बुधवार, 18 जून 2014

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"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग  

मिठास 

                                                                                       - अंकित झा

ट्रेन अपने रफ़्तार से धुंध को चीड़ते हुए निकल रही थी, ठण्ड थोड़ी थोड़ी बढती जा रही थी. ट्रेन  मध्य प्रदेश को पार कर उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर चुकी थी. बीच बीच में ये ध्यान दिला रही थी कि ट्रेन भारत की ही है और अँधेरे स्टेशनों को एक के बाद पार करते हुए चली जा रही थी. उसी ट्रेन कि एक बोगी के अपर बर्थ पर में निद्रा की ग्रास में पड़ा हुआ था. शाम के बाद का समय बचपन से ही मेरे लिए कुम्भकरण काल रहा है, उस पहर में नींद रोक पाना सदा से ही मेरी ख्याति का हिस्सा रही है. ट्रेन में ये ख्याति कहीं उड़ जाती है, और मैं आँखों को वश में नहीं रख पाता. उस रात भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, ट्रेन में भीड़ ज्यादा नहीं थी, बस आस पास जाने वाले लोग जो आरक्षण की फ़िक्र नहीं करते वही सीट संभाले बैठे हुए थे. भारतीय रेल के हर ट्रेन में बहुत कुछ सामान्य होता है, पानी-चाय बेचने वाले से लेकर गुटखा और चना बेचने वाले तक. एक और चीज़ है जो बहुत आम है वो है मांगने वाले. अपनी कई यात्राओं के दौरान मैं कई बेहतरीन गायकों से मिल चूका हूँ, तो कई बेहतरीन शायर भी मिले हैं, जिनकी प्रतिभा उनके स्थिति पे भारी पड़ गयी. एक शायर की कुछ पंक्तियाँ तो मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ- " आज पता चला कि दरिया का पानी नीला कैसे है, शायद तेरी ही आंसुओं से ही बन पाया होगा कम्बख्त." और जिस लड़की को देख के उसने वो शायरी कही थी उसके आँखों का रंग नीला था, एक पल को दिल ही दिल में वाह वाह करता रह गया मैं. वहीं एक गायक की वो जिंदादिल आवाज़ जिसमें उसने मुहम्मद रफ़ी के गीत 'जाने वालों जरा मुद के देखो मुझे(दोस्ती, 1966)' को जीवंत कर दिया था और ख़ास कर गाने की वो पंक्ति जिसमें उसने कहा था- 'इस अनोखे जगत की मैं तकदीर हूँ, मैं विधाता के हाथ की तस्वीर हूँ'. इसी तरह उस शाम भी ट्रेन में प्रवेश किया कुछ मांगने वालों ने, उन गायकों-शायरों और विकलांग मांगे वालों से ये थोड़े भिन्न होते हैं, ये मांगने को अपना अधिकार समझते हैं. ये मांगते नहीं वसूलते हैं, सामने वाले को शर्मिंदा करके, डरा के, धमका के. शायद झांसी से निकली थी ट्रेन और अगला स्टेशन दतिया था, 4 किन्नर समाज के मांगने वालों ने ट्रेन में दस्तक दी, मेरी सदा से आदत रही है कि जहाँ पे विवशता न हो तथा दिल न करे वहां कभी दान मत करो, सदियों से प्रताड़ित समाज के लोगों को देने में मैं कभी नहीं हिचकिचाता. परन्तु जिस तरह से माँगना अब देश में पूर्णरूप से एक व्यवसाय सा बन गया है, ऐसे में मैं इस समाज को कभी कभी प्रताड़ित नहीं मान पाता. चूँकि मेरा बर्थ 44 न. था तो उनके आने में अभी समय काफी समय था, तो मैंने जेब से 10 रु. का एक नोट निकालकर हाथ में रख लिया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा. इतने में एक बड़ी मीठी आवाज़ सुनाई दी, ऐसा लगा मानो किसी स्त्री ने उनका प्रतिकार किया होगा, हो सकता है उन लोगों ने उसके पति से जबरदस्ती की होगी और पत्नी का पतिवर्ता स्वरुप जाग गया होगा, और वो उनका विरोध कर बैठी होगी. परन्तु उसकी बातें सुनकर ऐसा लगा नहीं, आवाज़ आई कि, 'भाई साहब आप क्या मज़ाक उड़ाते हैं हमारा, वो तो पहले ही प्रकृति कर चुकी है. आपके मज़ाक से न हम दब जायेंगे और न प्रकृति को अपनी गलती का पता चलेगा. हम तो हैं ही ऐसे, आप क्यों हमें एहसास दिला रहे हैं, हम तो मांगते ही हैं, बदनाम भी हैं और कुख्यात भी, आप अपना सोचों.' ऐसा लगा स्वयं उर्वशी स्वर्ग से आकर उनका पक्ष रख गयी हो, या फिर किसी अप्सरा ने अपने सुरीले आवाज़ में एक गीत गाकर उनका पक्ष रखा हो, परन्तु ये सब झूठ था, वो एक किन्नर समाज की आम सी मांगने वाली ही थी, कौतूहलवश मैं उसे देखने के लिए उठा, आँखों पर एक पल को विश्वास नहीं हुआ, कोई इतनी सुंदर भी हो सकता है, देख के आश्चर्य हो रहा था. लाल साडी जिस पर गुलाबी रंग के किसी फूल के छींटे थी, चेहरा सांवला था परन्तु आँखों व होठों की बनावट ऐसी की सुंदर से सुंदर लड़की भी एक पल को जल उठे, उस पर से होंठ के नीचे एक तिल और उसकी नाक जो कुछ कुछ मेरे ही नाक से मेल खाती थी शायद. फिर उस दिन आदमी ने मज़ाक में क्या कहा होगा जो इसे बुरा लग गया. इतने में वो बुदबुदाते हुए मेरे पास आई, और माँगा, मैंने कुछ सोंचे बिना वो 10रु का नोट उसके हाथ में दे दिया, और एक टक उसकी ओर देखता रह गया, बिना किसी की परवाह किये, बस ख्याल में ये आ रहा था कि कोई कैसे इतनी सुंदर हो सकता है? इतने में उसने मुझे झिरकते हुए कहा- तो अब तुम क्या देख रहे हो? वो तो सोनागाछी ले जा रहा था, तुम कहाँ कामथीपूरा ले जा के बेचेगा? मैं कुछ समझ पाता इससे पहले वो चली गयी. उसके जाने के बाद उसकी बात समझ में आई, मैं सोंचने लगा, रूप में इतनी मिठास परन्तु बातों में इतनी कड़वाहट, ये निश्चित ही दुनिया के घाव हैं, या फिर उस घाव पर लगाये नीम के पत्तों की दावा के कारण, उसकी मिठास कम हो गयी है. दुनिया की भी तो मिठास कम हो ही गयी है, देखिये न कहाँ चलने की बात की थी उससे.         

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