सोमवार, 17 नवंबर 2014

अंतर्मन से

जीना आया
-         मनीष झा



आज जब इस गुस्ताख़ मौसम में,
अपने घर से निकला तो एक ख्याल आया,
बादल की ओट से आंखमिचौली करता धूप,
मेरे होंठों पर ना जाने क्यों मुस्कान बिखेर रहा है,
आँखों को जो आदत थी, सपने बुनने की
ठीक वैसे ही चेहरे का ख्याल आया..

तेरी मासूम सी आँखों को देख..
मेरे दिल को सुकून आया
बेजान सा पडा हुआ था मैं,
तुम्हें देखा तो जीने का ख्याल आया,
क्या होती है आशिक़ी
ये तुमने मुझे बताया।।

सो चुकी थी ज़िन्दगी मेरी...
जिसे तुमने फिर से जगाया।
नम पड़ी मेरे आँखों को..
तुमने फिर से है हँसना सिखाया।।
जी रहे थे गफलत की ज़िन्दगी अब तक,
तुम्हारे एहसास ने दिल को धड़कना सिखाया,
क्या होती है आशिकी..
ये तुमने मुझे बताया।।

यूँ बदलते हुए देख मेरा नसीब, खुदा भी सोंचता रहा,
सोयी रातों में जागे जागे मुस्कुराता रहा,
मैं शुक्रगुजार हूँ उन लम्हों का,
जब तुम्हारा दीदार पाया था मैंने,
खुदा का, कि उसने तुम्हें बनाया
क्या होती है आशिकी..
ये तुमने मुझे बताया।।

वो हलकी सी तुम्हारी मुस्कान, ..
होठों के पास तिल का यूँ सिकुड़ना,
नज़ाकत तुम्हारी अदाओं का जो है,
जादू सा है मुझपे चलाया।।
लब्ज़ ना थे जिसे कुछ कहने को..
उसे शायर है तुमने बनाया।।
क्या होती है आशिकी...
ये तुमने मुझे बताया।।

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