बुधवार, 11 जून 2014


परिवर्तन से परे 

सांप्रदायिक समरसता के शत्रु कौन हैं?
                                                                                                         
                                                                                                               - अंकित झा 


समाज को समुदाय या संप्रदाय भ्रष्ट नहीं करती बल्कि इसे भ्रष्ट करती है इंसान की  वो सोंच जो इतिहास को अपने रिश्ते का हिस्सा बनती है. यह सत्य है कि जिस इतिहास में मानवीय संवेदनाओं का विध्वंश छिपा है, वो कभी नहीं मरती परन्तु क्या ये सत्य नहीं है कि इतिहास को कुरेदना भी इतिहास बनाने का ही हिस्सा है.

जिस दिन जलेगा चमन, झुलसेगा सारा समाज.
ना कोई हिन्दू बचेगा न कोई मुसलमां.
आग गीता देख कर अपने दिशा नहीं बदलेगी 
और ना ही कुरआन के सजदे में झुकेगी. 
                                                                                                - शाव्य्साची 

दृश्य कुछ इस तरह का था कि कमरे के बीचों बीच फैले मखमल के दरी पर एक बड़ी सी थाल सजी हुई थी, थाल में तरह तरह के पकवान पड़ोसे हुए हैं, मिठाई, किमामी, शाकाहारी बिरयानी, पकौड़े, और ना जाने कितने ही तरह के भजिये, मुन्गोड़े और पकौड़े. फ़हीम चाचा के बेटे का ये 12वें वर्षगांठ का जश्न चल रहा था. हर ओर ठहाके लग रहे थे, कभी किसी के कहकहे पर तो कभी किसी के. अब्दुल मियाँ अपने अरब के किस्से सुना रहे थें, तो अश्फ़ाक जो कि फ़हीम के बेटे का मास्टर भी है, अपने कॉलेज के किस्से सुना रहे थे, उसी ठहाकों में अनिल बाबु के ठहाके भी शामिल थें, अनिल व फ़हीम दोनों ने कामयाबी की सीढियाँ साथ ही चढ़ना शुरू की थीं, और आज दोनों अपने जगह पर सफल व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं. अनिल बाबु के साथ उनका भाई और एक अन्य मित्र भी बैठा हुआ है. इतने में नयी सरकार की बात छिड़ी, हकीम राज के नाम से मशहूर डॉ इलियास ने ऐसी बात कह दी कि माहौल एकदम से गंभीर हो गया. इस पर अनिल बाबु के मित्र ने टिप्पणी  कर दी कि हम तो हमेशा से ही मेहमानवाजी के लिए जाने जाते हैं, जो लुटेरे बन कर आए थे वे सोंचे कि किसको स्वीकार करना है और किसे नहीं. सारी आँखें अनिल बाबु के मित्र पर उठ गयीं ऐसा विवादास्पद टिप्पणी अन्हें शोभनीय नहीं थी, परन्तु उत्तर सदैव प्रश्न के टक्कर का या फिर उससे बेहतर होना चाहिए. दर असल डॉ इलियास ने कहा था कि हिन्दुस्तान की मेहमानवाजी का कोई जवाब नहीं है मियाँ गले काटने वालों को भी हार पहनाने में सोंचते नहीं हैं, किसे स्वीकार लिया देखिये ज़रा. बात तनिक बिगडती दिखी, डॉ इलियास कहने लगे, मियाँ रुवाब मत झाडिये अपने ऐसे होने पर, मेहमानवाजी की बात करते हैं, हमें लूटेरा कह रहे हैं आप, ...... बात बिगड़ते देख फ़हीम जी ने बीच बचाव किया परन्तु जो हालत बिगड़ गए थे वो अब न सुधरने थे, इतने में अशफ़ाक मियाँ भी अपने कमीज का बांह ऊपर करते हुए कहने लगे, देखिये भाईजान ना ये देश आपकी मिलकियत थी और ना ही कभी रही है. मिसालें हमने पेश की है, आप जैसों को सुधारकर, ज़माना जानता है, कैसे संभाला है इस मुल्क को हमने, बनाना ही आता है हमें, ढाहना नहीं. माहौल बिगड़ चूका था, अब बचाव से कुछ नहीं हो सकता था, अनिल बाबु उठे और अपने भई और मित्र को उठा कर ले जाने लगें, और जाते जाते कह गयें, दूसरो के छाती पर अपने बाल लगाने को निर्माण नहीं कब्ज़ा कहते हैं. डॉ इलियास तमतमा उठे परन्तु कोई चारा नहीं था, अनिल बाबु जा चुके थें. उनका जवाब या जवाबी कार्यवाई को देखने और झेलने हेतु कोई नहीं बचा था.

यही होता आया है इस देश में, ना जाने पल भर में कैसे सारी मित्रता भुला दी जाती है, अपने कुछ बात, खटास, मनमुटाव को इतिहास का नाम दे कर कैसे दो समुदायों में  फूट डाल दिया जाता है. समाज को समुदाय या संप्रदाय भ्रष्ट नहीं करती बल्कि इसे भ्रष्ट करती है इंसान की  वो सोंच जो इतिहास को अपने रिश्ते का हिस्सा बनाती है. यह सत्य है कि जिस इतिहास में मानवीय संवेदनाओं का विध्वंश छिपा है, वो कभी नहीं मरती परन्तु क्या ये सत्य नहीं है कि इतिहास को कुरेदना भी इतिहास बनाने का ही हिस्सा है और ये सामाजिक सौहार्द्य के लिए कितना विध्वंशकारी है. इस देश में हर रोज़ इतिहास के घाव कुरेदे जाते हैं और इस अग्रगमन में कितने घाव लगाये जाते हैं, किसी को इसका कोई ठिकाना नहीं होता. राष्ट्रिय एकीकरण किसी भी लोकतंत्र के लिए कितना आवश्यक है, ये किसी को बताने की आवश्यकता नहीं  है. तथा राष्ट्रिय एकीकरण के प्रमुख तत्वों में से एक है, सामाजिक व सांप्रदायिक समरसता. श्रीरामचरितमानस का एक वाक्य है, 'परहित सरीर धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई'. जिसका अर्थ ये है कि दूसरों की मदद करने से अत्यधिक बड़ा धर्म और विश्व में व्याप्त नहीं है. समाज की नींव ही यहाँ से पड़ती है कि समाज का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में एक दुसरे पर निर्भर रहता है, जिसे समाजशास्त्र में पारस्परिक निर्भरता कहते हैं. यह सोंचने योग्य बात है कि यदि समाज में ऐसी निर्भरता न हो तो समाज कैसा दिखेगा? अलग अलग विश्व, जो एक दुसरे से बात नहीं करता है, एक दुसरे को देखता है परन्तु कोई ख़ास ध्यान नहीं देता. भयावह दृश्य नहीं होगा वह. ऐसे ही कई भयावह दृश्यों को समाप्त करने हेतु समाज की स्थापना की गयी. मनुष्य एक दुसरे से भिन्न हो सकता है, आकर, आकृति, चेतना, विवेक तथा कौशल में. परन्तु मनुष्य एक दुसरे से इस तरह तो भिन्न नहीं होते कि उनके नाम, उपनाम, जाती, प्रजाति, धर्म, वर्ण व लिंग के आधार पर अंतर निकाले जाए. यही तो अंतर है, प्रकृति व प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ कृति में कि ये अंतर के नए नए तरीके निकालने में सक्षम हैं. भेदभाव सामाजिक संरचना का हिस्सा सदा से ही रही है, परन्तु इस भेदभाव की दीवार को कभी भी मानवीय रिश्तों पर हावी नहीं होने दिया गया था, परन्तु वो कौन सी बुद्धि होगी जिसने धर्म के अंतर को कट्टरता का नाम दिया होगा. हिन्दुओं को ब्राह्मण, बनिया व यादव कहके भेद करवाया होगा जो अंततः विवाद का कारण बनी होगी, तथा इस्लाम में  मुसलमान व काफ़िर बनाये होंगे. आज कट्टरता सब पर हावी है, इतनी कि जिसका शब्दों में वर्णन करना कठिन है.

हाल ही में पुणे में हुए 28 वर्षीय आईटी प्रोफेशनल शैख़ मोहसिन सादिक की निर्मम हत्या के बाद मेरे मन में कई प्रश्न नित्य ही खड़े हो जाते हैं. कहते हैं वो नमाज़ अदा करके आ रह था, सर पे टोपी लगाई हुई थी, कुछ विवाद भी था पहले का, बस मृत्यु के लिए पर्याप्त कारण हो गये थें क्या? इस हत्या को विभत्स्म्रित्यु की संज्ञा दी गयी है,  ऐसी मृत्यु जिसमें घृणा की वजह से हत्या की जाये तथा बाद में वो कृत्य मानवता का वीभत्स कृत्य बन जाये. जब कानून बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के बदले सजा ए मौत सुनाने में 25सों सुनवाई लेती है, तो कोई उन्मादी भीड़ कौन होती है किसी को मृत्युदंड देने वाली? ऐसे उन्माद ही समाज में घृणा के दीवार खड़ी  करती है और इसमें फंसती है लाखों मासूम जिंदगियां. कोई घटना को आने  वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से जोड़ के देख रहा है तो कोई लोकसभा चुनाव के नतीजो के पहले लगायी जाने वाली अटकलों का प्रारंभ. ये क्या है? कोई नहीं जानता सिर्फ इतना ही जानता है कि ये जो कुछ भी हुआ समाज के लिए अच्छा नहीं हुआ. युवा मन में जब कट्टरता के बीज बो दिए जाते हैं तो उनका अंत किसी तलवार से कट कर या किसी एनकाउंटर में पुलिस के बन्दूक से ही होती है. ऐसी हत्याओं के दोषी कभी सामने नहीं आते, बस उनकी परछाई सामने आती है, एक भीड़ के रूप में और छिन्न भिन्न कर देती हैं, मानवीय आशाओं को. ऐसे कृत्य कतई शोभनीय नहीं होते परन्तु ये घटित होते हैं, क्योंकि आज भी समाज एक नहीं हुआ है, आज भी कोई तलवार लेकर इस ताक़ में है कि कोई दाढ़ी वाला मंदिर के सामने सर ना झुकाए और उसका सर ईशनिंदा के ज़ुल्म में उड़ा दिया आये तो वहीँ कोई टोपी लगाये इस ताक़ में खड़ा है कि कोई चोटी वाला निकले बस दरगाह के सामने उसका सर ना झुके फिर देखो क्या अंजाम होता है. समाज में घृणा की नींव जिन्होंने रखी थी, अब वो ज़हेन्नुम में अपनी सजा भुगत रहे हैं और हम धरती पर अपने जन्नत को ज़हेन्नुम बनाने पर तुले  हुये हैं. 

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