बुधवार, 12 नवंबर 2014

फिल्म रिव्यु

समाज के सिद्धांत तथा शैतानियों का अवशेष है शौक़ीन

                                                  -         अंकित झा

जब तक समाज अपनी सनकियों से पार नहीं पा लेगा, तब तक समाज में ग्रंथियां व्याप्त रहेगी. मानवीय विकार तथा अधूरे सपने, या फिर कहें कि अधूरी ग्लानियां सदा से ही समाज में बढ़ते वहशीपन का कारण रही है. जब समाज में अनुभव तथा मर्यादा के प्रतीक कहे जाने वाले वृद्ध कभी अपने अरमान पूरे करने निकल पड़े तब क्या हो? इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि शैतानी किस उम्र में हो रही है, परन्तु यदि उस शैतानी में किसी की अस्मिता तथा मर्यादा खतरे में पड़ती है तो वह गलत है. अपनी फिल्म तेरे बिन लादेन में अंतर्राष्ट्रीय शांति का सन्देश देने वाले अभिषेक शर्मा ने जब 80 के दशक की सफल फिल्म शौक़ीन को पुनः बनाने की सोंची होगी तो क्या उनके सामने समाज के मानदंड नहीं आये होंगे? अपने राजनीतिक तथा सामाजिक उद्देश्यों को उजागर करने वाले तिग्मांशु धूलिया जब ये फिल्म लिख रहे होंगे तो क्या उन्हें समाज में व्याप्त गंद नहीं दिखा होगा? परन्तु हर विषय को नज़रंदाज़ कर दिया गया, फिल्म के प्रथम दृश्य से अंतिम दृश्य तक आज के समाज के सबसे बड़े प्रश्न का ख्याल किसी को नहीं आया, पता नहीं कैसे? हालाँकि फिल्मों से हमें ऐसी अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए परन्तु अब जब सिनेमा समाज में दखल दे रहा है तो ऐसी अपेक्षाएं गलत कैसे हो सकती हैं. तीन बूढ़े, 2 शादीशुदा परन्तु वो उच्चाहट अभी समाप्त नहीं हुई, 1 विधवाश्रम चलाता है परन्तु उसका आश्रम की विधवाओं के संग किया जाने वाला व्यवहार अनुचित ही नहीं अश्लील लगता है.


अनुपम खेर, पियूष मिश्र तथा अन्नू कपूर तीनों ही अभिनेता अपने किरदार में अच्छे लगते हैं, पियूष मिश्रा को पहली बार ऐसा पात्र अभिनीत करते देख अच्छा लगा. इसके पहले वो तेरे बिन लादेन तथा रॉकस्टार में सार्थक अभिनय कर चुके हैं, अन्नू कपूर को विक्की डोनर के बाद फिल्म मिलने लगे हैं. अनुपम खेर हर शुक्रवार को ही दिखाई देते हैं तो उनके प्रति ऐसी कोई उत्सुकता नहीं दिखी. क्वीन के बाद अभिनेत्री लिसा हेडन से काफी उम्मीदें होनी लगी थी, वह व्यर्थ था. अक्षय कुमार इस बार वो कर रहे हैं जो फराह खान तथा साजिद खान बेहतरीन तरीके से करते हैं, अपने अरमान को किरदार के नज़र से पेश करना. यह कोई छुपी बात नहीं कि अपने 22 वर्ष के करियर में अक्षय कुमार ने एक भी सफल संजीदा फिल्म नहीं की है और ना ही कोई सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीता है. वहीँ उनके सबसे नज़दीक के साथी रहे सुनील शेट्टी ने रेड जैसी फिल्म कर चौंका दिया था, इससे अक्षय के स्टारडम पर कोई फर्क नहीं पडा है, और न ही वो बुरे अभिनेता हैं. जॉन अब्राहम जैसे अभिनेता भी ‘विरुद्ध, मद्रास कैफ़े’ जैसी संजीदा फिल्म कर चुके हैं, पूरी फिल्म को फराह खान तथा रोहित शेट्टी नुमा हास्य से सजाय गया है. फिल्म में गलत के नाम पर यह है कि यहाँ वो हो रहा है जो हम नित्य और शायरियों में सुनते रहे हैं. कौन कहता है कि बूढ़े इश्क नहीं करते. हालाँकि बूढों की मासूमियत हंसने पर विवश करतीहै परन्तु एक समय के बाद वो मासूमियत हवस सी प्रतीत होने लगती है, तत्पश्चात हंसने के लिए किसी स्थिति विशेष की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. कहानी इतनी स्पष्ट है कि कोई भी आसानी से समझ जाए आगे क्या होने वाला है. कहानी में ट्विस्ट के नाम पर अक्षय कुमार के प्रति एक लड़की की दीवानगी को दर्शाया गया है. ऐसा लगभग होता है, 70 के शुरुआत में आई हृषिकेश मुख़र्जी की जया भादुरी अभिनीत “गुड्डी” इसका सबसे अनुपम उदाहरण है. फिल्म में फूहरता के लिए जगह है परन्तु परिवार दर्शकों के लिए उसे कम करने की कोशिश की गयी है. बीते कुछ समय में आई सभी हास्य फिल्मों से इस फिल्म में फूहरता कम है, लेकिन है अवश्य. एक अंतहीन अंत, तथा एक धरातलरहित नींव फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है. निर्देशन के लिए कुछ विशेष करने को था नहीं परन्तु अपना काम अभिषेक बखूबी करते हैं. अभिनय सभी का अच्छा है, यदि लिसा हेडन को छोड़ दिया जाए. अक्षय कुमार चित परिचित अंदाज़ में हैं, उन्ही के तरह के गाने भी हैं जिसमें वो 50 से भी अधिक बार थिरक चुके हैं. तीनों वरिष्ठ नागरिक फिल्म को बचाने की कोशिश करते हैं, अनु कपूर का सबसे उम्दा काम है, पियूष मिश्र भी खूब समां बांस्ते हैं. अनुपम खेर कुछ स्पष्ट नहीं कर पाए.
शौक़ीन कतई एक विशेष फिल्म नहीं है, यह ना ही एक सार्थक हास्य है और ना ही सार्थक सामाजिक कथा. यदि कुछ है तो निरर्थक सिनेमा. कला फिल्मों के प्रति अक्षय कुमार का रुझान हमें याद दिलाता है कि इस समय कितनी आवश्यकता है कि बड़े अभिनेता कुछ सार्थक करें. लेखक के नज़र से ना सही अपनी ही नज़र से इस फिल्म को एक कटाक्ष के रूप में अवश्य देखा जाए.

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