शुक्रवार, 5 जून 2015

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विवादों में उलझने वाली मैगी: 2 मिनट के छंद
-         अंकित झा 

इस देश की मुख्य समस्या गरीबी, महंगाई तथा भूखमरी है, पिज़्ज़ा-कुरकुरे तथा मैगी नहीं. मुख्य प्रश्नों से भटकाने में सब कामयाब रहे हैं, क्या होगा यदि हम मैगी का सेवन छोड़ दें तो? कोई भूखा नहीं मरेगा. भूखे रोटी के अभाव में मरते हैं, मैगी और पेप्सी के नहीं.

मैगी और युवावय का एक अनोखा रिश्ता है, अभाव में काम आने वाली मैगी, दिल्ली, कोटा और इंदौर जैसे शहरों में पढने और काम करने वाले युवाओं के लिए किसी राजभोग से कम नहीं. 10 रुपये का खर्चा, सिर्फ पानी और नमक की आवश्यकता तथा कम से कम समय में पक जाने वाली मैगी, इस देश के हर रसोईघर में जा बैठी थी. कोई 4 साल पहले जब दादी को मेरी दीदी ने पका कर खिलाया था तो उन्होंने इसे नमकीन सेवई की संज्ञा दी थी. दरअसल हमारे अंतस में स्वाद और आकार कुछ इस तरह बैठ चुका है कि उसे निकाल पाना मुश्किल लग रहा है. उसके किस्से इतने प्रसिद्ध हैं कि  मैगी इस देश में नाश्ते का नया पर्याय बन गया था, और यह भी किवदंती नहीं कि कितने ही युवा इसे रात के भोजन के रूप में भी स्वीकार करने लगे. इसके विज्ञापन की तरह ही मैगी देश के किस्सों में भी शामिल हो चुकी थी. अंतर्राष्ट्रीय संबंध में एक कांसेप्ट है, जिसे ग्लोकलाईजेसन कहते हैं, अर्थात वैश्विक पदार्थ को देशी रंग में ढाल के प्रस्तुत करना. हमनें सदा से ही अंग्रेजों के ढकोसलों को भारतीय बनाने की कोशिश की है. हमारी अंग्रेजी हो या हमारा पहनावा, अंग्रेजियत का प्रभाव है परन्तु उनसे भिन्न है. जो हम करते हैं वो पूर्णतया भारतीय होता है, अंग्रेजियत का प्रभाव समेटे हुए. अंग्रेजों की अंग्रेजी को हमने नया आयाम दिया तो वहीं चीन के चाउमीन तथा मोमोस को हमने ऐसा रंग-रूप तथा स्वाद दिया जिससे वो भी अब तक अनजान थे. एक आंकड़े के अनुसार हम दुनिया में मैगी के तीसरे सबसे बड़े उपभोक्ता हैं, अतः नेस्ले जो कि मैगी बनाने वाली कंपनी है उसका इस ओर ध्यान गया.

Source: www.okhlaheadlines.com

मैगी विवाद कई अन्य प्रश्नों को भी जन्म देती है, तथा हमारा ध्यान उस आदिकालीन समस्या की और ले जाता है जिसे मिलावट कहते हैं. मैगी में जो बुरा था वो सदा से था, जो हानिकारक था वो उसकी पहचान है. खाद्य पदार्थों में मिलावट इस देश की चिरकालीन समस्या रही है, परन्तु पैक्ड फ़ूड में भी यदि ये गड़बड़ियां निकली हैं, तो यह चिंताजनक है. इस देश में मैगी के जैसे दिखने और उसी के जैसे पकने और स्वाद वाले करीब 5 से 6 हज़ार उत्पाद हैं. नेपाल से लगे गाँव तथा शहरों में तो इसका व्यापक बाज़ार है, नेपाल बॉर्डर से लगे मेरे गाँव में करीब 30 प्रकार के छोटे-बड़े पैकेट में चाऊं-माउं, चीं-मीं तथा मागी नाम से बिकते हैं, अबोध बच्चे इसे खरीदते हैं, सेवन करते हैं. इन पैकेट के ऊपर देखने तथा जांच करवाने की चेष्टा कोई नहीं करता है, इनके पैकेट ठीक मैगी तथा यिप्पी नूडल्स के आधार पर निर्मित इए जाते हैं. ये कितने हानिकारक हो सकते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं. परन्तु इनका व्यापर तथा सेवन धरल्ले से चल रहा है, और चलता रहेगा, जिस दिन शिकायत हो गयी उस दिन से उत्पादन बंद. अगले दिन से वही कंपनी कुरकुरे तथा चिप्स के उत्पादन में लग जायेंगे. यह चलता आया है, और चलता रहेगा. इस विवाद ने देश के सामने बड़ा प्रश्न खड़ा किया है, ऐसे प्रश्न पहले भी उठे हैं, परन्तु उस समय कुछ ख़ास हो नहीं पाया था. ऐसे विवाद कोल्डड्रिंक्स तथा कुरकुरे के ऊपर भी हो चुके हैं. उस समय की जांच के नतीजे आये परन्तु इस तरह विलुप्त हो गये कि फिर ढूँढने से भी मिल नहीं पा रहे हैं. सब जानते हैं, कोल्ड ड्रिंक्स हानिकारक है, फिर भी सेवन करते हैं, उपयोग के लिए एसिडिटी का नया बहाना मिल गया है.
मैगी, कुरकुरे, कोल्डड्रिंक्स तथा पिज़्ज़ा-बर्गर के सेवन ने हमारी खाद्य-आदतों पर आघात किया है. एक कठोर आघात. इनके स्वाद में हम इतने रमे हुए हैं कि अपनी सेहत से बेफिक्र हो बैठे हैं, ऊपर से योग और जिम का दिखावा. प्रश्न उस दुष्प्रभाव का नहीं है जिसमें हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि वैधानिक चेतावनी के बावजूद भी हम पीछे क्यों नहीं हटते हैं. इस देश की मुख्य समस्या गरीबी, महंगाई तथा भूखमरी है, पिज़्ज़ा-कुरकुरे तथा मैगी नहीं. मुख्य प्रश्नों से भटकाने में सब कामयाब रहे हैं, क्या होगा यदि हम मैगी का सेवन छोड़ दें तो? कोई भूखा नहीं मरेगा. भूखे रोटी के अभाव में मरते हैं, मैगी और पेप्सी के नहीं. मैगी इस देश में साम्राज्यवाद के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में स्थापित हुई है, पेप्सी और कोक के समकक्ष. विज्ञापनों का भी कम दोष नहीं है हमें वर्गलाने में. सारांश यह है कि मैगी ने हमारे सामने ससयाओं तथा प्रश्नों के वो पुलिंदे खोल दिए हैं जो अब तक ढंके हुए थे, या बहुत गहरे अपने कब्रों में गड़े हुए थे. रासायनिक पदार्थों की अधिकता से उठा ये मुद्दा, अब खाद्य पदार्थों में मिलावट, प्रशासन की लापरवाही, खाद्य-आदतों के बिगड़ने तथा सभ्यता संस्कृति की बहस बन चुकी है.और ये बहस आवश्यक भी है. मैगी से इस देश का रिश्ता इतना पुराना भी नहीं कि इसके बिना जीना असंभव हो जाये, देश की शरबत को चाय ने और चाय को जिस तरह से कोल्डड्रिंक ने प्रतिस्थापित किया, ये घटना दुखद है. मैगी से इस देश का सम्बन्ध गहरा हो सकता है परन्तु अटूट नहीं है. विज्ञापनों ने कुछ अधिक बता दिया है, 15 दिन से लेकर महीने भर का प्रतिबन्ध एक साहसी प्रयास है, परन्तु हमें आदत डालना होगा, इनके बिना जीने की. मुश्किल नहीं है, और असंभव तो बिल्कुल नहीं है. मैगी के अंतस में छुपी समस्याओं पर नज़र दौराने का यह सर्वश्रेष्ठ समय है. हंसाने वाली मैगी, रुलाने वाली मैगी, विवादों वाली मैगी, समस्याओं वाली मैगी, प्रतिबन्ध वाली मैगी, कविताओं में सिमटी रह जाने वाली मैगी.   

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