फिल्म समीक्षा
मानवीय विकारों का दर्पण है
मस्तराम
- अंकित झा
साहित्य का नित्य हास हो रहा है आज के उपन्यासों से. और समाजिक गंद को सभी अपना हमदर्द बनाये बैठे हैं क्योंकि ये उनके विकारों को बल प्रदान करता है. मसाला मिलाने की जिद्द इस कदर जोर पकडती है, साहित्य में रूचि रखने वाला राजाराम अपने कृतियों में मसाला मिलाने को आतुर हो जाता है.
एक लेखक, नवविवाहित. साहित्य में स्थान बनाने का
स्वप्न और साथ अपने अर्धांगिनी का. हिमाचल के एक छोटे से शहर में संघर्ष. एक
दोस्त, कुछ हमदर्द और कुछ हमराही. यही ज़िन्दगी है राजाराम की. राजाराम के मस्तराम
बनने की कथा रोचक है परन्तु उतनी ही विवादास्पद. साहित्य क्या है, समाज में होने
वाली गतिविधियों का दर्पण. जो कुछ भी हो रहा है साहित्य का हिस्सा है, मानवीय
संघर्ष से लेकर स्वप्न तक सभी कुछ. इसी बीच पलता है, मानवीय विकार. ये विकार हैं
स्वभाव तथा उसके प्रभाव का. मानवीय चेतना के गर्त में उसकी कामेच्छा बस्ती है, रह
रह कर ये मनाविय स्वाभाव पर हावी होता है, समाज ने इसे हवस का नाम दिया है, और
फिल्म में इसे मसाला कह कर संबोधित करते हैं. जब भी कभी राजाराम अपने शुद्ध
साहित्यिक कृतियों को छपवाने की जतन करता है, नाकामयाबी प्राप्त होती है. कोई उसे
एग्जाम गाइड लिखने की सलाह देता है तो कोई चाचा चौधरी टाइप कॉमिक्स. उसके साहित्य
का निरादर फिल्म का एक अहम् हिस्सा है, और हमारे समाज की विडंबना भी. साहित्य का
नित्य हास हो रहा है आज के उपन्यासों से. और समाजिक गंद को सभी अपना हमदर्द बनाये
बैठे हैं क्योंकि ये उनके विकारों को बल प्रदान करता है. मसाला मिलाने की जिद्द इस
कदर जोर पकडती है, साहित्य में रूचि रखने वाला राजाराम अपने कृतियों में मसाला
मिलाने को आतुर हो जाता है.
A poster of Mastram 2014 |
फिर जन्म लेती है, भारतीय साहित्य इतिहास का वो
पन्ना जिसपर सिर्फ जनता का हाथ था, प्रेमचंद और प्रसाद को पढने वाली जनता अब बुक
स्टाल पर कुछ और खरीदने जाया करती थी, नाम था मस्तराम. समाज के गतिविधियों का ही
वर्णन परन्तु, ये उन रिश्तों की गाथा थी जिसे समाज लुकेछुपे निभाती है. नर्स,
बनिया, दोस्त, पत्नी, पड़ोसन, कोई उसके ख्याली गंद से बच नहीं पाते हैं. वो हर
रिश्ते में अब कहानी ढूंढता है. पहले कुछ और था, रिश्तों पर कहानी हावी होने लगा. समाज
तो जैसे मुंह फाड़े खडा था ऐसा कुछ पढने को, हॉस्टल के छात्रों से लेकर दफ्तर में काम
करने वाले युवा या मंदिर की ओट में बैठे बूढ़े सभी हाथ में मस्तराम की भक्ति में
लीन रहने लगे. सामाजिक मसाला इस तरह स्वादिष्ट लगने लगा कि समाज की सिसकियाँ
अंगराई लेने लगी. यह कोई नई कथा नहीं है ये आज के समाज का परिदृश्य है, सामाजिक
हवस का प्रतिबिम्ब है. वो सत्य है जिसे मनुष्य कबूल नहीं करना चाहता है, जिसे वो
सिर्फ अंजाम देना चाहता है. फिल्म अपने हिसाब से काफी लचर है, कुछ दृश्य अच्छे हैं
परन्तु राजाराम के चरित्र को मजबूती नहीं दी गयी, इसीलिए जब सभी रिश्ते उसे ठुकरा
देते हैं तब भी हमारी सहानुभूति उसके साथ नहीं जुड़ पाती. पत्नी के साथ भी कुछ ऐसा
ही है, पात्रों को बाँध के रखा गया है, लेखन में भी कमियाँ है. परन्तु यह फिल्म एक
उदहारण है कि समाज अभी बहुत कुछ देखने को तैयार है. मस्तराम कतई प्रफुल्लित नहीं
करती, कुछ सीटियाँ लूटती है परन्तु प्रभावहीन. संवाद काफी अच्छे हैं, परन्तु
चरित्रों का असरहीन अभिनय संवाद को दबा देते हैं. अखिलेश जैसवाल इससे पहले गैंग्स
ऑफ़ वास्सेय्पुर लिख चुके थे, उम्मीदें कुछ ज्यादा थी, निराश होना पडा. फिल्म एक भी
ऐसा कारण नहीं देती जिस हेतु इस फिल्म को देखा जाए, हां किस तरह सेक्स कहानियों को
रेडियो फीचर की तरह सुना जाए ये दिखाती है. सुनना हो तो जा सकते हैं. अथवा न जाना
ही बेहतर. यह फिल्म मानवीय विकारों को उस दृश्य में दर्शाती है जब राजाराम का
दोस्त जो कुछ क्षण पहले उसे ऐसी कहानी लिखने के लिए कोसता है, मस्तराम खरीदते
दिखता है. ये सोंच पर एक स्पर्श मात्र है, जोर नहीं. कुछ और चाहिए जोर डालने के
लिए. हम अपने हवस का इलज़ाम किसी और के सर नहीं डाल सकते हैं, कैसे डाल दें. अपने
ज़मीर को क्या जवाब दे पाएंगे? क्या पढ़ के आये हैं, क्या देख के आये हैं, क्या करने
की इच्छा है? कुछ भी व्यक्त नहीं कर सकते. इसे ही खामोशी कहते हैं और ख़ामोशी को
गंद का नाम और कहें तो मसाला का नाम देती है मस्तराम.
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