परिवर्तन से परे
शायद इसे ही महंगाई कहते हैं
- अंकित झा
समाज में जिस तरह जीजिविषा की क्षति हो रही है, उतने ही तेजी से स्वप्न की मांग बढ़ रही है, इस मांग के बढ़ने से मनुष्य के स्वभाव का मूल्य कम हो रहा है. स्वभाव के इस अभाव से मानवीय प्रवृत्ति में अंतर आता है, ये समाज के लिए हानिकारक है. ऐसी स्थिति जब समाज में स्वप्न चरम पर होंगे तथा मानवीय चेतना का नित्य हास होता रहेगा, इसे महंगाई कहते हैं. वास्तविक महंगाई.
समाज के सामने मैं बेबस खड़ा हूँ,
नोंच खायेंगे आज मुझे या फिर कोई भून
लेगा
अंत तय है, समाज के हाथों मेरे शरीर
का,
समाज के दुविधा को
मैंने दरिद्रता का नाम जो दे दिया
था...
उस छोटे से घर की बड़ी समस्याओं को जानने वाला कौन अवतार लिया है? यह छोटा सा
घर किसी का भी हो सकता है, किसी का भी. देखिये उस छोटे से घर के अन्दर क्या हो रहा
है, माँ चूल्हे के पास बैठे रोटियां सेंक रही है, बीच बीच में अपना दुखड़ा सुना
देती है, सामने बैठे अपने पति को जो अभी अभी सर में तेल लगा कर खाने को बैठा है, तेल के गंध से पूरा घर महक रहा है और माँ की
बात से घर में गर्मी बढ़ रही है. दो रोटी ही खा पाया था कि बात बढ़ गयी, वही रोज़ की
खटपट. वही गली गलौज और वही बर्तनों का पटकना. तेल की गंध बाहर को जाते दिखी, काम
की ओर जा रही है सवारी, वो घर में सिसक रही है, सामने बैठा उसका छोटा सा बेटा चीख
रहा है, शायद भूख लगी होगी उसे, माँ के पास बस रोटी और सब्जी है, उसे कुछ भी नहीं
भाता. बीते महीने नानाजी के घर गया था तो डॉ. ने बताया कुपोषित है, पेट बाहर को
निकल रहा है और पैर छोटे हो रहे हैं, अर्थात देश के उस खुशकिस्मतों में इसका नाम
भी आ गया है. एक बेटी और बेटा और हैं जो सवेरे ही स्कूल को जा चुके हैं, खाना खा
कर ही आएंगे. अब डरते हैं खाने से, स्कूल में ही मिलता है, 3-4 महीने पहले की ही
बात है, बेटे ने मध्याह्न भोजन किया, इतना बीमार पड़ा कि शहर तक जाना पड़ा सरकारी
खर्चे पर इलाज़ के लिए. बेटा था और सरकारी खर्च था इसलिए इतना संभव भी हुआ, वरना
कौन ताक़ देता है इतना इस वर्ग को? गाँव के मुखिया के पास बीपीएल कार्ड बन रखा है
परन्तु इनके पास नहीं है. चोली-दामन का रिश्ता है, भ्रष्टाचार और गरीबी का इस देश
में. नौकरी किस आधार पर मिले? ज्यादा मजदूरी हो नहीं पाती, पत्नी को काम करने से
माना किया गया है, काम किया तो जान देनी पड़ेगी, हद से ज्यादा कमजोरी हो गयी है.
इनके आंसुओं का स्वाद किसी के मुख को बेस्वाद कैसे नहीं करता है?
बेटी अब बड़ी हो रही है, कभी उसकी शादी होगी, इसकी चिंता अभी से उस को खाए जा
रही है, सरकार ने कोई योजना बनाई है, हम जैसे माँओं के लिए, हमारे बेटियों के पढाई
का खर्च शायद सरकार उठाएगी अगर अव्वल आ गयी तो, पर अव्वल कैसे आये? भूखे पेट कब तक
अव्वल करेगी? बाप के हाथ में पैसे टिकते ही नहीं. पैसे तो बीमारी और किराने में ही
खर्च हो जाते हैं, शुक्र है सरकार है. कैसी सरकार है, गरीबी नहीं हटाती बल्कि
गरीबी को संस्थागत कर देती है, ग़रीब हो? कोई बात नहीं हम हैं ना, ग़रीब ही तो हो
कौन से विपक्षी दल के हो. ग़रीब होने का फ़र्ज़ निभाओ, तुम्हारी सहायता हम करेंगे. भूख
की बारात में शामिल हो जाओ, गरीबी के जश्न में ठुमके लगाओ, रोटी की रैलियाँ होगी,
सपनों की कव्वाली और मज़ाक उड़ेगा इंसानियत का, हास्यास्पद हो जाएगी ना ज़िन्दगी. इससे
अच्छी भी कहाँ है? ग़रीब हो या अमीर या फिर दोनों के मध्य संघर्ष करता देश का
माध्यम वर्ग, आर्थिक हालात के समक्ष सभी लाचार हैं, किसी के पास कोई उत्तर कोई
प्रतिउत्तर नहीं है, है तो बस एक वाक्य विशेष- महंगाई काफी बढ़ गयी है. ध्यान देने
वाली बात ये है कि महंगाई होता क्या है? बढ़ कैसे जाता है? कौन बढाता है?
अर्थशास्त्र में महंगाई उस स्थिति को कहते हैं जब किसी स्थान पर एक समय अंतराल
में वस्तुओं के मांग की वजह से उसके मूल्य में वृद्धि होने लगे. महंगाई इसलिए
ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह मनुष्य के औकात को ललकारती है, क्योंकि एक अवधी में
मूल्य वृद्धि की वजह से मनुष्य के जेब पर असर पड़ता है उसके खरीदने की क्षमता कम हो
जाती है. इससे पैसे की हैसियत पर भी असर पड़ता है. परन्तु ये सब शास्त्र व नीतियों
की बातें हैं, समाज में महंगाई उस स्थिति को कहते हैं जो अंत होने का नाम ही नहीं
ले रही, जितना कमाओ उतना खर्च, जितना जमा करो उतनी जरूरतें, उपभोगतावाद से आगे बढ़
गये हैं हमलोग. अब खरीदने की होड़ नहीं है, अब बेहतर खरीदने की होड़ लग गयी है.
खरीदो, पसंद नहीं बेच डालो, कुछ नया प्रयास करो. अर्थशास्त्र का एक सूत्र कहता है
कि बाज़ार अपना अंत स्वयं तय करता है, ऐसा ही हो रहा है. जिस तरह समाज पर बाज़ार तथा
बाज़ार पर पूंजीवाद हावी हुआ है, यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि
समाज अपने दरिद्रता को पीछे नहीं छोड़ रहा वरन उसे कब्र में छुपाने की कोशिश कर रहा
है जब तब यह मुंह खोले बाहर आ जाता है. समाज के तीन वर्ग हैं, एक जो अच्छे स्कूल
जाते हैं, एक जो खराब स्कूल जाते हैं तथा एक जो स्कूल ही नहीं जाते हैं. इसी तरह
समाज के तीन धरें हैं, एक जिसे सपने देखने की आवश्यकता नहीं, एक जो केवल स्वप्न
देख सकते हैं तथा एक वो जिन्हें स्वप्न देखने का अधिकार ही नहीं. स्वप्न पर कुछ इस
तरह बंटा हुआ हैं समाज मानो लगता है, समाज अपने ही क्रूरता पर हंस रहा है. नींद
तीनों ही को नसीब नहीं है, एक सो नहीं पाता कि काम इतना है, एक सो नहीं पाता कि
महिना कैसे चलेगा और एक सो नहीं पाता क्योंकि आधे पेट नींद नहीं आ रही है, चिंता
उसे भी है कि कल उसके परिवार के सभी सदस्य सूरज देखेंगे या नहीं. हर ओर चिंता है,
अनिद्रा है समाज सो नहीं पा रहा है, परन्तु जाग भी कहाँ रहा है?
अर्थशास्त्र की सुने तो समाज में जिस तरह जीजिविषा की क्षति हो रही है, उतने
ही तेजी से स्वप्न की मांग बढ़ रही है, इस मांग के बढ़ने से मनुष्य के स्वभाव का
मूल्य कम हो रहा है. स्वभाव के इस अभाव से मानवीय प्रवृत्ति में अंतर आता है, ये
समाज के लिए हानिकारक है. ऐसी स्थिति जब समाज में स्वप्न चरम पर होंगे तथा मानवीय
चेतना का नित्य हास होता रहेगा, इसे महंगाई कहते हैं. वास्तविक महंगाई. मानवीय
चेतना का मूल्य उसके बैंक में पड़े बचत से कई अधिक है, तीन हिस्सों के स्वपन को एक
होने के असंभव प्रयास के कारण समाज में उत्पन्न होने वाले दुबिधा को महंगाई कहते
हैं, माध्यम वर्ग के स्वप्न पूर्ती पर लगे ग्रहण को महंगाई कहते हैं, राजनेताओं के
भाषण में प्रयोग होने वाले सर्वमुखी वचन को महंगाई कहते हैं, उच्च वर्ग के होटल के
बहार खड़े भिखारी को भीख न दे पाने की स्थिति को महंगाई कहते हैं. फिर जो मेरे
सामने एक घर में चल रहा है ये क्या है?
शाम हो चली है बेटा खेल के आया है, बेटी कोचिंग से आई है, घर में टीवी चल रहा
है, कोई सीरियल आ रहा है, माँ सब्जी काट रही है, पिताजी का आगमन हुआ, बेटे ने देखा
मुस्कुरा के कमरे में चला गया, बेटी ने रिचार्ज के बारे में पूछा जैसे ही ना में
उत्तर मिला नाराज़ होकर अन्दर चली गयी. माँ-पापा दोनों एक दुसरे को देखते रहे, पापा
सोफे पर बैठे, पानी लाने को कहा, मोबाइल निकाला, साइलेंट पर किया और रिमोट उठा के
दूसरा चैनल लगाया, माँ की आवाज़ आई पैसे देना है केबल का, पिताजी ने टीवी बंद कर
दिया, शायद इसे ही महंगाई कहते हैं.
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