड़ेगा. हंसने के बहाने ही सही जी उठेगा.
एक बार आहना से मिलने के बाद तो अंकुर अपने जैसा रहा ही नहीं था. आहना की वो मुस्कान, जो दिन रात उसके दिल में किसी झंकार की तरह बजता रहता, उसके आँखों में लगा काजल जिससे उसके दिन ढला करते थे, उसके वो घुंघराले बाल जिसमें कभी कभी वो अपना अस्तित्व ढूँढा करता था, उसकी वो आँखें जिसमें जाने भगवान ने कितनी करुणा भर रखी थी, उसके चलने का वो अंदाज़ जिससे अपने दिशाओं का वो पता लगता था, कमर का वो बलखाना, जो अंकुर के लिए ज़िन्दगी ले के आया करती थी. दिन-रात और दिन के दरम्यां आने वाली उसकी याद जिसे अंकुर ने साँसों का नाम दिया था. आँखें बंद करने पर सामने आने वाला उसका वो सुंदर सा चेहरा जिसे अंकुर ने आशिक़ी का नाम दिया था. ख़ामोशी में छिपे अंकुर के बोल जिसे उसने प्रेमगीत का नाम दिया था. आँखों में बसी उसकी कहानी का यथार्थ जिसे वो प्रेम कहता था. गफ़लत में पल रहा एक स्वप्न जिसे अंकुर प्रेम कहानी का नाम देना चाहता था. सभी कहानी का एक यथार्थ होता है, इस कहानी का यथार्थ ये है कि अंकुर एक दीवाना था और आहना एक अंजान. ऐसी प्रेम कहानी समाज के हर तीसरे मनुष्य के ह्रदय में पलता है, क्या सोंचना? मोह जब दीवानगी बन जाए, तो एक समझ का पलना आवश्यक होता है, जहां अंकुर चूक गया. आहना के प्रति उसकी दीवानगी इस तरह बढ़ गयी थी कि, अपने जीवन के हर दूसरे क्षण को वो आहना के नाम पल रहे अपने उस एकतरफा स्वप्न से जोड़ के देखता. अपनी साँसों पर उसने जितनी बार आहना के नाम को लिखा, इससे उसकी सांसें बदनाम होती चली गयीं, बदनाम, पराधीन चलने वाली सांसें बदनाम ही तो होती हैं. जितने आवश्यक किसी प्रेमकहानी में पात्र होते हैं उतनी ही आवश्यक परिस्थितियाँ होती हैं. परिस्थितियों से ही जन्म लेती है प्रेम कहानी.
अंकुर तथा आहना की कोई प्रेम कहानी थी ही नहीं, ये तो अंकुर को लगी किसी बीमारी की तरह था. इस बिमारी में स्त्री की सुन्दरता, पुरुष के स्वाभिमान का प्रतिकार कर देते हैं. ऐसा ही कुछ अंकुर के साथ हुआ था, आहना की नम आँखें जिसे ईश्वर ने स्वयं की सुन्दरता का नमूना बनाकर पेश किया था, उसके गुलाबी होंठ जिसे ईश्वर ने अपने आसन कमलपुष्प के किसी पंखुड़ी सा आकार दिया था, होंठों के ऊपर एक तिल जो इस बात का प्रमाण था कि देवताओं को भी डर था कि कहीं आहना को कोई बुरी नज़र ना लग जाए. आहना अनमोल थी, अंकुर के लिए, ईश्वर के लिए, धरती के लिए. उसकी सुन्दरता ईश्वर का उपहार था, वसुधा के नाम, जहां मनुष्य से लेकर मनुष्यता पनपी. जब आहना अनमोल थी तो किसी की दीवानगी उसका मूल्य कैसे लगा सकती है? स्त्री की सुन्दरता तथा बरसात का अनोखा रिश्ता है. बरसात वो समय है जब ईश्वर का मन अपने आनंद के उत्कर्ष पर होता है. इस उत्कर्ष में वो अपनी बनायीं हर सुंदर कृतियों को उनके श्रेष्ठतम रूप में देखना चाहते हैं. अतः स्त्री रूप का अनावरण बरसात के महीने में विशेष होता है, हवा के झोंको के संग उनके केशों का उड़ना हो या बारिश के बूंदों का उनके केशों से गिरकर कमर की ढाल तक पहुंचना, या फिर छाते के नीचे कड़ी लड़की पर पड़ते फुहारों का सौभाग्य. बरसात एक षड्यंत्र है, देवताओं का पुरुष के विरुद्ध, स्त्रियों के रूप की ऐसी प्रस्तुति के मध्य अपने ह्रदय के उच्चाहट को रोक पाने की चुनौती. इस चुनौती में अंकुर असफल रहा तथा अपने ह्रदय को आहना के नाम कर बैठा. उससे अपने दिल की बात कह पाने की तो उसमें हिम्मत थी, और ही उसके पास शब्द. कभी भी प्रेम शब्दों का मोहताज़ नहीं रहा है. शब्दों में जो बयां हो जाए उसे प्रेम नहीं, कुछ और ही कहते होंगे. प्रेम तो एक मनोस्थिति है, एक भावना है, भावनाओं को कहा नहीं जाता है. अंकुर भी आहना को कुछ कह नहीं पाया, अन्दर ही अन्दर घुटता रहा, अपने घुटन को प्रेम का नाम देता रहा. अपनी साँसों पर से अपनी ही पकड़ खोता चला गया, आहना को देखते ही जिस तरह उसकी हृदयगति बढ़ जाती लगता मानो किसी भंवर से बच के निकला हो. कहते हैं प्रेम आंखों से झलक जाती है, अंकुर ने सदा ही आहना से आँखें चुराए रखा. यही नहीं कई राज़ जो उसने दिल में ही छुपा के रखा, उसकी याद में शराब पीना हो या उसके किसी और प्रेमी से हुई हाथापाई. तन्हाई में खोये किसी आशिक़ का जो अंत होता है, उसी अंत के करीब अंकुर चूका है. आहना आज भी उसके अन्दर बसे किसी वायरस की तरह है जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. उसके हाथ आज भी बारिश में आहना के हाथ से उड़ गये चाते को थामने की लिए उठते हैं, परन्तु शरीर उसी की भावनाओं की तरह शांत है, कोई प्रतिक्रिया नहीं.
अस्पताल के बाहर उसके माता-पिता भी स्थिर ही बैठे हैं, कोई प्रतिक्रिया नहीं. उसकी माँ ये नहीं समझ पा रही है कि उसके आँचल तले पला उसका बेटा कब किसी के दुपट्टे का दीवाना बन बैठा, पिता ये सोंच रहे हैं कि दो मंजिला घर तो उन्होंने अंकुर के कहने पर ही बनवाया था, उसके कूदने के लिए थोड़े ही. उसके घर पे वीरान पड़ा उसका कमरा जो कि अंकुर के सभी स्वप्नों का एक मात्र साक्ष्य है. उसकी प्रतीक्षा में आँख पसारे उसकी किताबें, उसके कमरे की टूटी खिड़कियाँ, घर में छिप कर प्रवेश करते सूर्यकिरण. अपने सपनों की तलाश में बेसुध पड़ा अंकुर, इस सब से अंजान आहना, इस सब के मध्य दुर्गति से जूझता प्रेम, यथार्थ की तलाश में प्रेम कहानी, किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में अंकुर की आखिरी सांसें. माता की आँखों से निकल रहे आँसू, पिता के कन्धों को कचोट रही उनकी बेबसी. एक आशिक़ के मृत्यु की प्रतीक्षा में हाथ जोड़े खड़ी आशिक़ी..  

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