शनिवार, 17 मई 2014

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चुनाव विशेष

ये इतिहास नहीं भविष्य है!!!

                               -    अंकित झा

नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मंद्र नव

नव, नवल, नवीन, हर ओर एक नयापन सा छाया हुआ है. उम्मीदें अब वास्तविकता में बदल चुकी हैं. चुनाव संपन्न, नतीजें प्रस्तुत हो चुके हैं और वो करिश्मा हो चुका है, जिसकी प्रतीक्षा सभी को थी. तथाकथित अच्छे दिन आ गये. 30 वर्षों बाद देश को एक ऐसी सरकार मिलेगी जो पूर्ण बहुमत से संसद में आएगी. कोई जोड़-तोड़ का गणित नहीं, गठबंधन के लालच नहीं, कोई राजनैतिक गुणा-भाग नहीं सिर्फ स्वप्न के पूर्ण होने का उल्लास. देश के हर क्षेत्र में कमल खिल चूका है, कश्मीर से कन्याकुमारी तथा नागालैंड से नवसारी हर जगह कमल ही कमल खिला हुआ दिखाई देता है. देश के सबसे पुरानी पार्टी की सबसे ऐतिहासिक तथा शर्मनाक हार. कहां प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न तथा स्थिति आज विपक्ष भी न बना पाने की. यह जीत ऐतिहासिक नहीं तो और क्या है? इस बार कोई सहानुभूति नही जीती, कोई भावनात्मक प्रबलता हावी नहीं हुई, कोई जातीय समीकरण नहीं चले, चला तो बस एक नाम, नरेन्द्र मोदी. मित्रों! की वो झंकार जहां जहां कानों में गूंजी उधर कमल खिला, वन्दे मातरम् की टंकार जिस दिशा में पहुंची वहाँ कमल खिला, जहां कभी नैराश्य बिखरा पड़ा था आज वहाँ उम्मीद के कमल खिल रहे हैं. हर ओर एक ही नाम, एक ही पार्टी, एक ही शोर, एक ही गर्जना, एक ही विजय गान. इतिहास क्या है? समय का ग़ुलाम. समय क्या है? मानवीय कर्मों के सिद्धि की अवधि. अवधि, जब समय भी एक क्षण थमकर मनुष्य को प्रणाम करने को रुकता है, उसी क्षण को ऐतिहासिक क्षण कहते हैं, आज वही है. समय एक बार रुक कर नरेन्द्र मोदी को प्रणाम कर लेना चाहता है. साहस, वीरता तथा पराक्रम के नए आयाम को गढ़ने के लिए. इस जीत के कई मायने हैं, कोई कहेगा ये कांग्रेस की हार है, तो कोई उसके नीतियों की हार, परन्तु ये कोई नहीं कहेगा कि ये जीत एक विश्वास की है, विश्वास कि अभी भी परिवर्तन संभव है.

गठबंधन के जोड़ तोड़ के परे एक स्थायी सरकार की अपेक्षा को पूर्ण बहुमत के साथ सहयोग मिला, 286 कमलों को भेंट स्वरुप दिया गया. इतने कमल आज तक नही मिले थे भेंट में, तीस वर्ष बाद किसी सरकार के पास गठजोड़ का बहाना नहीं होगा. ये हर्ष का समय है, तो इसे कतई जाने मत दीजिये, हिंदी के जयगान का समय है, भारतीय संस्कृति के विजयघोष का समय है, इस जश्न को चलने दिया जाये. ये इतिहास नहीं है, इतिहास तो अभी रचा जाना बाकी है. ये भविष्य की उम्मीद है, एक आकांक्षा है कि कल आज से बेहतर होगा. इस पूर्ण बहुमत के जश्न में डूब जाने दीजिये, निकालिए मत. ग्लास आधी खाली है या पूरी भरी, समय आ गया है जानने का. उम्मीद है कि भविष्य में इतिहास रचा जायेगा, जो अब तक न हुआ हो सकता है, अब हो. जय हे.  

मंगलवार, 13 मई 2014

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परिवर्तन से परे

शायद इसे ही महंगाई कहते हैं
-    अंकित झा

समाज में जिस तरह जीजिविषा की क्षति हो रही है, उतने ही तेजी से स्वप्न की मांग बढ़ रही है, इस मांग के बढ़ने से मनुष्य के स्वभाव का मूल्य कम हो रहा है. स्वभाव के इस अभाव से मानवीय प्रवृत्ति में अंतर आता है, ये समाज के लिए हानिकारक है. ऐसी स्थिति जब समाज में स्वप्न चरम पर होंगे तथा मानवीय चेतना का नित्य हास होता रहेगा, इसे महंगाई कहते हैं. वास्तविक महंगाई.

समाज के सामने मैं बेबस खड़ा हूँ,
नोंच खायेंगे आज मुझे या फिर कोई भून लेगा
अंत तय है, समाज के हाथों मेरे शरीर का,
समाज के दुविधा को
मैंने दरिद्रता का नाम जो दे दिया था... 

उस छोटे से घर की बड़ी समस्याओं को जानने वाला कौन अवतार लिया है? यह छोटा सा घर किसी का भी हो सकता है, किसी का भी. देखिये उस छोटे से घर के अन्दर क्या हो रहा है, माँ चूल्हे के पास बैठे रोटियां सेंक रही है, बीच बीच में अपना दुखड़ा सुना देती है, सामने बैठे अपने पति को जो अभी अभी सर में तेल लगा कर खाने को बैठा  है, तेल के गंध से पूरा घर महक रहा है और माँ की बात से घर में गर्मी बढ़ रही है. दो रोटी ही खा पाया था कि बात बढ़ गयी, वही रोज़ की खटपट. वही गली गलौज और वही बर्तनों का पटकना. तेल की गंध बाहर को जाते दिखी, काम की ओर जा रही है सवारी, वो घर में सिसक रही है, सामने बैठा उसका छोटा सा बेटा चीख रहा है, शायद भूख लगी होगी उसे, माँ के पास बस रोटी और सब्जी है, उसे कुछ भी नहीं भाता. बीते महीने नानाजी के घर गया था तो डॉ. ने बताया कुपोषित है, पेट बाहर को निकल रहा है और पैर छोटे हो रहे हैं, अर्थात देश के उस खुशकिस्मतों में इसका नाम भी आ गया है. एक बेटी और बेटा और हैं जो सवेरे ही स्कूल को जा चुके हैं, खाना खा कर ही आएंगे. अब डरते हैं खाने से, स्कूल में ही मिलता है, 3-4 महीने पहले की ही बात है, बेटे ने मध्याह्न भोजन किया, इतना बीमार पड़ा कि शहर तक जाना पड़ा सरकारी खर्चे पर इलाज़ के लिए. बेटा था और सरकारी खर्च था इसलिए इतना संभव भी हुआ, वरना कौन ताक़ देता है इतना इस वर्ग को? गाँव के मुखिया के पास बीपीएल कार्ड बन रखा है परन्तु इनके पास नहीं है. चोली-दामन का रिश्ता है, भ्रष्टाचार और गरीबी का इस देश में. नौकरी किस आधार पर मिले? ज्यादा मजदूरी हो नहीं पाती, पत्नी को काम करने से माना किया गया है, काम किया तो जान देनी पड़ेगी, हद से ज्यादा कमजोरी हो गयी है. इनके आंसुओं का स्वाद किसी के मुख को बेस्वाद कैसे नहीं करता है?  
बेटी अब बड़ी हो रही है, कभी उसकी शादी होगी, इसकी चिंता अभी से उस को खाए जा रही है, सरकार ने कोई योजना बनाई है, हम जैसे माँओं के लिए, हमारे बेटियों के पढाई का खर्च शायद सरकार उठाएगी अगर अव्वल आ गयी तो, पर अव्वल कैसे आये? भूखे पेट कब तक अव्वल करेगी? बाप के हाथ में पैसे टिकते ही नहीं. पैसे तो बीमारी और किराने में ही खर्च हो जाते हैं, शुक्र है सरकार है. कैसी सरकार है, गरीबी नहीं हटाती बल्कि गरीबी को संस्थागत कर देती है, ग़रीब हो? कोई बात नहीं हम हैं ना, ग़रीब ही तो हो कौन से विपक्षी दल के हो. ग़रीब होने का फ़र्ज़ निभाओ, तुम्हारी सहायता हम करेंगे. भूख की बारात में शामिल हो जाओ, गरीबी के जश्न में ठुमके लगाओ, रोटी की रैलियाँ होगी, सपनों की कव्वाली और मज़ाक उड़ेगा इंसानियत का, हास्यास्पद हो जाएगी ना ज़िन्दगी. इससे अच्छी भी कहाँ है? ग़रीब हो या अमीर या फिर दोनों के मध्य संघर्ष करता देश का माध्यम वर्ग, आर्थिक हालात के समक्ष सभी लाचार हैं, किसी के पास कोई उत्तर कोई प्रतिउत्तर नहीं है, है तो बस एक वाक्य विशेष- महंगाई काफी बढ़ गयी है. ध्यान देने वाली बात ये है कि महंगाई होता क्या है? बढ़ कैसे जाता है? कौन बढाता है?
अर्थशास्त्र में महंगाई उस स्थिति को कहते हैं जब किसी स्थान पर एक समय अंतराल में वस्तुओं के मांग की वजह से उसके मूल्य में वृद्धि होने लगे. महंगाई इसलिए ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह मनुष्य के औकात को ललकारती है, क्योंकि एक अवधी में मूल्य वृद्धि की वजह से मनुष्य के जेब पर असर पड़ता है उसके खरीदने की क्षमता कम हो जाती है. इससे पैसे की हैसियत पर भी असर पड़ता है. परन्तु ये सब शास्त्र व नीतियों की बातें हैं, समाज में महंगाई उस स्थिति को कहते हैं जो अंत होने का नाम ही नहीं ले रही, जितना कमाओ उतना खर्च, जितना जमा करो उतनी जरूरतें, उपभोगतावाद से आगे बढ़ गये हैं हमलोग. अब खरीदने की होड़ नहीं है, अब बेहतर खरीदने की होड़ लग गयी है. खरीदो, पसंद नहीं बेच डालो, कुछ नया प्रयास करो. अर्थशास्त्र का एक सूत्र कहता है कि बाज़ार अपना अंत स्वयं तय करता है, ऐसा ही हो रहा है. जिस तरह समाज पर बाज़ार तथा बाज़ार पर पूंजीवाद हावी हुआ है, यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि समाज अपने दरिद्रता को पीछे नहीं छोड़ रहा वरन उसे कब्र में छुपाने की कोशिश कर रहा है जब तब यह मुंह खोले बाहर आ जाता है. समाज के तीन वर्ग हैं, एक जो अच्छे स्कूल जाते हैं, एक जो खराब स्कूल जाते हैं तथा एक जो स्कूल ही नहीं जाते हैं. इसी तरह समाज के तीन धरें हैं, एक जिसे सपने देखने की आवश्यकता नहीं, एक जो केवल स्वप्न देख सकते हैं तथा एक वो जिन्हें स्वप्न देखने का अधिकार ही नहीं. स्वप्न पर कुछ इस तरह बंटा हुआ हैं समाज मानो लगता है, समाज अपने ही क्रूरता पर हंस रहा है. नींद तीनों ही को नसीब नहीं है, एक सो नहीं पाता कि काम इतना है, एक सो नहीं पाता कि महिना कैसे चलेगा और एक सो नहीं पाता क्योंकि आधे पेट नींद नहीं आ रही है, चिंता उसे भी है कि कल उसके परिवार के सभी सदस्य सूरज देखेंगे या नहीं. हर ओर चिंता है, अनिद्रा है समाज सो नहीं पा रहा है, परन्तु जाग भी कहाँ रहा है?
अर्थशास्त्र की सुने तो समाज में जिस तरह जीजिविषा की क्षति हो रही है, उतने ही तेजी से स्वप्न की मांग बढ़ रही है, इस मांग के बढ़ने से मनुष्य के स्वभाव का मूल्य कम हो रहा है. स्वभाव के इस अभाव से मानवीय प्रवृत्ति में अंतर आता है, ये समाज के लिए हानिकारक है. ऐसी स्थिति जब समाज में स्वप्न चरम पर होंगे तथा मानवीय चेतना का नित्य हास होता रहेगा, इसे महंगाई कहते हैं. वास्तविक महंगाई. मानवीय चेतना का मूल्य उसके बैंक में पड़े बचत से कई अधिक है, तीन हिस्सों के स्वपन को एक होने के असंभव प्रयास के कारण समाज में उत्पन्न होने वाले दुबिधा को महंगाई कहते हैं, माध्यम वर्ग के स्वप्न पूर्ती पर लगे ग्रहण को महंगाई कहते हैं, राजनेताओं के भाषण में प्रयोग होने वाले सर्वमुखी वचन को महंगाई कहते हैं, उच्च वर्ग के होटल के बहार खड़े भिखारी को भीख न दे पाने की स्थिति को महंगाई कहते हैं. फिर जो मेरे सामने एक घर में चल रहा है ये क्या है?

शाम हो चली है बेटा खेल के आया है, बेटी कोचिंग से आई है, घर में टीवी चल रहा है, कोई सीरियल आ रहा है, माँ सब्जी काट रही है, पिताजी का आगमन हुआ, बेटे ने देखा मुस्कुरा के कमरे में चला गया, बेटी ने रिचार्ज के बारे में पूछा जैसे ही ना में उत्तर मिला नाराज़ होकर अन्दर चली गयी. माँ-पापा दोनों एक दुसरे को देखते रहे, पापा सोफे पर बैठे, पानी लाने को कहा, मोबाइल निकाला, साइलेंट पर किया और रिमोट उठा के दूसरा चैनल लगाया, माँ की आवाज़ आई पैसे देना है केबल का, पिताजी ने टीवी बंद कर दिया, शायद इसे ही महंगाई कहते हैं.         

रविवार, 11 मई 2014

Movie Review

फिल्म समीक्षा

मानवीय विकारों का दर्पण है मस्तराम

                                               -    अंकित झा

साहित्य का नित्य हास हो रहा है आज के उपन्यासों से. और समाजिक गंद को सभी अपना हमदर्द बनाये बैठे हैं क्योंकि ये उनके विकारों को बल प्रदान करता है. मसाला मिलाने की जिद्द इस कदर जोर पकडती है, साहित्य में रूचि रखने वाला राजाराम अपने कृतियों में मसाला मिलाने को आतुर हो जाता है.

एक लेखक, नवविवाहित. साहित्य में स्थान बनाने का स्वप्न और साथ अपने अर्धांगिनी का. हिमाचल के एक छोटे से शहर में संघर्ष. एक दोस्त, कुछ हमदर्द और कुछ हमराही. यही ज़िन्दगी है राजाराम की. राजाराम के मस्तराम बनने की कथा रोचक है परन्तु उतनी ही विवादास्पद. साहित्य क्या है, समाज में होने वाली गतिविधियों का दर्पण. जो कुछ भी हो रहा है साहित्य का हिस्सा है, मानवीय संघर्ष से लेकर स्वप्न तक सभी कुछ. इसी बीच पलता है, मानवीय विकार. ये विकार हैं स्वभाव तथा उसके प्रभाव का. मानवीय चेतना के गर्त में उसकी कामेच्छा बस्ती है, रह रह कर ये मनाविय स्वाभाव पर हावी होता है, समाज ने इसे हवस का नाम दिया है, और फिल्म में इसे मसाला कह कर संबोधित करते हैं. जब भी कभी राजाराम अपने शुद्ध साहित्यिक कृतियों को छपवाने की जतन करता है, नाकामयाबी प्राप्त होती है. कोई उसे एग्जाम गाइड लिखने की सलाह देता है तो कोई चाचा चौधरी टाइप कॉमिक्स. उसके साहित्य का निरादर फिल्म का एक अहम् हिस्सा है, और हमारे समाज की विडंबना भी. साहित्य का नित्य हास हो रहा है आज के उपन्यासों से. और समाजिक गंद को सभी अपना हमदर्द बनाये बैठे हैं क्योंकि ये उनके विकारों को बल प्रदान करता है. मसाला मिलाने की जिद्द इस कदर जोर पकडती है, साहित्य में रूचि रखने वाला राजाराम अपने कृतियों में मसाला मिलाने को आतुर हो जाता है.

A poster of Mastram 2014
फिर जन्म लेती है, भारतीय साहित्य इतिहास का वो पन्ना जिसपर सिर्फ जनता का हाथ था, प्रेमचंद और प्रसाद को पढने वाली जनता अब बुक स्टाल पर कुछ और खरीदने जाया करती थी, नाम था मस्तराम. समाज के गतिविधियों का ही वर्णन परन्तु, ये उन रिश्तों की गाथा थी जिसे समाज लुकेछुपे निभाती है. नर्स, बनिया, दोस्त, पत्नी, पड़ोसन, कोई उसके ख्याली गंद से बच नहीं पाते हैं. वो हर रिश्ते में अब कहानी ढूंढता है. पहले कुछ और था, रिश्तों पर कहानी हावी होने लगा. समाज तो जैसे मुंह फाड़े खडा था ऐसा कुछ पढने को, हॉस्टल के छात्रों से लेकर दफ्तर में काम करने वाले युवा या मंदिर की ओट में बैठे बूढ़े सभी हाथ में मस्तराम की भक्ति में लीन रहने लगे. सामाजिक मसाला इस तरह स्वादिष्ट लगने लगा कि समाज की सिसकियाँ अंगराई लेने लगी. यह कोई नई कथा नहीं है ये आज के समाज का परिदृश्य है, सामाजिक हवस का प्रतिबिम्ब है. वो सत्य है जिसे मनुष्य कबूल नहीं करना चाहता है, जिसे वो सिर्फ अंजाम देना चाहता है. फिल्म अपने हिसाब से काफी लचर है, कुछ दृश्य अच्छे हैं परन्तु राजाराम के चरित्र को मजबूती नहीं दी गयी, इसीलिए जब सभी रिश्ते उसे ठुकरा देते हैं तब भी हमारी सहानुभूति उसके साथ नहीं जुड़ पाती. पत्नी के साथ भी कुछ ऐसा ही है, पात्रों को बाँध के रखा गया है, लेखन में भी कमियाँ है. परन्तु यह फिल्म एक उदहारण है कि समाज अभी बहुत कुछ देखने को तैयार है. मस्तराम कतई प्रफुल्लित नहीं करती, कुछ सीटियाँ लूटती है परन्तु प्रभावहीन. संवाद काफी अच्छे हैं, परन्तु चरित्रों का असरहीन अभिनय संवाद को दबा देते हैं. अखिलेश जैसवाल इससे पहले गैंग्स ऑफ़ वास्सेय्पुर लिख चुके थे, उम्मीदें कुछ ज्यादा थी, निराश होना पडा. फिल्म एक भी ऐसा कारण नहीं देती जिस हेतु इस फिल्म को देखा जाए, हां किस तरह सेक्स कहानियों को रेडियो फीचर की तरह सुना जाए ये दिखाती है. सुनना हो तो जा सकते हैं. अथवा न जाना ही बेहतर. यह फिल्म मानवीय विकारों को उस दृश्य में दर्शाती है जब राजाराम का दोस्त जो कुछ क्षण पहले उसे ऐसी कहानी लिखने के लिए कोसता है, मस्तराम खरीदते दिखता है. ये सोंच पर एक स्पर्श मात्र है, जोर नहीं. कुछ और चाहिए जोर डालने के लिए. हम अपने हवस का इलज़ाम किसी और के सर नहीं डाल सकते हैं, कैसे डाल दें. अपने ज़मीर को क्या जवाब दे पाएंगे? क्या पढ़ के आये हैं, क्या देख के आये हैं, क्या करने की इच्छा है? कुछ भी व्यक्त नहीं कर सकते. इसे ही खामोशी कहते हैं और ख़ामोशी को गंद का नाम और कहें तो मसाला का नाम देती है मस्तराम.  

शनिवार, 3 मई 2014

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परिवर्तन के परे

मेरे भूख का मतलब क्या है?

                                              -    अंकित झा

फिर से एक कच्चा घर होगा, घर में एक औरत होगी, जो शायद माँ होगी, खाली बर्तनों की ओर निहार रही होगी, मजबूर बाप आएगा, कांपता हुआ, कि आज फिर कुछ नहीं कमा के ला पाया, एक बेटी होगी जो भूखी होगी परन्तु पिता को हौसला देगी, एक छोटा बेटा होगा जो भूख से तड़प कर रो रहा होगा, उससे छोटा एक और बेटा होगा जिसे भूख का अर्थ नहीं पता, वो माँ के दूध पर जिंदा है, माँ का तो कलेजा सूख चूका है, माँ उसे कैसे बताये कि भूख का मतलब क्या होता है, और न ही वो बच्चा पूछ पाता है कि मेरे भूख का मतलब क्या है?

‘गर उजड़ना है तुम्हें तो क्यों न देशहित में ही उजड़ो’ याद है किसके किसके अनमोल वचन हैं ये? देश के प्रथम प्रधानमंत्री के, हीराकुड बाँध बंधने जा रहा था, सभी ओर नाराज़गी, हम अपनी ज़मीन खाली क्यों करें? वो भी इस मानवीय विध्वंश के लिए, उड़ीसा में पहले क्या कम भूखमरी है, जो ये दीवार और बांधा जा रहा है, नदी और हमारे बीच. किसकी कौन सुनता है, बंध गया, महानदी की महाशोभा. पश्चिमी ओडिशा उजाड़ दिया गया, 60 मी के इस भौकाल के लिए. 22000 परिवार विस्थापित हुए, कहने को करोड़ों बांटे गये, क्षतिपूर्ति के रूप में, वास्तविकता ये थी कि मिला भी तो सिर्फ 33 मिलियन, वो भी पूर्ण सत्य नहीं है.
इस देश में मानवीय दंगल के फेरें सभी ने लगाये कहाँ हैं, लम्बी फेहरिश्त है; टेहरी बाँध बड़ा उदाहरण है, फिर वेदांता का बंगाल प्लांट, सरदार सरोवर की अठखेलियाँ और पूर्णतः विफल रहा टाटा नैनो का मिशन बंगाल. विस्थापन एक ज़ख्म है, मनुष्य के अस्तित्व पर, मनुष्य के स्वभाव पर, उसके स्वपनों पर, उसके अपनों पर, सहचरी पर, उसके विरासतों पर. सरकार के लिए वो साईट है, ज़मीन का टुकड़ा है, लोगों के लिए वो पिता के पहली कमाई से खरीदी गयी ज़मीन है, बंजर हो जाती है, तो क्या हुआ, पसीना देकर सींचेंगे, एक दिन तो फसल उगेगी ही. सरकार क्षतिपूर्ति ज़मीन का देगी, पिता के ख्वाबों का नहीं, उसकी क्षतिपूर्ति कौन करेगा? मानवीय स्वाभाव कहता है, जो वस्तु हम लौटा नहीं सकते वो कभी छीनना भी नहीं चाहिए. फिर सपनों पर कब्ज़ा करने का हक किसने दिया है, किसी को. परन्तु क्या करें सरकारें गरीब के सपनों से नहीं, रईसों के नोटों से चलता है, कुछ गलत कह दिया मैंने क्या? उस थाली की फ़िक्र किसे है, जिसमे तीन रातों से रोटी नहीं गिरी है, बस मक्खी कभी कभी आकर बैठती है और जल्दी से उड़ भी जाती है क्योंकि कुछ है ही नहीं उसमे, अब तो गंध भी नहीं बचा है. फ़िक्र तो शेयर बाज़ार के लुढ़कने का है, क्योंकि एक का दो होने को जो रखा गया है पैसा उसमें. गरीब के घर के बहार पल रहे बैल की चिंता किसी को नहीं, दलाल पथ पर खड़े उस पत्थर के बैल की सभी चिंता किये जा रहे हैं. घंटो बहस होते हैं, निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता. बस एक बात सामने आती है कि गरीबी नियंत्रण आवश्यक है. यह कैसा आर्थिक विकास हो रहा है? उन आँखों की फ़िक्र किसे हैं, जिससे आंसू रुकने का नाम नहीं लेती क्योंकि उसके 3 साल के बेटे ने सुबह से कुछ नहीं खाया और पति पैर तुड़वाकर फूटपाथ के किनारे लेटा है, इस इंतज़ार में कि किसी का ज़मीर जागे और सिक्का फेंक दे उसकी तरफ, बेटी तो हनुमान और देवी बनकर सुबह से मोटरों के सामने जा के करतब दिखा के मांग रही है, कुछ ख़ास मिला नहीं है अब तक. मांग में भी तो दम होनी चाहिए, फिर कुछ दरियादिलों के दिल के ज़ख्म कुरेदे जायेंगे और करुणा में आँख बंद कर लेंगे और सोंचने लगेंगे ऐसी दुर्दशा क्यों है इस देश की. इन नज़रों की ओस कब मिटेगी, इनके बदन पर लगी मिट्टी कब साफ़ की जाएगी, कब तक आंसू पीकर ही प्यास बुझेगी, कब तक ये छोटे छोटे मासूम सड़कों पर करतब दिखाएँगे, मजबूरी कब तक इनको बचपन से दूर रखेगी, कब तक ये छोटे हाथ अपनी माँ के आंसू पोंछते रहेंगे, कब तक भाग्य इनके जिस्म पर मेहरबान रहेगा, साथ कब तक बना रहेगा मुक़द्दर का इनके सर पर, विकास के आधार फ्लाईओवर के नीचे पलती ये जिंदगियां वापस कब बसेंगी? क्या कोई उत्तर है किसी के पास? गरीबी मापी नहीं जाती, यह महसूस की जाती है, कोई समिति गरीबी का मूल्यांकन नहीं कर सकती, भला वातानुकूलित कमरों में बैठकर ये सरकार के बंधुआ मजदूर देश की ग़रीबी का मूल्यांकन करेंगे, कि 30 रु. कमाने और खर्च करने वाला ग़रीब है या 100 रु. कमाने वाला. ग़रीब कौन है? हर वो इंसान ग़रीब है, जिसके माँ बाप वृद्धाश्रम में पलते हैं या वृन्दावन, द्वारका और पुरी में भिक्षा की आस रखते हैं, रिक्शों पर रात बिताने वाला ग़रीब है, जिनके कान पर इनके प्रति करुणा की जूं नहीं रेंगती वो इंसान ग़रीब है. बड़े बड़े बिल्डिंग में दो दरवाजे और, उन दरवाजों में 4 कुण्डियाँ लगा कर सोने वाले देश के लोगों को उनकी कभी फ़िक्र होती है कि लोग फूटपाथ पर कैसे सो लेते हैं, क्या उन्हें कोई डर नहीं होता? ‘क्या उन्हें कोई डर नहीं होता, जिनका अपना कोई घर नहीं होता?’ शब्द की नहीं भावना की गहराई को मापिये, चकाचौंध में आँखें चिल्मिला जाया करती हैं, सत्य विलीन हो जाता है, चौंधियाए आँखों से बस आंकडें ही दिखते हैं. इन बद्किस्मतों की किस्मत हमारे हाथों में हैं, हाँ, बद्किस्मतों के भी किस्मत हुआ करते हैं, तभी तो भूखे ही पर ये आँखें हंस दिया करती है बचपन की अठखेलियों में और कुछ फोटो खींच लिए जाते हैं, जिंदादिली दिखाने के लिए. इन्हें पता है भूख क्या होती है, परन्तु ये नहीं पता कि इनके भूख का मतलब क्या होता है? शून्य प्रभाव. कुछ करुणा, मात्र. असहाय धर्म के अधिकारीयों के लिए, अल्लाह के बन्दे कहने भर का समय, और नम आँखों से उन्हें बिदाई देने की तैयारी. बचपन को, ग़रीबी को, भूख को, मजबूरी को, इनके बेजान मुक़द्दर को, सड़क पर गाड़ी के सामने करतब दिखाती उस मासूम के बचपन को, मुंबई के लोकल ट्रेन में पुलिस के आने पर खिड़की से कूदकर भागते मासूम की ज़िन्दगी को, सब को अलविदा कहने का समय हो रहा है. सुना है, गरीबी पर कोई प्रोग्राम आने वाला है, देखते हैं आज कौन सी नई ग़रीबी देखने को मिलता है. शायद फिर से एक कच्चा घर होगा, घर में एक औरत होगी, जो शायद माँ होगी, खाली बर्तनों की ओर निहार रही होगी, मजबूर बाप आएगा, कांपता हुआ, कि आज फिर कुछ नहीं कमा के ला पाया, एक बेटी होगी जो भूखी होगी परन्तु पिता को हौसला देगी, एक छोटा बेटा होगा जो भूख से तड़प कर रो रहा होगा, उससे छोटा एक और बेटा होगा जिसे भूख का अर्थ नहीं पता, वो माँ के दूध पर जिंदा है, माँ का तो कलेजा सूख चूका है, माँ उसे कैसे बताये कि भूख का मतलब क्या होता है, और न ही वो बच्चा पूछ पाता है कि मेरे भूख का मतलब क्या है?    


शुक्रवार, 2 मई 2014

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चुनाव विशेष

विवशता और विश्वास की कसौटी
                                                                                            -    अंकित झा

यहाँ जीतने का मोह नहीं हराने की जिद्द है, इसे हराओ, उसे हराओ, जैसे हो सके वैसे परन्तु हराओ. गढ़ में सेंध लगाओ, साम्राज्य स्वतः ध्वस्त हो जायेगा. जीतने के लिए विश्वास जीतना पड़ता है, परन्तु हारने के लिए सामने वाले की विवशता का मुखौल उड़ाया जाता है,

बरस बीतने को आया है, असंख्य रैलियाँ, अनगिनत सभाएं, और विज्ञापन की भरमार. एक से बढ़कर एक नारे, संकल्प, विचार, विरोध तथा दीवानगी. सबके मन में एक ही विचार, अब की बार मोदी सरकार. 2014 का चुनाव अब चुनाव नहीं रहा है, ये अब महासमर का रूप धारण कर चुकी है, कहाँ कहाँ से संज्ञा उठाये जा रहे हैं, कितने चालाकी से सर्वनामित किया जा रहा है. चुनाव प्रचार का ऐसा खेल शायद ही पहले ही कभी खेला गया हो, मुद्दों को फिर से सम्प्रदाय की भेंट चढ़ा दिया गया है. इस बार विजय जितनी निश्चित लग रही है, उतनी ही अनिश्चित. कौन कह सकता था आज से 5 वर्ष पूर्व कि जिस राहुल गाँधी के यूपी के चुनाव प्रचार को आदर्श प्रचार बताया गया था, आज उसी का मुखौल उड़ेगा. समाज की उदासीनता को कितनी खूबसूरती से अपना ढाल बनाया गया है चुनाव प्रचार मैं. कोई उदासीनता तो कोई वही पुरानी भावनात्मक प्रपंच रच रहा है, कोई अपने पिता के नाम पर वोट मांग रहा है तो कोई किसी शहीद के माता के नाम पर तो कोई किसी के लिए. सम्प्रदाय, जाती, वर्ग फिर से फन काढ़े खड़े हैं, देश का चुनाव बिना इन्हें शामिल किये संपन्न कैसे हो सकता है. यह चुनाव विपक्ष और निष्पक्ष के मध्य है, फिर भी पक्ष की सहभागिता नकारी नहीं जा सकती. पक्ष के पास मुद्दे है कहाँ, उनके पास तो रोने को आपबीती है, उसपर से एक मूक प्रधानमंत्री का वो असहाय साया. जाए भी तो कैसे और कहाँ? नया कोई जगह मिलने से रहा, जो गढ़ हैं, उन्हें बचाया जाये, कुछ भी किया जाए परन्तु लहर को शांत किया जाए, इसके लिए, कहीं भी जाना पड़े, मस्जिद, गुरूद्वारे, कहीं भी. घाव कुरेदे जाएँ, दर्द को वापस बुलाया जाये, मॉडल की बात करते हैं, मॉडल की असलियत दिखाई जाये, हो सकता है, चमत्कार हो जाये. नहीं तो सबसे आसान काम किया जाए, डराया जाए, आसानी से वोट बाँट जायेगा, हमें तो मिलने से रहा, नए खिलाडी ही लूट ले जाएँ, इन्हें तो नुकसान पहुंचे. जितनी बर्बादी हो रही है, उसे रोकने से अच्छा है, इनके माथे मढ़ दिया जाए. कोई भी यहाँ पर इतना साफ़ नहीं है. कुछ विवश हैं तो कुछ अविश्वसनीय. चुनावों में विश्वास का टूटना तो आम बात है, कोई नयी गाथा तो है नहीं. यहाँ जीतने का मोह नहीं हराने की जिद्द है, इसे हराओ, उसे हराओ, जैसे हो सके वैसे परन्तु हराओ. गढ़ में सेंध लगाओ, साम्राज्य स्वतः ध्वस्त हो जायेगा. जीतने के लिए विश्वास जीतना पड़ता है, परन्तु हारने के लिए सामने वाले की विवशता का मुखौल उड़ाया जाता है, नतीजा सामने है.


चुनाव होते ही किसलिए हैं? ताकि देश में पैसों की आंधी को नग्न आँखों से देखा जा सके? चुनाव में प्रतिभागिता किसी युद्ध की तैयारी से कम नहीं, उसपर से जनता के आंसुओं का ख्याल. इस देश में आज तक मुद्दा चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बन पाया समझ में नहीं आता. 65 वर्ष के लोकतंत्र में 65 मुद्दे भी ऐसे नहीं रहे होंगे जिन्हें हथियार बना कर चुनाव लड़ा गया हो. और जिस बार कुछ परिवर्तन के आसार दिखाई देते हैं, उस वर्ष ही बर्बादी की नींव रखी जाती है. इसे क्या कहें कि जिस कुर्सी के लिए इतनी मेहनत की जा रही है, उसी की गरिमा का इतना मुखौल उड़ाया जा चुका है कि आश्चर्य होगा जब नए आने वाले इस पद की गरिमा बचा पाएंगे या नहीं. चुनाव को लेकर कुछ मौलिक प्रश्न उठने तय रहते हैं, कि एक चुनाव क्षेत्र से कितने प्रत्याशी अपना नामांकन दाखिल कर सकते हैं? क्या इनके लिए कोई शैक्षणिक योग्यता आवश्यक नहीं? जब सरकारी नौकरी के लिए पुलिस वेरिफिकेशन आवश्यक है तो सरकार का हिस्सा बनने के लिए आवश्यक नहीं? कितने प्रतिशत मत पर विजय सुनिश्चित की जाए यह तय क्यों नहीं है? चुनाव में कितना खर्च हो रहा है इसकी देखरेख कौन कर रहा है?” ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो हर मन में उठते हैं परन्तु उत्तर प्राप्त करने की चेष्टा अब बच नहीं गयी है. क्या यह बात कोई नहीं जानता कि ये राजनेता जो भगवान को भी धोखा देते हैं, वो मनुष्यों के कैसे हो जायेंगे? भूल जाते हैं कि अंततः कोई अपना ही हमारी चिता को मुख्ग्नी देता है, तैयार रहना चैये ऐसे कुछ कटु सत्य को स्वीकार करने के लिए. कोई नहीं खड़ा है इस चुनाव के बाद इन प्रश्नों के कंकाल को उठाने के लिए. प्रणाली से इतने तंग आ चुके हैं हम कि अब हममें इतनी क्षमता नहीं की ऐसे प्रश्न से स्वयम्भुओं को परेशान कर सके. अब निर्मोही कहे या कुछ और परन्तु लोकतंत्र हमारे हाथ से निकल चुका है. बहुत दूर, इतना कि वापस ला पाने में समय लग जायेगा, 16 मई से पहले तो आने से रहा, कोशिश करनी होगी यदि आ सके.