धन्यवाद अन्ना, धन्यवाद केजरीवाल, धन्यवाद
मोदी: चुनाव अब नेताओं का ही नहीं रह गया
- अंकित झा
धन्यवाद अन्ना, उस जनक्रांति के लिए. उस आन्दोलन के लिए जिसने देश को पुनः विचार करने पर विवश कर दिया, धन्यवाद केजरीवाल, एक अमर आन्दोलन की पटकथा लिखने के लिए, एक नयी सोंच से समाज को मिलवाने के लिए. धन्यवाद मोदी, फिर से उम्मीद तथा स्वाप्न देखने की हिम्मत देने के लिए.
चुनाव अब हर घर में पहुँच रहा है, हर घर में वोटर हो या नहीं पर
वोट की कीमत महसूस होने लगी है. आज कल चुनाव बगावती हो गये हैं, अब जनता मूक दर्शक
नहीं रहती है, आंदोलित हो गये हैं. कुछ उसी तरह जैसे एमजीआर के समय हुआ करते थे,
या कांग्रेस और वामपंथ के नाम पर हुआ करते थे. वाह! ट्रेन, बस, मेट्रो, ऑटो, कॉलेज,
दूकान, और घरों में केजरी-मोदी के नाम का बहस छिड़ने लगा है. दिल्ली चुनाव सिर्फ
दिल्ली तक ही सीमित नहीं रह गया है, क्योंकि यहाँ जात-पात, धर्म-भाषा से परे
उम्मीद और उन्माद की जंग चल रही है. दिल्ली की तरफ पूरा देश एक आशा से देख रहा है,
यहाँ किसके वादों का गुब्बारा पहले फूटेगा? या फिर दिल्ली में किसके वादों की धार
कायम रहेगी? अलीगढ से दिल्ली आ रही ट्रेन हो या भोपाल से दिल्ली आ रही ट्रेन,
रांची से दरभंगा जा रही ट्रेन ही क्यों न हो, या मुंबई के बसों में ही सही, कोई
केजरीवाल तो कोई मोदी के नाम पर लड़ जाने को तैयार है, दिल्ली के बसों में चल रहे
बहसों को तो संरक्षकों का समर्थन भी मिल जाता है, ऑटो ड्राईवर हो या पान के दूकान
दार सभी आम आदमी के ग़मों का रोना रोते हुए भूल जाना चाहते हैं किसी तथाकथित
वादाखिलाफी को.
इस सबके पीछे कौन सा जूनून है, हालाँकि इस देश में चुनाव सदा
से ही ऐसे हुआ करते हैं, जहां नेता तो बनावटी रूप से एक दुसरे के खिलाफ खड़े रहते
हैं, परन्तु समर्थक उन्ही नेताओं के लिए जान तक देने को तैयार रहते हैं. आज से
नहीं पहले चुनाव से. मेरे दादाजी बताते हैं, पहले चुनाव में तो वो उतने सक्रीय
नहीं थे परन्तु फिर वामपंथी नेताओं के लिए वो इतने समर्पित हुए कि जेल तक जाने को
तैयार हो गये, संघर्ष कायम रहा, संघर्ष में विजय का मोह अवश्य होता है परन्तु
पराजय का भय नहीं. आखिर ज़मीर बड़ा या जिस्म? ज़मीर मुद्दों के लिए कुर्बान हो जाने
पर मजबूत माना जाता है, जिस्म तो अमर होता ही नहीं. ये सब समाजवादी नेताओं के
ज़माने हुआ करता था, जब राजनेता असेंबली से निकलकर कवियों के व्यंग्य में शामिल हो
गये, उसके बाद ऐसी मर मिटने वाली बात नहीं दिखती थी, दिखती भी थी तो उतनी ही
स्वार्थी और कपटी जितनी उन नेताओं के मंशे थे. डर मानव मनोविज्ञान का सबसे खतरनाक
तथा भयानक सच है. डर, हारने का, अपना आधार छिन जाने का, मुद्दों के दब जाने का,
अवसर चूक जाने का. डर आवश्यक है, खासकर राजनेताओं के मन में. वहाँ डर आवश्यक है. 5
साल काफी लम्बा समय होता है, ये समय होता है मानवीय आशाओं के बनने और टूटने का, और
डर के बने रहने और डर से विमुख रहने का. न इसके पूर्व और न इसके पश्चात्. शेष,
विशेष और अवशेष के मध्य की अवधि.
अब चुनाव सिर्फ नेता ही नहीं लड़ते हैं, उनसे जुडी आशाएं लडती
हैं, उनसे जुडी उम्मीदें लड़ती हैं, नेताओं के समर्थक लदत हैं, नेताओं का इतिहास, मुद्दे,
तकनीक, जन आधार, मीडिया सभी, नेताओं के साथ लड़ते हैं. पार्टी नहीं, व्यक्ति विशेष
लड़ते हैं. जनता अब देखती नहीं, बोलती है, प्रश्न पूछती है. किसी लोकतंत्र में
बोलना अतिआवश्यक है, और प्रश्न पूछना तथा तर्क रखना तो लोकतंत्र की आत्मा है, पिछले
कुछ समय से ये आत्मा किसी बोतल में बंद हो गयी थी, सुना है किसी परिवार के सजावट घर
में तंगी मिलती थी, कुछ विशेष व्यक्तियों को ही अनुमति थी, वहां पहुँचने की. एक
आन्दोलन, एक जनक्रांति और सब कुछ परिवर्तित हो गया, वो आत्मा अब पुनः उस सजावट घर
से निकलकर समाज में पहुँच चूका है. धन्यवाद अन्ना, उस जनक्रांति के लिए. उस
आन्दोलन के लिए जिसने देश को पुनः विचार करने पर विवश कर दिया, उन सभी लोगो को ये
उत्तर है जो यह पूछते थे कि अन्ना का अनशन एक जनक्रांति नहीं था, पुनः सोंचने की
आवश्यकता है क्या? धन्यवाद केजरीवाल, एक अमर आन्दोलन की पटकथा लिखने के लिए, एक
नयी सोंच से समाज को मिलवाने के लिए. एक नया जोश देने के लिए, प्रश्न पूछने तथा
तर्क करने की शक्ति पैदा करने के लिए. धन्यवाद मोदी, फिर से उम्मीद तथा स्वाप्न
देखने की हिम्मत देने के लिए. फिर से किसी प्रधानमंत्री के लिए मर मिटने का जूनून
पैदा करने के लिए. फिर से देश को उसका खोया गौरव लौटाने का प्रयास करने के लिए. आप तीनों का धन्यवाद कि अब देश फिर से जागने का
प्रयत्न करने लगा है. मेरे देश के लोगों ने आँखें खोलने की हिम्मत की है. इस
हिम्मत के लिए देश का धन्यवाद है.
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