शनिवार, 28 जनवरी 2017

कविता

फिर किसी दिन 
- अंकित झा 

किसी दिन फिर,
बैठेंगे एक साथ,
एक दूसरे के,
पास, इतिहास की तरह।
और करेंगे बात 
अपनी सभी बिसरी यादों को
फिर से ताज़ा करने के लिए
बहुत सारी बातें करनी हैं
इकट्ठी कर रखी हैं,
महीनों से दस्तावेजों में जमा कर।
किसी दिन
मिला समय तो बहुत सी बातें कहूंगा,
बहुत सा समय लूंगा तुम्हारा
और कहता चला जाऊंगा
नासमझ की तरह
जैसे चलते चले गए थे
पहली बरसात में छाते के नीचे
हम दोनों।
छाते की नोक से तुम्हारे
कंधों पर टपकती बूँद को
रोकने के प्रयास में लगे वो
बाल मुझे अभी भी याद हैं,
उन बालों को वहाँ से हटाकर
पीछे करने में गीली हुई
मेरी उँगलियाँ अभी तक याद है।
पिछले कुछ दिनों ने
मेरे अंदर के स्त्री, पौरुष और
नपुंसक
तीनों की परीक्षा ली है
मैं व्यस्त रहा, परास्त हुआ,
पर अब भी प्रतीक्षा में,
इस बार ना झुकने के इरादे से।
किसी दिन फिर
निकल पड़ेंगे
बरसात में छाते के नीचे
मैं और तुम्हारी याद,
फिर से कंधों को
थोड़ा भिगाने और बात करते हुए
खो जाने
स्वयं को तलाशने के अभियान में,
अगली बरसात से पहले।

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