शनिवार, 20 दिसंबर 2014

फिल्म रिव्यु

आंसू तथा मुस्कान का मधुरमिलन अर्थात पीके
                                          -          अंकित झा

हमारे अन्दर क्यों पैदा नहीं होते हैं पीके की तरह कोई प्रश्न? ऐसा कोई निष्कर्ष कि दुनिया में दो भगवान हैं, एक जिसने हमें बनाया है दूसरा जिसे हमारे समाज ने बनाया है. सर्वशक्तिमान की ही पूजा क्यों न की जाए......

 एक सार्थक सिनेमा वही है जिसमे दर्शक यह सोंचने पर विवश हो जाए कि यह सच में ऐसा होता है. पीके के एक दृश्य में जब पीके का किरदार निभा रहे आमिर खान अपने मित्र अनुष्का शर्मा अर्थात जग्गू के पिता को यह दिखा रहे होते हैं कि किस तरह से ‘डर’ व्यापार का सर्वोत्तम उपाय है, तब एक पत्थर पर चढ़ रहे चढ़ावे, उसके लिए लगी कतार तथा चाय के व्यापार से हो रही उसकी तुलना यही सोंचने पर विवश करती है. पीके एक विशेष फिल्म है, इसलिए नहीं कि ये सामाजिक अवचेतन में बसे सबसे बड़े डर, या कहें विश्वास पे प्रहार करता है, बल्कि ये विशेष इसलिए है क्योंकि यह एक निष्कर्ष देने का प्रयत्न भी करता है. इस फिल्म की कई परतें हैं, तथा उतने ही महत्वपूर्ण हैं उन परतों में उलझे पात्र. बेल्जियम के सुदर से शहर में एक पाकिस्तानी से प्यार कर बैठने वाली जग्गू, जो अपने पिता के गुरु द्वारा किये गये भविष्यवाणी को सच मान बैठती है और गलतफहमी का शिकार हो के सरफ़राज़ अर्थात सुशांत सिंह राजपूत को खो देती है, वहीँ नए ग्रह पर आते ही कैसे एक एलियन का सबसे महत्वपूर्ण सामान चुरा के एक आदमी भाग जाता है, अपने उस सामान को खोजता वो एलियन, अपने पिता के अन्धविश्वास के विरुद्ध आवाज़ उठाती जग्गू, भगवान को ढूंढता पीके, समाज के अन्धविश्वास में उलझा पीके, धर्म तथा इश्वर के यथार्थ से अनभिज्ञ समाज. सभी चरित्र एक प्रश्न के साथ फिल्म की पटकथा में समां गये हैं, उन्हें अपनी ज़मीन तलाशने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. अभिजात जोशी तथा राजकुमार हिरानी द्वारा रचित पटकथा इतनी सार्थक लगती है कि किसी भी दृश्य में उबाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु 3 इडियट्स जैसी फिल्म दे चुकी ये जोड़ी यहाँ पर थोड़ी कमजोर अवश्य लगती है, लेकिन इस वर्ष आये किसी भी फिल्म के मुआबले कई सशक्त व समझदार, भले ही वो क्वीन ही क्यों न हो या सिटीलाइट्स ही क्यों न हो. फिल्म के दृश्य इस सुन्दरता से लिखे गये हैं कि सभी दर्शक वर्ग आसानी से कहानी को समझ व विश्वास कर सकते हैं, ख़ासकर एक एलियन के इतने चतुर प्राणी बनने का सफ़र जो इंसानी विकास की तरह ही है, और दिखाता है कि मनुष्य ने अपने ही समाज में कितनी कठिनाइयाँ पाल राखी है, संरचनात्मक कठिनाइयां.


जबसे फिल्मों में इंटरवल अर्थात मध्यांतर का चलन आया है, तब से पटकथा के भी दो हिस्से होने लगे हैं. पीके अपने पहले भाग में इतनी सशक्त है कि किसी भी अन्य फिल्म से इसकी तुलना बेमानी होगी. दुसरे भाग में फिल्म अपने सामाजिक सरोकार को पूरा करने में लग जाती है, जिसमें पूरी तरह सफल होते हैं, परन्तु यदि ओह माय गॉड की तरह ही यदि बाबा का अंजाम भी दिखा दिया जाता तो कुछ सुकून मिलता. परन्तु यह भी एक सत्य है कि निष्कर्ष के लिए राजकुमार हिरानी सदा ही एक प्रश्न छोड़ते हैं, ये अंजाम वही एक प्रश्न है. यह फिल्म कतई ईश्वर के अस्तित्व तथा धर्म के वास्तविकता की फिल्म ना बन पाती यदि एलियन के संघर्ष को चित्रित ना किया जाता. उसके संहर्ष में एक बहुत बड़ी निराशा छुपी है, जिसके परिणामस्वरुप ही वह ईश्वर के अस्तित्व को ढूँढने की चेष्टा करता है. वह कोई भी धार्मिक गतिविधि अपूर्ण नहीं छोड़ता जिसके कारन उसे ईश्वर मिल सकें, परन्तु उसकी निराशा उसे यह मानने पर विवश करती है कि ईश्वर कहीं लापता हो गये हैं, उन्हें ढूंढना पड़ेगा. फिल्म में धर्म की प्रासंगिकता के जो प्रश्न उठाये गये हैं वो सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं, दकियानूसी मान्यताओं से परे, तथा समाज में व्याप्त बनावटी सत्य के विरुद्ध उठे ये प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण साबित होते हैं जब पीके अस्पताल में जन्मे नवजात शिशु के शरीर पर धर्म का लगा ठप्पा ढूँढने का प्रयास करता है, परन्तु उसे वह कहीं प्राप्त नहीं हो पाता है. वो समझ जाता है कि धर्म जैसी कोई व्यवस्था ईश्वर ने नहीं बनायीं है अन्यथा बच्चे के शरीर पर ठप्पा अवश्य होता. कहानी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, रॉंग नंबर का सत्य. बाबा द्वारा सुझाए गये रास्तों की समीक्षा कर उसे सही या गलत बताने का प्रयास लाजवाब है. फिल्म के आखिरी हिस्सों में से एक में पीके यह स्पष्ट रूप से कहता है कि “ब्रह्माण्ड के एक छोटे से गोले(ग्रह) के छोटे से देश के छोटे से शहर के छोटी से गली में बैठे आप छोटे से आदमी उसकी रक्षा करने की बात करते हैं जिसने की ये पूरा ब्रह्माण्ड बनाया है.” क्या यह बात विचारनीय नहीं है कि ईश्वर की रक्षा करने वाले हम कौन होते हैं? हिन्दू-मुस्लिम, भगवान-खुदा का अंतर हम कैसे कर सकते हैं, किसी के नीयत का निर्णय हम उसके धर्म के आधार पर कैसे कर सकते हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देना काफी मुश्किल है, उतना ही मुश्किल काम है ऐसी कोई फिल्म रचना. एक अकल्पनीय पात्र को जीवंत कर देना, सभी की कल्पना से परे पीके एक ऐसा पात्र है जो समाज से अधिक सोंचता है क्योंकि वह निश्चित ही समाज के हिसाब से नहीं सोंचता है, या कहें सोंच नहीं पाटा है. जग्गू को वो यह विश्वास दिलाता है कि उसके पिता आज उससे नाराज़ इसलिए हैं क्योंकि अभी वह स्वयं पे पूरा विश्वास नहीं कर पा रही है जिस दिन सत्य सिद्ध हो जायेगा उसके बाद से पिता की सीटी उसी प्रकार नहीं रुकेगी जिस प्रकार कक्षा 10 में उसकी कविता पाठ के बाद नहीं रुके थे. बैंड मास्टर भैरों सिंह के किरदार में संजय दत्त पीके को नयी राह प्रदत्त करते हैं, यही राह सभी प्रशों की ओर कदम को निर्धारित करते हैं.

अभिनय के मामले में आमिर खान इस फिल्म की जान हैं, फिल्म की आत्मा भले ही कहानी तथा पटकथा है, परन्तु फिल्म को शरीर आमिर खान ने प्रदान किया है, एक एलियन के पात्र को उन्होंने अपनी सुन्दरता तथा भोलेपन से इतनी सहजता से निभाया है कि ये चरित्र निश्चित ही भारतीय सिनेमा के अमर चरित्रों में से एक बन जाएगा. अपनी आँखों, अपने हाव-भाव तथा अपने संवाद बोलने के तरीकों को उन्होंने इतनी खूबसूरती से इस्तेमाल किया है कि दर्शक अपनी हंसी तथा सहानुभूति कभी भी किरदार से परे नहीं रख पाते हैं. भोजपुरी सीखने के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है, वो तो फिल्म में आप अवश्य देख ही लेंगे. प्रथम दृश्य से आखिरी दृश्य तक आमिर अपने पात्र को सहजता तथा सार्थकता प्रदान करते हैं. अनुष्का शर्मा भी कदम से कदम मिलकर आमिर को सहारा देती हैं, उनके सर्वश्रेष्ठ प्रयासों में से एक है. एक पत्रकार की भूमिका से अधिक वो एक एलियन की मित्र तथा पिता को मनाने में लगी एक विवश बेटी के किरदार में ज्यादा अच्छी लगीं. फिल्म में बाकी किरदारों के लिए जगह कम था, परन्तु सौरभ शुक्ल ने यह सिद्ध किया कि वो अपने किरदार को किस खूबसूरती से निभा सकते हैं. तपस्वी महाराज के चरित्र को वो काफी सहजता से निभाते हैं, सुशांत सिंह राजपूत अपने छोटे से किरदार काफी ताजगी लेकर आये हैं, तथा अंतिम दृश्य में उनकी आवाज़ में बसी बेचैनी को इतना सुंदर दिखाया गया है कि आप प्रशंसा किये बिना रह नहीं पाएंगे. बोमन ईरानी के चरित्र को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं दिया गया. संजय दत्त फिल्म की आत्मा को जीवित रखते हैं, ऐसे किरदारों में उनका कोई सानी नहीं है. उन्हें पुनः किसी ऐसे किरदार में देखने को बेचैन हैं.  परीक्षित सहनी चित परिचित हठी पिता के किरदार में जांचे हैं. राम सेठी को वर्षों बाद देख कर अच्छा लगा, रणबीर कपूर भी आंखों को कुछ मिनट के लिए अच्छे लगे, सभी कयासों से परे.


फिल्म के असली हीरो आमिर और राजकुमार हिरानी के मध्य बना सामंजस्य तथा उन दोनों ही का परफेक्शन के प्रति बसा प्रेम ही है जो फिल्म को अलग मंच प्रदान करता है, इतने दुर्गम कथा को इस सुगमता से दिखा पाना कतई एक आसान कार्य नहीं है, इस हेतु दोनों ही बधाई के पात्र हैं. संगीत मधुर है, तथा छायांकन जीवंत. एक अच्छे व एक सफल फिल्म में जो कुछ भी होना चाहिए वो सब है, एक प्रश्न तथा मनोरंजन भी. हिरानी स्टाइल में हंसी तथा आंसू का मधुरमिलन भी. जो रह रह कर परदे पर आ ही जाते है. पीके एक साहसी कथा है, 3 इडियट्स की ही तरह, वो शिक्षा प्रणाली पे व्यंग्य था, ये शिक्षा तथा कुशिक्षा के परिणामों का. धर्म व धार्मिक सद्भावों के प्रति स्म्मंसाहित एक व्यंग्य जिसे नकारा नहीं जा सकता है, इसे गले लगन आवश्यक है, तथा आवश्यक है एक प्रश्न कि हमारे अन्दर भी पीके की तरह प्रश्न पैदा क्यों नहीं होते हैं?     

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