यदि वह रिहा हुआ तो
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अंकित झा
इस मुद्दे को देखने के लिए कई दृष्टिकोण चाहिए, पहला दृष्टिकोण बनता है मानव अधिकारों का जो हर मानव को प्राप्त हैं, फिर वो इस तरह के अहेरी ही क्यों न हो, बर्बर और दुष्ट. दूसरा दृष्टिकोण है न्याय और विधि नियमों का जो कि साफ़ साफ़ इस दुष्कर्मी के पक्ष में है, विवश ही सही. तीसरा दृष्टिकोण है समाज और आम नागरिकों का जो भावनाओं के उन्माद में झूम रहे हैं,
शर्त कुछ भी हो परन्तु उसकी विजय तय है, हम अपनी पराजय को
स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, हम पुनः वही करने जा रहे हैं जो उस समय किया था, उस
समय भी उसके दुस्साहस का अट्टहास हमारे प्रयास से अधिक सशक्त था और आज भी उसकी विवशता
का तांडव. यदि इस सब के मध्य कोई बुरी तरह पराजित हुआ है तो वो है हमारा समाज जो
तीन वर्षों से इस दिन की प्रतीक्षा में आँख मूंदें बैठा रहा है. वह नाबालिग था,
परन्तु जघन्य अपराध में उसकी भागीदारी उन बालिग़ कुकर्मियों से भी अधिक भयानक था. फिर
इतनी आसान बात हम कैसे नहीं समझा पाए एक दुसरे को, और विशेषतः न्यायालय को. पिछले
एक महीने में ये इन्साफ की कौन सी हार है यह कहना कठिन होता जा रहा है, कैसे
प्रमाणों के अभाव में न्याय छोटा पड़ जा रहा है. कहते हैं प्रत्यक्ष को प्रमाण की
आवश्यकता नहीं होती, क्या न्यायाधीशों को हर बात के लिए प्रमाण चाहिए, इस बात को
सिद्ध करने की आवश्यकता कैसे पड़ गयी कि वह नाबालिग जघन्य अपराध का अपराधी नहीं है?
इस मुद्दे को देखने के लिए कई दृष्टिकोण चाहिए, पहला
दृष्टिकोण बनता है मानव अधिकारों का जो हर मानव को प्राप्त हैं, फिर वो इस तरह के
अहेरी ही क्यों न हो, बर्बर और दुष्ट. दूसरा दृष्टिकोण है न्याय और विधि नियमों का
जो कि साफ़ साफ़ इस दुष्कर्मी के पक्ष में है, विवश ही सही. तीसरा दृष्टिकोण है समाज
और आम नागरिकों का जो भावनाओं के उन्माद में झूम रहे हैं, इतने मग्न कि कहीं न
कहीं भूल गये हैं ये नाबालिग उनके रचे संसार का ही एक उत्पाद है और अंतिम
दृष्टिकोण है समाज कार्य में लिप्त हम जैसे कुछ लोगों का जो हाथ में तराज़ू लिए इस
मुद्दे की पड़ताल करेंगे, उस पर से हम जैसे लोगों के लिए जो कि पत्रकारिता से भी
जुड़े हैं, ये समझ पाना महतवपूर्ण हो जाता है कि क्या इस समय हम कक्षा में सिखाये गये
धर्म को याद करें या समाज में अपनी आत्मा को झ्कोझोर देने वाले ऐसे कृत्यों के
विरुद्ध खड़े हों हम भी प्रतिकार में उतर जाएँ. देश के अधिकाँश लोगों को अभी भी कोई
फर्क नहीं पड़ रहा है, अभी भी वो सलमान तथा शाहरुख़ के मित्रता के जश्न में चूर हैं,
परन्तु एक हिस्सा इस यंत्रणा पर अपने विचार रखने में विवश है. कुछ महीनों पूर्व जब
डाक्यूमेंट्री “इंडियाज डॉटर” में वकील ने भारतीय समाज में महिला की स्थिति पर
टिप्पणियां की थी, तो कईयों का खून खौला था, मेरा भी. शहर में पले-बढ़े उन फेसबुकिया
इंटेलेक्चुअल वर्ग का भी खुला था जिन्होंने अपने जीवन में ना कभी विषमता देखि है
और ना ही असामनता. उन वकीलों ने भारतीय समाज में पल रहे विषमता को शब्द दिए थे, वो
विषमता जो किसी न किसी रूप में हर मर्द के दिल में छुपी बैठी है, बस उसका सामना
करने से कुछ डरते हैं. जो डरते हैं वो ही अंततः ऐसे कुकर्मों को अंजाम भी देते
हैं.
इस नाबालिग के रिहा होने से बहुत कुछ बदलने के आसार नहीं
है, परन्तु जिस बात की सम्भावना है वो ये कि यह एक अवसर दे जाएगा, स्वयं से प्रश्न
करने का कि कैसे हम चूक गये, किसी को न्याय दिलवाने से. यह मात्र एक घटना का
गुनाहगार नहीं है अपितु समूचे मर्द जाति के लिए शर्म की कभी ना मिटने वाली लकीर
खींच देने वाला दोषी है. क्या यह ताज्जुब नहीं है कि इस देश में हर 12 मिनट में
किसी स्त्री की अस्मिता छिनने का प्रयास होता है. यह ताज्जुब नहीं, शर्म है, एक सभ्य
समाज के मूक साक्षियों के लिए शर्म है. जिस बात की आशंका है वो ये कि ये नाबालिग
जो बाल सुधार गृह से सुधर के निकला है क्या पूर्णतया सुधर गया है? मेरे कई सहपाठी
ऐसे सुधर गृह में कार्यरत रह चुके हैं, उनके अनुसार कारागृह तथा ऐसे सुधार गृह सजा
काट रहे दोषी के अन्दर से उस गुनाह के अणु को निकालने में अक्षम हैं. अर्थात् यह
नाबालिग अभी भी समाज के लिए उतना ही बड़ा खतरा है जितने इससे पूर्व था? हो सकता है.
भविष्य को किसने देखा है? दण्ड सदैव किसी न किसी गुनाह के लिए दिया जाता है, तो
क्या इसे पुनः दण्डित करने के लिए हमें प्रतीक्षा करनी होगी किसी गुनाह के होने
की? हो सकता है. अतः इस जगह हमारी पूर्णतया हार हुई है? हो सकता है. बहुत कुछ हो
सकता है, होने की सम्भावना है. यदि वो रिहा हुआ तो समाज हार जाएगा, शस्त्र डाल
चुके हैं हम, विधि तथा न्याय के नाम पर.
एक घर की वो कहानी याद
आती है जिसमें एक बेटी स्कूल जाने को तैयार है, टीवी पर यही खबर चल रहा है कि
नाबालिग रिहा होने वाला है. हर ओर इस बात की भर्त्सना हो रही है, इंडियाज डॉटर में
भी आरोपी मुकेश ने कबूला था कि सब से वीभत्स कृत्य इसी के द्वारा किये गये थे, राम
सिंह के माता-पिता ने कहा था कि यही वो आरोपी था जिसने अपराजिता के शरीर से उसके
अंग निकाले थे, इससे जघन्य और भयंकर और क्या हो सकता है? लड़की की माँ सहमी हुई टिफ़िन
अपनी बेटी के हाथ में सौंपती है और सौंपती है अपनी अस्मिता संभाल के रखने का
विश्वास. पिता बाहर निकलते हैं, कह रहे हैं आज तुम्हें मैं छोड़ आता हूँ, आज ऐसा
क्या है? लड़की निर्भीक होक निकल पड़ती है, पिता के साथ. क्या उस नाबालिग की बेटी
अपना विश्वास अपने पिता को सौंप पाएगी, जैसे हर लड़की सौंप देती है? दूसरा प्रश्न
यह कि कब तक पिता की आवश्यक्ता पड़ेगी, अपनी रक्षा के लिए. प्रश्न ये कि कब तक
आवश्यक्ता पड़ेगी रक्षा की? हर बार साथ पिता तो नहीं होंगे. यदि वो नाबालिग रिहा
होंगे तो समाज में पिताजी की आवश्यक्ता बढ़ जाएगी, और फिर पिता की फ़िक्र पुनः समाज
को पीछे ना ले जाए. यदि यह नाबालिग रिहा हुआ तो समाज में चेतना आएगी या फिर एक भय
फैलेगा? यदि वो नाबालिग रिहा हुआ तो रिहा हो जाएगी हमारी आशाएं जो बंधी हुई थी अब
तक न्याय से.
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