सोमवार, 30 जून 2014

फिल्म समीक्षा



प्रेम, प्रताड़ना, प्रतिशोध व प्रतिघात: अर्थात एक विलेन 
                                                                                         
                                                                                                 - अंकित झा 

एक दुसरे से जुडी 2 कहानियाँ, परन्तु कहीं भी मेल नहीं खाती. एक प्रेम कहानी में दुनिया की भीड़ से जुदा एक गुनाहगार, जिसे बददुआयें किसी सौगात की तरह मिलती है, उसी प्रेम कहानी में एक लड़की है जो दुनिया के हर घटना में एक ख़ुशी देखती है. एक डायरी है, जिसमे उस लड़की ने अपनी इच्छाएं छुपा रखी हैं, उसके सपनें, उसके कुछ अरमान, उसकी अभिलाषाएं. वहीँ अपनी सारी इच्छाओं को वो लड़का अपने पिता समान अपने मालिक को समर्पित कर चूका है, मौत के खौफ़ से परे उसकी ज़िन्दगी जिसका कण-कण वो उस माफ़िया को अर्पित कर चुका है. अपने ज़िन्दगी से जिसे किसी तरह के ऋण की अपेक्षा नहीं है,  स्वयं को मृत समझने वाला वो अपराधी, जो एक असुर की तरह शहर के लोगों का संहार करता है अपने मालिक के सिर्फ एक इशहरे पर. इस अपराधी की मुलाकात उस लड़की से होती है, दो विपरीत जिंदगियां, दो विपरीत संस्कार, ज़िन्दगी के प्रति दो विपरीत नज़रिया एक दुसरे से मिलते हैं, कितना सुखद व कितना अद्भुत रहा होगा वो समय जब आयशा व गुरु की मुलाकात हुई होगी. न जाने कैसे परन्तु जब भी कभी दो विपरीत शक्तियां आपस में मिलती है तो स्वतः ही आकर्षण पैदा होता है, इस आकर्षण में प्रेम था. कहानी का आधार ही गुरु की हैवानियत तथा आयशा की मासूमियत है. वो सभी के ज़िन्दगी में खुशियाँ भर देना चाहती है, वो खुशियों की परवाह किये बिना, ज़िन्दगी छीन लेता है. अच्छाई सदा से ही बुराई से उत्तम रहा है, और आयशा की अच्छे गुरु के बुराई को मार दे देती है. अपने अधूरेपन को गुरु आयशा की इच्छाओं से पूरा करने लगता है, ज़िन्दगी के प्रति आयशा के रवैये का वो मुरीद हो जाता है, और उसे अपना दिल हार बैठता है. आयशा की इच्छाएं जिसे वो अपने किसी बीमारी के कारण मृत्यु से पूर्व पूरा कर लेना चाहती है, जैसे- पहली बरसात में मोर को नाचते देखना, तितली पकड़ना, किसी की ज़िन्दगी बचाना इत्यादि. ये सभी सपने हमें ज़िन्दगी के प्रति हमारे सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है. और कहीं न कहीं हृषिकेश मुख़र्जी की अमर महाकाव्य "आनंद" की याद भी दिलाता है, जिसमें एक गीत के बोल हैं, 'ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हसाए कभी ये रुलाये'. परन्तु इस वर्ष का ये आनंद जब गोवा से मुंबई पहुँचता है तो हमें दूसरी कहानी मिलती है.

 एक शादीशुदा जोड़ा, उनका एक बेटा, एक छोटी सी दुनिया. उस दुनिया में प्रेम नहीं है, अभिलाषाएं पूर्ण ना हो पाने की उच्चाहट है, अभाव में ज़िन्दगी व्यतीत करने की आदत. पति सरकारी विभाग का एक आम सा कर्मचारी, पूर्णतः उपेक्षित. कार्यालय में अपने बॉस द्वारा, कार्यस्थलों पर घरके मालकिनों द्वारा, शहर की लड़कियों द्वारा, घर में अपनी पत्नी द्वारा, हर ओर से उपेक्षित. सभी द्वारा उसे स्वयं के प्रति शिकायत ही सुनने कोमिलती है, जवाब में कुछ नहीं है, सीधापन कहे या बेव्कोऊफी परन्तु वो जवाब नहीं देता है, बस फिर शिकायत का मौका न मिलने का आश्वासन देता है. घर में उसकी पत्नी उसे उलाहना देती है, कोसती है, अपने अभाव में जीवन यापन का दोष उस के सर मढती है, यहाँ तक की उसे मारती भी है. वो सबकुछ सहता है, क्योंकि अपने पत्नी से वो प्रेम करता है, अगाध प्रेम. इतना कि मन में सिर्फ एक स्वपन लिए है, किसी दिन तो उसकी पत्नी उससे अपने प्रेम का इज़हार करेगी. मन ही मन घुटता हुआ वो अपने अन्दर एक शैतान को पैदा कर लेता है. उस शैतान से वो उन औरतों को मारता है, जो भी उससे शिकायत करती हैं, उससे दुर्व्यवहार करता है. आँखों में भोलापन, वाणी में भोलापन परन्तु कर्मों में वो खूंखार हो जाता है, कोई दयाभाव नहीं. ये प्रतिघात की तरह प्रतीत होता है, समाज द्वारा उसके ऊपर किये गये प्रताड़ना का प्रतिकार. इसी क्रम में एक दिन आयशा, उस शैतान से शिकायत कर बैठती है, बस फिर क्या था? अपने अन्दर के शैतान को जगा कर वो सीधासाधा सरकारी कर्मचारी आयशा के घर पहुँच जाता है. आँखों में वही खौफ, हाथ में वही हथियार, तन पे वही काली पोशाक, और मन में वही उद्वेग. आयशा प्रलाप करती रह गयी, अपने गर्भवती होने की दुहाई देती रही, परन्तु उस दुष्ट का ह्रदय नहीं पसीजा और कभी उड़ने का ख्वाब देखने वाली आयशा को उसके ही घर से धक्का दे के सदा के लिए संसार में उड़ने को मुक्त कर दिया. 

यहाँ से आरम्भ होता है, प्रतिशोध की कथा. गुरु का प्रतिशोध अपने पत्नी के हत्यारे से. वो हत्यारा जो शहर की औरतों का शत्रु बन बैठा है. जिस किसी ने उसके प्रति उपेक्षा का भाव प्रदर्शित किया, उसके लिए वो सजा तय कर देता है. फिर क्या होगा जब दो दुष्ट एक दुसरे मिलेंगे? उस समय वातावरण का रंग क्या होगा जब चंडाल से मनुष्य बन चूका गुरु अपनी ज़िन्दगी की वजह के मौत का बदला लेगा? बस यही कहानी है फिल्म एक विलेन की. यह एक अद्भुत फिल्म है, यहाँ पर भावनाओं की इतनी तीव्रता है की समाज में रिश्तों व मानवीय करुना का पुनर्सत्यापन संभव सा लगता है. सामाजिक कटुता पर एक दुर्गम सा कटाक्ष है, वर्ग संघर्ष के प्रति विद्रोह है. यह मानवीय भावनाओं का एक महाकाव्य है. हालाँकि सिनेमा के हिसाब से इसमें कई कमियां हैं, हर फिल्म में होती है. कथा छोटी तथा इंटरवल के बाद पटकथा थोड़ी बिखरी हुई लगती है. मानव मन की पीड़ा को विद्रोह का रूप दिया गया है, वहीं अभाव को स्वभाव का. घरेलु हिंसा को वर्ग संघर्ष से जोड़ने की कोशिश की गयी है, वहीं प्रेम व ज़िन्दगी के विराट स्वरुप को प्रदर्शित किया गया है. संगीत फिल्म की जान है, हर गाना कर्णप्रिय है. गीतों के बोल से लेकर संगीत मधुर है. मोहित सूरी का निर्देशन भी अच्छा है, वो एक प्रेम कहानी तथा थ्रिलर को खूबसूरती से रचते हैं, फिल्म के हर दृश्य को वो एक स्वपन की तरह उतारते हैं. एक आम से लगने वाले अंत को वो शानदार अभिनय की सहायता से अद्भुत बनाते हैं. परन्तु फिल्म का संतोषजनक नहीं है, कुछ अधूरा सा प्रतीत होता है. फिल्म में छायांकन व ध्वनि निर्देशन का महत्वपूर्ण स्थान है, फिल्म के कुछ दृश्य ज़ेहन में खौफ पैदा करने में सफल होते हैं. आयशा की मृत्यु तथा अस्पताल में नर्स पर हमले का दृश्य खूबसूरती से रचा गया है. एक विलेन को देखने लायक यदि कुछ बनता है तो वो है, फिल्म के कलाकारों का शानदार अभिनय. सिद्धार्थ मल्होत्रा अपने तीसरे फिल्म में सहज नज़र आते हैं, पिच्च्ले दो फिल्मों में रोमांटिक अभने करने के पश्चात वो इस फिल्म में संजीदा अभिनय करते हैं, तथा अपने आप को ठीकठाक प्रस्तुत करते हैं, कुछ दृश्यों में हालांकि वो पीछे छूटते दिखते हैं. अपने संवाद बोलने पर उन्हें काम करने की आवश्यकता है, अथवा वो फिल्म में शानदार अभिनय करते हैं. श्रद्धा कपूर की मासूमियत फिल्म को साँसें देती है, उनका भोलापन तथा अभिनय किसी कवि के शानदार रचना की तरह लगता है. उनके संवादों को ख़ूबसूरती से व्यक्त करती हैं तथा उनके भाव आँखों को ख़ुशी देती है. रितेश की पत्नी की भूमिका में आमना शरीफ ठीक हैं, परन्तु उन्हें ज्यादा कुछ करने को दिया नहीं गया, हालाँकि उन्होंने कहानी के प्रवाह को ख़ूबसूरती से आगे बढ़ाया है. लेकिन यह फिल्म समर्पित है भारतीय सिनेमा के उन सभी खलनायकों को जिन्होंने नकारात्मक शक्ति को फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया. और हमें मिलता है एक और खलनायक. रितेश देशमुख, पत्नी से प्रताड़ित पति की भूमिका हो या कार्यालय में अपने बॉस से डांट खाता कर्मचारी या फिर औरतों को बेरहमी से मारता एक दुष्ट. इन तीनों भूमिकाओं को रितेश ने अमर कर दिया है. अपने करियर में उन्होंने बहुत कम संजीदा भूमिकाएं निभाई हैं, जिसमें रण में वो काफी सहज दिखे थे. एक विलेन में उन्होंने अपने सम्पूर्ण को झोंक दिया, अपने सर्वश्रेष्ठ को प्रस्तुत किया. एक विलेन को रितेश ने अपने फिल्म के रूप में जिया. एक विलेन रितेश के अभिनय को समर्पित है, उनकी आँखें सदा से ही खूबसूरत रही हैं, और इस बार तो वो गरज गरज कर बरसी हैं. 

मूलकथा की कुछ कमियों को छोड़ दिया जाए तो ये फिल्म देखने लायक है, जितनी बार देख सकें उतनी बार. संवाद थोड़े बनावटी प्रतीत होते हैं, परन्तु जब आँखें ही बात कर रही हों, तो होठों की तरफ कौन देखता है, अपनी आँखों को दिखाने जाइएगा, पसंद आएगा आपको. श्रद्धा व सिद्धार्थ की प्रेम कहानी, रितेश को मिलती प्रताड़नाएं, सिद्धार्थ का रितेश से प्रतिशोध तथा मानव का दुष्टता से प्रतिकार. रितेश का समाज से प्रतिघात. अकल्पनीय अभिनय तथा विराट प्रस्तुतीकरण, अर्थात एक विलेन.        

रविवार, 22 जून 2014

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परिवर्तन से परे 

हिन्द तो हिंदी क्यों नहीं?
                 
                                                                                                      - अंकित झा 

विश्व की चिंता वो करें जिन्हें विश्व के टुकड़ों पे पलना हो. अगर अपने देश की गरिमागाथा स्वयं लिखना है तो अपनी भाषा में लिखो ना. किसी उधार की भाषा में क्या लिखना, हिंदी हमारी सहेली है, ये हमारे अठखेलियों से लेकर, स्कूल, क्रीड़ा, गालियों, प्रेम, ममता व क्रोध सभी में छुपी है, इससे बैर कैसे कर लें. अंग्रेज़ी तो हमारी सज़ा है जो अँगरेज़ हमें दे के गये हैं. 

क्या फर्क पड़ता है कि राजा युधिष्ठिर है या धृतराष्ट्र,
हिंदी तो बेचारी यज्ञसेनी है, 
युधिष्ठिर दांव पे लगाएगा, धृतराष्ट्र के पुत्र उसकी अस्मिता लूटेंगे. 

कभी इस देश में संस्कृत थी, शास्त्रों की भाषा. बड़े राजप्रासादों में बोली जाती थी संस्कृत, तो वहीं दूर कहीं पण्डितों के पर्णकुटी में वदित होती थी संस्कृत. कहते हैं संस्कृत की ही कोख से जन्मी है सारी भाषाएँ. मन, प्राण, वचन, श्रुति सभी को मधुर लगने वाली भाषा, संस्कृत. साथ ही साथ वर्ग संघर्ष में लिप्त थी भाषायी संघर्ष. महाभारत का ही वर्णन हो जाए, पांडु व कुरु कुमार संस्कृत में शास्त्रार्थ करते थे, राजकुमार जो ठहरे. शास्त्रों का संज्ञान उसी भाषा में लिया, कर्ण ठहरा सारथिपुत्र, संस्कृत से दूर दूर तक का कई नाता नहीं, फिर भी शास्त्रों का ज्ञान लिया. उस समय पिछड़े व स्त्री समाज की भाषा प्राकृत थी. याद है न रुक्मिणी ने संस्कृत में कृष्ण को पत्र लिखा था, ताकि कोई भी उस पत्र को कृष्ण के अलावा पढ़ और समझ ना सके. समय बदला, समाज बदला. नए धर्म आये, नयी संस्कृति, नयी भाषाएँ जन्मी. सभी भाषाएँ चूँकि जन्मी एक ही कोख से, अतः बहुत कुछ भाषाओँ में सामान्य ही रहा व ऐसे ही जन्म हुआ भारत के अपने भाषा हिंदी का. समकालीन संस्कृति की हिस्सा रही सभी भाषाओँ का मिश्रण. परन्तु ऐसी मधुरता की, किसी भी समकालीन भाषा में उत्तम. शब्दभंडार हो या शब्दसंरचना दोनों ही श्रेष्ठ. प्राकृत व संस्कृत दोनों ही की झलक, कोई वर्गमर्यादा नहीं. स्त्री व पुरुष दोनों की भाषा. हृदय व मुख दोनों की भाषा. जब भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमण शुरू हुए तो सर्वप्रथम हिंदी पर ज़ुल्म शुरू हुए, इसकी आत्मीयता को क्षति पहुंचाने की कवायद शुरू हुई. फ़ारसी, उर्दू, मंगोली, अफगानी, और कई सारे भाषाओँ से इसपर आक्रमण किये गए, परन्तु पानी में फेंके गए रंगों से पानी का नुक्सान नहीं होता बल्कि पानी उसे अपने में मिला लेता है. जब कभी किसी भाषा के अस्तित्व पर आंच आती है तो उसे व्याकरण की शरण प्राप्त होती है. पाणिनि के अष्टाध्यायी में संस्कृत व्याकरण निहित है तथा, संस्कृत व्याकरण के अंतस में हिंदी व्याकरण. हिंदी समाप्त नहीं हुई बल्कि विकसित हुई. उर्दू व फ़ारसी को समाहित कर लिया और कुछ शब्द तो ऐसे अपने से हो गये कि आज कोई बता दे उर्दू है या हिंदी. हिंदी भारत की संस्कृति का वो हिस्सा है जिसने विकास व विस्तार में समाज की साक्षी बनी है. भारत के इतिहास में हिंदी का योगदान समानांतर विकसित हुई है. फिर भारत पर अंग्रेज़ी आक्रमण हुआ तथा सब कुछ परिवर्तित सा हो गया. इसी देश के लोग, हिंदी के ही वंशज न जाने क्यों हिंदी से ही रूठ गये, कहने लगे दुनिया अंग्रेज़ी बोलती है हम क्यों नहीं बोल सकते, हम भी वही बोलेंगे. 

विश्व की चिंता वो करें जिन्हें विश्व के टुकड़ों पे पलना हो. अगर अपने देश की गरिमागाथा स्वयं लिखना है तो अपनी भाषा में लिखो ना. किसी उधार की भाषा में क्या लिखना, हिंदी हमारी सहेली है, ये हमारे अठखेलियों से लेकर, स्कूल, क्रीड़ा, गालियों, प्रेम, ममता व क्रोध सभी में छुपी है, इससे बैर कैसे कर लें. अंग्रेज़ी तो हमारी सज़ा है जो अँगरेज़ हमें दे के गये हैं, 170 वर्षों तक अपनी संस्कृति में सेंध लगवाने का ये क्रूर दण्ड भारतवर्ष को दिया गया. हम ख़ुशी ख़ुशी उस दण्ड का आनंद उठाते हैं, क्या यह समझ पाना इतना मुश्किल है कि अंग्रेजों ने भारत से पहले भारत की भाषा को अपने अधीन किया तथा आज जब भारत राजनैतिक रूप से स्वाधीन हो गया सांस्कृतिक रूप से आज भी पराधीन है. अपनी सहेली को हम उन्मादी अंग्रेज़ी के आँगन में छोड़ आये, बिना इसकी परवाह किये कि सहेली की अस्मिता व जीवन दोनों पर संकट आ सकती है. भारत की विविधता की कथा सब को ज्ञात है, सभी कभी न कभी हिंदी के अपने थे, आज गैरों से भी अधिक बुरा व्यवहार करते हैं. परिवार में मतभेद कहाँ नहीं होता, इसका अर्थ ये तो नहीं की विदेशियों के खैरात को अपना भाग्य समझ लें और अपनी भाषा को ही शत्रु मान बैठे. भारत की सभी भाषाएँ जब संस्कृत की ही वंशज है तो हिंदी से ही ऐसा व्यवहार क्यों? भारत का गौरव तो दूर इसे तो आंगन की धूल से भी कम सम्मान दिया जा रहा है. एक अध्ययन के अनुसार भारत के करीब 42 प्रतिशत लोगों की भाषा हिंदी है, और यदि पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजरती, मैथिलि व उर्दू को जोड़ दिया जाए तो ये आंकड़ा 70-75 फीसदी से भी अधिक है. जब भारत की तीन चौथाई जनसंख्या हिंदी बोलती, समझती व लिखती है तो हिंदी को भारत की राष्ट्रिय भाषा क्यों न बनाया जाए? विरोध तो किसी भी प्रकरण का एक हिस्सा है, होता है, होता ही रहेगा. विरोध की आग में हिंदी को अग्निसमाधि लेने पर विवश तो नहीं कर सकते.  

नवनिर्वाचित सरकार ने जब गृह मंत्रालय के कार्यालयीन कार्यों को हिंदी में करने का निर्णय लिया तो एक और जहां हर्ष का माहौल था तो वहीं एक और विरोध के सुर गूँज उठे, तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करूणानिधि ने सीधे शब्दों में इस निर्णय के विरोध में अपनी राय स्पष्ट कर दिया. संविधान में सूचित भाषाओँ में तमिल भी एक भाषा है, तथा हिंदी की इस तवज्जो को वे क्षेत्रीय भाषाओँ को दबाने व उनका अस्तित्व मिटाने की तरफ उठाया गया कदम मानते हैं. यही मानना है तमिलनाडु की मुख्यमंत्री व दक्षिण भारत के कुछ अन्य वामपंथी व क्षेत्रीय दल के नेताओं का भी. दक्षिण भारत ही नहीं बल्कि उत्तर-पूर्व भारत के भी क्षेत्रीय दल इसके विरोध में ही हैं. इस विरोध के कारण व आधार पूर्ण रूप से निराश करने योग्य है. भारत में 100 से भी अधिक भाषाएँ तथा सहस्त्रों बोलियाँ विद्यमान हैं, सभी को तवज्जो देना नामुमकिन है. 22 भाषाएँ जो संविधान में सूचित हैं, अपने तरह से सभी राज्य व क्षेत्र को समाहित कर लेती हैं. विरोध का कारण हिंदी को दी जाने वाली तरजीह है, तथा विरोध का आधार स्वतंत्रता के पश्चात् प्रधानमंत्री नेहरु द्वारा दिया गया आश्वासन था की जब तक सभी राज्य संतुष्ट नहीं होता, उस उचित समय तक अंग्रेजी ही भारत की कार्यालयीन भाषा रहेगी. अनुचित, अन्याय, घोर अन्याय. और इस तरह से हिंदी से सर्वप्रथम उसका अधिकार छीना गया था. आज स्थिति यह है कि हिंदी अपने अधिकार तो दूर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है. किसके कारण? उस एक आश्वासन के कारण. एक आश्वासन और भारत किसी और के चरणों में अपना मुख रख चुका था. ये एक आश्वासन सम्पूर्ण राष्ट्रवाद के विरुद्ध था. ये कैसा देशप्रेम? कैसा राष्ट्रवाद? सभी ढकोसलों का भण्डाफोड़ इस एक आश्वासन ने कर दिया. फिर वो वर्षों का संघर्ष क्या सिर्फ अंग्रेज़ों को अपने देश से वापस भेजने के लिए किया गया था? क्या इतनी कुर्बानियां अपनी कुर्सी से अंग्रेजों को हटाकर स्वयं बैठने के लिए किया गया था? क्या इतना रक्त केवल कोरों व उस झंडे से बचने के लिए किया गया था? किसी भी देश अ निर्माण उसकी अपनी भाषा में ही होता है, चीन इसलिए चीन है क्योंकि उसने अपनी भाषा को सम्मान दिया. और ये लूटेरे ब्रिटिश तो बस साम्राज्य फ़ैलाने में विश्वास रखते हैं, उनके प्रपंच में हम कैसे फंस गयें? अंग्रेज़ी को अपनाकर हमने सदा के लिए उनके अधीन कर दिया. इतने संघर्षों का कोई अर्थ ही नहीं रह गया, बस अंग्रेज़ चले गये, सत्ता कुछ भारतीय अंग्रेजों को सौंप कर, सदा के लिए हमपर राज करने हेतु. 

अंग्रेज़ी ने हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को सर्वप्रथम अपने अधीन किया, जब किसी समाज का विवेक ही बिक जाए तो उस समाज का हश्र क्या हो सकता है, विचारनीय है. और वामपंथी जो कि विवेकशील माने जाते हैं, जो बुद्धिमत्ता से सामाजिक संघर्ष को जानते हैं, उन्होंने भी अपने पराधीनता की घोषणा कर दी है, अंग्रेजी के समर्थन में अपनी बात रखकर. हिन्दी का अपराध क्या है? जो उसे अपने ही भूमि पर इस तरह प्रताड़ित किया जा रहा है, अपनी ही जन्मभूमि पर उसके अस्मिता से खेला जा रहा है, उसके अस्तित्व, अहमियत को ललकारा जा रहा है. दूर क्षेत्र तक भाषायी संघर्ष में मैं हिंदी के ही मृत शरीर को देख रहा हूँ, जो आ रहा है, हिंदी के शव को मुखाग्नि देने का प्रयास कर रहा है, हिंदी चीख रही है कि उसकी जान अभी गयी नहीं है, ऊपर बैठा अंग्रेज़ी उन्माद में झूम रहा है, अट्टहास कर रहा है, बीच बीच में थूक रहा है. किस पर? हम पर या हमारे अकर्मण्यता पर, एक दिन ऐसा आएगा हिंदी के स्थान पर, अपने समाज की अस्मिता को हम ऐसे ही पराधीन कर देंगे. अपना लेंगे विदेशी चोला, उत्सव मनाएंगे अपने पराधीनता का, ज्यादा हुआ तो अंग्रेजी में ही अंग्रेजियत को गाली दे देंगे. इस समस्या का समाधान क्या है? समस्या ही कहाँ है, एक आरज़ू है, एक कवायद है, हिंदी को उसका अधिकार दिलवाने के लिए. हिन्द की धरती पर हिंदी संघर्षरत क्यों है? क्या शर्मसार नहीं करती हमें और फिर भी हम विदेशी रिश्तों की दुहाई दे कर अपनी सहेली को मारने पर तुले हुए हैं.  


बुधवार, 18 जून 2014

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"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग  

मिठास 

                                                                                       - अंकित झा

ट्रेन अपने रफ़्तार से धुंध को चीड़ते हुए निकल रही थी, ठण्ड थोड़ी थोड़ी बढती जा रही थी. ट्रेन  मध्य प्रदेश को पार कर उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर चुकी थी. बीच बीच में ये ध्यान दिला रही थी कि ट्रेन भारत की ही है और अँधेरे स्टेशनों को एक के बाद पार करते हुए चली जा रही थी. उसी ट्रेन कि एक बोगी के अपर बर्थ पर में निद्रा की ग्रास में पड़ा हुआ था. शाम के बाद का समय बचपन से ही मेरे लिए कुम्भकरण काल रहा है, उस पहर में नींद रोक पाना सदा से ही मेरी ख्याति का हिस्सा रही है. ट्रेन में ये ख्याति कहीं उड़ जाती है, और मैं आँखों को वश में नहीं रख पाता. उस रात भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, ट्रेन में भीड़ ज्यादा नहीं थी, बस आस पास जाने वाले लोग जो आरक्षण की फ़िक्र नहीं करते वही सीट संभाले बैठे हुए थे. भारतीय रेल के हर ट्रेन में बहुत कुछ सामान्य होता है, पानी-चाय बेचने वाले से लेकर गुटखा और चना बेचने वाले तक. एक और चीज़ है जो बहुत आम है वो है मांगने वाले. अपनी कई यात्राओं के दौरान मैं कई बेहतरीन गायकों से मिल चूका हूँ, तो कई बेहतरीन शायर भी मिले हैं, जिनकी प्रतिभा उनके स्थिति पे भारी पड़ गयी. एक शायर की कुछ पंक्तियाँ तो मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ- " आज पता चला कि दरिया का पानी नीला कैसे है, शायद तेरी ही आंसुओं से ही बन पाया होगा कम्बख्त." और जिस लड़की को देख के उसने वो शायरी कही थी उसके आँखों का रंग नीला था, एक पल को दिल ही दिल में वाह वाह करता रह गया मैं. वहीं एक गायक की वो जिंदादिल आवाज़ जिसमें उसने मुहम्मद रफ़ी के गीत 'जाने वालों जरा मुद के देखो मुझे(दोस्ती, 1966)' को जीवंत कर दिया था और ख़ास कर गाने की वो पंक्ति जिसमें उसने कहा था- 'इस अनोखे जगत की मैं तकदीर हूँ, मैं विधाता के हाथ की तस्वीर हूँ'. इसी तरह उस शाम भी ट्रेन में प्रवेश किया कुछ मांगने वालों ने, उन गायकों-शायरों और विकलांग मांगे वालों से ये थोड़े भिन्न होते हैं, ये मांगने को अपना अधिकार समझते हैं. ये मांगते नहीं वसूलते हैं, सामने वाले को शर्मिंदा करके, डरा के, धमका के. शायद झांसी से निकली थी ट्रेन और अगला स्टेशन दतिया था, 4 किन्नर समाज के मांगने वालों ने ट्रेन में दस्तक दी, मेरी सदा से आदत रही है कि जहाँ पे विवशता न हो तथा दिल न करे वहां कभी दान मत करो, सदियों से प्रताड़ित समाज के लोगों को देने में मैं कभी नहीं हिचकिचाता. परन्तु जिस तरह से माँगना अब देश में पूर्णरूप से एक व्यवसाय सा बन गया है, ऐसे में मैं इस समाज को कभी कभी प्रताड़ित नहीं मान पाता. चूँकि मेरा बर्थ 44 न. था तो उनके आने में अभी समय काफी समय था, तो मैंने जेब से 10 रु. का एक नोट निकालकर हाथ में रख लिया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा. इतने में एक बड़ी मीठी आवाज़ सुनाई दी, ऐसा लगा मानो किसी स्त्री ने उनका प्रतिकार किया होगा, हो सकता है उन लोगों ने उसके पति से जबरदस्ती की होगी और पत्नी का पतिवर्ता स्वरुप जाग गया होगा, और वो उनका विरोध कर बैठी होगी. परन्तु उसकी बातें सुनकर ऐसा लगा नहीं, आवाज़ आई कि, 'भाई साहब आप क्या मज़ाक उड़ाते हैं हमारा, वो तो पहले ही प्रकृति कर चुकी है. आपके मज़ाक से न हम दब जायेंगे और न प्रकृति को अपनी गलती का पता चलेगा. हम तो हैं ही ऐसे, आप क्यों हमें एहसास दिला रहे हैं, हम तो मांगते ही हैं, बदनाम भी हैं और कुख्यात भी, आप अपना सोचों.' ऐसा लगा स्वयं उर्वशी स्वर्ग से आकर उनका पक्ष रख गयी हो, या फिर किसी अप्सरा ने अपने सुरीले आवाज़ में एक गीत गाकर उनका पक्ष रखा हो, परन्तु ये सब झूठ था, वो एक किन्नर समाज की आम सी मांगने वाली ही थी, कौतूहलवश मैं उसे देखने के लिए उठा, आँखों पर एक पल को विश्वास नहीं हुआ, कोई इतनी सुंदर भी हो सकता है, देख के आश्चर्य हो रहा था. लाल साडी जिस पर गुलाबी रंग के किसी फूल के छींटे थी, चेहरा सांवला था परन्तु आँखों व होठों की बनावट ऐसी की सुंदर से सुंदर लड़की भी एक पल को जल उठे, उस पर से होंठ के नीचे एक तिल और उसकी नाक जो कुछ कुछ मेरे ही नाक से मेल खाती थी शायद. फिर उस दिन आदमी ने मज़ाक में क्या कहा होगा जो इसे बुरा लग गया. इतने में वो बुदबुदाते हुए मेरे पास आई, और माँगा, मैंने कुछ सोंचे बिना वो 10रु का नोट उसके हाथ में दे दिया, और एक टक उसकी ओर देखता रह गया, बिना किसी की परवाह किये, बस ख्याल में ये आ रहा था कि कोई कैसे इतनी सुंदर हो सकता है? इतने में उसने मुझे झिरकते हुए कहा- तो अब तुम क्या देख रहे हो? वो तो सोनागाछी ले जा रहा था, तुम कहाँ कामथीपूरा ले जा के बेचेगा? मैं कुछ समझ पाता इससे पहले वो चली गयी. उसके जाने के बाद उसकी बात समझ में आई, मैं सोंचने लगा, रूप में इतनी मिठास परन्तु बातों में इतनी कड़वाहट, ये निश्चित ही दुनिया के घाव हैं, या फिर उस घाव पर लगाये नीम के पत्तों की दावा के कारण, उसकी मिठास कम हो गयी है. दुनिया की भी तो मिठास कम हो ही गयी है, देखिये न कहाँ चलने की बात की थी उससे.         

रविवार, 15 जून 2014


परिवर्तन से परे 

वैमनस्य व विचारधारा की विविधता 
                                                                                               - अंकित झा

कोई स्वतः ही उपेक्षित नहीं होता, स्वतः ही प्रताड़ित नहीं होता. संघर्ष जब जन्मी तो किस कारण से सर्वप्रथम जातीय मूल्यों का क्षरण हुआ, क्यों सर्वप्रथम जातिवाद को समाप्त किया गया, इसका एक कारण था, वो ये कि इसी के आधार पर ग्रामीण परिवेश में द्विजों ने सहस्त्राब्दियों तक संसाधनों पर एकाधिकार समझा.

परिवर्तन की राह इतनी सुगम नहीं होती, 
वीरों के रक्त से भूमिपूजन की जाती है,
बलिदानों की पराकाष्ठ पर, 
रखी जाती है जिसकी नींव,
जौहर के क्रंदन से स्वागतगीत सुने देते हैं,
स्यारों का उन्माद मंत्रोच्चारण कर रहा होता है.   

एक अंतर निहित है, अनपढ़ व कुपढ़ होने में. अनपढ़ वो जो कुछ पढ़ के समाज के काम न आये और कुपद वो जिसकी पढाई समाज के काम न आये और कभी कभी समाज के लिए क्षति कर जाए. यदि मैं अपना धर्म और कर्म जानता हूँ तो मैं अनपढ़ नहीं हूँ, परन्तु यदि कुछ ज्यादा जान जाऊं और दूसरों को भी यही जानने हेतु उत्सुक करूँ तो लोग मुझे कुपढ़ कह सकते हैं. कह सकते हैं क्या, कहते हैं. इस्लाम में ही देखिये न, ज्यादा इस्लाम जानने वाले जब वही दूसरों को बताने लगते हैं तो लोग क्या कहने लगते हैं उन्हें, या फिर इसे ऐसे समझें कि ज्यादा पढ़ के गुमराह करने वालों को क्या कहते हैं. ऐसा हर धर्म में होता है, धर्म ही नहीं हर समुदाय में होता है, मनुष्य को एक समय जानने की इच्छा होती है, फिर और अधिक जानने की इच्छा प्रकट होती है तत्पश्चात सब कुछ जानने की इच्छा और उसके बाद जन्म लेता है औरों को उसके बारे में बताने की. इस बताने को आप प्रभाव डालना भी समझ सकते हैं. समझना ही तो है, क्या आज तक चंद समझदारों की फ़ौज ने कम समझाया है इस विश्व को, एम पी मिश्र, प्रख्यात वामपंथी नेता ने कहा भी तो था, ज़मींदारी प्रथा पर छिड़े विवाद पर संसद में कि समय आ गया है विश्व को लाल रंग में रंगने में, ज़मींदारी समाप्त करने का, किसानों को किसान बनाने का. आधी दुनिया रंग चुकी है. नतीजा क्या रहा, ज़मींदारी प्रथा समाप्त हुई परन्तु तीन दशक बाद ही विश्व पटल से वो लाल रंग कहीं गुम हो गयी, और भारत में बची खुची कसर 16वें लोकसभा चुनाव में पूरी हो गयी. अब यही कोई गिने चुने लाल चश्मे वाले मिलते हैं, इनके अंत का कारन बना, दावे करने की इनकी आदत. ये अनपढ़ नहीं थे, अधिक पढ़े लिखे थे, इन्हें विपढ़ कहा जाए. कहते हैं, समाज एक समय के बाद अपना अंत स्वयं तय करता है, भले ही वो विपढ़ समाज ही क्यों न हो. दूसरी ओर कुछ समाज दुसरे समाज के अंत से उदित होते हैं. जैसे सामंती के बाद साम्य आया, मनुवाद के बाद अब दलितवाद आया, और सामाजिक संरचना को नष्ट कर गया. श्रीमद्भाग्वद गीता के चतुर्थ अध्याय के त्रयोदश श्लोक में श्री भगवान् कहते हैं-     
              "चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः, 
                    तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम"  

अर्थात 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण तथा कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है. इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तवमें अकर्ता ही जान'. जब सृश्तिकार ही विपढ़ नहीं तो कोई समाजशास्त्री कैसे किसी समाज का विश्लेषण कर सकता है. समाज में समस्या तब नहीं आई जब वर्ण बने, समस्या तब उत्पन्न हुई जब वर्ण जातिओं में विभक्त हो गया तथा जातियों को वर्गीकृत कर दिया गया. जाति के मूल को यदि समझें तो जाति में जन्म समाहित है तथा जब वर्ण व जन्म का समागम हुआ तब सभी समस्याएं आप ही उत्पन्न होने लगीं. और फिर समय आया अपने विचार, विचारक व विचारधाराओं का. परन्तु इस अंकुर, अरुण व उदय के मध्य जो रहा उसे अन्याय कहा गया, यंत्रणा कहा गया, प्रताड़ना कहा गया, उपेक्षा कहा गया. तत्पश्चात समाज में चेतना का उदय हुआ. परन्तु संघर्ष कभी शीर्ष व निम्न के मध्य नहीं होता, परन्तु इस संघर्ष को ये पहनावा दिया गया.

किस्सागोई जो ठहरा, एक किसा याद आ रहा है. बड़ी उलझी सी प्रेमकहानी थी वो, एक नास्तिक महबूबा व एक आस्तिक महबूब की प्रेमकहानी. कोई प्रेमकहानी जैसे कि हीर-राँझा, सोहनी-माहिवाल, लैला-मजनू इतनी अमर नहीं हो पाती यदि किसी में भी प्रियतमा ने अपने प्रेमी से उसकी विचारधारा तथा धार्मिक दृष्टिकोण पूछ लिया होता. प्रेम को इन सबसे क्या करना, जीने-मरने के वादे और घर बसाने के सपने ही तो होते हैं वहाँ, परन्तु उस घर का एक कोना मंदिर भी होता है, यही घर के ईशान कोण, उत्तर पूर्व दिशा में. अतः प्रेम कथामें दृष्टिकोण तो महत्वपूर्ण होता है, हाँ विचारधारा का पचरा क्या है? विचारधारा का अर्थ है, किसी एक विचार व उसके विचारक का समर्थन तथा उसे पूर्ण आशावादिता के साथ अपने जीवन का हिस्सा बनाना. इस प्रेमकहानी में ऐसा ही हुआ, विपरीत हवा का प्रारंभ कुछ ऐसे हुआ कि प्रियतमा जिसे लाल रंग से प्रेम है, परन्तु भिन्न अर्थ में, अपने प्रियतम के लिए लाल रंग का एक झोला लेकर आई, और प्रियतम ने उसे स्वीकार किया, माताजीका झोला समझकर. लाल चूँकि पावन वस्त्र मन गया है, अतः दोनों ही इसका बहुत सम्मान करते हैं. प्रियतम ने कहा, 'हमें ये लाल रंग ही तो जोड़ता है, अन्यथा समाज का बनावट और इसका अध्ययन तो आज तुम्हारे हाथों मेरा वध करवा दे.' प्रियतमा ने उत्तर दिया, वध में विचारक का नहीं, विचार तथा विचारधारा का करना चाहती हूँ, एक बार तुम्हारे विचार मर जाए, स्वयं ही मनुष्य बन जाओगे'. 'तुम भूल रही हो कि विचार कभी मरा नहीं करते, इतिहास के गर्भ में ही सही परन्तु जीवित रहते हैं, कब कैसे जागृत हो जाएँ पता ही नहीं चलता'. बातों बातों में न जाने कब प्रियतमा का घर आ गया और वह उतर के अन्दर चली गयी. जाते जाते मात्र इतना ही कहा कि, इतिहास जो भुगत चुकी है, उसका अर्थ यह नहीं कि भविष्य भी उसे भुगतेगा. समाज को न अब कोई ब्रह्मा बाँट सकता है और ना ही कोई ब्रह्मा के मुख से निकले उनके विचार'. इस बात पर प्रियतम ने उत्तर दिया कि, 'और न ही कोई विदेशी विचारक और उसके सामाजिक संघर्ष का सूत्र. ये समाज अब कभी विखंडित नहीं होगी, जब तक ईश्वर का अस्तित्व है, समाज नहीं बाँट सकता हाँ, जिस दिन कोई धर्म व ईश्वर को कोई नशा बतला देगा, तत्पश्चात क्या होगा मैं नहीं जानता, समाज अवश्य बंटेगा'. प्रियतमा दरवाजा बंद कर चुकी थी, प्रियतम अपनी गाड़ी को किक मार चूका था. प्रेम कहानी में रात का महत्त्व अत्यधिक होता है, ये कहानी भी रातों में ही परवान चढ़ी थी, रातों में फोन पर घंटो चलने वाले वाद-विवाद और उसके बाद अगले दिन कॉलेज में मानना-मनाने का दौर. उस रात विवाद कुछ बढ़ गया, बात वहीँ से शुरू हुई जहां से रोज़ होती थी, प्रियतम ने पूछा, भोजन कर लिया? प्रियतमा ने हामी भरी तो, प्रियतम ने छेड़ते हुए कहा, 'देश की आधी आबादी आज रोटी के स्वप्न देख कर ही सो रही होगी, और तुम्हे अपने जीभ पर काबू ही नहीं है', इस बात पर नाराज़ हो कर प्रियतमा ने कहा, " तुम मनुवादियों को और आता ही क्या है? गाल बजाना और पेट की आग में आचमन डालना, समाज के विभत्स्तम अपराधी तो तुम लोग हो, समाज को बांटने वाले तुम, वर्ण को जन्म देने वाले तुम और सामाजिक उद्धार के समय भी सवर्ण बनके समाज के माथे पर भैरव बनकर नाच रहे हो', कहकर मार्क्सवादी महबूबा ने फ़ोन काट दिया. रात को प्रियतम का सन्देश आया, 'सामजिक उद्धार के माथे पर भैरव नहीं काल नाच रहा है, में तो ब्रह्मा को पूजता हूँ, वर्ण, जातिव्यवस्था से समाज को कभी कोई हानि हुई ही नहीं, छुआछूत से कभी भी सामाजिक कल्याण को बाधा नहीं पहुंची. समाज को सामाजिक उद्धार नहीं वरन सामाजिक जीर्णोद्धार की आवश्यकता है. सत्य कहता हूँ, हमें इश्वर बनने का कोई मोह नहीं है, अरे! हम तो वो हैं जिन्होंने विश्व को ईश्वर का आभास करवाया. अब तुम ही बताओ, सामाजिक संघर्ष की बात किसने की थी, ये याद दिलाने की आवश्यकता है क्या? भारत में वर्ग से विशाल यदि वर्ण संघर्ष हो चला तो द्विजों का क्या अपराध?' कुछ देर बाद ही पुनः एक सन्देश आया, इस सन्देश में प्रियतम ने लिखा था कि, मनुवाद को तुमने कुछ अजीब तरह से व्यक्त किया, पेट कि आग में आचमन? समिधा, जब सम्पूर्ण सृष्टि ज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई थी तब एक ज्ञान का एक प्रकाश प्रज्ज्वलित हुआ था, याद है उस प्रकाश में एक आग की लपट थी, याद है उस आग में पहली समिधा किसने डाली थी, महर्षि मनु ने. पुरुष के मुख से निकला पहला शब्द ज्ञात है तुम्हें? ब्रह्मा, इस ब्रह्मवाद को मनु ने विश्व को समझाया था, जिसे मनुवाद कहा गया. ब्रह्मा से ये पालनहार विष्णु ने समझा    था, गीता में इसकी व्याख्या है, 4 वर्णों का विवरण किया है भगवान ने जो उनके कर्म दर्शाते हैं. इस बात से विश्व अनभिज्ञ है तथा ब्राह्मणों को सदैव ही उच्च जाति समाज को गुमराह करने के आरोप लगाती रही है. ब्राह्मण तो ज्ञान संचार हेतु सदैव ही तत्पर रहे, तथा राज करने वाले क्षत्रियों को अपेक्षित समझा कि ज्ञान उन्हें मिले ताकि समाज पर कोई समस्या न आये. इसे यदि दो वर्गों ने उपेक्षा समझा तो अग्र्द्विजों का क्या अपराध'? अब प्रियतमा की बारी थी, 'अच्छा लगा तुम्हारा व्याख्यान, परन्तु, कोई स्वतः ही उपेक्षित नहीं होता, स्वतः ही प्रताड़ित नहीं होता. संघर्ष जब जन्मी तो किस कारण से सर्वप्रथम जातीय मूल्यों का क्षरण हुआ, क्यों सर्वप्रथम जातिवाद को समाप्त किया गया, इसका एक कारण था, वो ये कि इसी के आधार पर ग्रामीण परिवेश में द्विजों ने सहस्त्राब्दियों तक संसाधनों पर एकाधिकार समझा, और जब संघर्ष चला तो कपटी पिछड़ों को सत्ता सौंप नगरीय संसाधनों को अपनी बपौती बना ली. एक साथ कई विचार व विचारधाराएँ निवास करती हैं, इन्हें कृपया छेड़ो मत. समाज में संघर्ष निहित होती हैं, समाज की नींव में संघर्ष की बजरी भी मिलाई जाती है. इस संघर्ष को चलने दिया जाए. और हाँ मैं भला तुमसे नाराज़ हो सकती हूँ क्या? क्रांति की ही सही परन्तु लाल जोड़े में तुम्हारे ही घर में आउंगी'.प्रियतम के होठों पर हंसी बिखर गयी, परन्तु आँखों में आशा थी कि कभी तो अपनी प्रियतमा को ये समझा ही देगा कि मनुवाद बुरा नही बल्कि समाजवाद का ही हिस्सा है. 

सामाजिक संघर्ष क्या है, जीत-हार क्या है, सामाजिक उद्धार क्या है, जीर्णोद्धार क्या है, नींव क्या है, एकाधिकार क्या है, द्विज क्या है, वैमनस्य क्या है, प्रेम क्या है, प्रेम कहानी क्या है, विचारधारा क्या है, विविधता क्या है, समाज है. समाज का ही अंग है, समाज में ही समाहित है. मनुवाद और मार्क्सवाद, प्रेमकहानी का हिस्सा. लाल वस्त्र, क्रांति व श्रद्धा के स्वरुप.  
               

बुधवार, 11 जून 2014


परिवर्तन से परे 

सांप्रदायिक समरसता के शत्रु कौन हैं?
                                                                                                         
                                                                                                               - अंकित झा 


समाज को समुदाय या संप्रदाय भ्रष्ट नहीं करती बल्कि इसे भ्रष्ट करती है इंसान की  वो सोंच जो इतिहास को अपने रिश्ते का हिस्सा बनती है. यह सत्य है कि जिस इतिहास में मानवीय संवेदनाओं का विध्वंश छिपा है, वो कभी नहीं मरती परन्तु क्या ये सत्य नहीं है कि इतिहास को कुरेदना भी इतिहास बनाने का ही हिस्सा है.

जिस दिन जलेगा चमन, झुलसेगा सारा समाज.
ना कोई हिन्दू बचेगा न कोई मुसलमां.
आग गीता देख कर अपने दिशा नहीं बदलेगी 
और ना ही कुरआन के सजदे में झुकेगी. 
                                                                                                - शाव्य्साची 

दृश्य कुछ इस तरह का था कि कमरे के बीचों बीच फैले मखमल के दरी पर एक बड़ी सी थाल सजी हुई थी, थाल में तरह तरह के पकवान पड़ोसे हुए हैं, मिठाई, किमामी, शाकाहारी बिरयानी, पकौड़े, और ना जाने कितने ही तरह के भजिये, मुन्गोड़े और पकौड़े. फ़हीम चाचा के बेटे का ये 12वें वर्षगांठ का जश्न चल रहा था. हर ओर ठहाके लग रहे थे, कभी किसी के कहकहे पर तो कभी किसी के. अब्दुल मियाँ अपने अरब के किस्से सुना रहे थें, तो अश्फ़ाक जो कि फ़हीम के बेटे का मास्टर भी है, अपने कॉलेज के किस्से सुना रहे थे, उसी ठहाकों में अनिल बाबु के ठहाके भी शामिल थें, अनिल व फ़हीम दोनों ने कामयाबी की सीढियाँ साथ ही चढ़ना शुरू की थीं, और आज दोनों अपने जगह पर सफल व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं. अनिल बाबु के साथ उनका भाई और एक अन्य मित्र भी बैठा हुआ है. इतने में नयी सरकार की बात छिड़ी, हकीम राज के नाम से मशहूर डॉ इलियास ने ऐसी बात कह दी कि माहौल एकदम से गंभीर हो गया. इस पर अनिल बाबु के मित्र ने टिप्पणी  कर दी कि हम तो हमेशा से ही मेहमानवाजी के लिए जाने जाते हैं, जो लुटेरे बन कर आए थे वे सोंचे कि किसको स्वीकार करना है और किसे नहीं. सारी आँखें अनिल बाबु के मित्र पर उठ गयीं ऐसा विवादास्पद टिप्पणी अन्हें शोभनीय नहीं थी, परन्तु उत्तर सदैव प्रश्न के टक्कर का या फिर उससे बेहतर होना चाहिए. दर असल डॉ इलियास ने कहा था कि हिन्दुस्तान की मेहमानवाजी का कोई जवाब नहीं है मियाँ गले काटने वालों को भी हार पहनाने में सोंचते नहीं हैं, किसे स्वीकार लिया देखिये ज़रा. बात तनिक बिगडती दिखी, डॉ इलियास कहने लगे, मियाँ रुवाब मत झाडिये अपने ऐसे होने पर, मेहमानवाजी की बात करते हैं, हमें लूटेरा कह रहे हैं आप, ...... बात बिगड़ते देख फ़हीम जी ने बीच बचाव किया परन्तु जो हालत बिगड़ गए थे वो अब न सुधरने थे, इतने में अशफ़ाक मियाँ भी अपने कमीज का बांह ऊपर करते हुए कहने लगे, देखिये भाईजान ना ये देश आपकी मिलकियत थी और ना ही कभी रही है. मिसालें हमने पेश की है, आप जैसों को सुधारकर, ज़माना जानता है, कैसे संभाला है इस मुल्क को हमने, बनाना ही आता है हमें, ढाहना नहीं. माहौल बिगड़ चूका था, अब बचाव से कुछ नहीं हो सकता था, अनिल बाबु उठे और अपने भई और मित्र को उठा कर ले जाने लगें, और जाते जाते कह गयें, दूसरो के छाती पर अपने बाल लगाने को निर्माण नहीं कब्ज़ा कहते हैं. डॉ इलियास तमतमा उठे परन्तु कोई चारा नहीं था, अनिल बाबु जा चुके थें. उनका जवाब या जवाबी कार्यवाई को देखने और झेलने हेतु कोई नहीं बचा था.

यही होता आया है इस देश में, ना जाने पल भर में कैसे सारी मित्रता भुला दी जाती है, अपने कुछ बात, खटास, मनमुटाव को इतिहास का नाम दे कर कैसे दो समुदायों में  फूट डाल दिया जाता है. समाज को समुदाय या संप्रदाय भ्रष्ट नहीं करती बल्कि इसे भ्रष्ट करती है इंसान की  वो सोंच जो इतिहास को अपने रिश्ते का हिस्सा बनाती है. यह सत्य है कि जिस इतिहास में मानवीय संवेदनाओं का विध्वंश छिपा है, वो कभी नहीं मरती परन्तु क्या ये सत्य नहीं है कि इतिहास को कुरेदना भी इतिहास बनाने का ही हिस्सा है और ये सामाजिक सौहार्द्य के लिए कितना विध्वंशकारी है. इस देश में हर रोज़ इतिहास के घाव कुरेदे जाते हैं और इस अग्रगमन में कितने घाव लगाये जाते हैं, किसी को इसका कोई ठिकाना नहीं होता. राष्ट्रिय एकीकरण किसी भी लोकतंत्र के लिए कितना आवश्यक है, ये किसी को बताने की आवश्यकता नहीं  है. तथा राष्ट्रिय एकीकरण के प्रमुख तत्वों में से एक है, सामाजिक व सांप्रदायिक समरसता. श्रीरामचरितमानस का एक वाक्य है, 'परहित सरीर धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई'. जिसका अर्थ ये है कि दूसरों की मदद करने से अत्यधिक बड़ा धर्म और विश्व में व्याप्त नहीं है. समाज की नींव ही यहाँ से पड़ती है कि समाज का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में एक दुसरे पर निर्भर रहता है, जिसे समाजशास्त्र में पारस्परिक निर्भरता कहते हैं. यह सोंचने योग्य बात है कि यदि समाज में ऐसी निर्भरता न हो तो समाज कैसा दिखेगा? अलग अलग विश्व, जो एक दुसरे से बात नहीं करता है, एक दुसरे को देखता है परन्तु कोई ख़ास ध्यान नहीं देता. भयावह दृश्य नहीं होगा वह. ऐसे ही कई भयावह दृश्यों को समाप्त करने हेतु समाज की स्थापना की गयी. मनुष्य एक दुसरे से भिन्न हो सकता है, आकर, आकृति, चेतना, विवेक तथा कौशल में. परन्तु मनुष्य एक दुसरे से इस तरह तो भिन्न नहीं होते कि उनके नाम, उपनाम, जाती, प्रजाति, धर्म, वर्ण व लिंग के आधार पर अंतर निकाले जाए. यही तो अंतर है, प्रकृति व प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ कृति में कि ये अंतर के नए नए तरीके निकालने में सक्षम हैं. भेदभाव सामाजिक संरचना का हिस्सा सदा से ही रही है, परन्तु इस भेदभाव की दीवार को कभी भी मानवीय रिश्तों पर हावी नहीं होने दिया गया था, परन्तु वो कौन सी बुद्धि होगी जिसने धर्म के अंतर को कट्टरता का नाम दिया होगा. हिन्दुओं को ब्राह्मण, बनिया व यादव कहके भेद करवाया होगा जो अंततः विवाद का कारण बनी होगी, तथा इस्लाम में  मुसलमान व काफ़िर बनाये होंगे. आज कट्टरता सब पर हावी है, इतनी कि जिसका शब्दों में वर्णन करना कठिन है.

हाल ही में पुणे में हुए 28 वर्षीय आईटी प्रोफेशनल शैख़ मोहसिन सादिक की निर्मम हत्या के बाद मेरे मन में कई प्रश्न नित्य ही खड़े हो जाते हैं. कहते हैं वो नमाज़ अदा करके आ रह था, सर पे टोपी लगाई हुई थी, कुछ विवाद भी था पहले का, बस मृत्यु के लिए पर्याप्त कारण हो गये थें क्या? इस हत्या को विभत्स्म्रित्यु की संज्ञा दी गयी है,  ऐसी मृत्यु जिसमें घृणा की वजह से हत्या की जाये तथा बाद में वो कृत्य मानवता का वीभत्स कृत्य बन जाये. जब कानून बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के बदले सजा ए मौत सुनाने में 25सों सुनवाई लेती है, तो कोई उन्मादी भीड़ कौन होती है किसी को मृत्युदंड देने वाली? ऐसे उन्माद ही समाज में घृणा के दीवार खड़ी  करती है और इसमें फंसती है लाखों मासूम जिंदगियां. कोई घटना को आने  वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से जोड़ के देख रहा है तो कोई लोकसभा चुनाव के नतीजो के पहले लगायी जाने वाली अटकलों का प्रारंभ. ये क्या है? कोई नहीं जानता सिर्फ इतना ही जानता है कि ये जो कुछ भी हुआ समाज के लिए अच्छा नहीं हुआ. युवा मन में जब कट्टरता के बीज बो दिए जाते हैं तो उनका अंत किसी तलवार से कट कर या किसी एनकाउंटर में पुलिस के बन्दूक से ही होती है. ऐसी हत्याओं के दोषी कभी सामने नहीं आते, बस उनकी परछाई सामने आती है, एक भीड़ के रूप में और छिन्न भिन्न कर देती हैं, मानवीय आशाओं को. ऐसे कृत्य कतई शोभनीय नहीं होते परन्तु ये घटित होते हैं, क्योंकि आज भी समाज एक नहीं हुआ है, आज भी कोई तलवार लेकर इस ताक़ में है कि कोई दाढ़ी वाला मंदिर के सामने सर ना झुकाए और उसका सर ईशनिंदा के ज़ुल्म में उड़ा दिया आये तो वहीँ कोई टोपी लगाये इस ताक़ में खड़ा है कि कोई चोटी वाला निकले बस दरगाह के सामने उसका सर ना झुके फिर देखो क्या अंजाम होता है. समाज में घृणा की नींव जिन्होंने रखी थी, अब वो ज़हेन्नुम में अपनी सजा भुगत रहे हैं और हम धरती पर अपने जन्नत को ज़हेन्नुम बनाने पर तुले  हुये हैं. 

मंगलवार, 3 जून 2014

Articless


मियां ये 370 क्या होता है?
                                                                                       
                                                                                               - अंकित झा 

शहर से बाबू पढ़ कर आये हैं, खूब पूछ परख हो रही है, पूरे घर में हंगामा सा मचा हुआ है, काहे कि छोटे बाबु पढ़ कर आये हैं, दिल्ली से. गाँव के बड़े बूढ़े बार बार आ जा रहे हैं, आते जाते एकाध प्रश्न पूछ लेते हैं, जैसे ही उत्तर मिला गौरवान्वित हो कर लौट रहे हैं, और यदि उत्तर नहीं मिल रहा है, तो अफ़सोस भी ज़ाहिर कर रहे हैं कि पैसा बर्बाद कर दिए बाबु, कुच्छो न किया इ परदेस जा कर. 

शाम की बात थी, छुटकन बाबू जरा सैर पर निकले थे, गाँव के चौपाल पर उनकी मुलाक़ात हो गयी मुखिया और उनके कुछ मित्रों से, हमारे गाँव की यही तो संस्कृति है कि पढ़ के कोई भी आये, गाँव गौरवान्वित होता है, ख़ुशी और ग़म जो भी हो, गाँव हंस कर स्वीकार करता है. मुखिया जी ने पूछा, अरे भई आज कल इ 370 बहुत सुन रहे हैं, का है इ 370? तनिक बताओ तो. अब इसे परीक्षा कहिये या फिर कुछ जानने की जिज्ञासा, मुखिया के भाई ने भी पूछ ही दिया कि हां मिया ये 370 क्या होता है? कोई नया कानून है का? शहरी बाबु मुस्कुरा दिए और कहा कि जी कानून ही है, परन्तु नया नहीं है, बहुत पुराना है, हमसे और आपसे भी, यही मुखिया जी के उम्र की होगी. सभी हंस दिए, परन्तु हंसी की गूँज में मुद्दे की अहमियत कम नहीं हुई, बाबू बोलना शुरू हुए, कश्मीर तो आप जानते ही हैं, अपने भारत का सिरमौर जब हमारे पड़ोसी देश पकिस्तान हमसे अलग हुआ था, तो कश्मीर को लेकर खूब रागरघस मचा, भारत बोले कि कश्मीर हम लेंगे, पाकिस्तान भी अप्नेज़िद्द पर अड़ा रहा, बाद में कश्मीर को आजाद मुल्क बनाने का फैसला किया. इतने में रघुबीर चाचा बोल उठे, अरे! हमारी वैष्णो मैया बसती हैं वहां, गर्भ्गुफा है वहाँ , कैसे दे देंगे कश्मीर? बाबु उन्हें चुप करते हुए बोले, हाँ हाँ चाचा यही तो बात थी, फिर जा के घमासान युद्ध हुआ, भारत और पकिस्तान में, हमारे प्रधान मंत्री संयुक्त राष्ट्र पहुंचे सहायता के लिए इस मुद्दे पर. संयुक्त राष्ट्र ने श्वेत पृष्ठ जारी किया और कहा कि कश्मीर पर फैसला जनमत संग्रह से हो, जब प्रदेश में शांति बहाल हो जायेगी. कहते हैं गलती की उन्होंने, और गलती थी भी, यदि युद्ध से कोई फैसला आ सकता तो उचित होता क्योंकि आज 67 बरस होने को आये और न ही शांति बहाल हो पायी और न ही वो जनमत संग्रह. उसी के फलस्वरूप एक अलग दर्जा देने की बात की गयी, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के अनुसार जम्मू और कश्मीर को देश में विशेष दर्जा प्राप्त है, जिसके अनुसार राज्य के कुछ ही निर्णय केंद्र सरकार द्वारा लिए जा सकते हैं, जिसके अलावा सभी फैसलों पर राज्य सरकार तथा विधान सभा का अधिकार है, इसी तरह से कई अलग आदिकार निहित है जम्मू और कश्मीर के पाले में जैसे वहाँ पर राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सकता, न ही देश में लगे आपातकाल को वहाँ लागू किया जा सकता है. यही सब कुछ है बस, और क्या. बाबु ने बोलना समाप्त किया. सभी के आँखों में गर्व महसूस किया जा सकता था, कि बाबु ने कितनी सुन्दरता से समझाया इस बात को. मुखिया जी ने अपनी मूंछों पर ऊँगली फेंरते हुए पूछा कि फिर आज कल काहे इ मुद्दा उठ रहा है, इ तो बहुत पुराना लग रहा है? 

अरे उ का है चाचा कि जो नया सरकार आया है न, उ कुछ प्रश्न उठाया है इस अनुच्छेद के सार्थकता पर. तो इसी वजह से पूरा बहस छिड़ा हुआ है. अब कोई चाहता है कि ये अनुच्छेद और इसका प्रभाव जस का तस बना रहे तो कोई इसके प्रभाव को कम कर इसे समाप्त करने का पक्षधारी है. किसी भी मुद्दे को प्रभावहीन बनाने से पूर्व उसके प्रभाव व दुष्प्रभाव को समझना अति आवश्यक होता है, जैसे देखिये, आतंकवाद एक समस्या है, परन्तु इससे लड़ने हेतु इसके सभी दुष्प्रभाव को जानना आवश्यक है, आर्थिक, सामाजिक, मानवीय, नैसर्गिक इत्यादि. किसी भी समस्या का समाधान उस के संरचना में ही छुपा होता है, 370 कोई समस्या है या नहीं, ये अभीतक तय नहीं हो पाया है. इसके अंतर्गत आने वाले विशेष प्रावधानों के नतीजतन जम्मू और कश्मीर के एक बड़े हिस्से को सदा ही इससे असंतोष रहा है. असंतोष कभी कभी विद्रोह का भी रूप धारण करती है परन्तु यह कभी जाहिर नहीं हो पता है. इस अनुच्छेद के करणवश हुए उपद्रवों तथा कश्मीरी पण्डितों के विस्थापन के बाद से ही दक्षिणपंथी विचारक इस अनुच्छेद के विघटन की बात कर रहे हैं. परन्तु, इस अनुच्छेद के कंधे पर अपनी राजनैतिक हथियार चलाने वाले राजनैतिक दल कदापि ऐसा नहीं चाहेंगे. भारत के सिरमौर में आये दिन जो घटनाएँ व दुर्घटनाएं होती हैं, उनको इस अनुच्छेद से जोड़कर अवश्य देखा जाना चाहिए, किसी कारणवश ही सूबे में सुरक्षातंत्र मजबूत नहीं हो पाया है. विशेष दर्जे के बावजूद जब तीसरे दर्जे सा हाल बना के रखा गया है तो निश्चित ही ये क्रियान्वयन में लाचारी तथा अकर्मण्यता के फलस्वरूप है. 

कश्मीर में एक समस्या था, अब कश्मीर स्वयं एक समस्या है. दोष किसका है, ज्ञात नहीं. पीड़ित कौन है, देख लीजिये, सिर्फ कश्मीर, कश्मीरी या पूरा देश? उत्तर निकाल पाना दुश्कर सा लगता है, उसपर से कश्मीर के प्रति लोगों की सहानुभूति तथा चिंता देखकर कुछ विशेष करने का सबका मन करता है. कुछ विशेष तो पहले से ही हो रहा है, वहाँ, साधारण ही क्यों नहीं छोड़ देते, जिस तरह बिहार प्रगति कर रहा है, वहाँ का गुंडाराज आज कल थोडा आराम कर रहा है, उसीप्रकार कश्मीर को साधारण क्यूँ नहीं छोड़ देते हैं? उसपर से लटका दी है, जनमत संग्रह की तलवार. अरे समस्या सुलझाए कौन? इस कश्मीर का आका है कौन? या फिर ये आज़ाद है? उच्चश्रिंखिल, बिना किसी अवलम्ब के. कश्मीर अवचेतन में डूबा एक अबोध बच्चे की तरह है, जिसके माथे से खून बह रहा है परन्तु उसे उस खून कि नहीं बल्कि उस चोट की फ़िक्र है जो उसे पीड़ा दे रही है. इस पीड़ा में आँखों से आंसू भी आ रहे हैं और माथे से खून भी. पहले क्या पोछा जाये? तय कर लें.