सोमवार, 31 मार्च 2014

Articless

चुनाव विशेष 

व्यक्ति विशेष तथा आम से आदमी का संघर्ष 
                                         - अंकित झा 

अमन बिक रहा है, चमन बिक रहा है,
गरीबों के नसीब का कफ़न बिक रहा है.
कोई शर्म नहीं है कहने में कि,
इन रहनीतिक दलालों के हाथों,
ये हमारा वतन बिक रहा है.”
-    एक आम राजनीतिक कार्यकर्त्ता.

12 वर्ष बीत गये उस त्रासदी को, लपट आज तक बरकरार है, इतिहास कितना महत्वपूर्ण हिस्सा है हमारी ज़िन्दगी का अब पता चल रहा है. चुनावी सरगर्मियां अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है, हर और तीखे बयान, आरोप-प्रत्यारोप, अपनी शेखी, बड़ी बड़ी डींगे, तो वही घिसे पिटे चुनावी वादे. यही यही दिख रहे हैं, आपके अपने उम्मीदवार, आपके बीच से, आपकी सेवा के लिए, आपके समर्थन हेतु उपलब्ध है, बस मतदान तो कीजिये और छोड़ दीजिये देश अगले कुछ समय के लिए इनके हवाले. आप अगले 5 साल इन्हें अपने मत की गरिमा का मुखौल उड़ाते देखिये. कभी संसद में, कभी प्रेस वार्ता में, कभी अलग अलग सभाओं में तो कभी टीवी साक्षात्कार में. कहीं प्रयोग है, कहीं कुर्सी का सुयोग है, कहीं कुर्सी जाने का वियोग है, कहीं अपने शक्ति का विलक्षण उपयोग है. हर ओर एक अजीब सा दावानल है, धधकती आशाएं और आकांक्षाएं, नित्य अंकुरित होते स्वप्न और धराशायी होती साख.
यह चुनाव एक चुनाव मात्र नहीं है, यह एक आइना है, अपनी औकात दिखाने हेतु, अपना चेहरा दिखने हेतु, आगे का मार्ग प्रशस्त करने हेतु, ग़ालिब का शेर है, “तू न देख कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे, तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे”, अबकी चुनावी मौसम में सटीक बैठता है. जनता के आगे अपना रंग देख लें नेता जि, आपकी यही औकात है, ये बिगड़ गयी तो कुर्सी के पाए तोड़ देगी. उदहारण देख लीजिये कभी जिस सीट से रिकॉर्ड जीत हासिल कि थी, उसी सीट से हार का सामना करना पीडीए था केन्द्रीय मंत्री रहे राम विलास जी पासवान को. ये जनता है, कुछ भी कर सकती है, कमोबेश अपने मन में हो, और अपने मन का करना चाहती हो. जनता मुद्दा नहीं देखती, यदि ऐसा होता तो ६५ साल से, 4 मुद्दे देश के चुनाव तय नहीं करते, बिजली, पानी, सड़क और आरक्षण. इस बार रोटी, भ्रष्टाचार से मुक्ति, रोजगार, कुछ नये सपने और बहुत कुछ नया नया आ गया है. सच तो ये है कि इस बार नया पुराना समागम है. हाँ, ये चुनाव अलग है, ऐतिहासिक है, अलौकिक है, ऐसा चुनाव पहले कभी नहीं हुआ. इस चुनाव में मुद्दा नहीं है, मॉडल है, मोदी है, कोई मोदी के समर्थन में है तो कोई उसके विरुद्ध. परन्तु हर जगह मोदी है, हर हर मोदी घर घर मोदी. कोई अराजक कहे, कोई बडबोला परन्तु सुनने को सब तैयार हैं. ये चुनाव आम चुनाव नहीं है, ये मोदी चुनाव है, आम चुनाव में आम बात नहीं होती, यहाँ तो समूचा माहौल ही आम है, मोदी कि आम बातें तथा मोदी के आम समर्थक. मोदी पर लगने वाले आम आरोप, आम से प्रत्यंच तथा आम से प्रलोभन. हर चीज़ आम है, सिर्फ एक व्यक्ति को छोड़कर. वो विशेष हैं, मोदी. ये चुनाव मोदी विशेष हैं. अतः ये विशेष चुनाव है.  
मानव इतिहास इस बात कि साक्षी रही है कि जब जब ऐसा कुछ हुआ है, किस तरह परिवर्तन होते होते रह गया है, आगे क्या होने वाला है कोई नहीं जानता, सिर्फ इतना पता है, कुछ अलग होगा, इतनी उम्मीदें एक साथ गलत नहीं हो सकती, नहीं कतई नहीं. दिल्ली में क्या हुआ? क्या हुआ? उम्मीदें टूटी न? कैसे धराशायी हुई इतनी उम्मीदें, इतने उम्मीद के साथ नवाज़ा था सत्ता, एक आम से आदमी को. कितने सपने दिखाए थे, इन आँखों ने अच्छे समाज पर विश्वास करना प्रारंभ कर दिया था फिर कैसे अगले डेढ़ महीने हमारे उम्मीदों से खिलवाड़ किया गया. वसुंधरा के कुछ लड़कों ने वसुधा को लूटने की कोशिश तो नहीं की परन्तु हमारी उम्मीद लूट के ले गये. अब विश्वास करने का मन नहीं करता किसी पे, सब बहकावा ही लगता है, सब खोखले वादें लगते हैं. ये सबका कहना है. परन्तु जो सब कहें आवश्यक नहीं कि वो सच ही हो, राजनीती और शतरंज में यही तो समानता है कि पहले प्यादों को मरने का मौका दिया जाता है, बड़े नेता के विरुद्ध छोटा उम्मीदवार. ताकि नेता भी न हारे, और हम पर ये इलज़ाम भी न आये कि हमने कोशिश नहीं की. परन्तु ये पार्टी अलग है, बड़े नेता के विरुद्ध बड़ा नेता उतरना जानती है, अर्थात राजनीती से इत्तेफाक नहीं रखती. जीत कि मोह नहीं, हार की चेष्टा नहीं. कजरी दिल्ली से, गाजियाबाद से, हिसार से, राजस्थान से, किसी भी बड़े शहर से लड़ सकते हैं, जीतने की उम्मीद कर सकते हैं, वाराणसी ही क्यों? ताकि उन्माद कम हो, विशेष आदमी का प्रचार भी विशेष हो. मुघालते में न रहे, जैसे शीला दीक्षित रह गयी थी. वो दौर थोडा अलग था, झाड़ू तब नई थी, अब थोड़ी पुराणी है, और सफाई करते करते थोड़ी गन्दी भी हो गयी है, और कुछ मैले होने का इल्ज़ाम भी लग गया है. फिर भी राजनीती में दाग़ अच्छे हैं. राहुल गाँधी के विरुद्ध कविवर का खड़ा होना. राजनीती में दर पर जीत ही, असली जीत है. शत्रुघ्न सिन्हा के सामने शेखर सुमन की क्या बिसात, फिर भी १५००० से भी कम वोट से हारे, क्योंकि घबराये नहीं. ऐसा ही होता है और ऐसा ही होना चाहिए. देश को जितनी आवश्यकता मोदी की है, उतनी ही आम से आदमी की भी. आलोचक कुछ भी कहे, दिल पे हाथ रख के नहीं कहेंगे कि मोदी पूरे साफ़ हैं और आम से आदमी पूरे गंदे. यही साख है, अपने चरित्र पर दाग़ लग जाए परन्तु आत्मा पर दाग़ न लगने पाए. उम्मीद है, देश आम से आदमी को मौका देगा, सरकार बनाने की न सही परन्तु संसद में अपनी बात रखने की, सत्ता का मोह तो वैसे भी इन्हें नहीं है, होता तो दिल्ली की कुर्स क्यों जाने देते, लोकसभा में प्रचार के लिए. नहीं, ऐसा सोंचते हैं तो राजनीतिक समझ बढाइये. कजरी कतई गलत नहीं हैं ये कहने में कि एक सरपंच या एक पार्षद भी ये हिम्मत कर सकता है कि वो हाथ आये सत्ता को इस तरह छोड़ दे. मुख्यमंत्री तो बहुत बड़ी बात है, प्रधानमंत्री को देखिये, इतिहास बनाने और मिसाल बनने के कई मौके गवांये. १०० दिन में महंगाई कम तथा अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने का वादा, विफल हुए, कोयले का दाग़ लगा, डटे रहे, विफल हुए, भ्रष्टाचार के आरोप सरकार पर लगते रहे, चुप रहे, विफल हुए. एक बार भी अगर दिल पे हाथ रख के, इस्तीफा देने की बात भी कर देते मिसाल बन जाते कि वो दुखी थे, सरकार पर लगने वाले दागों से, परन्तु विफल रहे. ऐसी दुखद विदाई की कल्पना किसने की होगी, इतने होनहार व्यक्ति की.  

अब की बार जिसे भी वोट दें परन्तु वोट अवश्य दें. कोई भी जीते, लोकतंत्र की जीत आवश्यक है. कब तक वोट की अहमियत ख़त्म होती रहेगी, इस बार स्वयाम्भुओं को दिखा ही दें कि वोट की कीमत क्या होती है. और इससे खिलवाड़ की कीमत क्या होती है, अपने सपनों को कवाब और साड़ी पे बिकने मत दीजिएगा, यदि ऐसा हुआ तो कोई नेता विशेष या आम सा आदमी देश नहीं बचा पायेगा. तीसरे को तो उल्लेखित ही नहीं करना चाहुंगा, इतिहास उन्हें सजा देगी, 10 वर्षों तक किये गये पापों की सजा. फिर जब समय आएगा तब उन्हें भी मौका दिया जायेगा. इस बार तो इन दोनों में ही विकल्प ढूंढा जाए. कुछ और भी हैं जो अपनी आदर्शवादिता के स्वयं ही शत्रु बन बैठे हैं, कुछ समाजवादी, कुछ साम्यवादी, तो कुछ सिर्फ अवसरवादी. देश इनके साथ साथ अपने ओर भी देख रहा है, अब परिवर्तन आएगा शायद.  

1 टिप्पणी:

Prashant Jha ने कहा…

Thoda vartani aur bhasha kas lo... Achha likhte ho...