शुक्रवार, 2 मई 2014

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चुनाव विशेष

विवशता और विश्वास की कसौटी
                                                                                            -    अंकित झा

यहाँ जीतने का मोह नहीं हराने की जिद्द है, इसे हराओ, उसे हराओ, जैसे हो सके वैसे परन्तु हराओ. गढ़ में सेंध लगाओ, साम्राज्य स्वतः ध्वस्त हो जायेगा. जीतने के लिए विश्वास जीतना पड़ता है, परन्तु हारने के लिए सामने वाले की विवशता का मुखौल उड़ाया जाता है,

बरस बीतने को आया है, असंख्य रैलियाँ, अनगिनत सभाएं, और विज्ञापन की भरमार. एक से बढ़कर एक नारे, संकल्प, विचार, विरोध तथा दीवानगी. सबके मन में एक ही विचार, अब की बार मोदी सरकार. 2014 का चुनाव अब चुनाव नहीं रहा है, ये अब महासमर का रूप धारण कर चुकी है, कहाँ कहाँ से संज्ञा उठाये जा रहे हैं, कितने चालाकी से सर्वनामित किया जा रहा है. चुनाव प्रचार का ऐसा खेल शायद ही पहले ही कभी खेला गया हो, मुद्दों को फिर से सम्प्रदाय की भेंट चढ़ा दिया गया है. इस बार विजय जितनी निश्चित लग रही है, उतनी ही अनिश्चित. कौन कह सकता था आज से 5 वर्ष पूर्व कि जिस राहुल गाँधी के यूपी के चुनाव प्रचार को आदर्श प्रचार बताया गया था, आज उसी का मुखौल उड़ेगा. समाज की उदासीनता को कितनी खूबसूरती से अपना ढाल बनाया गया है चुनाव प्रचार मैं. कोई उदासीनता तो कोई वही पुरानी भावनात्मक प्रपंच रच रहा है, कोई अपने पिता के नाम पर वोट मांग रहा है तो कोई किसी शहीद के माता के नाम पर तो कोई किसी के लिए. सम्प्रदाय, जाती, वर्ग फिर से फन काढ़े खड़े हैं, देश का चुनाव बिना इन्हें शामिल किये संपन्न कैसे हो सकता है. यह चुनाव विपक्ष और निष्पक्ष के मध्य है, फिर भी पक्ष की सहभागिता नकारी नहीं जा सकती. पक्ष के पास मुद्दे है कहाँ, उनके पास तो रोने को आपबीती है, उसपर से एक मूक प्रधानमंत्री का वो असहाय साया. जाए भी तो कैसे और कहाँ? नया कोई जगह मिलने से रहा, जो गढ़ हैं, उन्हें बचाया जाये, कुछ भी किया जाए परन्तु लहर को शांत किया जाए, इसके लिए, कहीं भी जाना पड़े, मस्जिद, गुरूद्वारे, कहीं भी. घाव कुरेदे जाएँ, दर्द को वापस बुलाया जाये, मॉडल की बात करते हैं, मॉडल की असलियत दिखाई जाये, हो सकता है, चमत्कार हो जाये. नहीं तो सबसे आसान काम किया जाए, डराया जाए, आसानी से वोट बाँट जायेगा, हमें तो मिलने से रहा, नए खिलाडी ही लूट ले जाएँ, इन्हें तो नुकसान पहुंचे. जितनी बर्बादी हो रही है, उसे रोकने से अच्छा है, इनके माथे मढ़ दिया जाए. कोई भी यहाँ पर इतना साफ़ नहीं है. कुछ विवश हैं तो कुछ अविश्वसनीय. चुनावों में विश्वास का टूटना तो आम बात है, कोई नयी गाथा तो है नहीं. यहाँ जीतने का मोह नहीं हराने की जिद्द है, इसे हराओ, उसे हराओ, जैसे हो सके वैसे परन्तु हराओ. गढ़ में सेंध लगाओ, साम्राज्य स्वतः ध्वस्त हो जायेगा. जीतने के लिए विश्वास जीतना पड़ता है, परन्तु हारने के लिए सामने वाले की विवशता का मुखौल उड़ाया जाता है, नतीजा सामने है.


चुनाव होते ही किसलिए हैं? ताकि देश में पैसों की आंधी को नग्न आँखों से देखा जा सके? चुनाव में प्रतिभागिता किसी युद्ध की तैयारी से कम नहीं, उसपर से जनता के आंसुओं का ख्याल. इस देश में आज तक मुद्दा चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बन पाया समझ में नहीं आता. 65 वर्ष के लोकतंत्र में 65 मुद्दे भी ऐसे नहीं रहे होंगे जिन्हें हथियार बना कर चुनाव लड़ा गया हो. और जिस बार कुछ परिवर्तन के आसार दिखाई देते हैं, उस वर्ष ही बर्बादी की नींव रखी जाती है. इसे क्या कहें कि जिस कुर्सी के लिए इतनी मेहनत की जा रही है, उसी की गरिमा का इतना मुखौल उड़ाया जा चुका है कि आश्चर्य होगा जब नए आने वाले इस पद की गरिमा बचा पाएंगे या नहीं. चुनाव को लेकर कुछ मौलिक प्रश्न उठने तय रहते हैं, कि एक चुनाव क्षेत्र से कितने प्रत्याशी अपना नामांकन दाखिल कर सकते हैं? क्या इनके लिए कोई शैक्षणिक योग्यता आवश्यक नहीं? जब सरकारी नौकरी के लिए पुलिस वेरिफिकेशन आवश्यक है तो सरकार का हिस्सा बनने के लिए आवश्यक नहीं? कितने प्रतिशत मत पर विजय सुनिश्चित की जाए यह तय क्यों नहीं है? चुनाव में कितना खर्च हो रहा है इसकी देखरेख कौन कर रहा है?” ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो हर मन में उठते हैं परन्तु उत्तर प्राप्त करने की चेष्टा अब बच नहीं गयी है. क्या यह बात कोई नहीं जानता कि ये राजनेता जो भगवान को भी धोखा देते हैं, वो मनुष्यों के कैसे हो जायेंगे? भूल जाते हैं कि अंततः कोई अपना ही हमारी चिता को मुख्ग्नी देता है, तैयार रहना चैये ऐसे कुछ कटु सत्य को स्वीकार करने के लिए. कोई नहीं खड़ा है इस चुनाव के बाद इन प्रश्नों के कंकाल को उठाने के लिए. प्रणाली से इतने तंग आ चुके हैं हम कि अब हममें इतनी क्षमता नहीं की ऐसे प्रश्न से स्वयम्भुओं को परेशान कर सके. अब निर्मोही कहे या कुछ और परन्तु लोकतंत्र हमारे हाथ से निकल चुका है. बहुत दूर, इतना कि वापस ला पाने में समय लग जायेगा, 16 मई से पहले तो आने से रहा, कोशिश करनी होगी यदि आ सके.


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