मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कविता


संघर्ष के किस्से
          -    अंकित झा 
सुना है सुनाये जाते हैं,
हमारे संघर्ष के किस्से आने वाली पीढ़ियों को,
उन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर,
जिनपे बैठकर कभी हम सोंचते थे संसार
बदलने के बारे में.
उसी अंदाज़ में जिसमें हम ठहाके
लगाते थे शान से.
हाथ में थामे चाय का कप,
और हम पर पड़ती मद्धम किरणें,
उस रौशनी में चाय के रंग के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
सुनाये जाते हैं हमारी जीत के
वो क्षण जब हम नहीं डिगे थे
किसी अभिमान से.
हमारा सब के लिए उपस्थित रहना
और सब के लिए हमारे यश गान के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
हमारी जिद्द की दास्ताँ जो छुपी थी,
हमारे बीच कहीं,
वो कही जाती है गर्व से किसी
घोषणापत्र की तरह,
जिसपर खौल उठते हैं नये खून
हमारे उन्हीं संवादों के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
वो गलियाँ भी दोहराती रहती हैं,
हमारे सपनों के इबारतों को,
जिन गलियों पर चलकर हम
नाप लिया करते थे विश्वास के तीनों लोक.
उन लोकों पर हमारी फतह के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
जो छंद हमारे नारों से निकले थे,
आज उन्हें क्रांति गीत बनाकर
कुछ मतवाले बदलना चाहते हैं
समाज की तस्वीर,
उस तस्वीर को बनाने में किये
हमारे संघर्ष के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं.  
नए खून हमारे हस्ताक्षर को पूजते हैं,
किसी आयत की तरह,
और हमारे गीतों को गाते हैं,
किसी गुरबानी की तरह,
उस गुरबानी में छिपी हमारे प्रश्नों को
आज भी पूछे जाते हैं.
रात के आखिरी हिस्से की ओर,
अपने माँ की तस्वीर बगल में दबाये,
आँखों में परिवर्तन की चाह लिए,

हमारे सफ़र के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं. 

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