शनिवार, 23 मई 2015

फिल्म रिव्यु

धार्मिक अंतर्द्वंद की महान गाथा है मैड मैक्स: फ्यूरी रोड
-         अंकित झा 

ईश्वर को जीवन से प्रेम है, मृत्यु से नहीं. ईश्वर के समकक्ष होना आसान है, ईश्वर बनना असंभव. धर्म तथा कर्तव्य की महीन रेखा पर चलती यह फिल्म अपने अंजाम तक कभी भी उस रेखा को त्यागती नहीं है. यही कारण है कि युद्ध तथा युद्ध का कारण धर्म की नाजुक डोर पर टिकी है. ईश्वर का विरोध हो सकता है, उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं. यह वो समय है जब जल तथा प्राकृतिक गैस की कमी है, एक ईश्वर को इन दोनों की आवश्यकता है, अपना अधिपत्य स्थापित करने हेतु, मृतकों की भीड़ को गिद्ध ही शासित कर सकते हैं.

पूर्ण विनाश के पश्चात का वो भयावह समय. सभी ओर रेत ही रेत. मनुष्यता को चीखती सभ्यता, क्या इससे भयावह भी कोई परिणाम हो सकता है? हर युग में मनुष्य ने अपना अंत स्वयं तय किया है, इस युग में भी हम अग्रसर हैं. अंत के काफी करीब थे हम, फुकुशीमा(जापान सुनामी तथा परमाणु संयंत्र विस्फोट) याद ही होगा, या फिर अंतहीन चल रहे युद्ध. मानव का मानव के विरुद्ध, अकारण. धर्म के लिए, अपनी सभ्यता को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए. ऐसे समय में निर्देशक जॉर्ज मिलर की मैड मैक्स एक आईने की तरह सामने आता है यह दिखाने कि विध्वंश किसे कहते हैं? धर्म किसे कहते हैं? धर्मयुद्ध किसे कहते हैं? सभ्यता किसे कहते हैं? संस्कृति का हास किसे कहते हैं? जल कितना आवश्यक है? रेत कितनी प्रचुरता में है तथा हमारा अंत कितना क्षणिक है? जीवन तथा मृत्यु के बीच के अंतर को क्या कहा जा सकता है? शायद सांसें.
जंजीरों में जकड़ा मैक्स, भागने की जिद्द, अपनी भूत से प्रताड़ित. अंत के पहले का पूर्व. वो समय जब कभी जीवन था, वो बेबस था, किसी को मरने दिया था, अब स्वयं मरने से बचना चाहता है. सबकुछ इतना भावनाशून्य सा प्रतीत होता है कि मानो कभी संस्कृति बसी ही नहीं थी, यह समय है एक भीषण परमाणु युद्ध के बाद का, जब संस्कृति विलुप्त हो गयी है, सर्वनाश के पश्चात्. कुछ लोग ऐसे थे जो बच गये थे, जो बच गये वो बख्से नहीं गये. धर्म मानवीय सभ्यता का परिचायक है, हर युग में धर्म मनुष्य से प्रबल होगा. उस धर्म में एक ईश्वर होगा, जिसे सभी अनश्वर मानेंगे. इस रेट से भरे राज में जहां बड़े बड़े संयंत्र कार्यरत हैं, मानव को यंत्रों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. जहां जल की इतनी कमी है कि लोग मरने मारने को तैयार हैं, और एक शहंशाह है जो अपने राज्य के लोगों को जल की आदत ना डालने का सुझाव देता है. यह शहंशाह कोई मामूली रजा नहीं है वरन उस वीराने का ईश्वर है. “अनश्वर जो” ईश्वर के समकक्ष. लोग उसकी एक झलक के लिए आतुर रहते हैं, उसकी अवज्ञा नहीं की जाती है, चहुँ ओर एक कोलाहल है उस कोलाहल में युद्ध के धर्म का द्योतक है ‘जो’.

मनुष्य को मोह है मोक्ष का. वह जैसे प्राप्त हो, कभी गया और बनारस जा के तो कभी मदीना जा के. उस राज्य में मोक्ष का अर्थ है, ‘अनश्वर जो’ के दर्शन. सेनानी एक दर्शन मात्र के पश्चात वलहाला नाम की जन्नत की तलाश में स्वयं का शारीर त्याग देते हैं, यह समझाना इस समय भी मुश्किल है कि ईश्वर जीवन देता है अथवा लेता है कभी मांगता नहीं है. ईश्वर को जीवन से प्रेम है, मृत्यु से नहीं. ईश्वर के समकक्ष होना आसान है, ईश्वर बनना असंभव. धर्म तथा कर्तव्य की महीन रेखा पर चलती यह फिल्म अपने अंजाम तक कभी भी उस रेखा को त्यागती नहीं है. यही कारण है कि युद्ध तथा युद्ध का कारण धर्म की नाजुक डोर पर टिकी है. ईश्वर का विरोध हो सकता है, उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं. यह वो समय है जब जल तथा प्राकृतिक गैस की कमी है, एक ईश्वर को इन दोनों की आवश्यकता है, अपना अधिपत्य स्थापित करने हेतु, मृतकों की भीड़ को गिद्ध ही शासित कर सकते हैं. इस दौरान विद्रोह का स्वर बुलंद करती है सेनानायक फ्युरिओसा. सबसे भरोसेमंद परन्तु विद्रोह की ज्वाला को वो भडकाती है अक्लमंदी से. इश्वर की कोई कमजोरी नहीं परन्तु मनुष्य की है, सबसे बड़ी है उसकी भावनाएं, उसकी आकांक्षाएं, उसके कल की सोंच, अपने भविष्य की फ़िक्र. फुरिओसा गैस टाउन लूटने के बहाने जो की पाँचों पत्नियों को भगा लेती है जिन्हें उसने अपनी नस्ल बढाने के लिए रखा था. जिसमें से एक गर्भवती भी है. जो को आभास होने पर वह एक युद्ध का एलान करता है अपनी ही सेनानायक के विरूद्ध और यहाँ से शुरू होता है भयावह युद्ध. वो युद्ध जिसमें सत्य व असत्य एक साथ एक ही पक्ष से लड़ रहे होते हैं इंसाफ के विरुद्ध. सत्य हैं वो लड़ाके जो जो में अपना ईश्वर देखते हैं, असत्य है अनश्वर जो. इन्साफ है फुरिओसा. इस सब के मध्य अपनी अत्तेत से जूझता मैक्स, इन सभी द्वंदों से परे एक लड़ाके “नक्स” के लिए रखत की थैली का काम कर रहा है, इस सभी घमासान के मध्य हम देखते हैं, अंधश्रद्धा के वो मंज़र जिसमें लड़ाके एक झलक पा कर कैसे वलहाला की राह को पकड़ लेते हैं, स्वयं को कुर्बान कर के. मृत्यु कभी जीवन नहीं दे सकती, मृत्यु कतई जीवन का पर्याय नहीं हो सकती है. भीषण युद्ध के मध्य पनपता विश्वास तथा अच्छे जीवन की उम्मीद. पाँचों पत्नियों का अपनी श्रीख्लाओं से बाहर निकलने की ख़ुशी, फुरिओसा का संघर्ष तथा मैक्स का अपने अतीत तथा आज से चल रहा अंतहीन युद्ध.

अंधश्रद्धा फिल्म का केंद्र है, जिसे जो की मृत्यु शांत कर देती है, परन्तु इस भय पर समाप्त होती है की कहीं फुरिओसा भी जो ना बन जाए, मनुष्य का अपने संसाधनों पर पूर्ण अधिकार हो इससे श्रेष्ठ प्रशासन और क्या हो सकता है? इश्वर ने संसाधन दिए हैं, उसे कभी अपनी कब्ज़ा में नहीं करेगा. यह फिल्म अपनी  परतों में समाजवाद की गिरहें समेटे  हुए है.  संसाधन, अमीर, गरीब, अंधश्रद्धा, शोषण, विद्रोह तथा संघर्ष. फ्युरिओसा के लिए यह एक धर्मयुद्ध है, मैक्स के लिए अंतर्द्वंद. फिल्म के कलाकारों एन पात्रों को जिया है, मैक्स के किरदार में टॉम हार्डी अपने शरीर से अलग सा जादू पैदा करते हैं, अपनी आँखों से वो अपनी स्थिति, अपने मनोभाव को बखूबी प्रदर्शित करते हैं, खासकर एक्शन दृश्यों में वो अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं. सेनानायक फ्युरिओसा के पात्र को चार्लीज़ थेरोन ने जीवंत कर दिया है, अपने सुन्दर नैन नखस को त्याग कर उन्होंने अलग रूप अपनाया तथा अद्वितीय पात्र निभाया है, जो की किरदार में हुग केय्स-बेअर्न्स प्रभावित करते हैं, तथा उनका भयानक मेकअप तथा पोशाक भय उत्पन्न करता है, निकोलस हंट ने फिर से एक बार बेहतरीन अभिनय किया है, जो की पाँचों पत्नियां फिल्म एं एक मात्र सुन्दर कड़ी हैं, फिल्म की असली जान है इसकी पटकथा जो एक पल भी भटकती नहीं है. इतने भीषण युद्ध तथा नरसंहार को २ घंटे तक लगातार परदे पर उतारने के लिए निर्देशक का धन्यवाद. फिल्म को जिस ढंग से देखिये, यह एक दार्शनिक फिल्म है, कई अर्थों को समेटे हुए. परतें खुलती रहेंगी, 30 वर्षों के बाद भी मिलर नहीं बदले, निखरे अवश्य हैं. उनका मैक्स बदला है, परन्तु अंदाज़ नहीं. 

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

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धन्यवाद अन्ना, धन्यवाद केजरीवाल, धन्यवाद मोदी: चुनाव अब नेताओं का ही नहीं रह गया  
-    अंकित झा 

धन्यवाद अन्ना, उस जनक्रांति के लिए. उस आन्दोलन के लिए जिसने देश को पुनः विचार करने पर विवश कर दिया,  धन्यवाद केजरीवाल, एक अमर आन्दोलन की पटकथा लिखने के लिए, एक नयी सोंच से समाज को मिलवाने के लिए. धन्यवाद मोदी, फिर से उम्मीद तथा स्वाप्न देखने की हिम्मत देने के लिए.

चुनाव अब हर घर में पहुँच रहा है, हर घर में वोटर हो या नहीं पर वोट की कीमत महसूस होने लगी है. आज कल चुनाव बगावती हो गये हैं, अब जनता मूक दर्शक नहीं रहती है, आंदोलित हो गये हैं. कुछ उसी तरह जैसे एमजीआर के समय हुआ करते थे, या कांग्रेस और वामपंथ के नाम पर हुआ करते थे. वाह! ट्रेन, बस, मेट्रो, ऑटो, कॉलेज, दूकान, और घरों में केजरी-मोदी के नाम का बहस छिड़ने लगा है. दिल्ली चुनाव सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं रह गया है, क्योंकि यहाँ जात-पात, धर्म-भाषा से परे उम्मीद और उन्माद की जंग चल रही है. दिल्ली की तरफ पूरा देश एक आशा से देख रहा है, यहाँ किसके वादों का गुब्बारा पहले फूटेगा? या फिर दिल्ली में किसके वादों की धार कायम रहेगी? अलीगढ से दिल्ली आ रही ट्रेन हो या भोपाल से दिल्ली आ रही ट्रेन, रांची से दरभंगा जा रही ट्रेन ही क्यों न हो, या मुंबई के बसों में ही सही, कोई केजरीवाल तो कोई मोदी के नाम पर लड़ जाने को तैयार है, दिल्ली के बसों में चल रहे बहसों को तो संरक्षकों का समर्थन भी मिल जाता है, ऑटो ड्राईवर हो या पान के दूकान दार सभी आम आदमी के ग़मों का रोना रोते हुए भूल जाना चाहते हैं किसी तथाकथित वादाखिलाफी को.

इस सबके पीछे कौन सा जूनून है, हालाँकि इस देश में चुनाव सदा से ही ऐसे हुआ करते हैं, जहां नेता तो बनावटी रूप से एक दुसरे के खिलाफ खड़े रहते हैं, परन्तु समर्थक उन्ही नेताओं के लिए जान तक देने को तैयार रहते हैं. आज से नहीं पहले चुनाव से. मेरे दादाजी बताते हैं, पहले चुनाव में तो वो उतने सक्रीय नहीं थे परन्तु फिर वामपंथी नेताओं के लिए वो इतने समर्पित हुए कि जेल तक जाने को तैयार हो गये, संघर्ष कायम रहा, संघर्ष में विजय का मोह अवश्य होता है परन्तु पराजय का भय नहीं. आखिर ज़मीर बड़ा या जिस्म? ज़मीर मुद्दों के लिए कुर्बान हो जाने पर मजबूत माना जाता है, जिस्म तो अमर होता ही नहीं. ये सब समाजवादी नेताओं के ज़माने हुआ करता था, जब राजनेता असेंबली से निकलकर कवियों के व्यंग्य में शामिल हो गये, उसके बाद ऐसी मर मिटने वाली बात नहीं दिखती थी, दिखती भी थी तो उतनी ही स्वार्थी और कपटी जितनी उन नेताओं के मंशे थे. डर मानव मनोविज्ञान का सबसे खतरनाक तथा भयानक सच है. डर, हारने का, अपना आधार छिन जाने का, मुद्दों के दब जाने का, अवसर चूक जाने का. डर आवश्यक है, खासकर राजनेताओं के मन में. वहाँ डर आवश्यक है. 5 साल काफी लम्बा समय होता है, ये समय होता है मानवीय आशाओं के बनने और टूटने का, और डर के बने रहने और डर से विमुख रहने का. न इसके पूर्व और न इसके पश्चात्. शेष, विशेष और अवशेष के मध्य की अवधि.


अब चुनाव सिर्फ नेता ही नहीं लड़ते हैं, उनसे जुडी आशाएं लडती हैं, उनसे जुडी उम्मीदें लड़ती हैं, नेताओं के समर्थक लदत हैं, नेताओं का इतिहास, मुद्दे, तकनीक, जन आधार, मीडिया सभी, नेताओं के साथ लड़ते हैं. पार्टी नहीं, व्यक्ति विशेष लड़ते हैं. जनता अब देखती नहीं, बोलती है, प्रश्न पूछती है. किसी लोकतंत्र में बोलना अतिआवश्यक है, और प्रश्न पूछना तथा तर्क रखना तो लोकतंत्र की आत्मा है, पिछले कुछ समय से ये आत्मा किसी बोतल में बंद हो गयी थी, सुना है किसी परिवार के सजावट घर में तंगी मिलती थी, कुछ विशेष व्यक्तियों को ही अनुमति थी, वहां पहुँचने की. एक आन्दोलन, एक जनक्रांति और सब कुछ परिवर्तित हो गया, वो आत्मा अब पुनः उस सजावट घर से निकलकर समाज में पहुँच चूका है. धन्यवाद अन्ना, उस जनक्रांति के लिए. उस आन्दोलन के लिए जिसने देश को पुनः विचार करने पर विवश कर दिया, उन सभी लोगो को ये उत्तर है जो यह पूछते थे कि अन्ना का अनशन एक जनक्रांति नहीं था, पुनः सोंचने की आवश्यकता है क्या? धन्यवाद केजरीवाल, एक अमर आन्दोलन की पटकथा लिखने के लिए, एक नयी सोंच से समाज को मिलवाने के लिए. एक नया जोश देने के लिए, प्रश्न पूछने तथा तर्क करने की शक्ति पैदा करने के लिए. धन्यवाद मोदी, फिर से उम्मीद तथा स्वाप्न देखने की हिम्मत देने के लिए. फिर से किसी प्रधानमंत्री के लिए मर मिटने का जूनून पैदा करने के लिए. फिर से देश को उसका खोया गौरव लौटाने का प्रयास करने के लिए.  आप तीनों का धन्यवाद कि अब देश फिर से जागने का प्रयत्न करने लगा है. मेरे देश के लोगों ने आँखें खोलने की हिम्मत की है. इस हिम्मत के लिए देश का धन्यवाद है. 

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

फिल्म रिव्यु

आंसू तथा मुस्कान का मधुरमिलन अर्थात पीके
                                          -          अंकित झा

हमारे अन्दर क्यों पैदा नहीं होते हैं पीके की तरह कोई प्रश्न? ऐसा कोई निष्कर्ष कि दुनिया में दो भगवान हैं, एक जिसने हमें बनाया है दूसरा जिसे हमारे समाज ने बनाया है. सर्वशक्तिमान की ही पूजा क्यों न की जाए......

 एक सार्थक सिनेमा वही है जिसमे दर्शक यह सोंचने पर विवश हो जाए कि यह सच में ऐसा होता है. पीके के एक दृश्य में जब पीके का किरदार निभा रहे आमिर खान अपने मित्र अनुष्का शर्मा अर्थात जग्गू के पिता को यह दिखा रहे होते हैं कि किस तरह से ‘डर’ व्यापार का सर्वोत्तम उपाय है, तब एक पत्थर पर चढ़ रहे चढ़ावे, उसके लिए लगी कतार तथा चाय के व्यापार से हो रही उसकी तुलना यही सोंचने पर विवश करती है. पीके एक विशेष फिल्म है, इसलिए नहीं कि ये सामाजिक अवचेतन में बसे सबसे बड़े डर, या कहें विश्वास पे प्रहार करता है, बल्कि ये विशेष इसलिए है क्योंकि यह एक निष्कर्ष देने का प्रयत्न भी करता है. इस फिल्म की कई परतें हैं, तथा उतने ही महत्वपूर्ण हैं उन परतों में उलझे पात्र. बेल्जियम के सुदर से शहर में एक पाकिस्तानी से प्यार कर बैठने वाली जग्गू, जो अपने पिता के गुरु द्वारा किये गये भविष्यवाणी को सच मान बैठती है और गलतफहमी का शिकार हो के सरफ़राज़ अर्थात सुशांत सिंह राजपूत को खो देती है, वहीँ नए ग्रह पर आते ही कैसे एक एलियन का सबसे महत्वपूर्ण सामान चुरा के एक आदमी भाग जाता है, अपने उस सामान को खोजता वो एलियन, अपने पिता के अन्धविश्वास के विरुद्ध आवाज़ उठाती जग्गू, भगवान को ढूंढता पीके, समाज के अन्धविश्वास में उलझा पीके, धर्म तथा इश्वर के यथार्थ से अनभिज्ञ समाज. सभी चरित्र एक प्रश्न के साथ फिल्म की पटकथा में समां गये हैं, उन्हें अपनी ज़मीन तलाशने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. अभिजात जोशी तथा राजकुमार हिरानी द्वारा रचित पटकथा इतनी सार्थक लगती है कि किसी भी दृश्य में उबाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु 3 इडियट्स जैसी फिल्म दे चुकी ये जोड़ी यहाँ पर थोड़ी कमजोर अवश्य लगती है, लेकिन इस वर्ष आये किसी भी फिल्म के मुआबले कई सशक्त व समझदार, भले ही वो क्वीन ही क्यों न हो या सिटीलाइट्स ही क्यों न हो. फिल्म के दृश्य इस सुन्दरता से लिखे गये हैं कि सभी दर्शक वर्ग आसानी से कहानी को समझ व विश्वास कर सकते हैं, ख़ासकर एक एलियन के इतने चतुर प्राणी बनने का सफ़र जो इंसानी विकास की तरह ही है, और दिखाता है कि मनुष्य ने अपने ही समाज में कितनी कठिनाइयाँ पाल राखी है, संरचनात्मक कठिनाइयां.


जबसे फिल्मों में इंटरवल अर्थात मध्यांतर का चलन आया है, तब से पटकथा के भी दो हिस्से होने लगे हैं. पीके अपने पहले भाग में इतनी सशक्त है कि किसी भी अन्य फिल्म से इसकी तुलना बेमानी होगी. दुसरे भाग में फिल्म अपने सामाजिक सरोकार को पूरा करने में लग जाती है, जिसमें पूरी तरह सफल होते हैं, परन्तु यदि ओह माय गॉड की तरह ही यदि बाबा का अंजाम भी दिखा दिया जाता तो कुछ सुकून मिलता. परन्तु यह भी एक सत्य है कि निष्कर्ष के लिए राजकुमार हिरानी सदा ही एक प्रश्न छोड़ते हैं, ये अंजाम वही एक प्रश्न है. यह फिल्म कतई ईश्वर के अस्तित्व तथा धर्म के वास्तविकता की फिल्म ना बन पाती यदि एलियन के संघर्ष को चित्रित ना किया जाता. उसके संहर्ष में एक बहुत बड़ी निराशा छुपी है, जिसके परिणामस्वरुप ही वह ईश्वर के अस्तित्व को ढूँढने की चेष्टा करता है. वह कोई भी धार्मिक गतिविधि अपूर्ण नहीं छोड़ता जिसके कारन उसे ईश्वर मिल सकें, परन्तु उसकी निराशा उसे यह मानने पर विवश करती है कि ईश्वर कहीं लापता हो गये हैं, उन्हें ढूंढना पड़ेगा. फिल्म में धर्म की प्रासंगिकता के जो प्रश्न उठाये गये हैं वो सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं, दकियानूसी मान्यताओं से परे, तथा समाज में व्याप्त बनावटी सत्य के विरुद्ध उठे ये प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण साबित होते हैं जब पीके अस्पताल में जन्मे नवजात शिशु के शरीर पर धर्म का लगा ठप्पा ढूँढने का प्रयास करता है, परन्तु उसे वह कहीं प्राप्त नहीं हो पाता है. वो समझ जाता है कि धर्म जैसी कोई व्यवस्था ईश्वर ने नहीं बनायीं है अन्यथा बच्चे के शरीर पर ठप्पा अवश्य होता. कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, रॉंग नंबर का सत्य. बाबा द्वारा सुझाए गये रास्तों की समीक्षा कर उसे सही या गलत बताने का प्रयास लाजवाब है. फिल्म के आखिरी हिस्सों में से एक में पीके यह स्पष्ट रूप से कहता है कि “ब्रह्माण्ड के एक छोटे से गोले(ग्रह) के छोटे से देश के छोटे से शहर के छोटी से गली में बैठे आप छोटे से आदमी उसकी रक्षा करने की बात करते हैं जिसने की ये पूरा ब्रह्माण्ड बनाया है.” क्या यह बात विचारनीय नहीं है कि ईश्वर की रक्षा करने वाले हम कौन होते हैं? हिन्दू-मुस्लिम, भगवान-खुदा का अंतर हम कैसे कर सकते हैं, किसी के नीयत का निर्णय हम उसके धर्म के आधार पर कैसे कर सकते हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देना काफी मुश्किल है, उतना ही मुश्किल काम है ऐसी कोई फिल्म रचना. एक अकल्पनीय पात्र को जीवंत कर देना, सभी की कल्पना से परे पीके एक ऐसा पात्र है जो समाज से अधिक सोंचता है क्योंकि वह निश्चित ही समाज के हिसाब से नहीं सोंचता है, या कहें सोंच नहीं पाटा है. जग्गू को वो यह विश्वास दिलाता है कि उसके पिता आज उससे नाराज़ इसलिए हैं क्योंकि अभी वह स्वयं पे पूरा विश्वास नहीं कर पा रही है जिस दिन सत्य सिद्ध हो जायेगा उसके बाद से पिता की सीटी उसी प्रकार नहीं रुकेगी जिस प्रकार कक्षा 10 में उसकी कविता पाठ के बाद नहीं रुके थे. बैंड मास्टर भैरों सिंह के किरदार में संजय दत्त पीके को नयी राह प्रदत्त करते हैं, यही राह सभी प्रशों की ओर कदम को निर्धारित करते हैं.

अभिनय के मामले में आमिर खान इस फिल्म की जान हैं, फिल्म की आत्मा भले ही कहानी तथा पटकथा है, परन्तु फिल्म को शरीर आमिर खान ने प्रदान किया है, एक एलियन के पात्र को उन्होंने अपनी सुन्दरता तथा भोलेपन से इतनी सहजता से निभाया है कि ये चरित्र निश्चित ही भारतीय सिनेमा के अमर चरित्रों में से एक बन जाएगा. अपनी आँखों, अपने हाव-भाव तथा अपने संवाद बोलने के तरीकों को उन्होंने इतनी खूबसूरती से इस्तेमाल किया है कि दर्शक अपनी हंसी तथा सहानुभूति कभी भी किरदार से परे नहीं रख पाते हैं. भोजपुरी सीखने के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है, वो तो फिल्म में आप अवश्य देख ही लेंगे. प्रथम दृश्य से आखिरी दृश्य तक आमिर अपने पात्र को सहजता तथा सार्थकता प्रदान करते हैं. अनुष्का शर्मा भी कदम से कदम मिलकर आमिर को सहारा देती हैं, उनके सर्वश्रेष्ठ प्रयासों में से एक है. एक पत्रकार की भूमिका से अधिक वो एक एलियन की मित्र तथा पिता को मनाने में लगी एक विवश बेटी के किरदार में ज्यादा अच्छी लगीं. फिल्म में बाकी किरदारों के लिए जगह कम था, परन्तु सौरभ शुक्ल ने यह सिद्ध किया कि वो अपने किरदार को किस खूबसूरती से निभा सकते हैं. तपस्वी महाराज के चरित्र को वो काफी सहजता से निभाते हैं, सुशांत सिंह राजपूत अपने छोटे से किरदार काफी ताजगी लेकर आये हैं, तथा अंतिम दृश्य में उनकी आवाज़ में बसी बेचैनी को इतना सुंदर दिखाया गया है कि आप प्रशंसा किये बिना रह नहीं पाएंगे. बोमन ईरानी के चरित्र को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं दिया गया. संजय दत्त फिल्म की आत्मा को जीवित रखते हैं, ऐसे किरदारों में उनका कोई सानी नहीं है. उन्हें पुनः किसी ऐसे किरदार में देखने को बेचैन हैं.  परीक्षित सहनी चित परिचित हठी पिता के किरदार में जांचे हैं. राम सेठी को वर्षों बाद देख कर अच्छा लगा, रणबीर कपूर भी आंखों को कुछ मिनट के लिए अच्छे लगे, सभी कयासों से परे.


फिल्म के असली हीरो आमिर और राजकुमार हिरानी के मध्य बना सामंजस्य तथा उन दोनों ही का परफेक्शन के प्रति बसा प्रेम ही है जो फिल्म को अलग मंच प्रदान करता है, इतने दुर्गम कथा को इस सुगमता से दिखा पाना कतई एक आसान कार्य नहीं है, इस हेतु दोनों ही बधाई के पात्र हैं. संगीत मधुर है, तथा छायांकन जीवंत. एक अच्छे व एक सफल फिल्म में जो कुछ भी होना चाहिए वो सब है, एक प्रश्न तथा मनोरंजन भी. हिरानी स्टाइल में हंसी तथा आंसू का मधुरमिलन भी. जो रह रह कर परदे पर आ ही जाते है. पीके एक साहसी कथा है, 3 इडियट्स की ही तरह, वो शिक्षा प्रणाली पे व्यंग्य था, ये शिक्षा तथा कुशिक्षा के परिणामों का. धर्म व धार्मिक सद्भावों के प्रति स्म्मंसाहित एक व्यंग्य जिसे नकारा नहीं जा सकता है, इसे गले लगन आवश्यक है, तथा आवश्यक है एक प्रश्न कि हमारे अन्दर भी पीके की तरह प्रश्न पैदा क्यों नहीं होते हैं?     

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

देख कबीरा रोये!!


बिग बॉस के घर में कबीर
                                          -         अंकित झा

मानव मानव में ये कैसा बैर, जो कानाफूसी करते सोये,
भेद नहीं कोई कैसा है, मन अब व्याकुल होए
इस विचित्र व्यवस्था को देख कबीरा रोये......


बहुत सुन रखा है, सोंचा हो ही आये एक बार को. जहां हीरो-हेरोइन से लेकर नेता, डकैत, कवि, खिलाड़ी और यहाँ तक कि स्वामी-साधू भी निवास कर आये हों. मैं तो कवि भी हूँ, और स्वामी-साधू भी. खिलाड़ी भी हूँ, और पथ-प्रदर्शक भी. जब मुझसे गृहप्रवेश का आग्रह किया था तो मैं इतना डर गया था कि  4 दिन तक अपने घर भी नहीं लौटा था, मेरी कलम विरह के आग में इतनी जलने लगी कि स्वतः चलने लगी और ना जाने किन हालातों में वो बेवफाई कर बैठी मुझसे. बिग बॉस वालों के आग्रह कागज़ पर उसने मेरे हस्त उकेर दिए, रात भर पंखे को देख कर यही सोंच रहा था, बिना डुलाये न डुले, जो पंखे का पैन. फिर समझ में आया कि गर्मी बहुत हो गयी है, पंखा डुला ही लिया जाए. उस घर में पंखा तो होगा न? मेरे चन्दन की कद्र तो होगी न? चलो रह कर देख ही लिया जाये. फुर्सत में लिख भी लिया जाएगा, सचिन तेंदुलकर के रनों का रिकॉर्ड तोडूंगा अपने दोहों से. कॉन्ट्रैक्ट वगैरह पर हस्त उकेर कर मैंने निश्चय किया कि घर के माहौल को देख कर ही अगला निर्णय किया जाएगा. और अपनी पोटली उठा कर मैं चल दिया बिग बॉस के घर में. मेरे लिए तो एक ही बिग बॉस है, वो चन्दन मैं पानी, वो दीपक मैं बाती, वो सूरज मैं तेज, वो जल और मैं शीतलता. किसी और बिग बॉस का आदेश मुझे पराई स्त्री के साथ सम्मोहन सा लग रहा था. धूम-धाम से मुझे चमचमाते सेट पर बुलाया गया, जब तक ना बुलाया गया, काले परदे के पीछे मुझे खड़ा रखा गया, हट्ठे-कट्ठे नौजवान प्रहरी की तरह इर्द-गिर्द गश्त लगाए थे. आज मैं घर बसाने जा रहा था, अपनी काशी से बहुत दूर, आने वाले किसी दुस्स्वप्न को जो मैं देख रहा था, उसे शब्दों में पिरो पाना मेरे लिए भी आसान नहीं है.

दरवाजा खसका, मैं भीतर, कलम ले जाने की अनुमति नहीं मिली. कहा जब ये खिलाड़ी बल्ला लेकर नहीं जा रहा तो आप कलम का क्या करेंगे? मैं चुप रहा, अपने स्वामी को याद किया और उनसे शुभाशीष लेकर पहला कदम किसी नवागंतुक वधु की भांति अन्दर रखा, चावल नहीं थे द्वार पर, अतः मैंने वहाँ उगे हुए घास को ही चावल का उपमा देकर कहा, “बिग बॉस बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, दीखता-विखता है नहीं, हुक्म दे जैसे हजूर”. ईश्वर को दिल में बसाये मैं घर में प्रवेश कर चूका था. घर में पहले से 7 लोग थे, मुझे देखकर थोडा आश्चर्य करने लगे, सोंचने लगे कौन है ये, नरहरि? सृष्टिकर्ता ने मुझे कुछ अलग तो निर्मित किया नहीं है, जैसे सब हैं, वैसे हम भी ठहरे. अब बस मेरे तुलसी के माले और माथे पर लगे चन्दन के लेप के कारन अलग क्यों बताया गया. तभी एक सुंदरी ने आगे बढ़कर मेरा अभिवादन किया, मैंने भी हंसकर उसे स्वीकार किया. एक एक कर सभी ने मुझे सादर संबोधित किया अमिने सभी का आभार प्रकट किया. अब जब घर में 13 मनुष्यों संग मैं वार्तालाप में लीन था, हुजूर-ए-आलम का पहला आदेश आया, उन्होंने हम सबका स्वागत किया तथा अपने हाल पर जीने को छोड़ दिया.

घर में 7 सुंदरियों, 5 नौजवानों के अतिरिक्त मैं और एक अन्य नौजवान है. उस नौजवान को मैं प्रारंभ से ही देख रहा हूँ, जो अब तक समझ में आया है वो ये है कि घोर कलयुग आ गया है. उसकी जो नज़र है वो क्रिकेटर पर अच्छी नहीं लग रही. उस सुन्दरी को देखिये, क्या उसे लग नहीं रहा कि उसके नितम्बों के वजन टेल उस आसन का दम निकला जा रहा है, इधर से उधर ढुलके जा रही है, परन्तु अक्ष नहीं बदल रही है, आसन की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जा रही. इस घर में जो ये मेरी पहली रात है बड़ी भयानक तथा अंतहीन सी लग रही है. मैं तो बैरागी ठहरा, दुनिया के झमेले से मुझे क्या लेना, मेरे पास जो सुंदरी आसन लिए बैठी है, दूसरी सुंदरी से कह रही है, ‘यू नो हर फर्स्ट वन डिच्ड हर एन शी टोल्ड मीडिया देट ही चीटेड ओन हर’. और वो बत्तीसी दिखा कर हंस दी. मुझे कुछ समझ नहीं आया अतः मैं मौन रहा. वह जो संदिग्ध नौजवान है, पुरुषों से अधिक स्त्रियों के साथ स्वाभाविक है. पुरुषों के प्रति उसकी आँखों में अनोखा सम्मोहन है, एक और सुंदरी है जो कसमसा कर चल रही है, उसके हर कदम के बाद नौजवानों की आह निकल रही है, कोई कह रहा है, अबे करीब से भी उतनी ही बम दिखती है, तो कोई इसी बात को किसी अन्य भाषा में कह रहा है. एक प्रौढ़ा भी हैं, परन्तु उनकी भी सुन्दरता की कोई सीमा नहीं है. मैं तो सोंचता था कि काशी की गलियां ही सबसे सुन्दर हैं, परन्तु यहाँ के रूप को कोई उपमान देना मेरे शब्दों की हैसियत नहीं. एक सुंदरी के केश यूँ एक दुसरे में उलझे हुए हैं मानों, बरसात के बाद कई झाड़ियाँ एक दुसरे से जा मिली हों, इतनी कोमल कि हरसिंगार की कलियाँ भी शरमा जाए. सौन्दर्य तथा नाजुकता के रस से परिपूर्ण. एक नौजवान आईना देखे जा रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे स्वयं को आईने में देख कर ईश्वर की प्राप्ति हो रही हो, उन्हें क्या पता कि न वो काशी, न वो काबा, वो तो हैं विश्वास में. सभी लोग ऐसे लग रहे हैं, जैसे किसी आचे कार्य के लिए उन्हें एकत्र किया गया है और अब ये सभी राष्ट्ररक्षा हेतु यहाँ से कूच करेंगे. सुंदरियों का सौन्दर्य तथा नौजवानों की आँखों में बढ़ते सम्मोहन के मध्य मैं अकेला बैठा हुआ हूँ. जीवन के यथार्थ तथा रात के विडंबना के मध्य रात्रि के गुजरने की मैं बाट देखता रहा.

रात भर इनकी खुसुर-फुसुर जारी रही, समझ ही नहीं पा रहा था कि रात लम्बी होने से भला बातें थोड़ी ही बढ़ जाती हैं. मेरी कलम मेरे बिना विरह के जिस अग्नि में जल रही होगी, ये सोंच रहा था, कभी मेरे सुबह के नए गीत लिखने वाली मेरी साथी आज अकेली उदास सो रही होगी. आज सुन्दरता से बड़ा कोई आडम्बर नहीं है, ये रात के ढलते ढलते मेरे समझ में आ रहा था. संसार में सौन्दर्य को ढंकने की कला का विकास हो गया है. एक एक कर सभी ढ़लते चले गये, मैं, आँखें खोले रात भर सोंचता रहा ये कैसा जीवन है? इतने अपरिचितों के बीच, मैं खुदा से परिचित कैसे हो पाऊंगा भला! हुजूर-ए-आलम के अगले आदेश तक तो मैं तुच्छ, इन अपरिचितों की भीड़ में अकेला रह जाऊंगा. सुबह हो चुकी थी, प्रभात की पहली किरण के संग मेरे नए अध्याय का पत्रा खुला. सवेरे सही घर में गहमा गहमी है, कार्य आवंटित किये जा रहे थे, मुझे कोई कैसे काम दे सकता है, जब खुदा ने मुझे कोई काम नही दिया तो ये खुदा के सवाल कैसे दे सकते हैं? मैं भी संकोच में अपने कार्य की प्रतीक्षा करता रहा, कोई तो कार्य मिले करने को, ऐसे सोंचता रहा तो जान चली जानी है. कार्य के आवंटन में कोई रुकावट आ गयी है, दो नौजवानों में जुबानी जंग छिड़ गयी है, अब तो खुले में एक दुसरे को अपशब्द कहे जा रहे हैं, हम तो पर स्त्री के समक्ष ईश्वर को याद नहीं करते, ये क्या क्या बोले जा रहे हैं. चल, चल से शुरू हुई बात माता-भगिनी तक पहुँच गयी है, मेरे शब्द तथा अनुभव यदि बीच बचाव कर पाए तो मैं स्वयम को कृत्य समझूंगा. बीच बचाव करने मैं चला तो गया, परन्तु क्रोध ने मुझे भी नहीं बख्सा, जिस तरह मैं कभी गुलाब बन गया था, आज सोंचा नाग बन जाऊं, और सभी को अपने दंश में ले लूं, परन्तु मुझे ये शोभा नहीं देता. एक सुंदरी जो अब मेरे ज़माने की किसी विचित्र वनपरी सी प्रतीत हो रही थी, ने मुझे बीच में न आने का आदेश दिया, स्त्री से बात करने में सदा ही संकोच करता रहा हूँ मैं. फिर उस अप्राकृतिक आदमी ने मुझे सहारा देकर वापस अपनी तरफ खींच लिया, मैं खिंच तो गया परन्तु उस मध्य जो बिजली मेरे रोम-रोम में कौंधी उसका वर्णन मैं नहीं करना चाहता. धीरे धीरे सब शांत हो गया, दल बन गये, कोई वहाँ चोंच लगाये बैठा है, कोई कहीं ओर. सुंदरियां अपने वस्त्रों को कभी ठीक करती हैं, तो कभी जस की तस छोड़ देती हैं, इसे समाज निर्लज्जता की संज्ञा क्यों ना दे?

मुझे क्रोध आ रहा था, मैं अकेला छूट गया था. मेरे होंठ सूजे जा रहे थे, भभक रहे थे, आँखों के आगे काले बादल से छा रहे थे. आँखें कभी रुआंसी हो जाती तो कभी शांतचित्त. वो प्रौढ़ा इस उम्र में भी किसी कमसिन की तरह युवाओं के कलेजे को जला रही थी, मेरे भी. मैं वहाँ से उठ भगा, किसी की प्रतीक्षा किये बिना, कलम से जा मिला, लिपट के रो दिया. और लिखा:
कबीरा खड़ा बाज़ार में, देख कलम को राये,

कैसी पटकथा थी जिसमें मनुष्य अकेला सोये.

सोमवार, 17 नवंबर 2014

अंतर्मन से

जीना आया
-         मनीष झा



आज जब इस गुस्ताख़ मौसम में,
अपने घर से निकला तो एक ख्याल आया,
बादल की ओट से आंखमिचौली करता धूप,
मेरे होंठों पर ना जाने क्यों मुस्कान बिखेर रहा है,
आँखों को जो आदत थी, सपने बुनने की
ठीक वैसे ही चेहरे का ख्याल आया..

तेरी मासूम सी आँखों को देख..
मेरे दिल को सुकून आया
बेजान सा पडा हुआ था मैं,
तुम्हें देखा तो जीने का ख्याल आया,
क्या होती है आशिक़ी
ये तुमने मुझे बताया।।

सो चुकी थी ज़िन्दगी मेरी...
जिसे तुमने फिर से जगाया।
नम पड़ी मेरे आँखों को..
तुमने फिर से है हँसना सिखाया।।
जी रहे थे गफलत की ज़िन्दगी अब तक,
तुम्हारे एहसास ने दिल को धड़कना सिखाया,
क्या होती है आशिकी..
ये तुमने मुझे बताया।।

यूँ बदलते हुए देख मेरा नसीब, खुदा भी सोंचता रहा,
सोयी रातों में जागे जागे मुस्कुराता रहा,
मैं शुक्रगुजार हूँ उन लम्हों का,
जब तुम्हारा दीदार पाया था मैंने,
खुदा का, कि उसने तुम्हें बनाया
क्या होती है आशिकी..
ये तुमने मुझे बताया।।

वो हलकी सी तुम्हारी मुस्कान, ..
होठों के पास तिल का यूँ सिकुड़ना,
नज़ाकत तुम्हारी अदाओं का जो है,
जादू सा है मुझपे चलाया।।
लब्ज़ ना थे जिसे कुछ कहने को..
उसे शायर है तुमने बनाया।।
क्या होती है आशिकी...
ये तुमने मुझे बताया।।

बुधवार, 12 नवंबर 2014

फिल्म रिव्यु

समाज के सिद्धांत तथा शैतानियों का अवशेष है शौक़ीन

                                                  -         अंकित झा

जब तक समाज अपनी सनकियों से पार नहीं पा लेगा, तब तक समाज में ग्रंथियां व्याप्त रहेगी. मानवीय विकार तथा अधूरे सपने, या फिर कहें कि अधूरी ग्लानियां सदा से ही समाज में बढ़ते वहशीपन का कारण रही है. जब समाज में अनुभव तथा मर्यादा के प्रतीक कहे जाने वाले वृद्ध कभी अपने अरमान पूरे करने निकल पड़े तब क्या हो? इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि शैतानी किस उम्र में हो रही है, परन्तु यदि उस शैतानी में किसी की अस्मिता तथा मर्यादा खतरे में पड़ती है तो वह गलत है. अपनी फिल्म तेरे बिन लादेन में अंतर्राष्ट्रीय शांति का सन्देश देने वाले अभिषेक शर्मा ने जब 80 के दशक की सफल फिल्म शौक़ीन को पुनः बनाने की सोंची होगी तो क्या उनके सामने समाज के मानदंड नहीं आये होंगे? अपने राजनीतिक तथा सामाजिक उद्देश्यों को उजागर करने वाले तिग्मांशु धूलिया जब ये फिल्म लिख रहे होंगे तो क्या उन्हें समाज में व्याप्त गंद नहीं दिखा होगा? परन्तु हर विषय को नज़रंदाज़ कर दिया गया, फिल्म के प्रथम दृश्य से अंतिम दृश्य तक आज के समाज के सबसे बड़े प्रश्न का ख्याल किसी को नहीं आया, पता नहीं कैसे? हालाँकि फिल्मों से हमें ऐसी अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए परन्तु अब जब सिनेमा समाज में दखल दे रहा है तो ऐसी अपेक्षाएं गलत कैसे हो सकती हैं. तीन बूढ़े, 2 शादीशुदा परन्तु वो उच्चाहट अभी समाप्त नहीं हुई, 1 विधवाश्रम चलाता है परन्तु उसका आश्रम की विधवाओं के संग किया जाने वाला व्यवहार अनुचित ही नहीं अश्लील लगता है.


अनुपम खेर, पियूष मिश्र तथा अन्नू कपूर तीनों ही अभिनेता अपने किरदार में अच्छे लगते हैं, पियूष मिश्रा को पहली बार ऐसा पात्र अभिनीत करते देख अच्छा लगा. इसके पहले वो तेरे बिन लादेन तथा रॉकस्टार में सार्थक अभिनय कर चुके हैं, अन्नू कपूर को विक्की डोनर के बाद फिल्म मिलने लगे हैं. अनुपम खेर हर शुक्रवार को ही दिखाई देते हैं तो उनके प्रति ऐसी कोई उत्सुकता नहीं दिखी. क्वीन के बाद अभिनेत्री लिसा हेडन से काफी उम्मीदें होनी लगी थी, वह व्यर्थ था. अक्षय कुमार इस बार वो कर रहे हैं जो फराह खान तथा साजिद खान बेहतरीन तरीके से करते हैं, अपने अरमान को किरदार के नज़र से पेश करना. यह कोई छुपी बात नहीं कि अपने 22 वर्ष के करियर में अक्षय कुमार ने एक भी सफल संजीदा फिल्म नहीं की है और ना ही कोई सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीता है. वहीँ उनके सबसे नज़दीक के साथी रहे सुनील शेट्टी ने रेड जैसी फिल्म कर चौंका दिया था, इससे अक्षय के स्टारडम पर कोई फर्क नहीं पडा है, और न ही वो बुरे अभिनेता हैं. जॉन अब्राहम जैसे अभिनेता भी ‘विरुद्ध, मद्रास कैफ़े’ जैसी संजीदा फिल्म कर चुके हैं, पूरी फिल्म को फराह खान तथा रोहित शेट्टी नुमा हास्य से सजाय गया है. फिल्म में गलत के नाम पर यह है कि यहाँ वो हो रहा है जो हम नित्य और शायरियों में सुनते रहे हैं. कौन कहता है कि बूढ़े इश्क नहीं करते. हालाँकि बूढों की मासूमियत हंसने पर विवश करतीहै परन्तु एक समय के बाद वो मासूमियत हवस सी प्रतीत होने लगती है, तत्पश्चात हंसने के लिए किसी स्थिति विशेष की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. कहानी इतनी स्पष्ट है कि कोई भी आसानी से समझ जाए आगे क्या होने वाला है. कहानी में ट्विस्ट के नाम पर अक्षय कुमार के प्रति एक लड़की की दीवानगी को दर्शाया गया है. ऐसा लगभग होता है, 70 के शुरुआत में आई हृषिकेश मुख़र्जी की जया भादुरी अभिनीत “गुड्डी” इसका सबसे अनुपम उदाहरण है. फिल्म में फूहरता के लिए जगह है परन्तु परिवार दर्शकों के लिए उसे कम करने की कोशिश की गयी है. बीते कुछ समय में आई सभी हास्य फिल्मों से इस फिल्म में फूहरता कम है, लेकिन है अवश्य. एक अंतहीन अंत, तथा एक धरातलरहित नींव फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है. निर्देशन के लिए कुछ विशेष करने को था नहीं परन्तु अपना काम अभिषेक बखूबी करते हैं. अभिनय सभी का अच्छा है, यदि लिसा हेडन को छोड़ दिया जाए. अक्षय कुमार चित परिचित अंदाज़ में हैं, उन्ही के तरह के गाने भी हैं जिसमें वो 50 से भी अधिक बार थिरक चुके हैं. तीनों वरिष्ठ नागरिक फिल्म को बचाने की कोशिश करते हैं, अनु कपूर का सबसे उम्दा काम है, पियूष मिश्र भी खूब समां बांस्ते हैं. अनुपम खेर कुछ स्पष्ट नहीं कर पाए.
शौक़ीन कतई एक विशेष फिल्म नहीं है, यह ना ही एक सार्थक हास्य है और ना ही सार्थक सामाजिक कथा. यदि कुछ है तो निरर्थक सिनेमा. कला फिल्मों के प्रति अक्षय कुमार का रुझान हमें याद दिलाता है कि इस समय कितनी आवश्यकता है कि बड़े अभिनेता कुछ सार्थक करें. लेखक के नज़र से ना सही अपनी ही नज़र से इस फिल्म को एक कटाक्ष के रूप में अवश्य देखा जाए.

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

अंतर्मन से

पहचान
-          मनीष झा
भर ले नई उड़ान,
बना ले तेरी पहचान।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।

तेरे इरादे है महान,
मत बन खुद से तू अनजान।
कर जा तू कुछ ऐसा काम,
जग बन जाए तेरा कद्रदान।।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।

अपने मन की बात तू मान,
हौसलों को  चढ़ा तू परवान।
तू मनुष्य है क्षमतावान,
ईश्वर को भी है तुझपे गुमान।।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।

तुझसे कहता है ये नादान,
अकेला खुद को ना तू जान।
तू हम सबका है अभिमान,
तुझे है जीतना ये जहान।।
तेरे पंखों में है जान,
तुझे छुना है आसमान।।