परिवर्तन से परे
हिन्द तो हिंदी क्यों नहीं?
- अंकित झा
विश्व की चिंता वो करें जिन्हें विश्व के टुकड़ों पे पलना हो. अगर अपने देश की गरिमागाथा स्वयं लिखना है तो अपनी भाषा में लिखो ना. किसी उधार की भाषा में क्या लिखना, हिंदी हमारी सहेली है, ये हमारे अठखेलियों से लेकर, स्कूल, क्रीड़ा, गालियों, प्रेम, ममता व क्रोध सभी में छुपी है, इससे बैर कैसे कर लें. अंग्रेज़ी तो हमारी सज़ा है जो अँगरेज़ हमें दे के गये हैं.
क्या फर्क पड़ता है कि राजा युधिष्ठिर है या धृतराष्ट्र,
हिंदी तो बेचारी यज्ञसेनी है,
युधिष्ठिर दांव पे लगाएगा, धृतराष्ट्र के पुत्र उसकी अस्मिता लूटेंगे.
कभी इस देश में संस्कृत थी, शास्त्रों की भाषा. बड़े राजप्रासादों में बोली जाती थी संस्कृत, तो वहीं दूर कहीं पण्डितों के पर्णकुटी में वदित होती थी संस्कृत. कहते हैं संस्कृत की ही कोख से जन्मी है सारी भाषाएँ. मन, प्राण, वचन, श्रुति सभी को मधुर लगने वाली भाषा, संस्कृत. साथ ही साथ वर्ग संघर्ष में लिप्त थी भाषायी संघर्ष. महाभारत का ही वर्णन हो जाए, पांडु व कुरु कुमार संस्कृत में शास्त्रार्थ करते थे, राजकुमार जो ठहरे. शास्त्रों का संज्ञान उसी भाषा में लिया, कर्ण ठहरा सारथिपुत्र, संस्कृत से दूर दूर तक का कई नाता नहीं, फिर भी शास्त्रों का ज्ञान लिया. उस समय पिछड़े व स्त्री समाज की भाषा प्राकृत थी. याद है न रुक्मिणी ने संस्कृत में कृष्ण को पत्र लिखा था, ताकि कोई भी उस पत्र को कृष्ण के अलावा पढ़ और समझ ना सके. समय बदला, समाज बदला. नए धर्म आये, नयी संस्कृति, नयी भाषाएँ जन्मी. सभी भाषाएँ चूँकि जन्मी एक ही कोख से, अतः बहुत कुछ भाषाओँ में सामान्य ही रहा व ऐसे ही जन्म हुआ भारत के अपने भाषा हिंदी का. समकालीन संस्कृति की हिस्सा रही सभी भाषाओँ का मिश्रण. परन्तु ऐसी मधुरता की, किसी भी समकालीन भाषा में उत्तम. शब्दभंडार हो या शब्दसंरचना दोनों ही श्रेष्ठ. प्राकृत व संस्कृत दोनों ही की झलक, कोई वर्गमर्यादा नहीं. स्त्री व पुरुष दोनों की भाषा. हृदय व मुख दोनों की भाषा. जब भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमण शुरू हुए तो सर्वप्रथम हिंदी पर ज़ुल्म शुरू हुए, इसकी आत्मीयता को क्षति पहुंचाने की कवायद शुरू हुई. फ़ारसी, उर्दू, मंगोली, अफगानी, और कई सारे भाषाओँ से इसपर आक्रमण किये गए, परन्तु पानी में फेंके गए रंगों से पानी का नुक्सान नहीं होता बल्कि पानी उसे अपने में मिला लेता है. जब कभी किसी भाषा के अस्तित्व पर आंच आती है तो उसे व्याकरण की शरण प्राप्त होती है. पाणिनि के अष्टाध्यायी में संस्कृत व्याकरण निहित है तथा, संस्कृत व्याकरण के अंतस में हिंदी व्याकरण. हिंदी समाप्त नहीं हुई बल्कि विकसित हुई. उर्दू व फ़ारसी को समाहित कर लिया और कुछ शब्द तो ऐसे अपने से हो गये कि आज कोई बता दे उर्दू है या हिंदी. हिंदी भारत की संस्कृति का वो हिस्सा है जिसने विकास व विस्तार में समाज की साक्षी बनी है. भारत के इतिहास में हिंदी का योगदान समानांतर विकसित हुई है. फिर भारत पर अंग्रेज़ी आक्रमण हुआ तथा सब कुछ परिवर्तित सा हो गया. इसी देश के लोग, हिंदी के ही वंशज न जाने क्यों हिंदी से ही रूठ गये, कहने लगे दुनिया अंग्रेज़ी बोलती है हम क्यों नहीं बोल सकते, हम भी वही बोलेंगे.
विश्व की चिंता वो करें जिन्हें विश्व के टुकड़ों पे पलना हो. अगर अपने देश की गरिमागाथा स्वयं लिखना है तो अपनी भाषा में लिखो ना. किसी उधार की भाषा में क्या लिखना, हिंदी हमारी सहेली है, ये हमारे अठखेलियों से लेकर, स्कूल, क्रीड़ा, गालियों, प्रेम, ममता व क्रोध सभी में छुपी है, इससे बैर कैसे कर लें. अंग्रेज़ी तो हमारी सज़ा है जो अँगरेज़ हमें दे के गये हैं, 170 वर्षों तक अपनी संस्कृति में सेंध लगवाने का ये क्रूर दण्ड भारतवर्ष को दिया गया. हम ख़ुशी ख़ुशी उस दण्ड का आनंद उठाते हैं, क्या यह समझ पाना इतना मुश्किल है कि अंग्रेजों ने भारत से पहले भारत की भाषा को अपने अधीन किया तथा आज जब भारत राजनैतिक रूप से स्वाधीन हो गया सांस्कृतिक रूप से आज भी पराधीन है. अपनी सहेली को हम उन्मादी अंग्रेज़ी के आँगन में छोड़ आये, बिना इसकी परवाह किये कि सहेली की अस्मिता व जीवन दोनों पर संकट आ सकती है. भारत की विविधता की कथा सब को ज्ञात है, सभी कभी न कभी हिंदी के अपने थे, आज गैरों से भी अधिक बुरा व्यवहार करते हैं. परिवार में मतभेद कहाँ नहीं होता, इसका अर्थ ये तो नहीं की विदेशियों के खैरात को अपना भाग्य समझ लें और अपनी भाषा को ही शत्रु मान बैठे. भारत की सभी भाषाएँ जब संस्कृत की ही वंशज है तो हिंदी से ही ऐसा व्यवहार क्यों? भारत का गौरव तो दूर इसे तो आंगन की धूल से भी कम सम्मान दिया जा रहा है. एक अध्ययन के अनुसार भारत के करीब 42 प्रतिशत लोगों की भाषा हिंदी है, और यदि पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजरती, मैथिलि व उर्दू को जोड़ दिया जाए तो ये आंकड़ा 70-75 फीसदी से भी अधिक है. जब भारत की तीन चौथाई जनसंख्या हिंदी बोलती, समझती व लिखती है तो हिंदी को भारत की राष्ट्रिय भाषा क्यों न बनाया जाए? विरोध तो किसी भी प्रकरण का एक हिस्सा है, होता है, होता ही रहेगा. विरोध की आग में हिंदी को अग्निसमाधि लेने पर विवश तो नहीं कर सकते.
नवनिर्वाचित सरकार ने जब गृह मंत्रालय के कार्यालयीन कार्यों को हिंदी में करने का निर्णय लिया तो एक और जहां हर्ष का माहौल था तो वहीं एक और विरोध के सुर गूँज उठे, तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करूणानिधि ने सीधे शब्दों में इस निर्णय के विरोध में अपनी राय स्पष्ट कर दिया. संविधान में सूचित भाषाओँ में तमिल भी एक भाषा है, तथा हिंदी की इस तवज्जो को वे क्षेत्रीय भाषाओँ को दबाने व उनका अस्तित्व मिटाने की तरफ उठाया गया कदम मानते हैं. यही मानना है तमिलनाडु की मुख्यमंत्री व दक्षिण भारत के कुछ अन्य वामपंथी व क्षेत्रीय दल के नेताओं का भी. दक्षिण भारत ही नहीं बल्कि उत्तर-पूर्व भारत के भी क्षेत्रीय दल इसके विरोध में ही हैं. इस विरोध के कारण व आधार पूर्ण रूप से निराश करने योग्य है. भारत में 100 से भी अधिक भाषाएँ तथा सहस्त्रों बोलियाँ विद्यमान हैं, सभी को तवज्जो देना नामुमकिन है. 22 भाषाएँ जो संविधान में सूचित हैं, अपने तरह से सभी राज्य व क्षेत्र को समाहित कर लेती हैं. विरोध का कारण हिंदी को दी जाने वाली तरजीह है, तथा विरोध का आधार स्वतंत्रता के पश्चात् प्रधानमंत्री नेहरु द्वारा दिया गया आश्वासन था की जब तक सभी राज्य संतुष्ट नहीं होता, उस उचित समय तक अंग्रेजी ही भारत की कार्यालयीन भाषा रहेगी. अनुचित, अन्याय, घोर अन्याय. और इस तरह से हिंदी से सर्वप्रथम उसका अधिकार छीना गया था. आज स्थिति यह है कि हिंदी अपने अधिकार तो दूर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है. किसके कारण? उस एक आश्वासन के कारण. एक आश्वासन और भारत किसी और के चरणों में अपना मुख रख चुका था. ये एक आश्वासन सम्पूर्ण राष्ट्रवाद के विरुद्ध था. ये कैसा देशप्रेम? कैसा राष्ट्रवाद? सभी ढकोसलों का भण्डाफोड़ इस एक आश्वासन ने कर दिया. फिर वो वर्षों का संघर्ष क्या सिर्फ अंग्रेज़ों को अपने देश से वापस भेजने के लिए किया गया था? क्या इतनी कुर्बानियां अपनी कुर्सी से अंग्रेजों को हटाकर स्वयं बैठने के लिए किया गया था? क्या इतना रक्त केवल कोरों व उस झंडे से बचने के लिए किया गया था? किसी भी देश अ निर्माण उसकी अपनी भाषा में ही होता है, चीन इसलिए चीन है क्योंकि उसने अपनी भाषा को सम्मान दिया. और ये लूटेरे ब्रिटिश तो बस साम्राज्य फ़ैलाने में विश्वास रखते हैं, उनके प्रपंच में हम कैसे फंस गयें? अंग्रेज़ी को अपनाकर हमने सदा के लिए उनके अधीन कर दिया. इतने संघर्षों का कोई अर्थ ही नहीं रह गया, बस अंग्रेज़ चले गये, सत्ता कुछ भारतीय अंग्रेजों को सौंप कर, सदा के लिए हमपर राज करने हेतु.
अंग्रेज़ी ने हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को सर्वप्रथम अपने अधीन किया, जब किसी समाज का विवेक ही बिक जाए तो उस समाज का हश्र क्या हो सकता है, विचारनीय है. और वामपंथी जो कि विवेकशील माने जाते हैं, जो बुद्धिमत्ता से सामाजिक संघर्ष को जानते हैं, उन्होंने भी अपने पराधीनता की घोषणा कर दी है, अंग्रेजी के समर्थन में अपनी बात रखकर. हिन्दी का अपराध क्या है? जो उसे अपने ही भूमि पर इस तरह प्रताड़ित किया जा रहा है, अपनी ही जन्मभूमि पर उसके अस्मिता से खेला जा रहा है, उसके अस्तित्व, अहमियत को ललकारा जा रहा है. दूर क्षेत्र तक भाषायी संघर्ष में मैं हिंदी के ही मृत शरीर को देख रहा हूँ, जो आ रहा है, हिंदी के शव को मुखाग्नि देने का प्रयास कर रहा है, हिंदी चीख रही है कि उसकी जान अभी गयी नहीं है, ऊपर बैठा अंग्रेज़ी उन्माद में झूम रहा है, अट्टहास कर रहा है, बीच बीच में थूक रहा है. किस पर? हम पर या हमारे अकर्मण्यता पर, एक दिन ऐसा आएगा हिंदी के स्थान पर, अपने समाज की अस्मिता को हम ऐसे ही पराधीन कर देंगे. अपना लेंगे विदेशी चोला, उत्सव मनाएंगे अपने पराधीनता का, ज्यादा हुआ तो अंग्रेजी में ही अंग्रेजियत को गाली दे देंगे. इस समस्या का समाधान क्या है? समस्या ही कहाँ है, एक आरज़ू है, एक कवायद है, हिंदी को उसका अधिकार दिलवाने के लिए. हिन्द की धरती पर हिंदी संघर्षरत क्यों है? क्या शर्मसार नहीं करती हमें और फिर भी हम विदेशी रिश्तों की दुहाई दे कर अपनी सहेली को मारने पर तुले हुए हैं.
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