विवेक और विश्वास के मध्य छिपा चिंतन
- अंकित झा
उस राह पर चलते रहे जिस पर राहगीर न मिलें,
शायर तो कई मिले पर
कबीर न मिलें..
मुझे ज्ञात नहीं कि भारतीय समाज की उदासीनता कब समाप्त होगी? यह
उदासीनता विवेक के विवेचना बन जाने का है तथा यह विश्वसनीयता की सबसे बड़ी विडंबना
है. अक्सर इस देश के विवेकशील व्यक्तित्व के प्राणी समाज में तर्क-वितर्क के खेल
को कुतर्क में बदल देते हैं तथा यह समाज के लिए उदासीनता का एक बड़ा कारण बनती है.
विवेक का अर्थ क्या है? विचार-विचारधारा-विश्वास तथा विद्रोह का समागम, विद्रोह
समाज में नयी लौ के आरोहन के विरुद्ध. हां, यही कुछ चले आ रहे परम्परावादी घटकों
के ऐसे आदि हो चुके हैं कि कब समाज दो धारों में बंट जाता है किसी को पता ही नहीं
चलता. महाभारत में पांडवों के विजय को धर्म का पराजय मानने वाले भी बहुत हैं तथा
विजय मानने वाले भी, यह निर्भर करता है, विवेक पर, जो हर नयी प्रत्युषा को अपनी
पाली बदलता है, हर चाय की चुस्की पर नए तर्क को जन्म देता है, तथा कभी वीभत्स
योजनायें बनाता है तो कभी विचारशील चिंतन को जन्म देता है.
कहते हैं समाज व इसकी राजनीती व्यवहार से चलती है, ये व्यवहार कुछ और
नहीं बल्कि मनुष्य का मनुष्य पर विश्वास है, मनुष्य का मनुष्यता पर विश्वास है. दिल्ली
में परिवर्तन अपने वत्सिमा से उठकर आगे की ओर बढ़ने जा रहा है, गोयाकि यह निर्णय
पूर्ण रूप से जनता के द्वारा पारदर्शिता से लिया गया. फिर भी आम आदमी पार्टी का
दिल्ली में विजयघोष कसी समाज के व्यावहारिक हार की साक्षी बनी सभी ने देखा. एक नयी
धरा को कैसे शातिर राजनीतिक प्रपंचों में घेर कर इसकी साँसें निकलने की कोशिश की
जा रही है, सभी देख रहे हैं, कुछ पन्नो के पन्ने खर्च किये जा रहे हैं तो कुछ मौन
हैं. मौन रहने वाले ये वही विवेकशील व्यक्ति हैं जो अपने आप को सर्श्रेष्ठ ज्ञाता
समझते हैं, इनकी नज़र में देश के सूत्रधार बनने की अद्भुत क्षमता जो इनमे है वो
किसी और में नहीं. राजनीतिक समझ जो इनको है वो तो कौटिल्य की भी न थी और न ही
वृहस्पति की है. क्या होगा ऐसे समाज का
जहां विरोध विवेक का आश्रय है तथा, विश्वास एक नाज़ुक सी डोर जिस पर उम्मीदें लचक
रही हैं, ज्ञात नहीं कब छिटक जाये. भारत में वोट किसके नम्म पर पड़ते हैं व्यक्ति,
विवेक या विश्वास? कोई निश्चित उत्तर नहीं है इसका. परन्तु विवेक के नाम पर तो
नहीं, एंटी-एस्टाब्लिश्मेंट की बात करने वाले विवेकशील व्यक्ति कभी
एस्टाब्लिश्मेंट की खामियों पर नज़र क्यों नहीं दौड़ाते? हमारा देश दो खेलों में सदा
से पारंगत रहा है; खो-खो व कबड्डी, एक खेल में जहां अपनी ज़िम्मेदारी दुसरे पर
धकेलना पड़ता है वही दुसरे में सामने वाले की टांग खींचना है. इस काम में भरतीय
सबसे आगे है, किसी की प्रगति को गले उतारना हमारे खीर की शक्कर नहीं, तथा स्वयं
ज़िम्मेदारी उठाना भी. ये वही लोग हैं जो अंग्रेजियत को अंग्रेजी में ही गलियाते
हैं, तथा सबवे में बैठकर भारत का अमेरिका के गुलाम होने की बात करते हैं. करबद्ध
निवेदन है, जनेऊ पहनकर कर इन हड्डी चूसने वाले विद्वानों से कि विवेक की सार्थकता
को कायम रखना है तो विश्वास की नीति का सहारा लेना ही उचित है, जहाँ अहंकार हो
जाता है वहाँ धर्म नही बस सकता और जहां धर्म के लिए जगह नही वहाँ प्रगति के असार
नहीं होते.
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