क्योंकि सिर्फ़ ओम् पुरी ने दुनिया को अलविदा नहीं कहा है
एक दर्शक, एक क़िस्सागो तथा एक सिनेमाप्रेमी के रूप में कुछ किरदारों ने मेरे अंदर तक को झकझोरा है। आज से नहीं वर्षों से वो आँखें, वो चीख़, वो धुत्कार मेरे अंदर है। रंगमंच से मेरा अलग सा रिश्ता है, एक प्रेमी का रिश्ता। सिनेमा से भी मेरा ऐसा ही कुछ रिश्ता है। कभी उसने मुझसे बेवफ़ाई की तो कभी मैंने ही बेरुख़ी दिखायी। इस सब के मध्य कुछ फ़िल्म, कुछ कहानियाँ, कुछ किरदार, कुछ संवाद, कुछ दृश्य और कुछ अभिनेता मेरे सगे हो गये। इतने सगे कि वो मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गए। अभिनय मेरे अंदर के उस भूख का नाम है जिसे दबाने में में अपनी शान समझता हूँ। परंतु कभी-कभार गली-मोहल्लों में कुछ क़िस्सों को अपने अंदर काफ़ी सहजता से निभा लिया करता हूँ, उसी तरह जैसे वो निभाया करते थे। वो, जिसकी करुणा में हर व्यक्ति स्वयं को रोते देखता था, वो जिसकी हँसी सभी के पड़ोसी की हँसी जैसी थी, वो जिसकी आँखों की गहराई में सभी स्वयं को पाते थे, वो जिसके चितकार से समूचा समाज स्वयं से प्रश्न करता था, वो जिसके आक्रोश से समूचे समाज के रौंगटे खड़े हो जाते थे, नाम बिलकुल दार्शनिक, जीवन दार्शनिक और किरदार समाज के लिए एक नया आयाम। ओम पुरी। स्वयं में सम्पूर्ण सिनेमा। एक अभिनेता जिसने अभिनय का अर्थ ही बदल दिया। तभी तो इसमें दो राय नहीं कि उनके क़रीबी मित्र नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा में ‘ओम्’ ने इतना सम्मान पाया है कि पढ़ने वाला उसे नसीर से अधिक ओम् की कथा मानने लगता है।
आज कई लोग ओम की याद में आलेख लिखेंगे, फ़ेसबुक पर उन्हें याद करेंगे। मैं भी कर रहा हूँ। ओम को याद करने के लिए उनके फ़िल्मों की फहरिश्त छोटी पद जाएगी। विजय तेंदुलकर की कथा को किरदार ओम ने दिया, राजकुमार संतोषी के विद्रोही स्वरूप को आवाज़ ओम ने दिया, सफ़दर की मौत पर आँसू ओम के बहे थे। ओम को सिर्फ़ नायक, खलनायक या हँसोड़ के रूप में याद नहीं किया जाएगा, उन्हें याद किया जाएगा उस हिम्मत के लिए जिसने उन्हें सभी श्रेष्ठ नायकों के ऊपर रखा। ओम भारतीय फ़िल्म इतिहास के किसी महानतम फ़िल्म जैसे ‘शोले’, ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’, ‘लगान’, ‘थ्री इडियट्स’ आदि के हिस्सा नहीं है, उन्हें कभी अमिताभ, शाहरुख़, आमिर की आवश्यकता नहीं पड़ी। आज के नवाज़, मनोज, इरफ़ान और के के मेनन ओम के वंशज हैं। एक सही मायनों में धरती का कलाकार। नसीर ने कहा भी है अपनी आत्मकथा में कि ओम को अपने जीवनकाल में सदा संघर्ष करना पड़ा, हर किरदार, हर फ़िल्म और हर हर दौर में। कला फ़िल्मों के उस सुनहरे दौर में भी उन्हें संघर्ष करना पड़ता था, फिर व्यावसायिक फ़िल्मों में भी अपने विचार-विचारधारा को ताक पर रखकर किरदार निभाते रहने का संघर्ष।
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