शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

कविता


समझदार
-          अंकित झा

मेरे मोहल्ले का वो पागल लड़का,
जो नहीं मानता था राम और कृष्ण को,
लेकिन मानता था उनकी कहानी में.
जो सपनों में भी नहीं चाहता था,
कि बने कहीं पर मंदिर,
और टूटते रहे लोगो के सपनों का घर,
किसी अतिक्रमण की आर में.
वो लड़का जिसने कभी किसी से
कोई प्रश्न नहीं किया, अपने
स्वभाव को लेकर.
वो लड़का जो अन्दर ही अन्दर कुढ़ता था
अपनी माँ के ढंके चेहरे को देखकर.
वो लड़का जो चाहता था उसकी बहन भी
पढ़े उसके साथ कॉलेज में,
जिसने नहीं पहनी थी शेरवानी उसकी शादी में,
वो लड़का जो नहीं चढ़ना चाहता था,
घोड़ी, किसी अनजान की किस्मत कुचलने के लिए,
वो लड़का जो लड़ना चाहता था,
एक बार समाज से अपनी मोहब्बत के लिए,
जो उसे हुआ था मात्र 15 वर्ष की उम्र में,
वो लड़का जो नहीं देखता था खेत की
हरियाली के सपने खुले आँखों से,
वो लड़का जिसने देखा था अपने दोस्त को लटकते
चौक के नीम से, अपनी प्रेमिका संग.
वो लड़का जिसकी जिह्वा बड़ी काली थी,
वो लड़का जो नहीं रखता था शौक देह फुलाने के,
जो बैठता था कक्षा में आखिरी सीट पर,
गाता था फैज़ के नज़्म और सुनता था
पाश की कवितायेँ.
वो लड़का जिसने माँ से कभी प्रश्न नहीं किया,
उसकी माँ प्रश्न वाली आँखें लेकर खड़ी हैं,
उसके मृत शरीर के समक्ष,
पूछ रही है कि क्या हुआ है इसे?
किसी ने जवाब दिया समझदार हो गया था... 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

एक हिस्सा मेरे समर्थन का भी ले लो..


एक हिस्सा मेरे समर्थन का भी ले लो..
-         अंकित झा

यह द्वंद्व राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रद्रोह का नहीं है. यह द्वंद्व है देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी फासीवाद का है. जिसकी जड़ छुपी है बंगाल तथा केरल के आने वाले चुनावों में और दूसरी शाखा लटक रही है डब्लूटीओ के पूंजीवादी पालने में.

सब कुछ इतनी रफ़्तार से घट रहा है कि विश्वास नहीं हो पा रहा है कि देश के सबसे प्रगतिशील संस्थानों में से एक को बंद करने की मांग उठ रही है, और वो कर कौन रहा है दिल्ली से दूर भोपाल, पटना, पुणे में बैठे लोग. क्यों भला? क्या आज समाज इतना असहिष्णु हो गया है कि सत्य से परिचय तो दूर सत्य तक जानना नहीं चाहता. क्या यह सत्य नहीं है कि इस देश में विचारधाराओं का महासमर चल रहा है, और अलग अलग मुद्दों पर एक दूसरे को पटखनी देने की तैयारी चलती रहती है. कौन सा ऐसा मुद्दा इस संस्था में उठाया गया जो समाज के लिए जानना आवश्यक नहीं था, अपनी चुप्पी में समाज कौन सा सत्य छुपाने का प्रयास कर रहा है?
Source: thehindu.com 

9 फरवरी को जो कुछ भी हुआ वह दुखद था, नहीं होना चाहिए था. कदापि नहीं, किसी भी हालत में नहीं. किसी भी देश में देशप्रेम से बड़ा कोई विचार नहीं होता, और राष्ट्रहानि से संकीर्ण कोई विचारधारा नहीं. परन्तु उस कार्यक्रम का सत्य जानना आवश्यक है. वो नारे जो लगाए गये किसने लगाए? कैसे लगाए? छात्रसंघ का अध्यक्ष कन्हैया कुमार क्यों गिरफ्तार हुआ? लोगों को लग रहा है उसी ने नारे लगाए. सत्य तो यह है कि उसे गिरफ्तार एक दिन बाद दी गयी उसके भाषण के कारण किया गया है. राष्ट्रदोह का मुकदमा लगा कर. यह समझ के परे है कि सरकारी तंत्र पर प्रहार राष्ट्र पर प्रहार कैसे हो गया? मंत्री से प्रश्न करना राष्ट्र का अपमान कैसे हो गया? एक क्रांतिकारी विचार आतंकी विचार में क्यों बदल दी गयी? एक पुरानी कहावत है कि ‘एक विचार का क्रांतिकारी, दूसरे विचार का आतंकवादी होता है’. दिल्ली से दूर बैठे सभी देशप्रेम की ऐसी ऐसी मिसालें दे रहे हैं कि इस देश में देशप्रेम की धारा इतनी प्रबल है कि सामजिक समस्याओं को तो जगह मिल ही नहीं सकती है. सब झूठ है, एक परदे के पीछे भयानक सा चेहरा लिए छुपा झूठ. सत्य तो यह है कि हम प्रगति से डरते हैं, डरते हैं अपने विचार को झुकते हुए देखने से. यह हमें कतई बर्दाश्त नहीं कि हमारे झूठे शान को कोई चुनौती दे, किसी शिक्षा संस्थान को मंदिर बुलाकर उसे धार्मिक असभ्यता का प्रतीक बना देना कहाँ की प्रगति है? जो मनुष्य शिक्षा को धर्म से नहीं हटा पा रहा है वो क्या प्रगति
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लायेंगे विचारों 
में. परन्तु 9 फरवरी की घटना इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वर्षों पुरानी रंजिश का प्रतिशोध लेने का समय है यह. प्रतिशोध देश में व्याप्त साम्यवादी विचार के विरुद्ध जो अपनी सशक्त पहचान रखता है विश्वविद्यालय में. मान लीजिये देश में वामपंथी सरकार आ गयी और सरस्वती शिशु मंदिर नामक विद्यालय में यदि जय जय माधव जय जय केशव के नारे गूंजते सुनाई दिए तो क्या होगा? या फिर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे की ध्वनि गूंजी तो क्या होगा? वही हो रहा है जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के साथ. सरस्वती शिशु मंदिर और जेएनयु का अंतर इस मामले को समझने में आसानी दे सकता है. ये दो शिक्षा के वो दो पहलु हैं जो समाज को दो अलग अलग विचार प्रदत्त करते हैं, एक प्रगतिशील है तो दूसरा अनुदारपंथी विचारधारा. दोनों ही एक दुसरे के विपरीत विचारों में कार्य करते हैं. एक जगह विद्या का मंदिर है तो दूसरी वो जगह जहाँ अंतर समझाया जाता है मंदिर तथा संस्थान में. और जो आवश्यक भी है. बात शिक्षा के मंदिर तथा मस्जिद बनाने का नहीं है, डर है कि मंदिर तथा मस्जिद में फैली चिंता कहीं शिक्षा को भी इसी भाँती ना ले डूबे जैसे इन्होने समाज को सताया है. देश में पनप रहे राष्ट्रवाद के लहर से अधिक भयावह है हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद. किस आधार पर देश में वामपंथ का हिंसा के आधार पर आलोचना कर रहे हैं?
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यह मुद्दा सिर्फ देश में इन दिनों चल रहे देशप्रेम या देशद्रोह का ही नहीं है, यह मुद्दा उससे कई अधिक संगीन है. यह एक साज़िश की तरह हो रहा है, आज कैसे सभी करदाता अपने पैसों का हिसाब करने एक शिक्षण संस्थान में आ गये, अच्छी बात है यह समाज की जागरूकता को दिखाता है. परन्तु पिछले 70 वर्षों के स्वतंत्र भारत में उन्हीं करदाताओं ने उन्हीं के पैसों से अपनी दरमाहा पा रहे विधायकों, सांसदों, गैर-सरकारी सगठन तथा विभिन्न वैधानिक तथा सरकारी विभागों में कार्य कर रहे लगभग अकर्मण्य लोगों से हिसाब लेने का क्यों नहीं सोंचा? और ना आज सोंचते हैं. विश्वविद्यालय में लगे नारे संकीर्ण मानसिकता के द्योतक थे परन्तु यह जानना बहुत आवश्यक है कि उन नारों के पूर्व तथा उन नारों के पश्चात क्या हुआ? क्यों संस्था के छात्रसंघ के प्रतिनिधि को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया, किस बुनियाद पर पत्रकारों पर अदालत परिसर में हाथ उठाया गया, पत्रकारों ने किस कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए अपना शक्तिप्रदर्शन अपने ही चैनल पे किया? ये सभी प्रश्न करना अनिवार्य है. जेएनयु का दर्द सिर्फ वो संस्था ही समझ सकता है या वहाँ पढ़ रहे प्रगतिवादी छात्र. वो क्या समझेंगे जो अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण मांस के टुकड़े के लिए किसी के शरीर के दो टुकड़े कर दें. खैर यह द्वंद्व राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रद्रोह का नहीं है. यह द्वंद्व है देश में बढ़ रहे राष्ट्रवादी फासीवाद का है. जिसकी जड़ छुपी है बंगाल तथा केरल के आने वाले चुनावों में और दूसरी शाखा लटक रही है डब्लूटीओ के पूंजीवादी पालने में. देश में शिक्षा के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम साफतौर पर राष्ट्र में पल रहे ओजस्वी विचारों को निगलना चाहेंगे. फिर लिंगवादी टिप्पणियां करने वाले जनप्रतिनिधि के चप्पल तले रौंदे भी गये तो शर्म कैसी? अपने अन्दर के राष्ट्रवाद को बचा के रखें, किसी उचित समय के लिए. राष्ट्रवाद किसी सरकार या किसी पार्टी या किसी संस्था की बपौती नहीं है. सरकार किसी पार्टी की नहीं है, सरकार लोगों की है और लोगों को उत्तरदायी है, फिर ये पार्टी बीच में कूदने वाली कौन होती है, किस हक से भाजपा के प्रवक्ता सरकार की बात बोल रहे हैं? सरकार को अपनी बात अपने माध्यम से रखना चाहिए, यह असमंजस फैलाया है इन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों ने. भाजपा और कांग्रेस का प्रवक्ता कभी सरकार का प्रवक्ता नहीं हो सकता है, सरकार के पास अपने माध्यम है अपनी बात रखने का और उन्हीं माध्यमों से उए वह बात रखनी चाहिए जो नहीं रखी जा रही है. अब प्रश्न यह उठता है कि इस खोखले राष्ट्रवाद से उपजी असमंजस को कैसे ठीक किया जाए जो ख्याति जेएनयू ने गंवाई है उसकी भरपाई कैसे की जाएगी? कौन करेगा? किसी वकील के अदालत में हिंसक हो अदालत की लुटी साख की भरपाई कैसे हो? आवश्यक यह है कि देश का युवक जो दिल्ली से दूर बैठे अमरावती, भोपाल, जालन्धर और पटना में बैठे विचार बना रहा है वो दुखद भी है और चिंताजनक भी. जब तक हर मन में यह बात नहीं आएगी कि राष्ट्र के लिए मरना ही राष्ट्रवाद नहीं है, राष्ट्र के लिए मारना ही राष्ट्रवाद नहीं है, राष्ट्ररक्षा के लिए तत्पर रहना ही राष्ट्रवाद नहीं है, सही मायने में तो राष्ट्रवाद अपने आप में ही एक ऐसी अवधारणा है जो किसी को भी स्पष्ट नहीं है, सबसे प्रबल भावना होनी चाहिए राष्ट्रप्रेम. राष्ट्रवाद नहीं. जेएनयु गद्दारों तथा देशद्रोहियों की खदान नहीं है. यह खदान है प्रगतिशील विचारों की. जहां पनपते हैं स्वतंत्र विचार, वो प्रश्न जो कि पूछे जाने चाहिए. सदा ही एक युवा के द्वारा. परन्तु छुपा दिए जाते हैं समाज की ख्याति छुपाने के लिए. “किसी और से आ रही है बहार की खुशबू, आज छुपाने पड़ सकते हैं आस पास के गंध सभी.” 
हो सकता है इस आलेख में कोई तथ्य ना हो, ही सकता है इसमें कोई उद्देश्य ना छिपा हो, हो सकता है इसमें कोई विशेष बातें ना की गयी हों, परन्तु यह मेरा प्रयास है एक संस्था की स्वायत्ता बचाने हेतु अपने विचार रखने का, यह एक प्रारंभ है, अभी और विचार आयेंगे, कुछ तीखे भी हो सकते हैं, जिस तरह कमजोर पड़े वामपंथ को पुनः जीवित किया गया है उसी तरह एक छात्र के अन्दर सोये युवा को जगाना आवश्यक है, सभी विचारों तथा विचारधाराओं के परे. 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

कविता


अंतिम कविता
-          अंकित झा

इससे पहले कि हम सदा के
लिए अलग हों,
तुम्हें सुनाना चाहता था कुछ पंक्तियाँ
तुम्हारे लिए लिखी गयी आखिरी कविता से.
जिस कविता में रख छोड़े हैं मैंने
अपने सभी प्रश्न,
तुम्हारी गरिमा की रक्षा करते हुए,
वो प्रश्न जो तुमसे पूछे जाने थे
दूर जाने की वजह समेटे.
दूर क्या और क्या पास,
कुछ ऐसी गयी हो कि
हमेशा तुम्हें अपने पास ही पाते हैं.
ऐसा भी क्या जाना.
इस कविता में मैंने ऐसे भी कई प्रश्न किये हैं.
तुम ज़िद्दी बहुत हो,
मुझे कभी दुःख नहीं दे सकती,
अतः मैं विदा लेता हूँ,
अपने सभी प्रश्नों के साथ,
और साथ में लिए वो कविता,
जिसमें बार-बार मैंने तुम्हारी सुन्दरता
को नए उपमान दिए हैं.
मेरे लिए वो कविता एक प्यास है,
और तुम पानी की समझ.
ये वही कविता है जिसे लिखने से पूर्व,
गिरे थे मेरे आंसू तुम्हारी हथेली पर,
और तुमने अंतिम बार,
छुआ था मुझे, पोंछने को मेरे आंसू.
उस छुअन के हर एहसास को समेटा है,
मैंने उस कविता में,
तुम्हारे डर को भी अंकित किया है,
और समेटना चाहा है हमारे अधूरे सपनों को,
वो सपने जो तुम्हारे या मेरे नहीं थे.
अब विदा लेने का समय है,
तुमसे और तुम्हारी यादों से,
ये कविता अवश्य पढ़ना,
और खुश रहना, जिसकी तुम्हें आदत है.
हम यूँ ही प्रतीक्षा करेंगे,
किसी एक के टूटने का,
यदि तुम्हारे अभिमान की ही बात हो जाए
तो हमें एक बार बता देना,
हम ही क्षमा मांगते हैं...

बुधवार, 20 जनवरी 2016

कविता


वो कमरा याद है साथी!!
- अंकित झा 

वो कमरा याद है साथी,
जिसकी दीवारों पर आज भी हमारे
हुकूमत के किस्से बिखरे हुए हैं.
उन स्याही से जिससे हमने
लिखना चाहा था तकदीर,
इन बदलते मौसमों के बीच
बदलते दुनिया की.
वो सर्द रातें याद हैं साथी,
जब सड़कों पर दहशतगर्दी के बीच,
हम सहमे से निकल जाया करते थे,
किसी खोज पर, ढूँढने वो सत्य,
जिससे आज भी अनभिज्ञ है समाज.
या फिर याद है वो दरवाज़ा,
जिससे प्रवेश करती थी रौशनी,
हमारे उस संसार में.
रात के आखिरी हिस्से में
रौशनी की प्रतीक्षा में
हमारी आँखों का
कौतूहल अभिसार याद है साथी.
याद तो होगा ही वो आईना,
जिसमें हर सुबह हम दुनिया का,
भविष्य देखा करते थे,
कंघी को अपने बाल में घुमाते हुए,
याद होगी वो गली,
जिसके खुरदुरे रास्तों पर हमने
थूक दी थी दुनिया की रस्में.
और याद होगा वो मंदिर,
जिससे तीन घर पहले रहती थी वो,
जिसके दीदार में हम अक्सर
भगवान् को देख आया करते थे.
जो कुछ नहीं तो वो सड़क ही याद कर लो,
जिसपर चलते हुए हमने
क्या क्या ख्वाब देखे थे,
याद तो होगा ही वो ख्वाब,
रात के आखिरी हिस्से के बाद
सूरज की लालिमा को छूने  की.
या भूल गये हो ख्वाब देखना,
भूल गये वो पाश की पंक्तियाँ
या याद नहीं आती, हमारा वो कमरा
जो आज भी बैठा है क्रांति की प्रतीक्षा में.
चलो ना लिखते हैं क्रान्ति की एक कहानी इस बार
उसी स्याही से, सहमे हुए उन रास्तों पर,
सर्द रातों में, स्वयं का मुखौल उड़ाते हुए,
थूक देंगे फिर से दुनिया की रस्में फिर से,
और देख आयेंगे भगवान् को किसी बहाने से,
चलो न साथी, फिर देखते हैं एक ख्वाब,
उसी गली के मोड़ पे, और तोड़ते हैं
कुछ पत्तियां घर के सामने लगे पीपल से,
जिसके पीछे हमने अपने
 ख्वाब को नाम दिया था. ...

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कविता


संघर्ष के किस्से
          -    अंकित झा 
सुना है सुनाये जाते हैं,
हमारे संघर्ष के किस्से आने वाली पीढ़ियों को,
उन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर,
जिनपे बैठकर कभी हम सोंचते थे संसार
बदलने के बारे में.
उसी अंदाज़ में जिसमें हम ठहाके
लगाते थे शान से.
हाथ में थामे चाय का कप,
और हम पर पड़ती मद्धम किरणें,
उस रौशनी में चाय के रंग के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
सुनाये जाते हैं हमारी जीत के
वो क्षण जब हम नहीं डिगे थे
किसी अभिमान से.
हमारा सब के लिए उपस्थित रहना
और सब के लिए हमारे यश गान के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
हमारी जिद्द की दास्ताँ जो छुपी थी,
हमारे बीच कहीं,
वो कही जाती है गर्व से किसी
घोषणापत्र की तरह,
जिसपर खौल उठते हैं नये खून
हमारे उन्हीं संवादों के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
वो गलियाँ भी दोहराती रहती हैं,
हमारे सपनों के इबारतों को,
जिन गलियों पर चलकर हम
नाप लिया करते थे विश्वास के तीनों लोक.
उन लोकों पर हमारी फतह के किस्से
आज भी सुनाये जाते हैं.
जो छंद हमारे नारों से निकले थे,
आज उन्हें क्रांति गीत बनाकर
कुछ मतवाले बदलना चाहते हैं
समाज की तस्वीर,
उस तस्वीर को बनाने में किये
हमारे संघर्ष के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं.  
नए खून हमारे हस्ताक्षर को पूजते हैं,
किसी आयत की तरह,
और हमारे गीतों को गाते हैं,
किसी गुरबानी की तरह,
उस गुरबानी में छिपी हमारे प्रश्नों को
आज भी पूछे जाते हैं.
रात के आखिरी हिस्से की ओर,
अपने माँ की तस्वीर बगल में दबाये,
आँखों में परिवर्तन की चाह लिए,

हमारे सफ़र के किस्से आज भी सुनाये जाते हैं. 

रविवार, 20 दिसंबर 2015

यदि वह रिहा हुआ तो


यदि वह रिहा हुआ तो
  
                         -          अंकित झा 

इस मुद्दे को देखने के लिए कई दृष्टिकोण चाहिए, पहला दृष्टिकोण बनता है मानव अधिकारों का जो हर मानव को प्राप्त हैं, फिर वो इस तरह के अहेरी ही क्यों न हो, बर्बर और दुष्ट. दूसरा दृष्टिकोण है न्याय और विधि नियमों का जो कि साफ़ साफ़ इस दुष्कर्मी के पक्ष में है, विवश ही सही. तीसरा दृष्टिकोण है समाज और आम नागरिकों का जो भावनाओं के उन्माद में झूम रहे हैं,

शर्त कुछ भी हो परन्तु उसकी विजय तय है, हम अपनी पराजय को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, हम पुनः वही करने जा रहे हैं जो उस समय किया था, उस समय भी उसके दुस्साहस का अट्टहास हमारे प्रयास से अधिक सशक्त था और आज भी उसकी विवशता का तांडव. यदि इस सब के मध्य कोई बुरी तरह पराजित हुआ है तो वो है हमारा समाज जो तीन वर्षों से इस दिन की प्रतीक्षा में आँख मूंदें बैठा रहा है. वह नाबालिग था, परन्तु जघन्य अपराध में उसकी भागीदारी उन बालिग़ कुकर्मियों से भी अधिक भयानक था. फिर इतनी आसान बात हम कैसे नहीं समझा पाए एक दुसरे को, और विशेषतः न्यायालय को. पिछले एक महीने में ये इन्साफ की कौन सी हार है यह कहना कठिन होता जा रहा है, कैसे प्रमाणों के अभाव में न्याय छोटा पड़ जा रहा है. कहते हैं प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, क्या न्यायाधीशों को हर बात के लिए प्रमाण चाहिए, इस बात को सिद्ध करने की आवश्यकता कैसे पड़ गयी कि वह नाबालिग जघन्य अपराध का अपराधी नहीं है?

इस मुद्दे को देखने के लिए कई दृष्टिकोण चाहिए, पहला दृष्टिकोण बनता है मानव अधिकारों का जो हर मानव को प्राप्त हैं, फिर वो इस तरह के अहेरी ही क्यों न हो, बर्बर और दुष्ट. दूसरा दृष्टिकोण है न्याय और विधि नियमों का जो कि साफ़ साफ़ इस दुष्कर्मी के पक्ष में है, विवश ही सही. तीसरा दृष्टिकोण है समाज और आम नागरिकों का जो भावनाओं के उन्माद में झूम रहे हैं, इतने मग्न कि कहीं न कहीं भूल गये हैं ये नाबालिग उनके रचे संसार का ही एक उत्पाद है और अंतिम दृष्टिकोण है समाज कार्य में लिप्त हम जैसे कुछ लोगों का जो हाथ में तराज़ू लिए इस मुद्दे की पड़ताल करेंगे, उस पर से हम जैसे लोगों के लिए जो कि पत्रकारिता से भी जुड़े हैं, ये समझ पाना महतवपूर्ण हो जाता है कि क्या इस समय हम कक्षा में सिखाये गये धर्म को याद करें या समाज में अपनी आत्मा को झ्कोझोर देने वाले ऐसे कृत्यों के विरुद्ध खड़े हों हम भी प्रतिकार में उतर जाएँ. देश के अधिकाँश लोगों को अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, अभी भी वो सलमान तथा शाहरुख़ के मित्रता के जश्न में चूर हैं, परन्तु एक हिस्सा इस यंत्रणा पर अपने विचार रखने में विवश है. कुछ महीनों पूर्व जब डाक्यूमेंट्री “इंडियाज डॉटर” में वकील ने भारतीय समाज में महिला की स्थिति पर टिप्पणियां की थी, तो कईयों का खून खौला था, मेरा भी. शहर में पले-बढ़े उन फेसबुकिया इंटेलेक्चुअल वर्ग का भी खुला था जिन्होंने अपने जीवन में ना कभी विषमता देखि है और ना ही असामनता. उन वकीलों ने भारतीय समाज में पल रहे विषमता को शब्द दिए थे, वो विषमता जो किसी न किसी रूप में हर मर्द के दिल में छुपी बैठी है, बस उसका सामना करने से कुछ डरते हैं. जो डरते हैं वो ही अंततः ऐसे कुकर्मों को अंजाम भी देते हैं.

इस नाबालिग के रिहा होने से बहुत कुछ बदलने के आसार नहीं है, परन्तु जिस बात की सम्भावना है वो ये कि यह एक अवसर दे जाएगा, स्वयं से प्रश्न करने का कि कैसे हम चूक गये, किसी को न्याय दिलवाने से. यह मात्र एक घटना का गुनाहगार नहीं है अपितु समूचे मर्द जाति के लिए शर्म की कभी ना मिटने वाली लकीर खींच देने वाला दोषी है. क्या यह ताज्जुब नहीं है कि इस देश में हर 12 मिनट में किसी स्त्री की अस्मिता छिनने का प्रयास होता है. यह ताज्जुब नहीं, शर्म है, एक सभ्य समाज के मूक साक्षियों के लिए शर्म है. जिस बात की आशंका है वो ये कि ये नाबालिग जो बाल सुधार गृह से सुधर के निकला है क्या पूर्णतया सुधर गया है? मेरे कई सहपाठी ऐसे सुधर गृह में कार्यरत रह चुके हैं, उनके अनुसार कारागृह तथा ऐसे सुधार गृह सजा काट रहे दोषी के अन्दर से उस गुनाह के अणु को निकालने में अक्षम हैं. अर्थात् यह नाबालिग अभी भी समाज के लिए उतना ही बड़ा खतरा है जितने इससे पूर्व था? हो सकता है. भविष्य को किसने देखा है? दण्ड सदैव किसी न किसी गुनाह के लिए दिया जाता है, तो क्या इसे पुनः दण्डित करने के लिए हमें प्रतीक्षा करनी होगी किसी गुनाह के होने की? हो सकता है. अतः इस जगह हमारी पूर्णतया हार हुई है? हो सकता है. बहुत कुछ हो सकता है, होने की सम्भावना है. यदि वो रिहा हुआ तो समाज हार जाएगा, शस्त्र डाल चुके हैं हम, विधि तथा न्याय के नाम पर.
एक घर की वो कहानी याद आती है जिसमें एक बेटी स्कूल जाने को तैयार है, टीवी पर यही खबर चल रहा है कि नाबालिग रिहा होने वाला है. हर ओर इस बात की भर्त्सना हो रही है, इंडियाज डॉटर में भी आरोपी मुकेश ने कबूला था कि सब से वीभत्स कृत्य इसी के द्वारा किये गये थे, राम सिंह के माता-पिता ने कहा था कि यही वो आरोपी था जिसने अपराजिता के शरीर से उसके अंग निकाले थे, इससे जघन्य और भयंकर और क्या हो सकता है? लड़की की माँ सहमी हुई टिफ़िन अपनी बेटी के हाथ में सौंपती है और सौंपती है अपनी अस्मिता संभाल के रखने का विश्वास. पिता बाहर निकलते हैं, कह रहे हैं आज तुम्हें मैं छोड़ आता हूँ, आज ऐसा क्या है? लड़की निर्भीक होक निकल पड़ती है, पिता के साथ. क्या उस नाबालिग की बेटी अपना विश्वास अपने पिता को सौंप पाएगी, जैसे हर लड़की सौंप देती है? दूसरा प्रश्न यह कि कब तक पिता की आवश्यक्ता पड़ेगी, अपनी रक्षा के लिए. प्रश्न ये कि कब तक आवश्यक्ता पड़ेगी रक्षा की? हर बार साथ पिता तो नहीं होंगे. यदि वो नाबालिग रिहा होंगे तो समाज में पिताजी की आवश्यक्ता बढ़ जाएगी, और फिर पिता की फ़िक्र पुनः समाज को पीछे ना ले जाए. यदि यह नाबालिग रिहा हुआ तो समाज में चेतना आएगी या फिर एक भय फैलेगा? यदि वो नाबालिग रिहा हुआ तो रिहा हो जाएगी हमारी आशाएं जो बंधी हुई थी अब तक न्याय से.

बुधवार, 19 अगस्त 2015

Articlesss

आँखों से उतर नहीं रहा है मसान
-         अंकित झा 

करीब एक महीने बाद भी आज मसान जस की तस मेरे अंतर्मन में बसा हुआ है. कभी हुआ तो मसान के सभी चरित्र की चर्चा अलग से करेंगे, अभी मसान के बनारस में स्वयं को खो जाने देने का मन कर रहा है, 

एक दोस्त को गले लगाए हुए तीन दोस्तों का रोना अंतरात्मा तक से प्रश्न कर देती है कि क्या ये तुम्हारी कहानी नहीं है? भूजावाले की दूकान पर एक लड़की के फरमाइश से परेशान होते हुए भी आज्ञापालन करते भुजावाले को देख के ऐसा नहीं लगता कि ये आपकी कहानी है?फेसबुक पर अपने प्रेयसी की तस्वीर निहारते आशिक की आँखों में क्या आप अपने आपको नहीं ढूंढते हो? रेलवे टिकट खिड़की के इस पर खड़े होकर टिकट लेने से पूर्व की ज़द्दोज़हद में क्या आप अपना चेहरा नहीं ढूंढते हैं? मसान यही है, 68 रेलगाड़ियों के गुजरने वाला स्टेशन जहां पर गाड़ियां रूकती सिर्फ ६ हैं.  कुछ फिल्मों से हमारा रिश्ता बन जाता है, और कुछ फिल्में हमारे लिए जीवन के संघर्ष से जूझने का तरीका. मसान मेरे लिए दोनों ही तरह की फिल्म है. एक ऐसी विलक्षण कथा जिसे सदा से ही मैं ढूंढता रहा हूँ. यह किसी शहर की कहानी मात्र नहीं है, ये उस शहर में बस रहे व्यक्तियों के आत्मा की प्रस्तुति है, पहले दृश्य की जिज्ञासा से लेकर आखिरी दृश्य की जिज्ञासा के मध्य घटे घटनाक्रम को जिस सहजता से परदे पर उतारा गया, लम्बे समय तक याद रखे जायेंगे फिल्म के निर्देशक और कलाकार. इस फिल्म में कहानी के अतिरिक्त बात करने को बहुत कुछ है, जैसे इससे पूर्व कब किसी फिल्म में रेलवे टिकट घर के अन्दर का दृश्य दिखाया गया था, जहां एक प्रेमी युगल के संवाद से अपना सब कुछ खो चुकी देवी सहसा अपनी ह्रदय की वेदना को जी उठती है और उसके पास बैठे एक आम से कर्मचारी के चरित्र में उन्हें अष्टभुज देवी कह कर संबोधित करता है, ऐसा पिछली बार कब हुआ था? यहाँ पर बनारसी होने का गुमान सर चढ़ के नहीं बोलता, यहाँ बनारस की आब-ओ-हवा दम घोंटती सी दिखती है, कभी अपना सर्वस्व खो चुकी देवी के लिए, कभी प्रपंच में फंसे विद्याधर बाबु के लिए, कभी मासूम प्रेम में जाति  के ज़हर को झेलते प्रेमी युगल शालू और दीपक के लिए. बनारस एक बेड़ी के रूप में विकसित हुआ है इस फिल्म में. छोटा शहर जहां लोग एक-दुसरे को पहचानते हैं, रिश्ता खोजते हैं, प्रश्न करते हैं, मांग करते हैं. मसान का अर्थ शमशान है, बनारस को इच्छाओं तथा प्रेरणाओं के शमशान के रूप में विकसित किया गया है. यहाँ रेल है, पुल है, गंगा है, घाट है, सैलानी हैं, और है संघर्ष इन सब से जूझते उन लोगों का जो इन्हीं के हो चुके हैं. यहाँ गंगा और घाट के मध्य का रिश्ता वो छोटा सा बच्चा प्रस्तुत करता है जिसके खेल पर सभी पैसा लगाते हैं, गंगा में ये भी होता है, आश्चर्य है. झोंटा अपने आप को इस खेल में झोंक देता है जब तक कि हादसे का शिकार नहीं हो जाता है. विद्याधर बाबू की विवशता को बनारस के दृष्टिकोण से देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उनके अन्दर बनारस का समाज बसता है. वो समाज जो शिक्षा के लिए प्रेरित है, वो समाज जिसे मोक्ष की प्रतीक्षा है, वो समाज जिसकी पारिवारिक त्रासदी रही है तथा वो समाज जो सामाजिक प्रपंचों में फंसा हुआ है. भले ही पूरी फिल्म बनारस में घटती है परन्तु फिल्म का अंत इलाहाबाद तय करता है, बनारस के घाट से ऊब कर यह कहानी प्रयाग के संगम की ओर जा रही यात्रा पर समाप्त होती है और हम स्वयं से यह प्रश्न पूछते हैं इस कहानी को ढूँढने प्रयाग जाना कब होगा?

फिल्म में बेवजह विलाप नहीं है, दीपक का परेशान भाई कई प्रश्न समेटे हुए रहता है परन्तु कभी भी उन्हें कह नहीं पाया, दीपक के पिता की आँखों में कल की चिंता है, दीपक समर्पित है, पिता के प्रति, भाई के प्रति, अपने मासूम प्रेम के प्रति. शालू के आँखों की चमक यदि फिल्म के समाप्ति के बाद भी आँखों में बसी नहीं रही तो फिर आप फिल्म देख ही नहीं रहे थे. दीपक तथा शालू के मध्य प्रेम तथा उसकी वाणी बने दुष्यंत कुमार को पुनर्जीवित किया गया है, इस बार क्रांति में नहीं, प्रेम में. “तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ.” किसी भी आशिक के दिल से निकली सबसे अलग उपमान हैं. किसी प्रेमिका की आँखों में जंगल ढूँढने से भी अजीब उपमा और क्या हो सकता है. जीवन को अक्षुण्ण रखने वाले क्षण भी फिल्म में सहजता से प्रस्तुत कर दिए गये हैं, दीपक तथा शालू का एक दुसरे से मिलना संयोग नहीं लगता और ना ही शालू का दीपक के प्रेम को स्वीकार करना. मसान एक प्रेम कथा है, जिज्ञासा तथा विरह के मध्य छिपी. हालाँकि यह एक विशुद्ध प्रेम कहानी नहीं है, परन्तु पहले दृश्य में पियूष को खो देने के बावजूद हम सम्पूर्ण कथा में उसका अवशेष ढूंढते हैं, उसकी उपस्थिति ही कथा में देवी को सम्मान प्रदान करता है. विद्याधर मिश्रा का चरित्र जिस कलम से लिखा गया होगा, वह कलम प्रशंसनीय है. एक खुद्दार मनुष्य का मजबूर होकर एक बच्चे से भी कमाने की कोशिश करना, उनके चरित्र की विवशता से हमारा मिलन करवाता है. विद्याधर के चरित्र की अपनी विशेषताएं हैं, प्रपंच में फंसे एक पिता को उन्होंने जीवित कर दिया है.   प्रशंसनीय है वरुण ग्रोवर के लिखने अंदाज़, उनकी पटकथा ने जीवन को दर्शन की तरह प्रस्तुत किया है. मसान के बारे में सबसे अच्छी बात मैं क्या कह सकता हूँ, यह मुझे ज्ञात नहीं है, शायद यह कि करीब एक महीने बाद भी आज मसान जस की तस मेरे अंतर्मन में बसा हुआ है. कभी हुआ तो मसान के सभी चरित्र की चर्चा अलग से करेंगे, अभी मसान के बनारस में स्वयं को खो जाने देने का मन कर रहा है, हरिश्चंद्र घाट से उठती चिताओं की लौ और चटपटाती आग में स्वयं से प्रश्न पूछने का मन कर रहा है, क्या यही आध्यात्म है? गंगा की धार में प्रवाह हो जाने वाले शालू की अंगूठी में अपने आत्मा को क़ैद करके झोंटा के विद्याधर बाबु के प्रति समर्पण को प्रणाम करना चाहता हूँ. अब सो जाना चाहता हूँ, देवी के स्वप्न में संध्या जी की तरह. शालू के आँखों की गहराई में स्वयं को डुबो देना चाहता हूँ. हो सकता है मसान को वहाँ भुला सकूँ.  

शुक्रवार, 5 जून 2015

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विवादों में उलझने वाली मैगी: 2 मिनट के छंद
-         अंकित झा 

इस देश की मुख्य समस्या गरीबी, महंगाई तथा भूखमरी है, पिज़्ज़ा-कुरकुरे तथा मैगी नहीं. मुख्य प्रश्नों से भटकाने में सब कामयाब रहे हैं, क्या होगा यदि हम मैगी का सेवन छोड़ दें तो? कोई भूखा नहीं मरेगा. भूखे रोटी के अभाव में मरते हैं, मैगी और पेप्सी के नहीं.

मैगी और युवावय का एक अनोखा रिश्ता है, अभाव में काम आने वाली मैगी, दिल्ली, कोटा और इंदौर जैसे शहरों में पढने और काम करने वाले युवाओं के लिए किसी राजभोग से कम नहीं. 10 रुपये का खर्चा, सिर्फ पानी और नमक की आवश्यकता तथा कम से कम समय में पक जाने वाली मैगी, इस देश के हर रसोईघर में जा बैठी थी. कोई 4 साल पहले जब दादी को मेरी दीदी ने पका कर खिलाया था तो उन्होंने इसे नमकीन सेवई की संज्ञा दी थी. दरअसल हमारे अंतस में स्वाद और आकार कुछ इस तरह बैठ चुका है कि उसे निकाल पाना मुश्किल लग रहा है. उसके किस्से इतने प्रसिद्ध हैं कि  मैगी इस देश में नाश्ते का नया पर्याय बन गया था, और यह भी किवदंती नहीं कि कितने ही युवा इसे रात के भोजन के रूप में भी स्वीकार करने लगे. इसके विज्ञापन की तरह ही मैगी देश के किस्सों में भी शामिल हो चुकी थी. अंतर्राष्ट्रीय संबंध में एक कांसेप्ट है, जिसे ग्लोकलाईजेसन कहते हैं, अर्थात वैश्विक पदार्थ को देशी रंग में ढाल के प्रस्तुत करना. हमनें सदा से ही अंग्रेजों के ढकोसलों को भारतीय बनाने की कोशिश की है. हमारी अंग्रेजी हो या हमारा पहनावा, अंग्रेजियत का प्रभाव है परन्तु उनसे भिन्न है. जो हम करते हैं वो पूर्णतया भारतीय होता है, अंग्रेजियत का प्रभाव समेटे हुए. अंग्रेजों की अंग्रेजी को हमने नया आयाम दिया तो वहीं चीन के चाउमीन तथा मोमोस को हमने ऐसा रंग-रूप तथा स्वाद दिया जिससे वो भी अब तक अनजान थे. एक आंकड़े के अनुसार हम दुनिया में मैगी के तीसरे सबसे बड़े उपभोक्ता हैं, अतः नेस्ले जो कि मैगी बनाने वाली कंपनी है उसका इस ओर ध्यान गया.

Source: www.okhlaheadlines.com

मैगी विवाद कई अन्य प्रश्नों को भी जन्म देती है, तथा हमारा ध्यान उस आदिकालीन समस्या की और ले जाता है जिसे मिलावट कहते हैं. मैगी में जो बुरा था वो सदा से था, जो हानिकारक था वो उसकी पहचान है. खाद्य पदार्थों में मिलावट इस देश की चिरकालीन समस्या रही है, परन्तु पैक्ड फ़ूड में भी यदि ये गड़बड़ियां निकली हैं, तो यह चिंताजनक है. इस देश में मैगी के जैसे दिखने और उसी के जैसे पकने और स्वाद वाले करीब 5 से 6 हज़ार उत्पाद हैं. नेपाल से लगे गाँव तथा शहरों में तो इसका व्यापक बाज़ार है, नेपाल बॉर्डर से लगे मेरे गाँव में करीब 30 प्रकार के छोटे-बड़े पैकेट में चाऊं-माउं, चीं-मीं तथा मागी नाम से बिकते हैं, अबोध बच्चे इसे खरीदते हैं, सेवन करते हैं. इन पैकेट के ऊपर देखने तथा जांच करवाने की चेष्टा कोई नहीं करता है, इनके पैकेट ठीक मैगी तथा यिप्पी नूडल्स के आधार पर निर्मित इए जाते हैं. ये कितने हानिकारक हो सकते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं. परन्तु इनका व्यापर तथा सेवन धरल्ले से चल रहा है, और चलता रहेगा, जिस दिन शिकायत हो गयी उस दिन से उत्पादन बंद. अगले दिन से वही कंपनी कुरकुरे तथा चिप्स के उत्पादन में लग जायेंगे. यह चलता आया है, और चलता रहेगा. इस विवाद ने देश के सामने बड़ा प्रश्न खड़ा किया है, ऐसे प्रश्न पहले भी उठे हैं, परन्तु उस समय कुछ ख़ास हो नहीं पाया था. ऐसे विवाद कोल्डड्रिंक्स तथा कुरकुरे के ऊपर भी हो चुके हैं. उस समय की जांच के नतीजे आये परन्तु इस तरह विलुप्त हो गये कि फिर ढूँढने से भी मिल नहीं पा रहे हैं. सब जानते हैं, कोल्ड ड्रिंक्स हानिकारक है, फिर भी सेवन करते हैं, उपयोग के लिए एसिडिटी का नया बहाना मिल गया है.
मैगी, कुरकुरे, कोल्डड्रिंक्स तथा पिज़्ज़ा-बर्गर के सेवन ने हमारी खाद्य-आदतों पर आघात किया है. एक कठोर आघात. इनके स्वाद में हम इतने रमे हुए हैं कि अपनी सेहत से बेफिक्र हो बैठे हैं, ऊपर से योग और जिम का दिखावा. प्रश्न उस दुष्प्रभाव का नहीं है जिसमें हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि वैधानिक चेतावनी के बावजूद भी हम पीछे क्यों नहीं हटते हैं. इस देश की मुख्य समस्या गरीबी, महंगाई तथा भूखमरी है, पिज़्ज़ा-कुरकुरे तथा मैगी नहीं. मुख्य प्रश्नों से भटकाने में सब कामयाब रहे हैं, क्या होगा यदि हम मैगी का सेवन छोड़ दें तो? कोई भूखा नहीं मरेगा. भूखे रोटी के अभाव में मरते हैं, मैगी और पेप्सी के नहीं. मैगी इस देश में साम्राज्यवाद के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में स्थापित हुई है, पेप्सी और कोक के समकक्ष. विज्ञापनों का भी कम दोष नहीं है हमें वर्गलाने में. सारांश यह है कि मैगी ने हमारे सामने ससयाओं तथा प्रश्नों के वो पुलिंदे खोल दिए हैं जो अब तक ढंके हुए थे, या बहुत गहरे अपने कब्रों में गड़े हुए थे. रासायनिक पदार्थों की अधिकता से उठा ये मुद्दा, अब खाद्य पदार्थों में मिलावट, प्रशासन की लापरवाही, खाद्य-आदतों के बिगड़ने तथा सभ्यता संस्कृति की बहस बन चुकी है.और ये बहस आवश्यक भी है. मैगी से इस देश का रिश्ता इतना पुराना भी नहीं कि इसके बिना जीना असंभव हो जाये, देश की शरबत को चाय ने और चाय को जिस तरह से कोल्डड्रिंक ने प्रतिस्थापित किया, ये घटना दुखद है. मैगी से इस देश का सम्बन्ध गहरा हो सकता है परन्तु अटूट नहीं है. विज्ञापनों ने कुछ अधिक बता दिया है, 15 दिन से लेकर महीने भर का प्रतिबन्ध एक साहसी प्रयास है, परन्तु हमें आदत डालना होगा, इनके बिना जीने की. मुश्किल नहीं है, और असंभव तो बिल्कुल नहीं है. मैगी के अंतस में छुपी समस्याओं पर नज़र दौराने का यह सर्वश्रेष्ठ समय है. हंसाने वाली मैगी, रुलाने वाली मैगी, विवादों वाली मैगी, समस्याओं वाली मैगी, प्रतिबन्ध वाली मैगी, कविताओं में सिमटी रह जाने वाली मैगी.