शनिवार, 3 मई 2014

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परिवर्तन के परे

मेरे भूख का मतलब क्या है?

                                              -    अंकित झा

फिर से एक कच्चा घर होगा, घर में एक औरत होगी, जो शायद माँ होगी, खाली बर्तनों की ओर निहार रही होगी, मजबूर बाप आएगा, कांपता हुआ, कि आज फिर कुछ नहीं कमा के ला पाया, एक बेटी होगी जो भूखी होगी परन्तु पिता को हौसला देगी, एक छोटा बेटा होगा जो भूख से तड़प कर रो रहा होगा, उससे छोटा एक और बेटा होगा जिसे भूख का अर्थ नहीं पता, वो माँ के दूध पर जिंदा है, माँ का तो कलेजा सूख चूका है, माँ उसे कैसे बताये कि भूख का मतलब क्या होता है, और न ही वो बच्चा पूछ पाता है कि मेरे भूख का मतलब क्या है?

‘गर उजड़ना है तुम्हें तो क्यों न देशहित में ही उजड़ो’ याद है किसके किसके अनमोल वचन हैं ये? देश के प्रथम प्रधानमंत्री के, हीराकुड बाँध बंधने जा रहा था, सभी ओर नाराज़गी, हम अपनी ज़मीन खाली क्यों करें? वो भी इस मानवीय विध्वंश के लिए, उड़ीसा में पहले क्या कम भूखमरी है, जो ये दीवार और बांधा जा रहा है, नदी और हमारे बीच. किसकी कौन सुनता है, बंध गया, महानदी की महाशोभा. पश्चिमी ओडिशा उजाड़ दिया गया, 60 मी के इस भौकाल के लिए. 22000 परिवार विस्थापित हुए, कहने को करोड़ों बांटे गये, क्षतिपूर्ति के रूप में, वास्तविकता ये थी कि मिला भी तो सिर्फ 33 मिलियन, वो भी पूर्ण सत्य नहीं है.
इस देश में मानवीय दंगल के फेरें सभी ने लगाये कहाँ हैं, लम्बी फेहरिश्त है; टेहरी बाँध बड़ा उदाहरण है, फिर वेदांता का बंगाल प्लांट, सरदार सरोवर की अठखेलियाँ और पूर्णतः विफल रहा टाटा नैनो का मिशन बंगाल. विस्थापन एक ज़ख्म है, मनुष्य के अस्तित्व पर, मनुष्य के स्वभाव पर, उसके स्वपनों पर, उसके अपनों पर, सहचरी पर, उसके विरासतों पर. सरकार के लिए वो साईट है, ज़मीन का टुकड़ा है, लोगों के लिए वो पिता के पहली कमाई से खरीदी गयी ज़मीन है, बंजर हो जाती है, तो क्या हुआ, पसीना देकर सींचेंगे, एक दिन तो फसल उगेगी ही. सरकार क्षतिपूर्ति ज़मीन का देगी, पिता के ख्वाबों का नहीं, उसकी क्षतिपूर्ति कौन करेगा? मानवीय स्वाभाव कहता है, जो वस्तु हम लौटा नहीं सकते वो कभी छीनना भी नहीं चाहिए. फिर सपनों पर कब्ज़ा करने का हक किसने दिया है, किसी को. परन्तु क्या करें सरकारें गरीब के सपनों से नहीं, रईसों के नोटों से चलता है, कुछ गलत कह दिया मैंने क्या? उस थाली की फ़िक्र किसे है, जिसमे तीन रातों से रोटी नहीं गिरी है, बस मक्खी कभी कभी आकर बैठती है और जल्दी से उड़ भी जाती है क्योंकि कुछ है ही नहीं उसमे, अब तो गंध भी नहीं बचा है. फ़िक्र तो शेयर बाज़ार के लुढ़कने का है, क्योंकि एक का दो होने को जो रखा गया है पैसा उसमें. गरीब के घर के बहार पल रहे बैल की चिंता किसी को नहीं, दलाल पथ पर खड़े उस पत्थर के बैल की सभी चिंता किये जा रहे हैं. घंटो बहस होते हैं, निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता. बस एक बात सामने आती है कि गरीबी नियंत्रण आवश्यक है. यह कैसा आर्थिक विकास हो रहा है? उन आँखों की फ़िक्र किसे हैं, जिससे आंसू रुकने का नाम नहीं लेती क्योंकि उसके 3 साल के बेटे ने सुबह से कुछ नहीं खाया और पति पैर तुड़वाकर फूटपाथ के किनारे लेटा है, इस इंतज़ार में कि किसी का ज़मीर जागे और सिक्का फेंक दे उसकी तरफ, बेटी तो हनुमान और देवी बनकर सुबह से मोटरों के सामने जा के करतब दिखा के मांग रही है, कुछ ख़ास मिला नहीं है अब तक. मांग में भी तो दम होनी चाहिए, फिर कुछ दरियादिलों के दिल के ज़ख्म कुरेदे जायेंगे और करुणा में आँख बंद कर लेंगे और सोंचने लगेंगे ऐसी दुर्दशा क्यों है इस देश की. इन नज़रों की ओस कब मिटेगी, इनके बदन पर लगी मिट्टी कब साफ़ की जाएगी, कब तक आंसू पीकर ही प्यास बुझेगी, कब तक ये छोटे छोटे मासूम सड़कों पर करतब दिखाएँगे, मजबूरी कब तक इनको बचपन से दूर रखेगी, कब तक ये छोटे हाथ अपनी माँ के आंसू पोंछते रहेंगे, कब तक भाग्य इनके जिस्म पर मेहरबान रहेगा, साथ कब तक बना रहेगा मुक़द्दर का इनके सर पर, विकास के आधार फ्लाईओवर के नीचे पलती ये जिंदगियां वापस कब बसेंगी? क्या कोई उत्तर है किसी के पास? गरीबी मापी नहीं जाती, यह महसूस की जाती है, कोई समिति गरीबी का मूल्यांकन नहीं कर सकती, भला वातानुकूलित कमरों में बैठकर ये सरकार के बंधुआ मजदूर देश की ग़रीबी का मूल्यांकन करेंगे, कि 30 रु. कमाने और खर्च करने वाला ग़रीब है या 100 रु. कमाने वाला. ग़रीब कौन है? हर वो इंसान ग़रीब है, जिसके माँ बाप वृद्धाश्रम में पलते हैं या वृन्दावन, द्वारका और पुरी में भिक्षा की आस रखते हैं, रिक्शों पर रात बिताने वाला ग़रीब है, जिनके कान पर इनके प्रति करुणा की जूं नहीं रेंगती वो इंसान ग़रीब है. बड़े बड़े बिल्डिंग में दो दरवाजे और, उन दरवाजों में 4 कुण्डियाँ लगा कर सोने वाले देश के लोगों को उनकी कभी फ़िक्र होती है कि लोग फूटपाथ पर कैसे सो लेते हैं, क्या उन्हें कोई डर नहीं होता? ‘क्या उन्हें कोई डर नहीं होता, जिनका अपना कोई घर नहीं होता?’ शब्द की नहीं भावना की गहराई को मापिये, चकाचौंध में आँखें चिल्मिला जाया करती हैं, सत्य विलीन हो जाता है, चौंधियाए आँखों से बस आंकडें ही दिखते हैं. इन बद्किस्मतों की किस्मत हमारे हाथों में हैं, हाँ, बद्किस्मतों के भी किस्मत हुआ करते हैं, तभी तो भूखे ही पर ये आँखें हंस दिया करती है बचपन की अठखेलियों में और कुछ फोटो खींच लिए जाते हैं, जिंदादिली दिखाने के लिए. इन्हें पता है भूख क्या होती है, परन्तु ये नहीं पता कि इनके भूख का मतलब क्या होता है? शून्य प्रभाव. कुछ करुणा, मात्र. असहाय धर्म के अधिकारीयों के लिए, अल्लाह के बन्दे कहने भर का समय, और नम आँखों से उन्हें बिदाई देने की तैयारी. बचपन को, ग़रीबी को, भूख को, मजबूरी को, इनके बेजान मुक़द्दर को, सड़क पर गाड़ी के सामने करतब दिखाती उस मासूम के बचपन को, मुंबई के लोकल ट्रेन में पुलिस के आने पर खिड़की से कूदकर भागते मासूम की ज़िन्दगी को, सब को अलविदा कहने का समय हो रहा है. सुना है, गरीबी पर कोई प्रोग्राम आने वाला है, देखते हैं आज कौन सी नई ग़रीबी देखने को मिलता है. शायद फिर से एक कच्चा घर होगा, घर में एक औरत होगी, जो शायद माँ होगी, खाली बर्तनों की ओर निहार रही होगी, मजबूर बाप आएगा, कांपता हुआ, कि आज फिर कुछ नहीं कमा के ला पाया, एक बेटी होगी जो भूखी होगी परन्तु पिता को हौसला देगी, एक छोटा बेटा होगा जो भूख से तड़प कर रो रहा होगा, उससे छोटा एक और बेटा होगा जिसे भूख का अर्थ नहीं पता, वो माँ के दूध पर जिंदा है, माँ का तो कलेजा सूख चूका है, माँ उसे कैसे बताये कि भूख का मतलब क्या होता है, और न ही वो बच्चा पूछ पाता है कि मेरे भूख का मतलब क्या है?    


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