मीडिया पर नियंत्रण की साज़िशें अब क्यों चौंकाती नहीं है!
- अंकित झा
आप जश्न मनाए देश का। सरकार प्रगति देख रही है। आप ग़म मनाए सैनिकों के मृत्यु का सरकार मामला देख रही है ना। आप क्रोधित हो उस बेवक़ूफ़ छात्र पर जो आदिवासियों के पक्ष की बात कर रहा है, सरकार देशभक्ति तय कर रही है ना। आप जिएँ लेकिन वैसे जैसे सरकार चाहती है, आप जाएँ तो मंदिर की ओर एक बार झुके ज़रूर। क्यों? क्योंकि सरकार चाहती है। मान ले कि देश का अपना कौन है और पराया कौन।
सत्य। जनता। ख़बर। साहस। विश्वास। ये सब ऐसे शब्द हैं जो मीडिया हमें अपने नाम से परोसना चाहती है। मीडिया वाले भूल जाते हैं राष्ट्र मीडिया और सत्य से नहीं अपितु सरकार से बनती है। जो सरकार चाहे वही राष्ट्र है। फिर वो भारत हो या अखंड भारत या फिर हिन्दू राष्ट्र। हर साम्राज्य में चाटुकारों की एक पूरी जमात होती है और ये चाटुकार अपने आका के बारे में असत्य को यथार्थ बना कर परोसते रहते हैं। आज मीडिया वही चाटुकार है। ऐसे में असग़र वजाहत की वो लघुकथा “पहचान” याद आती है। यहाँ राजा हुक्म देता है कि सब अपनी आँख बंद करवा लें ताकीं उन्हें शांति मिले, काम अच्छे से होने लगा। फिर हुक्म आया कि कान में पिघला सीसा डलवा लें, और उत्पादन आश्चर्यजनक तरीक़े से बढ़ गया। तीसरा हुक्म आया कि लोग अपने होंठ सिलवा लाइन क्योंकि बोलना उत्पादन के लिए आवश्यक नहीं। ऐसे ही कई तरह की चीज़ें जुड़वाने और कटवाने के हुक्म मिलते रहे और राज प्रतिदिन प्रगति करता रहा। एक दिन खैराती, रामू और चिद्धु ने आँखें खोल के प्रगति को देखना चाहा तो सिर्फ़ सामने राजा दिखायी दिया। ये कहानी हम सब की है। जिस जिस ने आँखें बंद कर रखी है उनके लिए समाज में शांति हैं, जिनके कान कुछ सुनने को तैयार नहीं उनके लिए देश में उत्पादन बढ़ रहा है, जो कुछ बोलते नहीं उनके लिए प्रगति ही प्रगति है। जो किसी ने इससे इंकार किया तो सामने राजा है। वो राजा जिसे वोट देकर हमने सेवक बनाया था। ऐसे ही तो मुखौल उड़ता है। हमने ये ख़ुद चुना है, पिछली वाली भ्रष्ट थी, ये वाली दुष्ट है। उसके ख़िलाफ़ मीडिया ख़ूब बोलती थी, लेकिन सहानुभूति रखती थी। इस वाली के ख़िलाफ़ मीडिया बोलना तो दूर क़सीदे गढ़ती है तारीफ़ में। यहाँ पर विभाजन स्पष्ट है। या तो आप पक्ष में या विपक्ष में। यहाँ कोई निष्पक्ष नहीं है। दुःख की बात ये है कि सरकार के पक्ष में मीडिया की संख्या इतनी है कि विपक्ष नज़र ही नहीं आता। यहाँ पर एक विभाजन भी है या तो आप सरकार के हितैषी हैं या फिर देशद्रोही। देशद्रोह तो जैसे आरोप ना हुआ ज़ुखाम हो गया, हर महीने मौसम बदलने पर एक बार को लग ही जाता है। ऐसे हालात में किसी मीडिया हाउस के मालिक के यहाँ सीबीआई का छापा तो क्या परमाणु बम विस्फोट भी मुझे चौकाएगा नहीं। यह एक सत्य है कि जिनके पास कुछ नहीं, उन्हें भी अपने पास से कुछ भी चले जाने का डर सताता रहता है। इस सरकार के पास हथकंडे है, इसी को लेकर उगेगी और इसी को लेकर डूबेगी। आप जश्न मनाए देश का। सरकार प्रगति देख रही है। आप ग़म मनाए सैनिकों के मृत्यु का सरकार मामला देख रही है ना। आप क्रोधित हो उस बेवक़ूफ़ छात्र पर जो आदिवासियों के पक्ष की बात कर रहा है, सरकार देशभक्ति तय कर रही है ना। आप जिएँ लेकिन वैसे जैसे सरकार चाहती है, आप जाएँ तो मंदिर की ओर एक बार झुके ज़रूर। क्यों? क्योंकि सरकार चाहती है। मान ले कि देश का अपना कौन है और पराया कौन।
ज़्यादा फ़ैक्चूअल बातें नहीं करनी चाहिए इस सरकार के बारे में। जो सरकार ही रेटरिक पे बनी हो, जो सरकार चल रेटरिक पे रही हो। उसे फ़ैक्ट कभी पसंद नहीं आएँगे और ना ही उस सरकार के चाहने वालों को। उन्हें कहाँ तुम ऐंडर्सॉन की ‘नेशन ऐन इमैजिंड कम्यूनिटी’ समझाते फिरोगे। कहाँ तुम उन्हें यह साबित करने का प्रयास भी कर पाओगे कि बस्तर में मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है कि कश्मीर में पत्थर के अलावा भी बहुत मुद्दे हैं जैसे डिसपीरन्स आदि। नहीं उन्हें कुछ समझ में नहीं आएगा। उनहिन ये पता है कि फ़लाँ ट्रस्ट ने भारत को ये रैंकिंग दिया है और इसने ये कहा गुजरात के लल्ला के लिए। बस गदगद होके घूमेंगे। कहाँ तुम उन्हें बताओगे कि तुम सेक्युलर नहीं अथीस्ट हो। कहाँ तुम उन्हें ये समझाओगे कि तुम कोंग्रेस से नहीं कॉम्युनिस्ट हो। ना। तुम सिकुलर हो। उनके लिए जो मोदी का नहीं वो देश का नहीं। अब उन्हें क्या बताओगे कि तुम देश में ही नहीं मानते। ये भीषण बातें हैं जो ना सेना वाली मीडिया को समझ में आएगा और ना ही गदगद देशवासियों को। जिनके लिए गाय माता है, उन्हें तुम तर्क क्या दे सकते हो। वो बहुत कुछ कर सकते हैं तुम्हारे साथ। जैसे कि देहरादून, आगरा, इंदौर के लोकल नेट्वर्क वाले NDTV हटा सकते हैं। हाँ, घर में घुस कर ये बता सकते हो कि लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते।
ये रविश कुमार क्या समझते हैं कि देश की समस्या बतायेंगे और देश में जागरुकता ले आएँगे। लोग सजग हो जाएँगे? समाज जाग उठेगा? पत्रकारिता धन्य हो जाएगी। नहीं। ऐसा नहीं होगा। इस देश का एक हिस्सा अभी से 2024 के चुनाव की तैयारी कर रहा है। 2019 में उन्हें जीत तय लग रही है। फिर ये चैनल क्या प्रयास कर रहा है? इतनी गर्मजोशी से क्या बहस करवा रहा है। समाज को मत बदलो सरकार के हिसाब से स्वयं को बदलो। फिर काशीनाथ कहेगा, सरकार के हिसाब से वो बदलते हैं जिनकी हड्डियों में पानी भरा होता है। तुम चाहते हो कि जब तुम कहो मैं भौंकू, जब तुम कहो काटूँ। ये ना चोल्बे। इस सरकार की सबसे बड़ी ताक़त है इसका कमज़ोर विपक्ष। स्वयं में उलझा और स्वयं से हारा। सोल अलिन्सकी ने अपनी किताब “रूल्ज़ फ़ोर रैडिकल्ज़” में जो 13 नियम दिए हैं उनमें से एक अपने प्रतिद्वंदी का उपहास उडवा दो। लल्ला ने यही किया है अपने विपक्ष का जम कर उपहास उड़ाया है। इतना कि अब वो एक नेता से हटकर मज़ाक़ बनकर रह गये हैं। हम उथले हो गये हैं। ह गहराई को नापसंद करने लगे हैं और शायद इसीलिए ये सरकार हमसे जीत रही है। हर बार जीतेगी भी। क्योंकि युवाओं को विचारधारा से अधिक विचार पसंद आने लगे हैं। लोगों ने बात करना बंद कर दिया है, सोचना तो कब का भूल ही गए थे। और फिर जब ऐसे में किसी मीडिया पर प्रशासनिक कार्रवाई होगी तो हम आश्चर्यचकित क्यों होंगे? ये तो होता आया है। और होता ही रहेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें