शनिवार, 23 अप्रैल 2016

Guest Column

The Chetnaa Diary

               - Anjali Lekhi

Part-1
We always wonder what is important in life. What can make us happy or the thing that satisfies you. And believe me the answer lies in the next lines…..

In the fall of summer, our family planned a visit to Chetnaa in Kurukshetra which was not far away from my Grandmother’s place. Chetnaa is an NGO founded some 2 decades ago in the small village of Mirzapur. With, sun taking our energy and traffic testing our patience, we reached Mirzapur, a small village situated in the outskirts of the Kurukshetra University. It’s often said that a great start marks a much great ending. We entered the premises. There was a team of 7-8 boys standing there to welcome us and help us in carrying our luggage and belongings to the destination. Their smiling faces and endearing greetings just made me believe that it will be worth a visit. As we entered, my Grandmother started telling us stories about Chetnaa and the locality. On the other hand, I was very keen to see the place I have always seen in pictures and listened success stories on phone.
After 10 minutes of walking we entered Chetnaa. That very moment, the children of the class stood up seeing us and greeted us. They all were so happy to meet all of us and the place didn’t feel to be less than home. As we entered in other classrooms, all the children welcomed us with the same zeal. What’s important is not that they were happy, the most important thing to look upon was that in spite of not having enough opportunities in life they all had been taking a step forward in their lives by coming to Chetnaa. Mirzapur, like most of the rural areas in country marks a community where there was “Kachi Sadak” with improper drainage facilities. And like most of the North Indian villages, family livelihood depends mostly on agricultural activities. Hence it’s the normal communities we see with the basic living problems that the person faces. Even after that you will see all children present at Chetnaa with their copies practising writing (in their beautiful handwriting) even after the end of their exams. The working people of the Chetnaa who are the Educators were not less to be appreciated. They were giving their 100% to the children in every possible way.
In such an atmosphere, there was me standing and thinking about my days in the city with optimum facilities and even after that I yell for my small issues. Then I look here, to those children who are captain of Hockey team (state level), who are looking forward to achieve dreams irrespective of what they have seen in their lives. My experience became more enriching when I started playing with the children, who didn’t even know my name but were ready to make me a part of their routine. That shows the simplicity, the love and affection you get in a place like this. It is to be understood that all place cannot give such experience. When you see children smiling at you, listening to you and trusting you for everything think you ask them to do, you somehow feel complete. It gives you satisfaction and somehow it adds a meaning in your life. After all that’s what we are living for.
Asking for change won’t help, but making that one through education can make a great change and that’s what I have learnt and understood from Chetnaa. Not that I’m saying all this because my Grandmother is one of the founding members of the Organisation, but I appreciate the effort she and her co-worker have been doing since years. Now when I see that smile on my Grandmother’s face I get all my answers to her happiness which was always linked to Chetnaa. I being a social worker have worked in many organisations but never have got that much happier and satisfied which I got when I visited Chetnaa. It was worth the visit and somehow to those smiles I have promised to come again and be a part of the change making process very soon.

 Love you Grandmother and Nanaji
Regards
Anjali 

- Anjali Lekhi is a student of Masters in Social Work at Delhi School of Social Wrok, she has previously worked with Society for All Round Development. You can send you feedback to her at lekhianjali@gmail.com.

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

क्या यह भी कोई नारीवाद ही है?


क्या यह भी कोई नारीवाद ही है?
-          अंकित झा

सेक्स अम्मा, अर्थात्  दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा मन के बहकाव तथा युवावय कि समस्याओं को सुलझाती एक ऐसी महिला का आविर्भाव जो कि निहायती भेदभावपूर्ण तथा दकियानूसी प्रतीत होता है. यह महिला दक्षिण भारतीय मूल की है जो छात्र-छात्राओं को इडली कहती है, हर प्रश्न के बाद ‘अइय्यो’ कहती है. छात्र-छात्राएं अपनी काम इच्छाएं तथा काम वासनाएं और इससे जुड़े प्रश्न इनसे पूछते हैं और सेक्स अम्मा अपने अनुभव से उनके हर प्रश्न का उत्तर देती हैं.

एक आम अवलोकन में यह स्पष्ट दिखता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र तथा छात्राएं किस विचार शून्यता से गुजर रहे हैं. परन्तु प्रगतिवादी विचार तथा नारीवादी विमर्श के सबसे प्रखर समर्थक भी नार्थ कैंपस के छात्रा मार्ग और कैवेलरी लेन में घूमते हैं. यह अलग विषय है कि इन विमर्शों और विचारों पर सभी के द्वारा कितना पढने की चेष्टा की गयी है? प्रश्न किसी का मुखौल उड़ाने का नहीं है. यह एक बड़े प्रश्न की ओर हमें ले के जाता है, वो यह है कि क्या शिक्षा के सही अर्थ से भटकाव सही बात है? शिक्षा के किसी के अन्दर क्या आविर्भाव है यह जानना आवश्यक है. थ्योरी के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इसका धरातल पर उपयोग इस दुष्टता तथा चयनात्मक ढ़ंग से किया जाता है कि उस थ्योरी के कई मायने सामने आ जाते हैं.
पत्रकारिता मेरे लिए आज भी किसी पावन कर्तव्य से कम नहीं है, और विश्वविद्यालय के स्तर पर पत्रकारिता को बढाने का स्वपन सदैव देखता रहा हूँ, यही कारण था मीमांसा की उत्पत्ति का. खैर, कुछ अन्य संस्थाएं जैसे डीयु बीट, यूनिवर्सिटी एक्सप्रेस आदि भी अच्छा काम कर रही हैं, परन्तु, विश्वविद्यालय में किसी वैचारिक संचार से अधिक ये मनोरंजन तथा रिपोर्टिंग पर अधिक ध्यान देती हैं, इस में कोई दो राय नहीं है. कभी-कभी यह मनोरंजन फूहड़ता तथा अश्लीलता का भी रूप ले लेती हैं. इसी अश्लीलता का सबसे दुखद उदाहरण है, डीयु बीट का सेक्स अम्मा कॉलम. सेक्स अम्मा, अर्थात्  दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा मन के बहकाव तथा युवावय कि समस्याओं को सुलझाती एक ऐसी महिला का आविर्भाव जो कि निहायती भेदभावपूर्ण तथा दकियानूसी प्रतीत होता है. यह महिला दक्षिण भारतीय मूल की है जो छात्र-छात्राओं को इडली कहती है, हर प्रश्न के बाद ‘अइय्यो’ कहती है. छात्र-छात्राएं अपनी काम इच्छाएं तथा काम वासनाएं और इससे जुड़े प्रश्न इनसे पूछते हैं और सेक्स अम्मा अपने अनुभव से उनके हर प्रश्न का उत्तर देती हैं. एक शैक्षणिक संस्थान में ऐसी कृतियाँ दुखद है, क्या भारतीय युवा अपनी काम इच्छाएं को लेकर इतने निराश, हताश तथा आतुर हैं कि उन्हें इस तरह किसी जानकार की आवश्यक्ता पड़ रही है. इसका विरोधाभास यह भी है कि सेक्स अम्मा इस वेबसाइट के सबसे प्रचलित तथा चर्चित कॉलम में से एक है, विश्वविदयालय की गतिविधियों से वेबसाइट भले ही कुछ समय तक अवगत ना हो, परन्तु सेक्स अम्मा के प्रश्न-उत्तर समय-समय पर अद्यतन हो ही जाते हैं.


A snapshot of Sex Amma
Source: dubeat.com
समस्या अम्मा के अस्तित्व से नहीं है, समस्या है इसके वैचारिक शून्यता की. इसके पीछे संपादक मंडल का क्या लक्ष्य है यह तो वो ही जाने हैं. इससे भारतीय समाज में किसी ज्ञान का संचार तो नहीं हो रहा है यह तय है. किसी घाव तथा मवाद के रिश्ते की ही तरह का भाव विरेचन है यह सब कुछ. जो पहले हर कॉलेज के कॉन्फेशन पेज पर दिखता था और विगत कई वर्षों से सेक्स अम्मा के कॉलम पर. दुःख इस बात से है कि संस्था की मुख्य सम्पादक स्वयं को नारीवादी विमर्श की विचारक कहती हैं और ऐसे में उनका प्रगतिवादी होना भी लाज़मी है. तो क्या एक महिला का ऐसा चित्रण क्या उन्हें शोभा देता है और उस पर पूछे जाने वाले प्रश्न जिसमें महिलाओं को एक खास स्थिति और संख्या से जोड़ कर रख छोड़ा है, क्या वो नारीवादी विमर्श से बाहर आता है. पत्रकारिता तथा मनोरंजन में अंतर है, और विश्वविद्यालय जैसे जगह पर पत्रकारिता वैचारिक कम्पन लाने के लिए होनी चाहिए काम इच्छाओं को प्रकट करने के लिए नहीं. मेरी इस संस्था से कोई शिकायत नहीं है, परन्तु दिल्ली विश्वविद्यालय में फ्रेशेर पार्टी, फरेवेल, तथा सेक्स अम्मा के अतिरिक्त बहुत कुछ है दिखाने को तथा संचारित करने को. छात्र संघर्ष को प्रेरित करने की जगह पूंजीवादी उलझनों में उलझी ये पत्रकारिता समाज और नारीवादी विमर्श के किसी काम नहीं आएगी. इस बात को मैं आपकी चेतना पर नहीं छोड़ना चाहता, मैं आप सभी के साथ की अपेक्षा करता हूँ, ताकि समाज से ऐसे गंद हटाए जाएँ, जो किसी महिला का ऐसा चित्रण करे, वो भी किस खास वर्ग, भाषा और क्षेत्र से निकालकर. इसे बंद किया जाना चाहिए. यह आवश्यक है दिल्ली विश्वविद्यालय में सामाजिक तथा शैक्षणिक चेतना लाने के लिए. काम-क्रोध-मोह क्या समाज में वैसे कम है जो ऐसे पटल पर भी इसे बढ़ावा किया जा रहा है, समाज में इससे अच्छी कहानियाँ और प्रश्न भी है ढूँढने का प्रयास तो कीजिये.  

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

कुपढ़ समाज में ‘बेला’ होने का अर्थ


कुपढ़ समाज में ‘बेला’ होने का अर्थ

-          अंकित झा

बस्तर तीन विचारों में बंटा हुआ है; एक विचार नक्सलवाद को आतंकवाद का आदिवासी चेहरा कहकर प्रशासन को सुगठित करने की ओर कार्य करती है, दूसरा विचार नक्सलवाद को असंतोष से उपजी एक आन्दोलन का नाम दे उसे समर्थन देती है और सबसे विकत है तीसरा विचार जो कि उपरोक्त दोनों के मध्य चल रहे संघर्ष में बेमौत मारे जाने के डर में जी रहे हैं. ये कैसी विवशता है कि अपनी ज़मीन से हमें ही बेदखल कर हम पर ही धौंस जमाया जाए. बेला इसी तीसरे विचार की संरक्षक हैं.

यह प्रश्न मात्र बेला के संघर्ष का नहीं है, यह प्रश्न बस्तर के संवैधानिक स्वायत्ता का है जिसे दिन-प्रतिदिन नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है. बेला भाटिया वर्तमान सामाजिक कार्य क्षेत्र में एक अद्वितीय चेहरा है, चार दशकों से भी अधिक का करियर. एक समाज सेविका, शिक्षाविद, पत्रकार तथा सक्रियतावादी कार्यकर्ता के रूप में किये गये उनके कार्य उनके जीवन आदर्श तथा सामजिक चिंतन को बखूबी दर्शाते हैं. टाटा सामजिक विज्ञान संसथान से स्नातकोत्तर करने के पश्चात विगत चार दशकों में उनके द्वारा किये गये कार्य साक्षी है कि किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक लोकतंत्र के अन्दर ही संघर्ष किया जा सकता है. नर्मदा बचाओ आन्दोलन से लेकर बथानी टोला जनसंहार तथा मध्य बिहार से लेकर आंध्रप्रदेश तथा अब छत्तीसगढ़ राज्य में नक्सल प्रभावित क्षेत्र में उनका संघर्ष, उनके समर्पण का जीवंत उदाहरण है.
बेला भाटिया
Source:newsghana.com.gh

प्रश्न यह है कि समाज में व्याप्त वो ऐसा कौन सा सद्गुण है जो किसी मनुष्य को बेला भाटिया जैसा बनाता है. ना परिवार की मोह, ना अकेलेपन का भय, ना प्रश्न करने से झिझक ना उत्तर देने में अस्पष्टता. कैसे किसी मनुष्य के अन्दर अपने मूल्यों तथा विचारों को लेकर इतनी स्पष्टता हो सकती है? ऐसी कौन सी शक्ति उनके अन्दर से उत्पादित होती है जो बेला को ऐसी विषम स्थितियों में मैदान ना छोड़ने की शक्ति प्रदान करता है? इस बुरी तरह कुपढ़ समाज में कोई बेला कैसे जन्म लेती है? किसी बेला का निर्माण कैसे होता है? यह एक आवश्यक प्रश्न है. अनपढ़ तथा कुपढ़ समाज में एक अंतर है, अनपढ़ समाज पढ़ नहीं पाता परन्तु कुपढ़ समाज पढता तो है परन्तु किसी अन्य को कुछ और ही बताता है. ये वो प्रजाति है जो सबसे अधिक प्रतिरोध उत्पन्न करते हैं.
विगत कुछ महीनों से बेला पर बस्तर छोड़ने का दवाब बनाया जा रहा है. इस बात का ज़िक्र उन्होंने अपनी चिट्ठी में की थी जिसे पत्रिका ने प्रकाशित भी किया था. बकौल भाटिया, “जगदलपुर में सामाजिक एकता मंच ने मुझपर नक्सल समर्थक होने का आरोप लगाकर मुझे बस्तर छोड़ने के लिए कहा है. शायद उन्हें पता नहीं कि मेरे लेखों में माओवादियों द्वारा किये गये मानवाधिकार उल्लंघनों तथा हिंसा के बारे में टिप्पणियां भी हैं. मैं बस्तर में रहने आई हूँ, जो कुछ भी हुआ, बावजूद उसके मैं बस्तर नहीं छोड़ने वाली हूँ.” बेला का यह विश्वास अपने आप में उनकी दृढ़ता का प्रमाण है कि वो किसी शोध पर्यटन पर बस्तर नहीं गयी हुई हैं. उनका बस्तर में रहना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो उन्होंने सामाजिक हालातों का अध्ययन करते हुए लिया है. इससे पहले भी वो कई समाजिक मुद्दों पर मुखर रही हैं, परन्तु छत्तीसगढ़ में पुलिस तथा माओवाद के मध्य चल रहे संघर्ष के मध्य एक समाज सेविका होने की कुछ कीमत चुकाने के लिए उन्हें विवश किया जा रहा है. किसी पीड़ित का साथ देना, उसकी सत्यानुभूति करना, उसके अधिकारों के लिए लड़ना कब से आतंकवाद हो गया, यह समझ के परे है. हमारा समाज कुपढ़ लोगों का अड्डा बनता जा रहा है. ऐसी विषमताओं के मध्य भी बेला का लोकतंत्र पर विश्वास यह दर्शाता है कि उनकी विचारधारा और समाजिक चिंतन कितना गहन है. गाँधी की जीवनशैली और अम्बेडकरवादी विचार पद्धति. बेला का मानना है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के उपर हो रहे दुराचार को राजनैतिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक परिदृश्य से देखना बहुत आवश्यक है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो कुछ बदले या न बदले परन्तु यह संघर्ष गहराता चला जाएगा और पीड़ितों की संख्या भी निरंतर बढती चली जाएगी.
Source: mediavigil.com 
18 अप्रैल को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में मीडिया को संबोधित करते हुए बेला ने कहा कि छत्तीसगढ़ इतिहास के उस दोराहे पर खड़ा है जहां से या तो यह पूरी तरह जीतेगा या पूरी तरह हारेगा. अपने संबोधन में उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि बस्तर में असली पीड़ित प्रशासन अथवा माओवादी नहीं बल्कि बेक़सूर आदिवासी हैं जो कभी सलवा जुडूम के नाम पर विस्थापित किये जाते हैं तो कभी दुष्कर्म और हत्या की ज्वाला में जलने पर विवश. छत्तीसगढ़ किसी साम्राज्य की तरह कार्य करता है जहां पर कांकेर में स्थित ‘जंगल वारफेयर कॉलेज’ से निकले सिपाही अपने जैसे ही कुछ लोगों पर हथियार ताने गश्त लगाए फिरते हैं, पुलिस वहां पर किसी क्रूर शासक की तरह करती है और जैसे ही किसी सामजिक चिंतन की बात उठी वो राष्ट्रद्रोह घोषित कर दिया जाता है. बस्तर तीन विचारों में बंटा हुआ है; एक विचार नक्सलवाद को आतंकवाद का आदिवासी चेहरा कहकर प्रशासन को सुगठित करने की ओर कार्य करती है, दूसरा विचार नक्सलवाद को असंतोष से उपजी एक आन्दोलन का नाम दे उसे समर्थन देती है और सबसे विकत है तीसरा विचार जो कि उपरोक्त दोनों के मध्य चल रहे संघर्ष में बेमौत मारे जाने के डर में जी रहे हैं. ये कैसी विवशता है कि अपनी ज़मीन से हमें ही बेदखल कर हम पर ही धौंस जमाया जाए. बेला इसी तीसरे विचार की संरक्षक हैं. किसी यिद्ध की तरह उनका ज़मीनी कार्य एक चुनौती है सरकारी तन्त्र के लिए जो विकास के नाम पर अद्दिवासियों से खेलती है और नक्सलवाद के नाम पर विकास से. आखिर क्यों सरकार सुकमा और बीजापुर को नया भिलाई, रायगढ़ और बिलासपुर बनाना चाहती है? क्या विकास और विस्थापन की कम भयंकर कहानियाँ हमने सुन रखी हैं?  
'ब्लैकआउट  इन बस्तर मीडिया वार्ता का एक दृश्य
फोटो: अंकित झा 

बेला के ऊपर भीषण आरोप लगाकर उन्हें बस्तर से बेदखल करने का षड्यंत्र किसके द्वारा रचा गया यह सोंचने का विषय है. प्रेस को संबोधित करते हुए बेला ने कहा कि जगदलपुर तथा आस पास के क्षेत्रों में माइक लगाकर यह उद्घोषणा की जा रही है कि यदि कोई बाहर वाला आपसे किराए पर मकान मांग रहा है तो इसकी सूचना पुलिस को अवश्य दें. अपने ही देश में ऐसी यंत्रणा सहना, एक आम नागरिक के लिए दुखद है. एक विचार और एक विचारधारा मनुष्य को कितना कुछ सहने पर विवश करती है यह बेला की स्थिति में साफ़ दिखता है. आखिर प्रदेश सरकार को किस बात का डर है, इस एक महिला और उसके कलम से? क्या छत्तीसगढ़ की सामजिक समरसता इतनी कमजोर है कि एक महिला अपना विचार रख एक गाँव में चैन से निवास भी नहीं कर सकती, यदि ऐसा कुछ है तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, एक बुरी सूचना है. बेला अपने बेला होने का फ़र्ज़ निभा रही हैं, दुनिया कोम यह बताने की असफल कोशिश कि यदि देश में सबकुछ ठीक होने का दावा किया जा रहा हो तो अवश्य ही किसी कोने में किसी पीड़ित के ऊपर ज़ुल्म हो ही रहे होंगे? वरना इतने कोलाहल मचे क्षेत्र में शोर का इस तरह दब जाना भी अपने आप में प्रश्न खड़े करता है. लोकतंत्र की रक्षा हेतु बेला की इस लड़ाई में मैं तो उनके साथ हूँ, मेरे हिस्से का समर्थन बेला को अवश्य मिलें. अगले अंक में कमल शुक्ल की बात, और बातें भूमकाल तथा घोटुल की. 

आँचल में आज़ादी


आँचल में आज़ादी: कहानी महिला सशक्तिकरण की
-         अंकित झा
(भाग-1)
“मेरा छोटा बेटा पहली कक्षा में था, जब उसके स्कूल में ‘अभिभावक-शिक्षक घोष्ठी’ के दौरान उसकी शिक्षिका ने मुझसे कहा था कि मेरा बेटा पढ़ाई में थोड़ा कमजोर है और खासकर गणित में. मैं घर पे उसे क्यों नहीं पढ़ाती हूँ? इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती, वो जोर से चिल्ला उठा ‘ये मुझे क्या पढ़ाएंगी, इन्हें खुद तो कुछ पढ़ना आता नहीं. अनपढ़ हैं ये.” कहते हुए उसकी आँखें नम हो आई थी. उन्हें हौसला देते हुये मैने उनसे पूछा, फिर क्या हुआ? “मैं क्या बोलती, क्या करती, किसी तरह शर्मिंदगी को छुपाये बात ख़त्म करके घर लौट आई. रात भर सोंचती रही कि आखिर मुझे बुरा किस बात का लगा है? इस बात का कि मैं अनपढ़ हूँ या ये एहसास मुझे मेरे छोटे बेटे ने करवाया, वो भी अपनी शिक्षिका के सामने. अगर ये शर्मिंदगी अनपढ़ होने का है तो उस्मिएँ शर्म कैसी? सत्य से शर्म कैसी? क्या ये सत्य इतना शर्मनाक है? अगर ये इतना शर्मनाक है तो इसका बोझ जीवन भर कैसे उठ पायेगा मुझसे? बस यही सोंचती रही. कोई रास्ता ही नहीं दिखता था, करीब 3 साल पहले उद्यम किसी वरदान की तरह आया. यहाँ आने के बाद लगा वो शर्म इतनी शर्मनाक क्यों थी?”
समाज कार्य पढ़ने का सुखद अनुभव होता है लोगों के साथ उनके मध्य रह कर काम करने का. पढ़ाई तो सभी करते हैं, हर जगह होती है, मोटी-मोटी पुस्तकें सभी विषयों की भरी पड़ी हैं. इन पुस्तकों का भी अपना महत्त्व है परन्तु लोगों के सतत उनके स्तर पर काम करे की चुनौती स्वयं में एक ऐसा अनुभव है जो हर विधा के विद्यार्थियों के लेना चाहिए. हालाँकि समाज कार्य कोई परिदृश्य नहीं है और ना ही ऐसी कोई विधा है. कई विषयों के संगम तथा समागम से निर्मित एक ऐसा सिद्धांत है जिसके एक छोर पे मानव कल्याण का दर्शन है तो दुसरे सिरे पर सामजिक न्याय का यथार्थ. और दोनों के मध्य हम ढूंढते हैं एक ऐसा प्रयोजन जो कि दोनों को मिला सके. समाज कार्य मात्र दया अथवा करुणा का विषय नहीं है, अपितु, ये कतई भी करुना का विषय नहीं है. समाज को कभी नम आँखों से नहीं समझा जा सकता है, इसे समझने के लिए अपनी आंसू पर काबू रखना अति आवश्यक है.

कई बार आंसू व अनुभव के मध्य होती है परिस्थितियां जो कि एक मनुष्य को समाज कार्य में विवश करती है मजबूत बनने के लिए. समाज कार्य के मुख्यतः 4 पद्धतियाँ होती हैं: केस वर्क, ग्रुप वर्क, कम्युनिटी वर्क, तथा रिसर्च. कोई भी विषय अथवा विधा समाज कार्य से पृथक नहीं है, बस आवश्यकता है उसके सही जगह पर उपयोग की. ऐसे में महत्वपूर्ण है नारीवादी विमर्श तथा समानुभूति को एक स्थान पर रखकर देखने की. समाज कार्य में सहानुभूति से अधिक जोर समानुभूति पर दिया जाता है. यही कारण है कि ये समाजशास्त्र और मानव विज्ञान से पृथक है. अपने फील्ड वर्क के दौरान मैंने उद्यम ट्रस्ट की कुछ महिलाओं के साथ कार्य किया तथा और इसी दौरान उनकी कहानियों तथा जीवन के विवरण ने अन्दर तक झकझोर दिया. इन कहानियों के मध्य छिपी संघर्ष के जीवंत उदाहरण तथा विजय की बेजोड़ गाथा को एक ख़ास अंक में पिरोने का प्रयास है ये... “आँचल में आज़ादी”  

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

कविता


समझदार
-          अंकित झा

मेरे मोहल्ले का वो पागल लड़का,
जो नहीं मानता था राम और कृष्ण को,
लेकिन मानता था उनकी कहानी में.
जो सपनों में भी नहीं चाहता था,
कि बने कहीं पर मंदिर,
और टूटते रहे लोगो के सपनों का घर,
किसी अतिक्रमण की आर में.
वो लड़का जिसने कभी किसी से
कोई प्रश्न नहीं किया, अपने
स्वभाव को लेकर.
वो लड़का जो अन्दर ही अन्दर कुढ़ता था
अपनी माँ के ढंके चेहरे को देखकर.
वो लड़का जो चाहता था उसकी बहन भी
पढ़े उसके साथ कॉलेज में,
जिसने नहीं पहनी थी शेरवानी उसकी शादी में,
वो लड़का जो नहीं चढ़ना चाहता था,
घोड़ी, किसी अनजान की किस्मत कुचलने के लिए,
वो लड़का जो लड़ना चाहता था,
एक बार समाज से अपनी मोहब्बत के लिए,
जो उसे हुआ था मात्र 15 वर्ष की उम्र में,
वो लड़का जो नहीं देखता था खेत की
हरियाली के सपने खुले आँखों से,
वो लड़का जिसने देखा था अपने दोस्त को लटकते
चौक के नीम से, अपनी प्रेमिका संग.
वो लड़का जिसकी जिह्वा बड़ी काली थी,
वो लड़का जो नहीं रखता था शौक देह फुलाने के,
जो बैठता था कक्षा में आखिरी सीट पर,
गाता था फैज़ के नज़्म और सुनता था
पाश की कवितायेँ.
वो लड़का जिसने माँ से कभी प्रश्न नहीं किया,
उसकी माँ प्रश्न वाली आँखें लेकर खड़ी हैं,
उसके मृत शरीर के समक्ष,
पूछ रही है कि क्या हुआ है इसे?
किसी ने जवाब दिया समझदार हो गया था... 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

एक हिस्सा मेरे समर्थन का भी ले लो..


एक हिस्सा मेरे समर्थन का भी ले लो..
-         अंकित झा

यह द्वंद्व राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रद्रोह का नहीं है. यह द्वंद्व है देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी फासीवाद का है. जिसकी जड़ छुपी है बंगाल तथा केरल के आने वाले चुनावों में और दूसरी शाखा लटक रही है डब्लूटीओ के पूंजीवादी पालने में.

सब कुछ इतनी रफ़्तार से घट रहा है कि विश्वास नहीं हो पा रहा है कि देश के सबसे प्रगतिशील संस्थानों में से एक को बंद करने की मांग उठ रही है, और वो कर कौन रहा है दिल्ली से दूर भोपाल, पटना, पुणे में बैठे लोग. क्यों भला? क्या आज समाज इतना असहिष्णु हो गया है कि सत्य से परिचय तो दूर सत्य तक जानना नहीं चाहता. क्या यह सत्य नहीं है कि इस देश में विचारधाराओं का महासमर चल रहा है, और अलग अलग मुद्दों पर एक दूसरे को पटखनी देने की तैयारी चलती रहती है. कौन सा ऐसा मुद्दा इस संस्था में उठाया गया जो समाज के लिए जानना आवश्यक नहीं था, अपनी चुप्पी में समाज कौन सा सत्य छुपाने का प्रयास कर रहा है?
Source: thehindu.com 

9 फरवरी को जो कुछ भी हुआ वह दुखद था, नहीं होना चाहिए था. कदापि नहीं, किसी भी हालत में नहीं. किसी भी देश में देशप्रेम से बड़ा कोई विचार नहीं होता, और राष्ट्रहानि से संकीर्ण कोई विचारधारा नहीं. परन्तु उस कार्यक्रम का सत्य जानना आवश्यक है. वो नारे जो लगाए गये किसने लगाए? कैसे लगाए? छात्रसंघ का अध्यक्ष कन्हैया कुमार क्यों गिरफ्तार हुआ? लोगों को लग रहा है उसी ने नारे लगाए. सत्य तो यह है कि उसे गिरफ्तार एक दिन बाद दी गयी उसके भाषण के कारण किया गया है. राष्ट्रदोह का मुकदमा लगा कर. यह समझ के परे है कि सरकारी तंत्र पर प्रहार राष्ट्र पर प्रहार कैसे हो गया? मंत्री से प्रश्न करना राष्ट्र का अपमान कैसे हो गया? एक क्रांतिकारी विचार आतंकी विचार में क्यों बदल दी गयी? एक पुरानी कहावत है कि ‘एक विचार का क्रांतिकारी, दूसरे विचार का आतंकवादी होता है’. दिल्ली से दूर बैठे सभी देशप्रेम की ऐसी ऐसी मिसालें दे रहे हैं कि इस देश में देशप्रेम की धारा इतनी प्रबल है कि सामजिक समस्याओं को तो जगह मिल ही नहीं सकती है. सब झूठ है, एक परदे के पीछे भयानक सा चेहरा लिए छुपा झूठ. सत्य तो यह है कि हम प्रगति से डरते हैं, डरते हैं अपने विचार को झुकते हुए देखने से. यह हमें कतई बर्दाश्त नहीं कि हमारे झूठे शान को कोई चुनौती दे, किसी शिक्षा संस्थान को मंदिर बुलाकर उसे धार्मिक असभ्यता का प्रतीक बना देना कहाँ की प्रगति है? जो मनुष्य शिक्षा को धर्म से नहीं हटा पा रहा है वो क्या प्रगति
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लायेंगे विचारों 
में. परन्तु 9 फरवरी की घटना इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वर्षों पुरानी रंजिश का प्रतिशोध लेने का समय है यह. प्रतिशोध देश में व्याप्त साम्यवादी विचार के विरुद्ध जो अपनी सशक्त पहचान रखता है विश्वविद्यालय में. मान लीजिये देश में वामपंथी सरकार आ गयी और सरस्वती शिशु मंदिर नामक विद्यालय में यदि जय जय माधव जय जय केशव के नारे गूंजते सुनाई दिए तो क्या होगा? या फिर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे की ध्वनि गूंजी तो क्या होगा? वही हो रहा है जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के साथ. सरस्वती शिशु मंदिर और जेएनयु का अंतर इस मामले को समझने में आसानी दे सकता है. ये दो शिक्षा के वो दो पहलु हैं जो समाज को दो अलग अलग विचार प्रदत्त करते हैं, एक प्रगतिशील है तो दूसरा अनुदारपंथी विचारधारा. दोनों ही एक दुसरे के विपरीत विचारों में कार्य करते हैं. एक जगह विद्या का मंदिर है तो दूसरी वो जगह जहाँ अंतर समझाया जाता है मंदिर तथा संस्थान में. और जो आवश्यक भी है. बात शिक्षा के मंदिर तथा मस्जिद बनाने का नहीं है, डर है कि मंदिर तथा मस्जिद में फैली चिंता कहीं शिक्षा को भी इसी भाँती ना ले डूबे जैसे इन्होने समाज को सताया है. देश में पनप रहे राष्ट्रवाद के लहर से अधिक भयावह है हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद. किस आधार पर देश में वामपंथ का हिंसा के आधार पर आलोचना कर रहे हैं?
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यह मुद्दा सिर्फ देश में इन दिनों चल रहे देशप्रेम या देशद्रोह का ही नहीं है, यह मुद्दा उससे कई अधिक संगीन है. यह एक साज़िश की तरह हो रहा है, आज कैसे सभी करदाता अपने पैसों का हिसाब करने एक शिक्षण संस्थान में आ गये, अच्छी बात है यह समाज की जागरूकता को दिखाता है. परन्तु पिछले 70 वर्षों के स्वतंत्र भारत में उन्हीं करदाताओं ने उन्हीं के पैसों से अपनी दरमाहा पा रहे विधायकों, सांसदों, गैर-सरकारी सगठन तथा विभिन्न वैधानिक तथा सरकारी विभागों में कार्य कर रहे लगभग अकर्मण्य लोगों से हिसाब लेने का क्यों नहीं सोंचा? और ना आज सोंचते हैं. विश्वविद्यालय में लगे नारे संकीर्ण मानसिकता के द्योतक थे परन्तु यह जानना बहुत आवश्यक है कि उन नारों के पूर्व तथा उन नारों के पश्चात क्या हुआ? क्यों संस्था के छात्रसंघ के प्रतिनिधि को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया, किस बुनियाद पर पत्रकारों पर अदालत परिसर में हाथ उठाया गया, पत्रकारों ने किस कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए अपना शक्तिप्रदर्शन अपने ही चैनल पे किया? ये सभी प्रश्न करना अनिवार्य है. जेएनयु का दर्द सिर्फ वो संस्था ही समझ सकता है या वहाँ पढ़ रहे प्रगतिवादी छात्र. वो क्या समझेंगे जो अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण मांस के टुकड़े के लिए किसी के शरीर के दो टुकड़े कर दें. खैर यह द्वंद्व राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रद्रोह का नहीं है. यह द्वंद्व है देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी फासीवाद का है. जिसकी जड़ छुपी है बंगाल तथा केरल के आने वाले चुनावों में और दूसरी शाखा लटक रही है डब्लूटीओ के पूंजीवादी पालने में. देश में शिक्षा के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम साफतौर पर राष्ट्र में पल रहे ओजस्वी विचारों को निगलना चाहेंगे. फिर लिंगवादी टिप्पणियां करने वाले जनप्रतिनिधि के चप्पल तले रौंदे भी गये तो शर्म कैसी? अपने अन्दर के राष्ट्रवाद को बचा के रखें, किसी उचित समय के लिए. राष्ट्रवाद किसी सरकार या किसी पार्टी या किसी संस्था की बपौती नहीं है. सरकार किसी पार्टी की नहीं है, सरकार लोगों की है और लोगों को उत्तरदायी है, फिर ये पार्टी बीच में कूदने वाली कौन होती है, किस हक से भाजपा के प्रवक्ता सरकार की बात बोल रहे हैं? सरकार को अपनी बात अपने माध्यम से रखना चाहिए, यह असमंजस फैलाया है इन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों ने. भाजपा और कांग्रेस का प्रवक्ता कभी सरकार का प्रवक्ता नहीं हो सकता है, सरकार के पास अपने माध्यम है अपनी बात रखने का और उन्हीं माध्यमों से उए वह बात रखनी चाहिए जो नहीं रखी जा रही है. अब प्रश्न यह उठता है कि इस खोखले राष्ट्रवाद से उपजी असमंजस को कैसे ठीक किया जाए जो ख्याति जेएनयू ने गंवाई है उसकी भरपाई कैसे की जाएगी? कौन करेगा? किसी वकील के अदालत में हिंसक हो अदालत की लुटी साख की भरपाई कैसे हो? आवश्यक यह है कि देश का युवक जो दिल्ली से दूर बैठे अमरावती, भोपाल, जालन्धर और पटना में बैठे विचार बना रहा है वो दुखद भी है और चिंताजनक भी. जब तक हर मन में यह बात नहीं आएगी कि राष्ट्र के लिए मरना ही राष्ट्रवाद नहीं है, राष्ट्र के लिए मारना ही राष्ट्रवाद नहीं है, राष्ट्ररक्षा के लिए तत्पर रहना ही राष्ट्रवाद नहीं है, सही मायने में तो राष्ट्रवाद अपने आप में ही एक ऐसी अवधारणा है जो किसी को भी स्पष्ट नहीं है, सबसे प्रबल भावना होनी चाहिए राष्ट्रप्रेम. राष्ट्रवाद नहीं. जेएनयु गद्दारों तथा देशद्रोहियों की खदान नहीं है. यह खदान है प्रगतिशील विचारों की. जहां पनपते हैं स्वतंत्र विचार, वो प्रश्न जो कि पूछे जाने चाहिए. सदा ही एक युवा के द्वारा. परन्तु छुपा दिए जाते हैं समाज की ख्याति छुपाने के लिए. “किसी और से आ रही है बहार की खुशबू, आज छुपाने पड़ सकते हैं आस पास के गंध सभी.” 
हो सकता है इस आलेख में कोई तथ्य ना हो, ही सकता है इसमें कोई उद्देश्य ना छिपा हो, हो सकता है इसमें कोई विशेष बातें ना की गयी हों, परन्तु यह मेरा प्रयास है एक संस्था की स्वायत्ता बचाने हेतु अपने विचार रखने का, यह एक प्रारंभ है, अभी और विचार आयेंगे, कुछ तीखे भी हो सकते हैं, जिस तरह कमजोर पड़े वामपंथ को पुनः जीवित किया गया है उसी तरह एक छात्र के अन्दर सोये युवा को जगाना आवश्यक है, सभी विचारों तथा विचारधाराओं के परे. 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

कविता


अंतिम कविता
-          अंकित झा

इससे पहले कि हम सदा के
लिए अलग हों,
तुम्हें सुनाना चाहता था कुछ पंक्तियाँ
तुम्हारे लिए लिखी गयी आखिरी कविता से.
जिस कविता में रख छोड़े हैं मैंने
अपने सभी प्रश्न,
तुम्हारी गरिमा की रक्षा करते हुए,
वो प्रश्न जो तुमसे पूछे जाने थे
दूर जाने की वजह समेटे.
दूर क्या और क्या पास,
कुछ ऐसी गयी हो कि
हमेशा तुम्हें अपने पास ही पाते हैं.
ऐसा भी क्या जाना.
इस कविता में मैंने ऐसे भी कई प्रश्न किये हैं.
तुम ज़िद्दी बहुत हो,
मुझे कभी दुःख नहीं दे सकती,
अतः मैं विदा लेता हूँ,
अपने सभी प्रश्नों के साथ,
और साथ में लिए वो कविता,
जिसमें बार-बार मैंने तुम्हारी सुन्दरता
को नए उपमान दिए हैं.
मेरे लिए वो कविता एक प्यास है,
और तुम पानी की समझ.
ये वही कविता है जिसे लिखने से पूर्व,
गिरे थे मेरे आंसू तुम्हारी हथेली पर,
और तुमने अंतिम बार,
छुआ था मुझे, पोंछने को मेरे आंसू.
उस छुअन के हर एहसास को समेटा है,
मैंने उस कविता में,
तुम्हारे डर को भी अंकित किया है,
और समेटना चाहा है हमारे अधूरे सपनों को,
वो सपने जो तुम्हारे या मेरे नहीं थे.
अब विदा लेने का समय है,
तुमसे और तुम्हारी यादों से,
ये कविता अवश्य पढ़ना,
और खुश रहना, जिसकी तुम्हें आदत है.
हम यूँ ही प्रतीक्षा करेंगे,
किसी एक के टूटने का,
यदि तुम्हारे अभिमान की ही बात हो जाए
तो हमें एक बार बता देना,
हम ही क्षमा मांगते हैं...

बुधवार, 20 जनवरी 2016

कविता


वो कमरा याद है साथी!!
- अंकित झा 

वो कमरा याद है साथी,
जिसकी दीवारों पर आज भी हमारे
हुकूमत के किस्से बिखरे हुए हैं.
उन स्याही से जिससे हमने
लिखना चाहा था तकदीर,
इन बदलते मौसमों के बीच
बदलते दुनिया की.
वो सर्द रातें याद हैं साथी,
जब सड़कों पर दहशतगर्दी के बीच,
हम सहमे से निकल जाया करते थे,
किसी खोज पर, ढूँढने वो सत्य,
जिससे आज भी अनभिज्ञ है समाज.
या फिर याद है वो दरवाज़ा,
जिससे प्रवेश करती थी रौशनी,
हमारे उस संसार में.
रात के आखिरी हिस्से में
रौशनी की प्रतीक्षा में
हमारी आँखों का
कौतूहल अभिसार याद है साथी.
याद तो होगा ही वो आईना,
जिसमें हर सुबह हम दुनिया का,
भविष्य देखा करते थे,
कंघी को अपने बाल में घुमाते हुए,
याद होगी वो गली,
जिसके खुरदुरे रास्तों पर हमने
थूक दी थी दुनिया की रस्में.
और याद होगा वो मंदिर,
जिससे तीन घर पहले रहती थी वो,
जिसके दीदार में हम अक्सर
भगवान् को देख आया करते थे.
जो कुछ नहीं तो वो सड़क ही याद कर लो,
जिसपर चलते हुए हमने
क्या क्या ख्वाब देखे थे,
याद तो होगा ही वो ख्वाब,
रात के आखिरी हिस्से के बाद
सूरज की लालिमा को छूने  की.
या भूल गये हो ख्वाब देखना,
भूल गये वो पाश की पंक्तियाँ
या याद नहीं आती, हमारा वो कमरा
जो आज भी बैठा है क्रांति की प्रतीक्षा में.
चलो ना लिखते हैं क्रान्ति की एक कहानी इस बार
उसी स्याही से, सहमे हुए उन रास्तों पर,
सर्द रातों में, स्वयं का मुखौल उड़ाते हुए,
थूक देंगे फिर से दुनिया की रस्में फिर से,
और देख आयेंगे भगवान् को किसी बहाने से,
चलो न साथी, फिर देखते हैं एक ख्वाब,
उसी गली के मोड़ पे, और तोड़ते हैं
कुछ पत्तियां घर के सामने लगे पीपल से,
जिसके पीछे हमने अपने
 ख्वाब को नाम दिया था. ...

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कविता


संघर्ष के किस्से
          -    अंकित झा 
सुना है सुनाये जाते हैं,
हमारे संघर्ष के किस्से आने वाली पीढ़ियों को,
उन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर,
जिनपे बैठकर कभी हम सोंचते थे संसार
बदलने के बारे में.
उसी अंदाज़ में जिसमें हम ठहाके
लगाते थे शान से.
हाथ में थामे चाय का कप,
और हम पर पड़ती मद्धम किरणें,
उस रौशनी में चाय के रंग के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
सुनाये जाते हैं हमारी जीत के
वो क्षण जब हम नहीं डिगे थे
किसी अभिमान से.
हमारा सब के लिए उपस्थित रहना
और सब के लिए हमारे यश गान के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
हमारी जिद्द की दास्ताँ जो छुपी थी,
हमारे बीच कहीं,
वो कही जाती है गर्व से किसी
घोषणापत्र की तरह,
जिसपर खौल उठते हैं नये खून
हमारे उन्हीं संवादों के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
वो गलियाँ भी दोहराती रहती हैं,
हमारे सपनों के इबारतों को,
जिन गलियों पर चलकर हम
नाप लिया करते थे विश्वास के तीनों लोक.
उन लोकों पर हमारी फतह के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
जो छंद हमारे नारों से निकले थे,
आज उन्हें क्रांति गीत बनाकर
कुछ मतवाले बदलना चाहते हैं
समाज की तस्वीर,
उस तस्वीर को बनाने में किये
हमारे संघर्ष के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं.  
नए खून हमारे हस्ताक्षर को पूजते हैं,
किसी आयत की तरह,
और हमारे गीतों को गाते हैं,
किसी गुरबानी की तरह,
उस गुरबानी में छिपी हमारे प्रश्नों को
आज भी पूछे जाते हैं.
रात के आखिरी हिस्से की ओर,
अपने माँ की तस्वीर बगल में दबाये,
आँखों में परिवर्तन की चाह लिए,

हमारे सफ़र के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं.