रविवार, 15 जून 2014


परिवर्तन से परे 

वैमनस्य व विचारधारा की विविधता 
                                                                                               - अंकित झा

कोई स्वतः ही उपेक्षित नहीं होता, स्वतः ही प्रताड़ित नहीं होता. संघर्ष जब जन्मी तो किस कारण से सर्वप्रथम जातीय मूल्यों का क्षरण हुआ, क्यों सर्वप्रथम जातिवाद को समाप्त किया गया, इसका एक कारण था, वो ये कि इसी के आधार पर ग्रामीण परिवेश में द्विजों ने सहस्त्राब्दियों तक संसाधनों पर एकाधिकार समझा.

परिवर्तन की राह इतनी सुगम नहीं होती, 
वीरों के रक्त से भूमिपूजन की जाती है,
बलिदानों की पराकाष्ठ पर, 
रखी जाती है जिसकी नींव,
जौहर के क्रंदन से स्वागतगीत सुने देते हैं,
स्यारों का उन्माद मंत्रोच्चारण कर रहा होता है.   

एक अंतर निहित है, अनपढ़ व कुपढ़ होने में. अनपढ़ वो जो कुछ पढ़ के समाज के काम न आये और कुपद वो जिसकी पढाई समाज के काम न आये और कभी कभी समाज के लिए क्षति कर जाए. यदि मैं अपना धर्म और कर्म जानता हूँ तो मैं अनपढ़ नहीं हूँ, परन्तु यदि कुछ ज्यादा जान जाऊं और दूसरों को भी यही जानने हेतु उत्सुक करूँ तो लोग मुझे कुपढ़ कह सकते हैं. कह सकते हैं क्या, कहते हैं. इस्लाम में ही देखिये न, ज्यादा इस्लाम जानने वाले जब वही दूसरों को बताने लगते हैं तो लोग क्या कहने लगते हैं उन्हें, या फिर इसे ऐसे समझें कि ज्यादा पढ़ के गुमराह करने वालों को क्या कहते हैं. ऐसा हर धर्म में होता है, धर्म ही नहीं हर समुदाय में होता है, मनुष्य को एक समय जानने की इच्छा होती है, फिर और अधिक जानने की इच्छा प्रकट होती है तत्पश्चात सब कुछ जानने की इच्छा और उसके बाद जन्म लेता है औरों को उसके बारे में बताने की. इस बताने को आप प्रभाव डालना भी समझ सकते हैं. समझना ही तो है, क्या आज तक चंद समझदारों की फ़ौज ने कम समझाया है इस विश्व को, एम पी मिश्र, प्रख्यात वामपंथी नेता ने कहा भी तो था, ज़मींदारी प्रथा पर छिड़े विवाद पर संसद में कि समय आ गया है विश्व को लाल रंग में रंगने में, ज़मींदारी समाप्त करने का, किसानों को किसान बनाने का. आधी दुनिया रंग चुकी है. नतीजा क्या रहा, ज़मींदारी प्रथा समाप्त हुई परन्तु तीन दशक बाद ही विश्व पटल से वो लाल रंग कहीं गुम हो गयी, और भारत में बची खुची कसर 16वें लोकसभा चुनाव में पूरी हो गयी. अब यही कोई गिने चुने लाल चश्मे वाले मिलते हैं, इनके अंत का कारन बना, दावे करने की इनकी आदत. ये अनपढ़ नहीं थे, अधिक पढ़े लिखे थे, इन्हें विपढ़ कहा जाए. कहते हैं, समाज एक समय के बाद अपना अंत स्वयं तय करता है, भले ही वो विपढ़ समाज ही क्यों न हो. दूसरी ओर कुछ समाज दुसरे समाज के अंत से उदित होते हैं. जैसे सामंती के बाद साम्य आया, मनुवाद के बाद अब दलितवाद आया, और सामाजिक संरचना को नष्ट कर गया. श्रीमद्भाग्वद गीता के चतुर्थ अध्याय के त्रयोदश श्लोक में श्री भगवान् कहते हैं-     
              "चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः, 
                    तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम"  

अर्थात 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण तथा कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है. इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तवमें अकर्ता ही जान'. जब सृश्तिकार ही विपढ़ नहीं तो कोई समाजशास्त्री कैसे किसी समाज का विश्लेषण कर सकता है. समाज में समस्या तब नहीं आई जब वर्ण बने, समस्या तब उत्पन्न हुई जब वर्ण जातिओं में विभक्त हो गया तथा जातियों को वर्गीकृत कर दिया गया. जाति के मूल को यदि समझें तो जाति में जन्म समाहित है तथा जब वर्ण व जन्म का समागम हुआ तब सभी समस्याएं आप ही उत्पन्न होने लगीं. और फिर समय आया अपने विचार, विचारक व विचारधाराओं का. परन्तु इस अंकुर, अरुण व उदय के मध्य जो रहा उसे अन्याय कहा गया, यंत्रणा कहा गया, प्रताड़ना कहा गया, उपेक्षा कहा गया. तत्पश्चात समाज में चेतना का उदय हुआ. परन्तु संघर्ष कभी शीर्ष व निम्न के मध्य नहीं होता, परन्तु इस संघर्ष को ये पहनावा दिया गया.

किस्सागोई जो ठहरा, एक किसा याद आ रहा है. बड़ी उलझी सी प्रेमकहानी थी वो, एक नास्तिक महबूबा व एक आस्तिक महबूब की प्रेमकहानी. कोई प्रेमकहानी जैसे कि हीर-राँझा, सोहनी-माहिवाल, लैला-मजनू इतनी अमर नहीं हो पाती यदि किसी में भी प्रियतमा ने अपने प्रेमी से उसकी विचारधारा तथा धार्मिक दृष्टिकोण पूछ लिया होता. प्रेम को इन सबसे क्या करना, जीने-मरने के वादे और घर बसाने के सपने ही तो होते हैं वहाँ, परन्तु उस घर का एक कोना मंदिर भी होता है, यही घर के ईशान कोण, उत्तर पूर्व दिशा में. अतः प्रेम कथामें दृष्टिकोण तो महत्वपूर्ण होता है, हाँ विचारधारा का पचरा क्या है? विचारधारा का अर्थ है, किसी एक विचार व उसके विचारक का समर्थन तथा उसे पूर्ण आशावादिता के साथ अपने जीवन का हिस्सा बनाना. इस प्रेमकहानी में ऐसा ही हुआ, विपरीत हवा का प्रारंभ कुछ ऐसे हुआ कि प्रियतमा जिसे लाल रंग से प्रेम है, परन्तु भिन्न अर्थ में, अपने प्रियतम के लिए लाल रंग का एक झोला लेकर आई, और प्रियतम ने उसे स्वीकार किया, माताजीका झोला समझकर. लाल चूँकि पावन वस्त्र मन गया है, अतः दोनों ही इसका बहुत सम्मान करते हैं. प्रियतम ने कहा, 'हमें ये लाल रंग ही तो जोड़ता है, अन्यथा समाज का बनावट और इसका अध्ययन तो आज तुम्हारे हाथों मेरा वध करवा दे.' प्रियतमा ने उत्तर दिया, वध में विचारक का नहीं, विचार तथा विचारधारा का करना चाहती हूँ, एक बार तुम्हारे विचार मर जाए, स्वयं ही मनुष्य बन जाओगे'. 'तुम भूल रही हो कि विचार कभी मरा नहीं करते, इतिहास के गर्भ में ही सही परन्तु जीवित रहते हैं, कब कैसे जागृत हो जाएँ पता ही नहीं चलता'. बातों बातों में न जाने कब प्रियतमा का घर आ गया और वह उतर के अन्दर चली गयी. जाते जाते मात्र इतना ही कहा कि, इतिहास जो भुगत चुकी है, उसका अर्थ यह नहीं कि भविष्य भी उसे भुगतेगा. समाज को न अब कोई ब्रह्मा बाँट सकता है और ना ही कोई ब्रह्मा के मुख से निकले उनके विचार'. इस बात पर प्रियतम ने उत्तर दिया कि, 'और न ही कोई विदेशी विचारक और उसके सामाजिक संघर्ष का सूत्र. ये समाज अब कभी विखंडित नहीं होगी, जब तक ईश्वर का अस्तित्व है, समाज नहीं बाँट सकता हाँ, जिस दिन कोई धर्म व ईश्वर को कोई नशा बतला देगा, तत्पश्चात क्या होगा मैं नहीं जानता, समाज अवश्य बंटेगा'. प्रियतमा दरवाजा बंद कर चुकी थी, प्रियतम अपनी गाड़ी को किक मार चूका था. प्रेम कहानी में रात का महत्त्व अत्यधिक होता है, ये कहानी भी रातों में ही परवान चढ़ी थी, रातों में फोन पर घंटो चलने वाले वाद-विवाद और उसके बाद अगले दिन कॉलेज में मानना-मनाने का दौर. उस रात विवाद कुछ बढ़ गया, बात वहीँ से शुरू हुई जहां से रोज़ होती थी, प्रियतम ने पूछा, भोजन कर लिया? प्रियतमा ने हामी भरी तो, प्रियतम ने छेड़ते हुए कहा, 'देश की आधी आबादी आज रोटी के स्वप्न देख कर ही सो रही होगी, और तुम्हे अपने जीभ पर काबू ही नहीं है', इस बात पर नाराज़ हो कर प्रियतमा ने कहा, " तुम मनुवादियों को और आता ही क्या है? गाल बजाना और पेट की आग में आचमन डालना, समाज के विभत्स्तम अपराधी तो तुम लोग हो, समाज को बांटने वाले तुम, वर्ण को जन्म देने वाले तुम और सामाजिक उद्धार के समय भी सवर्ण बनके समाज के माथे पर भैरव बनकर नाच रहे हो', कहकर मार्क्सवादी महबूबा ने फ़ोन काट दिया. रात को प्रियतम का सन्देश आया, 'सामजिक उद्धार के माथे पर भैरव नहीं काल नाच रहा है, में तो ब्रह्मा को पूजता हूँ, वर्ण, जातिव्यवस्था से समाज को कभी कोई हानि हुई ही नहीं, छुआछूत से कभी भी सामाजिक कल्याण को बाधा नहीं पहुंची. समाज को सामाजिक उद्धार नहीं वरन सामाजिक जीर्णोद्धार की आवश्यकता है. सत्य कहता हूँ, हमें इश्वर बनने का कोई मोह नहीं है, अरे! हम तो वो हैं जिन्होंने विश्व को ईश्वर का आभास करवाया. अब तुम ही बताओ, सामाजिक संघर्ष की बात किसने की थी, ये याद दिलाने की आवश्यकता है क्या? भारत में वर्ग से विशाल यदि वर्ण संघर्ष हो चला तो द्विजों का क्या अपराध?' कुछ देर बाद ही पुनः एक सन्देश आया, इस सन्देश में प्रियतम ने लिखा था कि, मनुवाद को तुमने कुछ अजीब तरह से व्यक्त किया, पेट कि आग में आचमन? समिधा, जब सम्पूर्ण सृष्टि ज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई थी तब एक ज्ञान का एक प्रकाश प्रज्ज्वलित हुआ था, याद है उस प्रकाश में एक आग की लपट थी, याद है उस आग में पहली समिधा किसने डाली थी, महर्षि मनु ने. पुरुष के मुख से निकला पहला शब्द ज्ञात है तुम्हें? ब्रह्मा, इस ब्रह्मवाद को मनु ने विश्व को समझाया था, जिसे मनुवाद कहा गया. ब्रह्मा से ये पालनहार विष्णु ने समझा    था, गीता में इसकी व्याख्या है, 4 वर्णों का विवरण किया है भगवान ने जो उनके कर्म दर्शाते हैं. इस बात से विश्व अनभिज्ञ है तथा ब्राह्मणों को सदैव ही उच्च जाति समाज को गुमराह करने के आरोप लगाती रही है. ब्राह्मण तो ज्ञान संचार हेतु सदैव ही तत्पर रहे, तथा राज करने वाले क्षत्रियों को अपेक्षित समझा कि ज्ञान उन्हें मिले ताकि समाज पर कोई समस्या न आये. इसे यदि दो वर्गों ने उपेक्षा समझा तो अग्र्द्विजों का क्या अपराध'? अब प्रियतमा की बारी थी, 'अच्छा लगा तुम्हारा व्याख्यान, परन्तु, कोई स्वतः ही उपेक्षित नहीं होता, स्वतः ही प्रताड़ित नहीं होता. संघर्ष जब जन्मी तो किस कारण से सर्वप्रथम जातीय मूल्यों का क्षरण हुआ, क्यों सर्वप्रथम जातिवाद को समाप्त किया गया, इसका एक कारण था, वो ये कि इसी के आधार पर ग्रामीण परिवेश में द्विजों ने सहस्त्राब्दियों तक संसाधनों पर एकाधिकार समझा, और जब संघर्ष चला तो कपटी पिछड़ों को सत्ता सौंप नगरीय संसाधनों को अपनी बपौती बना ली. एक साथ कई विचार व विचारधाराएँ निवास करती हैं, इन्हें कृपया छेड़ो मत. समाज में संघर्ष निहित होती हैं, समाज की नींव में संघर्ष की बजरी भी मिलाई जाती है. इस संघर्ष को चलने दिया जाए. और हाँ मैं भला तुमसे नाराज़ हो सकती हूँ क्या? क्रांति की ही सही परन्तु लाल जोड़े में तुम्हारे ही घर में आउंगी'.प्रियतम के होठों पर हंसी बिखर गयी, परन्तु आँखों में आशा थी कि कभी तो अपनी प्रियतमा को ये समझा ही देगा कि मनुवाद बुरा नही बल्कि समाजवाद का ही हिस्सा है. 

सामाजिक संघर्ष क्या है, जीत-हार क्या है, सामाजिक उद्धार क्या है, जीर्णोद्धार क्या है, नींव क्या है, एकाधिकार क्या है, द्विज क्या है, वैमनस्य क्या है, प्रेम क्या है, प्रेम कहानी क्या है, विचारधारा क्या है, विविधता क्या है, समाज है. समाज का ही अंग है, समाज में ही समाहित है. मनुवाद और मार्क्सवाद, प्रेमकहानी का हिस्सा. लाल वस्त्र, क्रांति व श्रद्धा के स्वरुप.  
               

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