शनिवार, 28 दिसंबर 2013

Analysis

इंसानियत और हवस के मध्य चिंघारता इंसाफ  
                                                                                            - अंकित झा 

यह कुछ नया सा प्रयास है, साल के कलंको और कबिलियतों को नए ढंग से याद करने का। काफी कुछ घटा है साल, कुछ बातें भुला दी गयी, कुछ भुलाये नहीं भूलती। कहीं कुम्भ की भक्तिमय साँझ की आरतियाँ गूंजती रही तो, कुम्भ में फैली भगदड़ में हुई मौतों पर आँखें भी नम हो आयीं और रूह भी कांप गया, अफ़ज़ल गुरु को फांसी, हैदराबाद में बम धमाके, दामिनी को गुजरे कुछ महीने ही हुए थे, और एक 5 साल की नयी दामिनी सामने आयी, गुड़िया नाम दिया गया, वही आक्रोश और जनक्रांति। फिर सुदीप्त सेन की ऐतिहासिक धांधली, शारदा चिटफंड का पर्दाफ़ाश, उत्तराखंड में आया महाप्रलय, सचिन तेंदुलकर का संन्यास, प्राण का निधन,  आसाराम की गिरफ़्तारी, ऐतिहासिक फैसले, आप क्रांति की सफलता और न जाने कितने ही ऐतिहासिक और दुखदायी क्षण। 2013, उठापटक से भरा साल रहा,परन्तु एक घटना जिसने मानवता को अंदर तक झकझोर के रख दिया वो था, मासूम गुड़िया के साथ किया गया दुष्कर्म। पृष्ठभूमि पर जाना नही चाहता, फिर भावनाएं उफान पे आ जाएंगी, शांत ही बैठना चाहता हु, परन्तु चुप नहीं।   नीचे लिखे पंक्तियों को पढ़ें- 

तो उसने भर कर आंखों में आंसू का मोती कहा
तेरी अच्छी किस्मत है जो तू जनम नहीं लेती
जनम लेकर भी आखिर तू किया करेगी
इस दुनिया में औरत का कोई सामान नहीं 
(Save the girl CHILD)

गुड़िया के साथ किया गया ये दुष्कर्म, साल के वीभत्सतम घटनाओं में से एक रही, इस पर क्षोभ से लेकर, दुःख, आक्रोश और सजा की मांग मुझे दो फिल्मों की याद दिलाती है, पहली है महेश मांजरेकर निर्देशित संजय दत्त व नंदिता दस अभिनीत साल २००२ की 'पिता'। तथा दूसरी है, 2004 में आयी मेहुल कुमार निर्देशित 'जागो'। दोनों ही फिल्में नाबालिग के साथ दुष्कर्म जिसे अंग्रेजी में ( Child Sexual Abuse)  कहते हैं। इस अति संवेदनशील मुद्दे पर मुख्यधारा की ये दो अच्छी फिल्में मेरी ज़ेहन में सुरक्षित हैं। हालाँकि दोनों ही फिल्में कमाई  में असफल रहो परन्तु इन्साफ के लिए किये गए संघर्ष की ये दोनों ही फिल्में एक अद्भुत उदहारण के रूप में पेश की जा सकती हैं। 
पिता: एक्शन फिल्मों के दो जाने पहचाने चेहरे संजय दत्त व महेश मांजरेकर, इससे पूर्व वास्तव जैसी फ़िल्म दे चुके थे, वास्तव कई मामलो में उत्तम फ़िल्म थी। तथा संजय दत्त ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी इसी फ़िल्म में दिया है, परन्तु जब मुख्यधारा के दो चेहरे कला साम्राज्ञी नंदिता दास के साथ एक शांत व उत्तेजक सिनेमा के लिए साथ आये तो उसका नतीजा रहा, एक विलक्षण सिनेमा। जिसका नाम है, पिता। हालांकि ये श्याम बेनेगल व सुधीर मिश्रा नुमा सराहनीय प्रयास नही था, परन्तु एक अच्छी फ़िल्म थी। फ़िल्म का पहला घण्टा इतने नाटकीय रूप से गढ़ा गया है कि फिल के किरदार दो भागो में बटते हैं, अच्छे और ज़ालिम। कहानी एक गांव की जहाँ पर ठाकुर अवध नारायण सिंह की हुकूमत है, उसके दो बेटे हैं और एक बेटी है, वहीँ दूसरी ओर उसके सबसे वफादार नौकर,रूद्र का परिवार है, उसकी पत्नी पारो, दो जुड़वाँ बेटे और एक ९ साल की बेटी, दुर्गा। कहानी में मोड़ तब आता है, जब रूद्र को पता चलता है कि उसकी मासूम बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ है, और ये जघन्य दुस्साहस किसी और ने नहीं बल्कि ठाकुर के दोनों बिगड़ैल बेटों ने किया है, फिर शुरू होता है दो पिता का अद्भुत संघर्ष। इन्साफ और साख की अनोखी लड़ाई। एक तरफ पैसे और पॉवर है तो दूसरी ओर सत्य और इन्साफ का जूनून। अंततः सत्य की विजय होती है, परन्तु बहुत कुछ खोने के बाद। 
फ़िल्म में रूद्र के किरदार में संजय दत्त है, उन्होंने इससे पहले ऐसा चरित्र कभी नही निभाया, और ऐसा अभिनय भी कभी नहीं किया, ये उनके करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था, पहली बार किसी फ़िल्म में उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से झोंक दिया, दूसरी ओर नंदिता दास हमेशा की तरह  ख़ामोशी से बहुत कुछ बोलने का प्रयास करती हैं, और हर दृश्य में बेहतरीन अभिनय का मुजायरा, ठाकुर के किरदार में ओम पूरी जान डालते हैं, परन्तु कई बार वो अति आत्मविश्वास का शिकार होते हैं, परन्तु वो एक विलक्षण अभिनता हैं,  किरदार में जॅकी श्रॉफ संतुष्ट करते हैं। संगीत बहुत कमजोर है, पार्श्व संगीत और कला निर्देशन फ़िल्म की जान है। 
परन्तु ये एक अच्छी फ़िल्म थी, इसलिए नहीं क्योंकि ये ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित थी, और एक अहम् मुद्दा उठती है बल्कि इसलिए क्योकि तेज के द्वारा लिखित इस कहानी में सामंती व्यवस्था पर कटाक्ष है तथा साम्य वाद की एक झलक है, एक पिटा का दुसरे पिता से संघर्ष है, एक बचपन के लूटने की व्यथा है, एक माँ के दो बेटों को बचने की दारुण कथा है, एक माँ के आत्मा के दागदार होने की कथा है, एक ठाकुर के साख व इन्साफ के अग्निपरीक्षा की कथा है, और एक नाबालिग के अस्मिता लूटने के दुस्साहस की कथा है। मनुष्य के उत्तम से न हटने की ज़िद्द का आह्वान करने वाली ये फ़िल्म भारत के 100 वर्षों के सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में कटाई स्थान नहीं बनाता परन्तु मानवीय करुणा के गलियारों में ये शीर्ष मुकुट का हक़दार है

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

Articlesss

गर्मी की लपट में ठिठुरती ज़िंदगियाँ 
                                                                    - अंकित झा 

"दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा  चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं,  हक़ बाँटने वाले बहुत कम। समस्या बाँटने वाले बहुत होतेहैं, परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले।"

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
                                                   - रामनाथ सिंह “अदम” गोंडवी
कुछ आवश्यक सा लगा इन पंक्तियों को लिखना, काफी विचारोत्तेजक पंक्तियाँ हैं, अंदर तक झकझोरने वाली। आज कल के हालत भी तो ऐसे ही हैं, 4 महीनो से अधिक हो चुके हैं, उस काले अध्याय को गुजरे, कई गिरफ्तारियां, कई केस और सजाएं परन्तु दर्द तो कम नही हुआ, एक अज़ीब से ज़िद्द से जन्मी वो झंझट आज एक विकराल से दर्द में तब्दील हो चुका है। ये दर्द है अपने ज़मीन से बिछरने का, ये दर्द है अपनों से बिछरने का, ये दर्द है राजनीतिक मोहरा बन जाने के डर का, ये दर्द है अपनों के खोने का, ये दर्द है निरंतर एकाकी में ज़िन्दगी बिताने का। चहुँ ओर दर्द ही दर्द। उनका भी जिनके अपने मारे गए, उनका भी जो मारे गए, उनका भी जिन्होंने मारा। जिन्होंने मरने दिया उनका कोई दर्द नहीं, बस डर है साख जाने का। सब समझ गए कि बात कहाँ की चल रही है, नाम ही ऐसा है, दर्द ही ऐसा है, मुज़फ्फरनगर। अगस्त महीने का वो आखिरी सप्ताह, सावन की फुहार के बाद उमसा सा वातावरण, ये उमस ये उदासीनता एक अनहोनी की सौगात थी, वो अनहोनी जो मुज़फ्फरनगर के कवाल गांव में घटने वाली थी। प्रकृति को सब पता है, कारण स्पष्ट न हो सका; ये रोड एक्सीडेंट से शुरू हुए नोकझोंक का परिणाम था या तथाकथित ज़िहाद लव का, कि एक मुस्लिम लड़के (शाहनवाज क़ुरैशी) ने पडोसी गांव की जाट लड़की से छेड़छाड़ की, जिसके बदले में, लड़की के भाइयों(सचिन व गौरव) ने शाहनवाज को जान से मार दिया और इसके विरोध में गांव के चौराहे पर एक संप्रदाय विशेष के लोगों ने दोनों भाइयों को समाप्त कर दिया? इस घटना ने तूल पकड़ी और बढ़ती राजनीतिक हस्तक्षेप के पश्चात महासमर में परिवर्तित हो गया। वो महासमर जिसने 43 ज़िंदगियों को अपने ग्रास में ले लिया। कारण सिर्फ एक, मतभेद, क्रोध, प्रतिशोध। जो नाम दे उस दीवानगी को, निर्भर करता है। 
वो एक जूनून था जो गुजर गया, पर अपने निशान छोड़ गया। दंगे के बड़े दुष्प्रभाव होते हैं, सबसे बड़ा तो ये कि छीने जा चुके हक़ को लूटने वाले बहुत होते हैं, हक़ बाँटने वाले बहुत कम समस्या बाँटने वाले बहुत होते हैं,परन्तु सुलझाने वाला कोई नहीं। कोई भी सांप्रदायिक तनाव नया इतिहास लिखती है, इस इतिहास के पन्ने या तो सुर्ख होते हैं या फिर काले। इस दंगे के भी यही कुछ परिणाम होते गए। धीरे-धीरे जान बचा के सभी लोग गांव छोड़ने पर मजबूर हो गये, विस्थापन का दंश मानव इतिहास के सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है, विस्थापन और एक दंगे के बाद अपनों से अलग होना, अपनों की सुरक्षा के लिए, उसका दर्द कौन बयां कर सकता है? आंकड़ों की माने तो 9000 परिवारों के 50,000 लोगों ने कैंप में शरण लिया। मुज़फ्फरनगर व शामली ज़िलों को मिला के कुछ ४० कैंप लगाये गए थे। हालत सुधरने के बाद कुछ लोगों ने लौटना चाहा परन्तु, फिर से छोटी मोटी हिंसा इलाके को दहलता रहा, जिससे ख़ौफ़ बढ़ता ही गया, और अब वो समय आ गया है, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ठण्ड अपने चरम पर है, तथा राजनीतिक विवशताएं ऐसी कि न लौटने को कह सकते हैं न रुकने को। अब तक कोई 34 बच्चे ठण्ड से अपना दम तोड़ चुके हैं, इन कैम्पों में। सुध लेने वाला कोई नहीं, लकड़ी और दवाइयां पहुँच रही हैं पर पर्याप्त नहीं। गोद खुद कांप रहे है, वो ठण्ड से कैसे बचाये? कौन क्या करेगा और क्या कर लेगा? कुदरत को तुमने चुनौती दी तो कुदरत तुम्हारी आजमाइश क्यों न करे? ऊपर से अकर्मण्य प्रशासन, हालत काबू करने के बजाए गंद बयानों से मुद्दा भटकाने की भद्दी कोशिश। कोई कहे कि कैम्प में अब कोई पीड़ित नहीं, विपक्षी पार्टियों के लोग छुपे बैठे हैं। कोई कुछ तो कोई कुछ। रोटियां सेंकने वालों की भी कमी नही है। सब बारी-बारी पहुँच रहे हैं, मदद ले कर नहीं, आश्वासन लेकर। उन्हें आश्वासन दे कर क्या कर लेंगे? क्या शाज़िया को उसका बेटा लौटा देंगे आप नेताजी जिसकी पिछले दिनों ठिठुरते हुए मौत हो गयी या फिर इरफ़ान की बूढी खाला को लौटा देंगे, जो गांव से कैंप के रस्ते में ज़िंदगी से हार गयी। या फिर रमेश के दोस्त शाहिद को वापस ले आएंगे जिसे वो आज भी स्कूल जाते समय अनजाने ही बुलाने चला जाता है, तौफ़ीक़ का वो मासूम बचपन जो आज भी यही प्रार्थना गाता है, "ये अँधेरा घना छा रहा, तेरा इंसान घबरा रहा, हो रहा बेसबर कुछ न आता नज़र। सच का सूरज छिपा जा रहा
अब तो हे प्रभु तुमसे ही ये गुहार है कि है तेरी रौशनी में वो दम जो अमावस को कर दे पूनम। इंसान आखिर कब इंसान से लड़ना बंद करेगा? ये समर कब समाप्त होगा, जिससे सिर्फ नबफरत और दर्द ही उपजते हैं। कैसे कोई ये कह गुजरता है कि कूड़ेदान में 10 वोट आ गिरे हैं, उसे लूटने की तैयारी चल रही है। 
कब तक गर्मी की लपट में तबाह हुआ जीवन ठण्ड में ठिठुरता रहेगा? कब तक ठण्ड में भी राजनीती माहौल को गर्म बनाये रख्रगी? कब तक? कब तक? जवाब का इंतज़ार रहेगा 

रविवार, 22 दिसंबर 2013

Movie Review

धूम 3 :प्रतिघात के महाकाव्य से परे
                                                                          - अंकित झा 

आमिर खान की फ़िल्म और उसका रोमांच। पता है कि कुछ तो अच्छा होगा पिक्चर में बस दिल कहता है कि सब ठीक ही हो। आखिर मिस्टर परफेक्शनिस्ट जो हैं आमिर। उम्मीदें रहती हैं उनसे, और हम जैसे उनके फेन को तो कुछ ज्यादा ही। और नए नए जन्मे ये  जो हर दूसरी भारतीय सिनेमा के दृश्यों को उनकी किसी फ़िल्म कि चोरी का कहतें हैं।  और जब ऐसी धूम धड़ाका वाली एक्शन फ़िल्म हो तो फिर क्या कहने। आमिर के नाम के साथ। आशाएं, आकांक्षाएं व अद्वितीय चीज़े स्वतः ही जुड़ जाती हैं। २० को उनकी ये फ़िल्म आयी, आयी तो फिर देखना है ही, कोई देखे उससे पहले, मतलब फर्स्ट डे- फर्स्ट शो। फिर क्या था एडवांस बुकिंग कि होड़। टिकट मिलने का मतलब ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली ख़ुशी। पिछले 10  वर्षों में सिर्फ 8 फिल्में और एक सामाजिक रियलिटी शो, इतनी बार ही आमिर खान ने काम किया है. 7 साल के लम्बे इंतज़ार के बाद यशराज बैनर की अतिमहत्वकांछी सीरीज धूम 3 आ ही गयी. साथ ही आमिर खान भी एक साल बाद परदे पर लौटें। यह आश्चर्य कि बात थी कि इतनी बड़ी फ़िल्म की जिम्मेदारी आदित्य चोपड़ा ने 'टशन' जैसी फ़िल्म बनाने वाले विजय कृष्ण आचार्य के हाथों में दी गयी। यह उनकी बतौर निर्देशक दूसरी फ़िल्म थी। ट्रेलर को देख के लगा मनो क्या होगा इस बार अलग, वही गाड़ियां तो दौड़ रही हैं, वही अभिषेक बच्चन पकड़ेगा। अंत में हार जायेगा। संगीत सुना, पिछले बार के मुक़ाबले, अधिक कर्णप्रिय। मलंग और बन्दे हैं हैम उसके तो दिल में बस गया है, धूम मचाले पुराना वाला अच्छा था, कमली कमली कुछ क्रेजी किया रे जैसा ही है। पर अच्छा है, एक और गीत है, तू ही जूनून; मोहित चौहान ने गाया है। इस गायक से तो दिन व दिन उम्मीद बढ़ती ही जा रही है। पहले पड़ाव में तो पास हो गयी मेरे लिए। संगीत पक्ष अच्छा रहा, साल के ४ महतवपूर्ण या कहें 4 बड़ी फ़िल्म का संगीत इतना अच्छा नहीं था; कृष3, चेन्नई एक्सप्रेस, बेशरम का संगीत बेजान था। 
फ़िल्म देखने पहुचे, बड़ी भीड़, जैसा कि उम्मीद था। फ़िल्म शुरू हुई, चौथे मिनट पे जॅकी श्रॉफ का वो दमदार संवाद और संदेशात्मक आवाज। मजा। और उसके बाद फ़िल्म पूर्णतः आमिर खान को समर्पित। पिछली बार की तरह इस बार भी क्रेडिट डांस के साथ ही होता है, आमिर की मेहनत  साफ़ नज़र आती  है, उनका थिरकना युवाओं को भी थिरकने पर विवश करता है, उत्तम। कोई ये न कहे कि आमिर ज्यादा अच्छे नाचे या ऋतिक? कोई मुक़ाबला नहीं। दोनों का दौर अलग है, और दरकार भी। धीरे धीरे फ़िल्म इतनी तेज़ी से आगे बढ़ती है कि उदय चोपड़ा के असहनीय संवाद भी तुरंत नेपथ्य में चले जाते हैं। एंट्री सीन काफी लम्बे हैं, छोटे हो सकते थे। पहला हाफ काफी चुस्त है, और उतनी ही तेज़ी से ये आगे बढ़ता है, पीछे क्या हुआ इसकी परवाह किये बिना। सभी एक्शन सीन शानदार तरीके से फिल्माए गए हैं, उतनी ही सुंदरता से शिकागो को फ्रेम में उतारा गया है, हां great Gatsby जितना सुंदर नहीं, पर उससे कम भी नहीं। कुछ स्टंट सांसे रोक देने वाली है, उनको आमिर खान सहजता से निभाते हैं।
कहानी अच्छी है, पर बहुत छोटी। आमिर का प्रभुत्व यहाँ साफ़ दिखता है, जब फ़िल्म की हीरोइन को महज चंद गानों में थिरकने के लिए रखा गया हो। अभिषेक को आमिर के बाद सबसे अधिक स्पेस मिला है, परन्तु युवा होने के बावजूद वो गानों से नदारद हैं। भूमिकाएं छोटी होने के बावजूद, किरदारो पर मेहनत की गयी है। पटकथा शानदार है, और पहले और दुसरे हाफ को पूर्णतः अलग करती है, परन्तु कथा का मूल है, प्रतिशोध। प्रतिशोध भारत की फिल्मों का ही मूल है, हर तीसरी फ़िल्म में बदला ही मकसद है। यहाँ पे कहानी इस तरह लिखी गयी है, कि  सहानुभूति खलनायक के लिए है। आमिर दूसरी बार खलनायक की भूमिका कर रहे हैं, और इस बार भी यश राज के लिए, फना के बाद। आमिर ऐसे अभिनेता है जिनपर खलनायक का चरित्र अच्छा नहीं लगता। अर्थव्यवस्था के कमर माने जाने वाले बैंक व बैंकरों को फ़िल्म में खलनायक दिखाया गया है, सच भी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का वो बुरा दौर कही न कही बैंको के गलत नीतियों का ही नतीजा था। यहाँ पृष्ठभूमि अमेरिका ही है, और पठकथा की शुरुआत बैंक के क़र्ज़ वसूली से है, जहाँ पर कि अपने जीवन के सबसे बेहतरीन करतब दिखाने के बावजूद इक़बाल(जॅकी) बैंक वालो को मना नहीं पाटा और नतीजतन उसे आत्महत्या का कदम उठाना पड़ता है। यहीं से शुरू होता है, बैंक को बर्बाद करने कि शाहिर(आमिर) कि ज़िद्द। उसे रोकने के लिए भारत से पुलिस अफसर जय दीक्षित(अभिषेक) व अली (उदय) को शिकागो बुलाया जाता है, क्योंकि मरते वक़्त जॅकी के शब्द 'बैंक वालो तुम्हारी ऐसी कि तैसी' को हर बार शाहिर बैंक लूटने के बाद लिख के जाता है, और एक जोकर का मुखौटा भी छोड़ जाता है। उनका साथ देने के लिए टैब्रेट बेथेल एक संक्षिप्त सी  भूमिका में हैं। वहीँ आमिर के साथ थिरकने के लिए कैटरीना को रखा गया है, वो बहुत अच्छा थिरकती भी हैं। चोर पुलिस का ये खेल दुसरे हाफ में चरम पर पहुँचता है, जब शाहिर के सबसे बड़े राज़ के बारे में कि उसका एक जुड़वाँ भाई है, जय को पता चल जाता है। कहानी के साथ आँख मिचौली चलती ही रहती है, और हम एक पहले से तय अंत की ओर बढ़ जाते हैं, कोई बताये कि इतने मुश्किल से बच के निकले दो चोर सुबह में क्यों भागने की कोशिश करेंगे? ये कुछ हजम नहीं होता।
फ़िल्म की जान आमिर और उनकी शानदार अदायगी है, वो हर सीन में जान डालते हैं, फिर वो गुसैल और शातिर शाहिर हो या चुलबुला और बचपने से भरा समर। अभिषेक भी अच्छा करते हैं, पिछले दो बार से ज्यादा अच्छा। इस बार हालाँकि रोल कम है, फिर भी। आमिर के साथ उनकी केमेस्ट्री शानदार है, भले ही वो चोर पुलिस कि दुश्मनी हो या मासूम समर से उनकी दोस्ती। उदय चोपड़ा ठीक हैं, उनकी ये अपनी फ़िल्म है, गाड़ियां अच्छा दौड़ा लेते हैं। कटरीना ने ये फ़िल्म चुनकर निराश किया है, वो महज गानों में थिरकने के लिए और अंग प्रदर्शन के लिए हैं, कोई दो राय नहीं कि पिछले संस्करण में विपाशा कि इससे लम्बी भूमिका थी।  बेथेल ठीक हैं, और जॅकी प्रभावित करते हैं, फ़िल्म में और कोई नहीं है जिसकी आभने को सराहा जाये। फ़िल्म के असली नायक इसके क्रू मेंबर हैं, कहानी, संवाद और पटकथा तीनो को निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य ने लिख है और सभी काफी अच्छे हैं, आमिर के संवाद बहुत अच्छे हैं, खासकर नरेशन में चलते उनके संवाद। सुदीप चट्टर्जी जो कि इक़बाल, चक दे इंडिया जैसी फिल्मो में अपने सिनेमेटोग्राफी का लोहा मनवा चुके हैं, शानदार तरीके से हर फ्रेम को रचते हैं, वो शानदार रहे हैं। संपादन रितेश सोनी के जिम्मे रही और उनका काम सराहनीय है, परन्तु अभिषेक के एंट्री सीन को छोटा कर सकते थे। संगीत व नृत्य फ़िल्म के मजबूत पक्ष हैं, और इसके लिए फ़िल्म को जरूर देखा जा सकता है। प्रीतम हमेशा से ही अच्छे संगीतकार रहे हैं, और यहाँ वो खुल के निखरे हैं। फ़िल्म अंततः थोडा निराश करती है, इसलिए नहीं कि ये एक ख़राब फ़िल्म है, नहीं, यह एक सुगठित व सुनिर्मित महाकाव्य है,. परन्तु आमिर से लोग इससे बेहतर कि उम्मीद करते हैं, अब आमिर महज एक अभिनेता नहीं हैं, वो मार्गदर्शक हैं, धूम 3 उनके मार्गदर्शन का एक चरण है। इसे अवश्य देखा जाये, और किसी अफवाहों पर ध्यान न दे कि ये किसी हॉलीवुड की चोरी है, होगी, परन्तु हॉलीवुड में कोई आमिर नहीं है, कोई बीटा नहीं है जो अपने पिता के प्रति अपनी भावनायें इस तरह व्यक्त करे, वहाँ कोई भाई नहीं जो कहता हो बाबा ने कहा था हाथ नहीं छोड़ना, वहाँ कोई पुलिस नहीं जो कहता हो मैं तुम्हे बचाना चाहता हु। ये भारत के आत्मा कि अंग्रेजी लिबास वाली फ़िल्म है। जरुर देखा जाये। 

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

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"अनुभूतिवश": संस्मरण के संग संग


 सपेरा 
                               - अंकित झा 
कहाँ आज  वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल
भूतियों का दिगंत छविजाल 
ज्योति चुम्बित जगती का भाल 
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन विस्तार?
                                                                   - सुमित्रा नंदन पंत (परिवर्तन) 

बात इसी गर्मी की है, सेमेस्टर के अंतिम कुछ क्लास लेने कॉलेज जा रहा था, सुबह का समय था. कड़ी धूप होने की तैयारी थी,  फिर जेठ की दुपहरी कौन नहीं जानता? पसीना सुबह से ही आना शुरू हो गया था. घर से पैदल दूरी पर कॉलेज है, पर बस पास की रईसी ने कम्बख्त पैरों में जंग लगा दिए थे. अब ऊंट पहाड़ के नीचे था, अपनी वाली पे. 11 का रेड लाइट पार करके सेक्टर 8 के बस स्टॉप के करीब था. तभी सामना हो गया एक सपेरे से. सपेरा क्या कहिये खौफ से. बचपन से यदि किसी भी चीज़ से डरा हूँ तो वो है साँप। गन्ने के रस के स्टाल से थोड़ा आगे बढ़ा और सपेरे के करीब। दान पुण्य का कोई ख़ास शौक नहीं रहा और सवेरे-सवेरे वो भी किसी मजबूर व त्रस्त भिखारी को नहीं वरन एक साधुनुमा भगवा वस्त्र व जटाधारी सपेरे को? कदापि नहीं। बिना ध्यान दिए आगे बढ़ गया. हाथ फैलाये वो पास आ रहा था, बिना ध्यान दिए आगे बढ़ रहा था. पिटारे से साँप निकल दिया उसने, फ़न काढ़े साँप मेरे बाईं ओर पिटारे में कुण्डली मारे बैठा था, जेब से एक सिक्का निकाल आगे बढ़ते हुए असहजता में पिटारे पिटारे कि और फेंक दिया, सिक्का साँप के फ़न से जा टकराया। साँप बौखला उठा, जटाधारी उससे ज्यादा। मेरी और बढ़ा। मैं बुरी तरह घबराया और आगे बढ़ गया। बढ़ा क्या भागा। ऐसी हालातों में हाथ अपने आप प्रार्थना में जुड़ जाते हैं और प्रार्थनायें समूचे हृदय में गूंजने लगता है। मैं घबरा के भागने लगा, सड़क के दायीं ओर भारी भीड़ जा रही थी  और मैं इधर अकेला घबराया सा भागा जा रहा था। श्रद्धा और भय में बड़ा ग़जब का रिश्ता है, उस दिन यकीन सा हो गया। कुछ ही दूर पे सेक्टर 20 कि कोतवाली, जान में जान आयी। कोतवाली के सामने जाकर खड़ा हो गया, एक ग़ज़ब सा यक़ीन कि यहाँ तो मुझे कुछ नहीं हो सकता। कुछ देर बाद जब फिर से पीछे मुड़ के देखा तो वह घूम गया था। वह आगे बढ़ गया, मैं कुछ देर खड़ा रहा, फिर से एक बार मुड़ के देखा। देखा कि एक और लड़का मेरी ही तरह मेरी ही ओर भगा आ रहा है। पता नहीं क्यों पर हंसी छूट गयी इस बार, ये सब देख के, डर मिट चूका था।

यह घटना कतई उतना खतरनाक नहीं है, परन्तु श्रद्धा के नाम पर डर दिखा के ऐसी लूट वर्षीं से चली आ रही है। सीता भी तो दान-पुण्य के चक्कर में ही रावण द्वारा हरी गयी थी। भारत में यदि सबसे आसान तरीकों से लुटना है तो श्रद्धा-भक्ति व दान-पुण्य के चक्कर में पड़ जाइये।।   

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

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मिथिला में मॉल???!!!!!!
                                                          - अंकित झा 

उस राह पर चलते गए जिस राह पर राहगीर न मिले,
शहर की भीड़ में मुझे शायर तो मिले, पर कबीर न मिले।।।

3 सालों कि खबासी और सूद अब तक चूका रहे हैं, कुछ नया हुआ नहीं कि अपनी मनहूस यादें लेकर बैठ जाते हैं मिथिला की बात करने के लिए. सब सोचेंगे अब नया क्या हो गया? फिर लड़ाई हो गयी क्या मेरी मिथिला के नए आशिकों से?(http://mraindian.blogspot.in/2013_06_01_archive.html) नहीं फिर से नहीं। इस बार कुछ ज्यादा बड़ा घटा है. सुना है मिथिला में मॉल खुला है, जी हाँ मिथिला में मॉल खुला है. सीतामढ़ी, अरे वहीँ जहाँ माता सीता प्रगट हुई थीं, लिच्छिवियों कि भूमि व बिज्जीका भाषियों का गढ़. सीतामढ़ी। मेरे गाओं के करीब ही है, ज्यादा दूर नहीं। सुनने में आया था कि वहाँ कि बहनें आज भी अपने भाइयों के लिए 'सामा-चकेबा' के गीत गाती हैं कार्तिक में. सच कह रहा हु बस सुनने में आया है. जितना मैं उस भूमि के बारे में बताना चाहता हु उतना ही पीछे हटने का मन करता है, न जाने क्यों, पर करता है. सबसे बड़ी बात कि वो मेरे पिता सहित हमारे पूरे परिवार कि जन्मभूमि है, उसपे से आने जीवन के अहम् ४ वर्ष वहां बिताये हैं तो फिर कैसे न वो यादें सताएं मुझे। मध्य प्रदेश का भूत तो मुआ अब जवानी में जा के चढ़ा है, वर्ण बचपना तो आज भी बिहार कि उस गंगा कि चिकनी सफ़ेद मिट्टी में लोट लगा रही है. बासोपट्टी का वो बभिन्दयी पुल, जो ना  जाने  कब से बन रहा है, अब भी पूरा नहीं हुआ है. उस तालाब  के बारे में किवदंतियां, जिसे 12 राक्षसों ने एक रात में बनाया था, या फिर धत्ता पर का वो भूतहा आम की गाछी, जहां पर जा के ठहरने की वीरगाथाएं सभी युवा झूठा ही सही पर सुनाते हैं. उसी माटी कि सौ ख़ुशी नहीं हुई मॉल के बारे में सुनकर बिलकुल भी. मिथिला को मॉल कि क्या जरुरत आन पड़ी, वो भी मुजफ्फरपुर या समस्तीपुर या दरभंगा में नहीं बल्कि सीतामढ़ी में? कमाई या खर्च का नया रास्ता। अच्छा रास्ता तो है। परन्तु कितना समृद्ध होगा कौन बतायेगा? 
फ़ोटो :the indian express
मिथिला के लोगों कि एक बड़ी ख़राब आदत है, तुलना करने की. इतनी खराब कि उन्हें लंदन घुमा दीजिये, कहेंगे कि पटना से खली जगह में बड़ा है, नहीं तो कंकरबाग का मार्किट छोटा है का? नहीं तो गांधी मैदान क्या लॉर्ड्स से छोटा भी है. इसीलिए कभी कभी चिढ जाता हु पर यही तो उसे खास बनती है. अब मुझे ही देखिये तुलना ही तो करने जा रहा हूँ. मॉल का खुलना कटाई कोई नयी घटना नहीं है, मार्केट हुआ करते थे अब ऊपर से छत लगा के वो मॉल कहलायेंगे पर वो ऊपर कि छत सिर्फ एक बार ही सुकून दे पायेगा। मीना बाज़ार कि तरह बार बार नहीं या फिर गोगिया सर्कार के जादू कि तरह बार नहीं। आइयेगा एक बार, याद करियेगा बार बार. दरी पे बैठना है 15 रुपैया, कुर्सी पर बैठना है 25 रुपैया और किसी न किसी औरत का दरी को महत्व्पूर्ण समझकर उसका दोहन करना। मिथिला का रास है. मॉल खुल गया अर्थात, मेले अब मर जाएंगे, जो सिर्फ हुकुर हुकुर सांसे भर रहे थे वो साँसे भी अब छीन ली. अभी नवम्बर के पहले ही हफ्ते में अर्थात दीवाली पर ही तो मिथिला को अपना ये मॉल मिला है, राजनीतिक ईंट, कांच और सीमेंट से निर्मित। भाजपा विधायक सुनील कुमार पिंटू ने ही टी इसका अनावरण किया, राजनीती के बिसात पर. काफी दुःख और खेद के साथ कहना पद रहा है कि सीतामढ़ी जैसा ज़िला जो अपने मिथिलेश नंदिनी के जन्म के लिए जाना जाता है, अब तीन मंज़िले बाज़ार कलकत्ता के बाहर अपने युवाओं का हुरदंग देखेगी। होता आया है होता रहेगा। इंद्र पूजा और गणेश पूजा के मेले अब बस यादों का हिस्सा बन जायेंगे, हो सकता है मेरी बातें कुछ कुछ रूढ़िवादी लग रही हो पर सत्य कई बार ऐसा ही होता है. आगे बढ़ने का मतलब अपने रिवाजों को पीछे छोड़ना कब से हो गया? शादी में अब पनीर और फ्राइड चावल परोसे जाने लगे हैं परन्तु गौना के दिन का बपफर कौन भुला सकता है? कोई नहीं मैं तो कतई नहीं। मॉल तो आवश्यक हैं, आधारभूत संरचना के इए भी व अर्थव्यवस्था के लिए भी. पर रिवाज़, परम्पराएं व संस्कृति का क्या? ऐरावत हाथी पर बैठे देवराज का क्या? एकदंत गणेश का क्या? जनकनंदिनी का क्या? कुछ तो सोंचो मिथिलावासियों कि मॉल में जब साम कार्नर होगा तो कितना मज़ा आएगा। दुसरे मंज़िले पर जब आल्हा गया जाएगा और पिज़्ज़ा व बर्गर कि जगह बघिया व स्पंज मिठाई अलोंग विथ मालपुआ खिलाया जाएगा। 
तब तक मॉल का मज़ा लो, जब तक कुछ नया नहीं होता या फिर मुझे मिथिला के लीचियों कि याद नहीं आती, सिनुरिया आम के बाद।।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

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मोह भंग, तत्पश्चात् ??
                                                               - अंकित झा
स्वर्णिम प्रभात की आभा, तत्पश्चात? सर पर नाचती आदित्य की किरण, तत्पश्चात्? अरुण दिवाकर की लालिमा, तत्पश्चात्? खनखन करती आती संध्या का मुस्कुराता राकेश, तत्पश्चात्? रजनी में पसरता मोह का अभिसार, तत्पश्चात्? पुनः स्वर्णिम प्रभात व मोह भंग. मोह भंग, तत्पश्चात?

बड़ी अजीब शुरुआत थी. बहुत दिनों बाद लौटा हु न इसलिए। दैनिक अखबारों में हमसफ़र व हमदर्द कि कुछ बातें चल रही हैं. उच्चतम न्यायलय ने अपने एक निर्देश में स्पष्ट कर दिया कि  'लिव-इन रिलेशनशिप' कतई जुर्म या अमान्य नहीं है. अब प्रश्न यह कि ये 'लिव-इन रिलेशनशिप' क्या? भारत कि प्रगति के कई सूचक हैं, उनमें से ये नए फसल की भाषाएं भी हैं. हिंदी की नयी नस्ल। अपभ्रंशीय नस्ल। सांकेतिक व विचारोत्तेजक नस्ल। कुछ शब्दों कि तो ऐसी बहुलता हो गयी है कि पता लगाना मुश्किल है ये हिंदी है या अंग्रेज़ी? तारीफ़ है या तौहीन? बड़ी विडम्बना है. इन्ही शब्दों में से एक है- 'लिव-इन रिलेशनशिप। इसे अंग्रेजी में आप 'प्री-मेरिटल रिलेशनशिप' भी शौक से कह सकते हैं. उसी का अव्यय मात्र है. अंतर बस फ्रीक्वेंसी का है व ट्रांसमिटिंग का. इस अंतर में एक यथार्थ निहित है, यह अंतर बदलते समय व नए वर्ग कि परिपक्वता का है. परिणय अब कोई आवश्यक रस्म रह ही नहीं गया, पूर्व-परिणय सहचरी भी रहने लगे हैं अब. ये ही तो नयी नस्ल है. ज़रा याद कीजिये, सिद्धार्थ आनंद निर्देशित 'प्रीती ज़िंटा- सैफ अली खान' अभिनीत फ़िल्म "सलाम-नमस्ते". मुद्दा कुछ याद आया? नहीं, फिर ज़रा स्मरण कीजिये यश चोपड़ा निर्देशित 'अमिताभ-शशि-निरूपा' की "दीवार" के 'अमिताभ-परवीन' का रिश्ता? अब याद आया कुछ।  जी. परिणय के परे एक सम्बन्ध। प्रेम की नयी पहचान। प्रगति-प्रेम-परिणय व प्रफुल्लता का नया नाम -'लिव-इन रिलेशनशिप। भारत में ये सब कब से होने लगा? यहाँ तो परिणय का निर्णय भी अभिभावक करते हैं फिर ये सहचरी का, दो नवयुगल कैसे? भारत में? विदेशी गांड है क्या? नहीं बस नाम विदेशी है. काम व इतिहास देशी है. सम्बन्ध देशी है. प्रेम तो भारतीय इतिहास का प्रतीक रहा है. आज से नही आदिकाल से. सतयुग से अब तक. सहधर्म, सहचर, सहकर्म सभी. इस प्रेम में त्याग निहित है, सम्मान निहित है व निहित है भावना। कलयुगी प्रेम में मिलता है ये सब? मोबाइल फ़ोन के नंबर से शुरू होने वाला प्रेम व नॉट वर्किंग एनीमोर पर समाप्त होने वाला प्रेम क्या सच में वही भारतीय प्रेम है? राधा-कृष्ण व दुष्यंत-शकुंतला वाला? त्याग व समर्पण वाला? परिभाषाएं व मानक तो बदलते ही रहते हैं, प्रेम के साथ भी ऐसा ही हुआ है. तरीकें बदल गए हैं. त्याग नहीं रहा, पाने कि ज़िद्द आ गयी है. सम्मान नहीं रहा, समर्पण नहीं रहा; ख़ुशी कि चाह आ गयी है. अतः प्रेम अब प्रेम ही नहीं रह गया, जरुरत है सभी की. सभी की का अर्थ यहाँ सभ से है.
फिर आयी ये परिणय। छोड़िये कोई अनुभव नहीं है. और अनुभूति को क्या व्यक्त करूँ? आते हैं 'लिव-इन रिलेशनशिप' पर. प्रेम की कोई वैद्यता नहीं होती, धोखे तो होते ही रहते हैं. पहले ये त्याग कहलाते थे. परन्तु परिणय की वैद्यता आवश्यक है, उतनी ही आवश्यक है प्रेम व परिणय के बीच की कड़ी कि वैद्यता। सबसे आवश्यक। उच्चतम न्यायलय का ये अहम फैसला है।  ऐसे हज़ारों उदहारण देखने, सुनने व पढ़ने को मिल जायेंगे जिसमे २ से लेकर २० वर्षों तक के रिश्तों के पश्चात एक दम से सभी नाते तोड़ दिए गए व सहचरी को कानून का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा. इन्साफ मिला, मुआवज़ा मिला परन्तु हक़ नहीं। रिश्ता नहीं। प्रेम नहीं। फिर ऐसे बीच में लटके ऐसे रिश्ते का क्या मतलब? जहाँ पर मजबूरी के इतने अधिक आशाएं हैं. प्रेम में बच्चे गलतियां करते हैं. न्यायपालिका कब से करने लगी? नहीं, ये कोई गलती नही, क्रन्तिकारी बदलाव के प्रति प्रथम कदम है. कईं सारे उदहारण है, पढ़ियेगा अवश्य। 
सब कहते हैं कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' पाश्चात्य सभ्यता कि देन है, गलत. कतई नहीं। भारत से अधिक  कानूनी करामातें हैं विदेशों में. कनाडा, अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में या पूर्णतः विधि के अंतर्गत आता है व कानूनी प्रक्रिया पूर्ण करने के बाद प्रारम्भ होता है. समस्या ये है कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' अधिकांशतः दुखांत ही हुए हैं. सफलता के ज्यादा उदहारण नहीं है. जहाँ पर अपना अधिकार माँगा जा सका है न बच्चे के लिए पिता का नाम. फिर ये तो होना ही था. सपनो कि नगरी को ध्वस्त होने में समय ही कितना लगता है? सिर्फ नींद खुलने तक का. प्रेम को किसी नाम कि अपेक्षा नहीं , आवश्यकता नहीं। बेनाम ही अच्छा, बदनाम होने से तो. यौवन कि विषमताएं बहुत हैं. बुद्धि व समझ को टाक पर रख कर लिया गया फैसला अंततः घटक ही सिद्ध होता है. इसका कटाई ये मतलब नहीं कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' बुरा है. वैवाहिक औपचारिकताओं कि न सोंच यदि कानूनी रूप से प्रेम सम्बन्धों को नया नाम व आयाम दिया जा रहा है तो क्या गलत है? विचार कीजिये।
सोंचने का कोई कर नहीं लगता।।।।।।।