बुधवार, 7 जून 2017

Parivartan se Pare

मीडिया पर नियंत्रण की साज़िशें अब क्यों चौंकाती नहीं है!
- अंकित झा

 आप जश्न मनाए देश का। सरकार प्रगति देख रही है। आप ग़म मनाए सैनिकों के मृत्यु का सरकार मामला देख रही है ना। आप क्रोधित हो उस बेवक़ूफ़ छात्र पर जो आदिवासियों के पक्ष की बात कर रहा हैसरकार देशभक्ति तय कर रही है ना। आप जिएँ लेकिन वैसे जैसे सरकार चाहती हैआप जाएँ तो मंदिर की ओर एक बार झुके ज़रूर। क्योंक्योंकि सरकार चाहती है। मान ले कि देश का अपना कौन है और पराया कौन।

सत्य। जनता। ख़बर। साहस। विश्वास। ये सब ऐसे शब्द हैं जो मीडिया हमें अपने नाम से परोसना चाहती है। मीडिया वाले भूल जाते हैं राष्ट्र मीडिया और सत्य से नहीं अपितु सरकार से बनती है। जो सरकार चाहे वही राष्ट्र है। फिर वो भारत हो या अखंड भारत या फिर हिन्दू राष्ट्र। हर साम्राज्य में चाटुकारों की एक पूरी जमात होती है और ये चाटुकार अपने आका के बारे में असत्य को यथार्थ बना कर परोसते रहते हैं। आज मीडिया वही चाटुकार है। ऐसे में असग़र वजाहत की वो लघुकथापहचानयाद आती है। यहाँ राजा हुक्म देता है कि सब अपनी आँख बंद करवा लें ताकीं उन्हें शांति मिले, काम अच्छे से होने लगा। फिर हुक्म आया कि कान में पिघला सीसा डलवा लें, और उत्पादन आश्चर्यजनक तरीक़े से बढ़ गया। तीसरा हुक्म आया कि  लोग अपने होंठ सिलवा लाइन क्योंकि बोलना उत्पादन के लिए आवश्यक नहीं। ऐसे ही कई तरह की चीज़ें जुड़वाने और कटवाने के हुक्म मिलते रहे और राज प्रतिदिन प्रगति करता रहा। एक दिन खैराती, रामू और चिद्धु ने आँखें खोल के प्रगति को देखना चाहा तो सिर्फ़ सामने राजा दिखायी दिया। ये कहानी हम सब की है। जिस जिस ने आँखें बंद कर रखी है उनके लिए समाज में शांति हैं, जिनके कान कुछ सुनने को तैयार नहीं उनके लिए देश में उत्पादन बढ़ रहा है, जो कुछ बोलते नहीं उनके लिए प्रगति ही प्रगति है। जो किसी ने इससे इंकार किया तो सामने राजा है। वो राजा जिसे वोट देकर हमने सेवक बनाया था। ऐसे ही तो मुखौल उड़ता है। हमने ये ख़ुद चुना है, पिछली वाली भ्रष्ट थी, ये वाली दुष्ट है। उसके ख़िलाफ़ मीडिया ख़ूब बोलती थी, लेकिन सहानुभूति रखती थी। इस वाली के ख़िलाफ़ मीडिया बोलना तो दूर क़सीदे गढ़ती है तारीफ़ में। यहाँ पर विभाजन स्पष्ट है। या तो आप पक्ष में या विपक्ष में। यहाँ कोई निष्पक्ष नहीं है। दुःख की बात ये है कि सरकार के पक्ष में मीडिया की संख्या इतनी है कि विपक्ष नज़र ही नहीं आता। यहाँ पर एक विभाजन भी है या तो आप सरकार के हितैषी हैं या फिर देशद्रोही। देशद्रोह तो जैसे आरोप ना हुआ ज़ुखाम हो गया, हर महीने मौसम बदलने पर एक बार को लग ही जाता है। ऐसे हालात में किसी मीडिया हाउस के मालिक के यहाँ सीबीआई का छापा तो क्या परमाणु बम विस्फोट भी मुझे चौकाएगा नहीं। यह एक सत्य है कि जिनके पास कुछ नहीं, उन्हें भी अपने पास से कुछ भी चले जाने का डर सताता रहता है। इस सरकार के पास हथकंडे है, इसी को लेकर उगेगी और इसी को लेकर डूबेगी। आप जश्न मनाए देश का। सरकार प्रगति देख रही है। आप ग़म मनाए सैनिकों के मृत्यु का सरकार मामला देख रही है ना। आप क्रोधित हो उस बेवक़ूफ़ छात्र पर जो आदिवासियों के पक्ष की बात कर रहा है, सरकार देशभक्ति तय कर रही है ना। आप जिएँ लेकिन वैसे जैसे सरकार चाहती है, आप जाएँ तो मंदिर की ओर एक बार झुके ज़रूर। क्यों? क्योंकि सरकार चाहती है। मान ले कि देश का अपना कौन है और पराया कौन। 
ज़्यादा फ़ैक्चूअल बातें नहीं करनी चाहिए इस सरकार के बारे में। जो सरकार ही रेटरिक पे बनी हो, जो सरकार चल रेटरिक पे रही हो। उसे फ़ैक्ट कभी पसंद नहीं आएँगे और ना ही उस सरकार के चाहने वालों को। उन्हें कहाँ तुम ऐंडर्सॉन कीनेशन ऐन इमैजिंड कम्यूनिटीसमझाते फिरोगे। कहाँ तुम उन्हें यह साबित करने का प्रयास भी कर पाओगे कि बस्तर में मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है कि कश्मीर में पत्थर के अलावा भी बहुत मुद्दे हैं जैसे डिसपीरन्स आदि। नहीं उन्हें कुछ समझ में नहीं आएगा। उनहिन ये पता है कि फ़लाँ ट्रस्ट ने भारत को ये रैंकिंग दिया है और इसने ये कहा गुजरात के लल्ला के लिए। बस गदगद होके घूमेंगे। कहाँ तुम उन्हें बताओगे कि तुम सेक्युलर नहीं अथीस्ट हो। कहाँ तुम उन्हें ये समझाओगे कि तुम कोंग्रेस से नहीं कॉम्युनिस्ट हो। ना। तुम सिकुलर हो। उनके लिए जो मोदी का नहीं वो देश का नहीं। अब उन्हें क्या बताओगे कि तुम देश में ही नहीं मानते। ये भीषण बातें हैं जो ना सेना वाली मीडिया को समझ में आएगा और ना ही गदगद देशवासियों को। जिनके लिए गाय माता है, उन्हें तुम तर्क क्या दे सकते हो। वो बहुत कुछ कर सकते हैं तुम्हारे साथ। जैसे कि देहरादून, आगरा, इंदौर के लोकल नेट्वर्क वाले NDTV हटा सकते हैं। हाँ, घर में घुस कर ये बता सकते हो कि लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते। 

ये रविश कुमार क्या समझते हैं कि देश की समस्या बतायेंगे और देश में जागरुकता ले आएँगे। लोग सजग हो जाएँगे? समाज जाग उठेगा? पत्रकारिता धन्य हो जाएगी। नहीं। ऐसा नहीं होगा। इस देश का एक हिस्सा अभी से 2024 के चुनाव की तैयारी कर रहा है। 2019 में उन्हें जीत तय लग रही है। फिर ये चैनल क्या प्रयास कर रहा है? इतनी गर्मजोशी से क्या बहस करवा रहा है। समाज को मत बदलो सरकार के हिसाब से स्वयं को बदलो। फिर काशीनाथ कहेगा, सरकार के हिसाब से वो बदलते हैं जिनकी हड्डियों में पानी भरा होता है। तुम चाहते हो कि जब तुम कहो मैं भौंकू, जब तुम कहो काटूँ। ये ना चोल्बे। इस सरकार की सबसे बड़ी ताक़त है इसका कमज़ोर विपक्ष। स्वयं में उलझा और स्वयं से हारा। सोल अलिन्सकी ने अपनी किताबरूल्ज़ फ़ोर रैडिकल्ज़में जो 13 नियम दिए हैं उनमें से एक अपने प्रतिद्वंदी का उपहास उडवा दो। लल्ला ने यही किया है अपने विपक्ष का जम कर उपहास उड़ाया है। इतना कि अब वो एक नेता से हटकर मज़ाक़ बनकर रह गये हैं। हम उथले हो गये हैं। गहराई को नापसंद करने लगे हैं और शायद इसीलिए ये सरकार हमसे जीत रही है। हर बार जीतेगी भी। क्योंकि युवाओं को विचारधारा से अधिक विचार पसंद आने लगे हैं। लोगों ने बात करना बंद कर दिया है, सोचना तो कब का भूल ही गए थे। और फिर जब ऐसे में किसी मीडिया पर प्रशासनिक कार्रवाई होगी तो हम आश्चर्यचकित क्यों होंगे? ये तो होता आया है। और होता ही रहेगा।    

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

कविता

मेरी अगली कविता 
- अंकित झा 

मेरी अगली कहानी में, 
कोई राजा नहीं होगा,
और ना बहुत सारी रानियाँ,
कोई राजकुमार नहीं रूठेगा 
चाँद को लेकर, 
और उसे मनाने के लिए
नहीं रचे जाएँगे प्रपंच।
मेरी अगली कहानी में,
पसीने से तर वो औरत
नायिका है,
जो हाथ में हँसिया लिए,
खेत में युद्ध लड़ा करती है,
धूप से, नज़रों से, भविष्य के लिए,
उस खेत में,
जिसकी मेड़ पर, शीशम की छांव में,
झूल रहा है उसका
8 महीने का बच्चा।
और नायक होगा उसका पति,
जो सुबह-सुबह
बीड़ी सुलगा के निकलता है,
नयी सम्भावनाओं की तलाश में,
माथे पे गमछा और शीकन बांधे।
उस कहानी में उनकी
प्रेम कहानी भी होगी।
जहाँ नायक और नायिका,
तारों को गिनते हुए,
एक-दूसरे की रात बनते हैं।
नायिका के पसीने और
नायक की बीड़ी का गंध,
सम्भावनाएँ बनाती हैं।
जिन सम्भावनाओं की ख़ुशबू से,
समूचा वातावरण भर जाता है।
उस छोटी सी झोपड़ी में,
मेरी अगली कहानी
नायिका के आँचल में बंधी कूच
में फँसी हुई है,
जिसे नायक उम्मीद से देखता है,
टटोलता है, बचत की तरह।
ये मेरी अगली कहानी की
पूँजी है, ये पूँजी मेरी
पहली कमाई की तरह होगी,
पहले क़दम की तरह,
पहले प्रेम की तरह।
तुम्हारे और मेरे
पहले आलिंगन की तरह।।

शनिवार, 28 जनवरी 2017

कविता

फिर किसी दिन 
- अंकित झा 

किसी दिन फिर,
बैठेंगे एक साथ,
एक दूसरे के,
पास, इतिहास की तरह।
और करेंगे बात 
अपनी सभी बिसरी यादों को
फिर से ताज़ा करने के लिए
बहुत सारी बातें करनी हैं
इकट्ठी कर रखी हैं,
महीनों से दस्तावेजों में जमा कर।
किसी दिन
मिला समय तो बहुत सी बातें कहूंगा,
बहुत सा समय लूंगा तुम्हारा
और कहता चला जाऊंगा
नासमझ की तरह
जैसे चलते चले गए थे
पहली बरसात में छाते के नीचे
हम दोनों।
छाते की नोक से तुम्हारे
कंधों पर टपकती बूँद को
रोकने के प्रयास में लगे वो
बाल मुझे अभी भी याद हैं,
उन बालों को वहाँ से हटाकर
पीछे करने में गीली हुई
मेरी उँगलियाँ अभी तक याद है।
पिछले कुछ दिनों ने
मेरे अंदर के स्त्री, पौरुष और
नपुंसक
तीनों की परीक्षा ली है
मैं व्यस्त रहा, परास्त हुआ,
पर अब भी प्रतीक्षा में,
इस बार ना झुकने के इरादे से।
किसी दिन फिर
निकल पड़ेंगे
बरसात में छाते के नीचे
मैं और तुम्हारी याद,
फिर से कंधों को
थोड़ा भिगाने और बात करते हुए
खो जाने
स्वयं को तलाशने के अभियान में,
अगली बरसात से पहले।

शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

श्रद्धांजलि


क्योंकि सिर्फ़ ओम् पुरी ने दुनिया को अलविदा नहीं कहा है  
- अंकित झा 



एक दर्शक, एक क़िस्सागो तथा एक सिनेमाप्रेमी के रूप में कुछ किरदारों ने मेरे अंदर तक को झकझोरा है। आज से नहीं वर्षों से वो आँखें, वो चीख़, वो धुत्कार मेरे अंदर है। रंगमंच से मेरा अलग सा रिश्ता है, एक प्रेमी का रिश्ता। सिनेमा से भी मेरा ऐसा ही कुछ रिश्ता है। कभी उसने मुझसे बेवफ़ाई की तो कभी मैंने ही बेरुख़ी दिखायी। इस सब के मध्य कुछ फ़िल्म, कुछ कहानियाँ, कुछ किरदार, कुछ संवाद, कुछ दृश्य और कुछ अभिनेता मेरे सगे हो गये। इतने सगे कि वो मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गए। अभिनय मेरे अंदर के उस भूख का नाम है जिसे दबाने में में अपनी शान समझता हूँ। परंतु कभी-कभार गली-मोहल्लों में कुछ क़िस्सों को अपने अंदर काफ़ी सहजता से निभा लिया करता हूँ, उसी तरह जैसे वो निभाया करते थे। वो, जिसकी करुणा में हर व्यक्ति स्वयं को रोते देखता था, वो जिसकी हँसी सभी के पड़ोसी की हँसी जैसी थी, वो जिसकी आँखों की गहराई में सभी स्वयं को पाते थे, वो जिसके चितकार से समूचा समाज स्वयं से प्रश्न करता था, वो जिसके आक्रोश से समूचे समाज के रौंगटे खड़े हो जाते थे, नाम बिलकुल दार्शनिक, जीवन दार्शनिक और किरदार समाज के लिए एक नया आयाम। ओम पुरी। स्वयं में सम्पूर्ण सिनेमा। एक अभिनेता जिसने अभिनय का अर्थ ही बदल दिया। तभी तो इसमें दो राय नहीं कि उनके क़रीबी मित्र नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा में ‘ओम्’ ने इतना सम्मान पाया है कि पढ़ने वाला उसे नसीर से अधिक ओम् की कथा मानने लगता है। 

आज कई लोग ओम की याद में आलेख लिखेंगे, फ़ेसबुक पर उन्हें याद करेंगे। मैं भी कर रहा हूँ। ओम को याद करने के लिए उनके फ़िल्मों की फहरिश्त छोटी पद जाएगी। विजय तेंदुलकर की कथा को किरदार ओम ने दिया, राजकुमार संतोषी के विद्रोही स्वरूप को आवाज़ ओम ने दिया, सफ़दर की मौत पर आँसू ओम के बहे थे। ओम को सिर्फ़ नायक, खलनायक या हँसोड़ के रूप में याद नहीं किया जाएगा, उन्हें याद किया जाएगा उस हिम्मत के लिए जिसने उन्हें सभी श्रेष्ठ नायकों के ऊपर रखा। ओम भारतीय फ़िल्म इतिहास के किसी महानतम फ़िल्म जैसे ‘शोले’, ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’, ‘लगान’, ‘थ्री इडियट्स’ आदि के हिस्सा नहीं है, उन्हें कभी अमिताभ, शाहरुख़, आमिर की आवश्यकता नहीं पड़ी। आज के नवाज़, मनोज, इरफ़ान और के के मेनन ओम के वंशज हैं। एक सही मायनों में धरती का कलाकार। नसीर ने कहा भी है अपनी आत्मकथा में कि ओम को अपने जीवनकाल में सदा संघर्ष करना पड़ा, हर किरदार, हर फ़िल्म और हर हर दौर में। कला फ़िल्मों के उस सुनहरे दौर में भी उन्हें संघर्ष करना पड़ता था, फिर व्यावसायिक फ़िल्मों में भी अपने विचार-विचारधारा को ताक पर रखकर किरदार निभाते रहने का संघर्ष। 

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

कविता

हमारी दोस्ती 
- अंकित झा 

हमारी दोस्ती सिर्फ 
तुम्हारा मुझे हँसाना नहीं है,
हमारी दोस्ती सिर्फ
मेरा तुम्हें सताना नहीं है,
हमारी दोस्ती सिर्फ
मेरी गलतियाँ नहीं हैं,
हमारी दोस्ती सिर्फ
तुम्हारी माफियां नहीं है।
हमारी दोस्ती सिर्फ
कक्षा के वो दो सीट नहीं है,
हमारी दोस्ती सिर्फ
तुम्हारा कन्धा और मेरी नींद नहीं है।
हमारी दोस्ती सिर्फ
मेरी भूख नहीं है,
हमारी दोस्ती सिर्फ
तुम्हारी रोटी नहीं है।
हमारी दोस्ती सिर्फ
नज़रों का मिलना नहीं है
हमारी दोस्ती सिर्फ
तुम्हारी लटों का समेटना नहीं है।
ये एक आदत है,
जो गीली बेंच की काई सी,
पक्की है,
फिसलन भरी,
गाढ़े रंग में,
सबको परेशान करती,
बेवजह पनपी हुई,
सृष्टि के साज़िश में,
खेलती हुई,
एक अंत की ओर
अग्रसर।
हमारी दोस्ती सिर्फ,
मेरे हाथ का वो छाता नहीं है,
हमारी दोस्ती सिर्फ
तुम्हारी गालों पर टपकते बारिश की बूँद नहीं है।।

सोमवार, 14 नवंबर 2016

कविता

तकलीफ़ 
- अंकित झा 


मुझे तकलीफ़ है, मेरा नाम उस संस्था से जुड़ने में 
जहाँ आते हैं सौदागर,
जो पहले करते हैं बर्बाद 
और फिर समाज की आड़ में
ले के आते हैं प्रस्ताव
समाज सुधारने का।।
मुझे तकलीफ़ है उन साथियों से,
जिन्होंने हाथ में मोमबत्ती थाम
ली थी प्रतिज्ञा समाज के हित के लिए
काम करने की।
आज धन की आँधी में
अपने अस्तित्व से प्रश्न करते साथियों
से मुझे तकलीफ़ है,
मुझे तकलीफ़ है संस्था
के अवचेतन में बसे शिक्षा से,
जिसने हमें बताया था प्रश्न करने को,
पर उन प्रश्नों से बौखलाए वो हमें
दरकीनार कर रहे हैं,
इस द्विज़्मुख से मुझे तकलीफ़ है।।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर


शिक्षा, संघर्ष तथा संगठन: असमान समाज के समानता की ओर

-         अंकित झा
-         अंजलि लेखी

 देश बनता है विविधता से, समाज टूटता है असामनताओं से. विवधता है कि देश में जलवायु वृहद् है, विवधता है कि एक ओर जब कहीं सूखा पड़ता है तो दुसरे क्षेत्र में फसल लहलहाती है. असामनता है कि एक जलविहीन राज्य महाराष्ट्र में 60% पानी मात्र तीन जिलों (मुंबई, ठाणे तथा पुणे) को प्राप्त होता है.
P. Sainath delivering lecture at DSSW.
Photo: Vishal Bhandari

एक देश, असंख्य विसंगतियां. विविधता. तथा पारस्परिक सौहार्द्य. यह सब किसी परिकथा से कम नहीं है. एक ऐसा देश जो किसी राष्ट्र की परिभाषा को शब्दतः चुनौती देता है. तत्पश्चात सामना होता है एक सत्य से जो भयानक है, सामजिक तथा आर्थिक रूप से भारत की विविधता, मात्र विविधता नहीं है असामनता है. विवधता तथा असामनता में एक भेद निहित है जिसे प्रस्तुत करते हैं पी. साईनाथ. एक ऐसी अर्थयवस्था जहां देश के सबसे अमीर 67 व्यक्तियों के पास देश के 30 करोड़ व्यक्तियों जितना धन है, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ के सबसे अमीर व्यक्ति के पास देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब व्यक्तियों (25 करोड़) जितना धन है, और फिर सामने आती है असामनता. देश बनता है विविधता से, समाज टूटता है असामनताओं से. विवधता है कि देश में जलवायु वृहद् है, विवधता है कि एक ओर जब कहीं सूखा पड़ता है तो दुसरे क्षेत्र में फसल लहलहाती है. असामनता है कि एक जलविहीन राज्य महाराष्ट्र में 60% पानी मात्र तीन जिलों (मुंबई, ठाणे तथा पुणे) को प्राप्त होता है, असामनता है कि नगरी महाराष्ट्र, ग्रामीण महाराष्ट्र के मुकाबले 400% अधिक जल प्राप्त करता है. ऐसी असामनता के मध्य पनपता है विषमता का विष जो कि समाज के संचालन के लिए घातक है.
P. Sainath with Department Head Prof. Manoj K Jha (Right)
Photo: Vishal Bhandari
दिल्ली समाज कार्य विद्यालय प्रांगण में 4 अप्रैल को अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर समिति, समाज कार्य विभाग द्वारा आयोजित द्वितीय वार्षिक अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर के उपलक्ष्य पर पी. साईनाथ द्वारा सभा को संबोधित किया गया. इस अवसर पर उन्होंने मुंबई के शिवाजी पार्क में हुए एक आम सभा का ज़िक्र किया जिसे मीडिया ने ज्यादा तूल नहीं दिया. नवनिर्वाचित सरकार के तीन महीने के अन्दर ही सीबीआई निदेशक ने इस बात का अंदेशा जताया था कि देश के कई लोगों का विदेशी बैंकों में धन जमा है जिस पर कार्रवाई आवश्यक है. समाज निर्माण एक प्रक्रिया है, और एक समय ऐसा आता है जब प्रक्रिया से उन लोगों को ही वंचित कर दिया जाता है जो कि इस निर्माण में भागीदार थे. जैसे कि भवन निर्माण के समय कार्य करने वाले मजदूरों को उसी भवन में प्रवेश से वंचित कर दिया जाता है. यहाँ दिखता है हमारे समाज का वो चेहरा जिसे हम असमान कहते हैं. एक ऐसा घिनौना तथा वीभत्स चेहरा जिसमें से रिसते हैं असमानता के विषाणु. 26 नवम्बर 1949 को डॉ अम्बेडकर ने संविधान का मसौदा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि “26 जनवरी 1950 से हम अन्तर्विरोध के ऐसे समय में प्रवेश करेंगे जहां राजनैतिक समानता तो होगी परन्तु आर्थिक व सामजिक असामनता से हम उबर नहीं पायेंगे. राजनैतिक पृष्ठ पर हम एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत पर विश्वास करेंगे परन्तु सामाजिक पृष्ठ पर हम उसी सिद्धांत को दरकिनार कर देंगे.
आखिर कब तक हम इस असमानता को इसी तरह लेकर फिरते रहेंगे, कब तक हम इस सत्य से चेहरा छुपाये घूमते रहेंगे कि ये असमानता हमारे लिए खतरनाक है? और कब तक हमारा समाज राजनैतिक समानता तथा आर्थिक असामनता के अंतर्विरोध में जीता रहेगा? और जब तक यह रहेगा हमारा लोकतंत्र विषमताओं से घिरा रहेगा. या तो हम इन असमानताओं को यथाशीघ्र समाप्त करें अथवा असमता से पीड़ित लोगों के द्वारा अपने इस सुसज्जित लोकतंत्र की हत्या करने की प्रतीक्षा करें.” 67 वर्ष पूर्व कही गयी वो बातें आज के परिपेक्ष में भी उतनी ही सार्थक और सहज है. इस प्रत्यक्ष को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं कि हमारा समाज आज भी सामजिक असमानताओं से ऊपर नहीं उठ पाया है. जातिगत असामनताओं के साथ-साथ आर्थिक असामनता ने भी अपनी जडें मजबूत कर ली हैं. हर समाज में एक उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग निर्मित किये गये हैं, और ये निर्माण समाज के सुगम संचालन के लिए नहीं वरन समाज को विभाजित करने हेतु बनाये गये हैं. जब सभी मनुष्य जन्म के समय सामान होता है तो फिर असमान कैसे हो गये? साईनाथ कहते हैं, कोई भी मनुष्य समान पैदा नहीं होता है, आज के समाज में सभी मनुष्य अलग पैदा होता है, इस सत्य को हमें स्वीकार करना होगा कि विभिन्न जातियों, विभिन्न धर्मों में, विभिन्न आर्थिक वर्गों में पैदा होने वाले बच्चे अलग होते हैं. उनके जीवन का प्रारंभ अलग होता है, उनका समाजीकरण अलग होता है, वो अलग परिदृश्य में पलते हैं, अलग संस्कृति के संरक्षक बनते हैं, अलग पहचान के साथ, अलग विचार तथा अलग अनुभवों के साथ बड़े होते हैं. फिर समानता कहाँ से आएगी?
शिक्षित बनो....
P. Sainath unveiling Milestone Magazine
Photo: Vishal Bhandari
शिक्षा से आंबेडकर का आशय मात्र विद्यालयीन शिक्षा से नहीं था, शिक्षा का आधार है समाज में परिवर्तन की लौ को प्रज्वलित करना. प्रारंभ से ही शिक्षा एक खास वर्ग की विरासत रही है अतएव एक खास वर्ग ने सदा समाज में अपने हिसाब से परिवर्तन प्रवाहित किया है. साईनाथ ने काफी मुखर हो इस बात को रखा कि विद्यालय तो शिक्षा प्रदान करते ही नहीं, वे तो मात्र कठिन प्रशिक्षण देती है कि आने वाले समय में धन कैसे अर्जित किया जाए, और अपने इस खोखले उद्देश्य में भी भारतीय शिक्षण प्रणाली बुरी तरह असफल रही है. यदि शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य रोजगार प्रदान करना ही था, तो आज बेरोज़गारी क्यों है? यह जानने की आवश्यकता है. शिक्षा को सामाजिक बंधनों से मुक्त माना जाता है परन्तु क्या हम सच में यह कह सकते हैं कि हमने कभी भी शिक्षा को सामाजिक बन्धनों से मुक्त पाया हो? वर्णाश्रम के नाम पर जो शिक्षा के साथ इस देश में मज़ाक हुआ है, वो दुखद है. यह जानने वाली बात है कि किस तरह हर वर्ग के लिए शैक्षणिक आवश्यकताएं अलग अलग हैं. एक वर्ग के लिए शिक्षा से आशय बेहतर सुविधाएं हैं तो दुसरे वर्ग के लिए मूलभूत सुविधा.
पंचायत चुनाव में न्यूनतम शिक्षा का पैमाना लाकर एक बड़े वर्ग को चुनाव लड़ने से अनभिज्ञ कर दिया गया है. राजस्थान के 90% दलित महिलाओं को इस तरह से सदा के लिए चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है,  साथ ही साथ 62% दलित पुरुषों को भी इस प्रक्रिया से विभाज्य कर दिया गया है. अब इस सब में समाज की विडंबना यह है कि अपनी कमजोर इच्छा शक्ति तथा उन नीतियों के लिए जिसके कारण यह अशिक्षा पनपी, के लिए सरकार को कोई सज़ा ना देकर उन महिलाओं को सज़ा मिल रही है जो कि सही शब्दों में पीड़ित हैं. इन नीतियों के बावजूद यदि हम समाज को प्रगतिशील तथा समावेशिक कहते हैं तो यह दुखद है. ऐसे समय में आवश्यकता होती है शिक्षा की जो सत्य व सही में अंतर कर सके. अशिक्षा एक सत्य है परन्तु अशिक्षितों को मिलने वाली सज़ा क्या सही है? अशिक्षा कोई अपराध नहीं है, यह सामजिक तथा संवेधानिक नीतियों की असफलता का जीता-जागता प्रमाण है.
अशिक्षा के परे एक और समस्या है, यह समस्या शिक्षितों की समस्या है. पढ़े-लिखों की पढ़ी-लिखी समस्याएं. यह समस्या है पूंजीवादी बाज़ार में स्वयं को स्थापित करने की समस्या. मुंबई के प्रसिद्ध ‘बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल’ का उदाहरण देते हुए साईनाथ समझाते हैं कि किस प्रकार पूंजीवाद भी एक वर्ग संघर्ष की ओर बढ़ रहा है. ‘उस स्कूल में धनाढ्य परिवार के बच्चे ही पढ़ते हैं, मुंबई के व्यस्त सड़क यातायात के बावजूद तीन लेन की पार्किंग रखने का माद्दा भी रखती है. कुछ वर्ष पहले तक स्कूल में करोड़पति लोगों के लिए अलग से साम्याना होता था, धीरे-धीरे देश में और खासकर मुंबई में करोड़पति बढ़ने लगे और कई लोग करोड़पति से अरबपति हो गये. अमीर तो करोड़पति भी और अरबपति भी. अलग से साम्याना अब करोड़पति से छीन के अरबपति के हवाले किया जाए अथवा उन साम्यानों के अन्दर एक साम्याना बनाकर अरबपति को लाया जाए? यह बड़ा प्रश्न विद्यालय प्रशासन के समक्ष खड़ा है. आखिर इस सब का क्या निदान है?’ पूंजीवाद अपनी झोली में अपनी तरह की समस्याएं लेकर आता है. निरर्थक तथा हास्यापद. यह नए जमाने का कड़वा वर्ग संघर्ष है, जहां पर एक अत्याचारी वर्ग खुद एक पीड़ित के रूप में उभरा है. यहाँ जन्म लेता है वैचारिक संघर्ष, संघर्ष कि समाज को अब सच में शिक्षा की आवश्यकता है. समाज को शिक्षा मिलें या न मिलें उन्हें शिक्षित मिलना बहुत आवश्यक है.
Photo: Vishal Bhandari

संघर्ष करो....
संघर्ष से अम्बेडकर का आशय एक ऐसे वैचारिक चेतना से है जहां सत्य तथा सही का अर्थ सब के समझ में आये. कोई भी लड़ाई सत्य के लिए नहीं अपितु सही के लिए लड़ा जाये, फिर वो किसी स्थापित सत्य के विरुद्ध ही क्यों हो. सत्य तथा सही सभी किसी इंसानी मस्तिष्क की उपज है जो हर परिदृश्य में परिवर्तित हो सकते हैं. यह संघर्ष एक ऐसे मस्तिष्क के घर्षण से है जो हर समय स्वयं से यह प्रश्न पूछे कि जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है? विश्व के अधिकांश परिवर्तन उन विवेकशील तथा संघर्षशील मस्तिष्कों की ही उपज रही है जिन्होंने हमेशा समाज से यह पूछा कि यह क्यों हो रहा है, फिर वो गाँधी हो, अम्बेडकर हो, या मार्टिन लूथर किंग. कुछ भी स्वतः नहीं बदलता है, समाज में सब कुछ एक समय के बाद बदलना ही पड़ता है परन्तु परिवर्तन में तथा पर्याय में एक अंतर है. परिवर्तन यदि समूल न हो तो वो और बजी खतरनाक हो जाता है. वर्तमान समाज के लिए सबसे दुखद बात यह है कि लोहों को स्वत्न्र्ता का अर्थ तो पता है अपर इसके लिए किये गये संघर्ष का अर्थ नहीं पता. लोगों ने उस संघर्ष को भी भाषा, धर्म, विचारों तथा विचारकों के नाम पर बाँट दिया है. संघर्ष एक संघर्ष होता है और स्वतंत्रता के लिए किया गया संघर्ष हर रूप में एक महान संघर्ष था. हम सब को उसका मतलब समझना आवश्यक है.
संगठित रहो....
शिक्षा तथा संघर्ष के बाद सबसे आवश्यक है संगठित रहना. एक अर्थ तथा एक हित के लिए सदा एक जुट रहना. समाज का कोई भी वर्ग जब संघर्ष करे तो यह आवाह्यक है कि संघर्ष संगठित हो, अथवा सम्पूर्ण संघर्ष बिखर जायेगा. आज के समय बहुत सारे कर्मचारी संघ हैं परन्तु प्रश्न यह है कि संगठित कितने हैं. समकालीन परिदृश्य में छिड़े छात्र संघर्ष को भी यदि संगठित किया जाता तो यह और भी भीषण होता. परन्तु समाज के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करना था और वो बखूबी किया गया. सत्ताधारियों द्वारा शिक्षण संस्थानों पर किये गये चार प्रहारों से जन्मे संघर्ष से यह सिद्ध होता है कि किसी विचार का पनपना समाज में कितन आवश्यक है.

किसी विचार के पैदा होने से अधिक आवश्यक है उस विचार का निर्वाह करना. और इस समय आवश्यकता है नये विचारों के निर्माण तथा उसके सफल निर्वाह की. समाज को छात्र से बहुत उम्मीदें हैं, और इन उम्मीदों का नाम है शिक्षा. सभी असमानताओं से परे एक समानता जो समाज को जोड़ती है वो इसका एक-दुसरे के ऊपर परस्पर निर्भरता. इस निर्भरता को निर्वाह कर परिवर्तन की ओर देखना होगा, समाज को आगे बढ़ना होगा.