असहिष्णु अस्तित्व के अवतारी
-
अंकित
झा
पूज्यनीय कौन है? जो
कभी पूजे जाने की चाह न रखता हो. आदरणीय कौन है? जिसके लिए आदर स्वतः ही निकल
जाये, कभी यूँ भी होता है कि आदरणीय बनाने की श्रृंखला सी लग जाती है, आदर उसे
मिले जिसे इसकी इच्छा व अपेक्षा न हो. बीते दिनों अहमदाबाद जाना हुआ, (वृत्तान्त
अलग से उपस्थित है) साबरमती आश्रम में गाँधी संग्रहालय के बाहर लगे गाँधी के
प्रतिमा पर तरह तरह से तसवीरें खिंचवाने की होड़ लग गयी. किसे फुर्सत थी कि जरा
ध्यान देकर एक बार को ये सोंच ले कि क्या कर रहे थे. मेरी एक काल्पनिक मित्र है जो
दिल्ली के ही नामी कॉलेज में अध्ययनरत है, उसके कॉलेज की ही कुछ लड़कियां हमारे
हत्थे चढ़ी थी, एक ने तो हमारे कैमरे पर इतना जोरदार प्रहार किया था कि टूटते टूटते
बचा. कोई गाँधी के सर पे हाथ फेर रहा है, कोई कंधे पे हाथ डाले बैठा है, कोई चश्मा
पहना रहा है, कोई माला खींच रहा है, तो कोई गोद में बैठने को आतुर है. यह नए समाज
की नयी नस्ल है, ये गाँधी विरोधी हैं या नही ज्ञात नहीं परन्तु ये नयी अंकुरण
ज्ञान के शून्य हैं ये तय है.
इसी बात पर मेरी उस मित्र से बात हुई, उसने कहा हाँ
लड़कियों ने गलत किया परन्तु गाँधी इतने भी कोई सम्मान के हक़दार नहीं थे. सम्मान,
सहिष्णुता व समझदारी एक बात नहीं होती. परन्तु न मानने का अर्थ अपमान करना तो नहीं
होता. हां मैं कोई गाँधी समर्थक नहीं हूँ, परन्तु इस नयी पिशी के गाँधी-विरोधी
होते जाने के क्या कारण हैं. ये पीढ़ी उनके विचारों से लेकर उनके कृत्य तक हर विषय
पर उनके विरोध में खड़ी है. ये पीढ़ी गाँधी से बड़ा आदर्श उनकी हत्या करने वाले
हिन्दू राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे को मानने लगी है. यह घृणा है, या फिर सिर्फ
समर्थकों कि कमी या फिर समय की करवट मात्र? भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस तथा बाबा
साहब आंबेडकर समेत सरदार पटेल को आज की पीढ़ी नायक के रूप में देखती है तो वहीँ
गाँधी, नेहरु को दरकिनार करने का एक मौका नहीं गंवाती. क्या आज की पीढ़ी के लिए
पकिस्तान का बंटना गलत था या फिर नेहरु का प्रधानमंत्री बनना, या फिर गाँधी का
पकिस्तान को 55 करोड़ देने के पक्ष में भूख हड़ताल पर बैठने के फैसले से नाराज़ है?
नहीं ऐसा कुछ नहीं लगता, कुछ तो खिलाफत आन्दोलन के समर्थन को गलत मानते हैं, तो
कुछ उनके असहयोग आन्दोलन को वापस लेने के फैसले से आहात होते हैं आज तक. कुछ उनके
मुस्लिमों के पक्षधर होने के कारण उनसे नाराज़ होते हैं तो कुछ उनके इरविन पैक्ट पर
हस्ताक्षर करने के फैसले पर. सिद्धांत व सत्य में एक अंतर निहित है, ये अंतर ये है
कि सिद्धांत को सिद्धि की आवश्यकता होती है तथा सत्य को स्वीकृति की. अतः सिद्धि व
स्वीकृति के मध्य गाँधी की दार्शनिकता अटक के रह जाती है, गाँधी की दार्शनिकता
सिद्धांत है, जिसे सिद्ध करने की आवश्यकता है, ये सत्य नहीं हैं जैसा कि अब तक
दर्शाया जाता रहा है, यहाँ पे इतिहास विफल हो जाता है. इतिहास आज किसी के लाठी,
धोती और यिनक की ग़ुलाम बन बैठी है, गाँधी परम सत्य कतई नहीं हैं. ऐसी कतई व्यसनें
हैं जो गाँधी को गाँधी अर्थात परम इतिहास बनने से रोकती है, कई कारण विश्व को
ज्ञात हैं तो कतई अब तक कहीं छुपी हुई या कहें छुपाई हुई. उस मित्र से मेरी बहस का
अधर ये था कि उसका कहना था गाँधी को लेकर देश अपनी आँखें मूंदें हुए है, गाँधी को
आवश्यकता से अधिक सम्मान प्राप्त हो चुका है, जैसा कि नहीं होना चाहिए था. कहा
जाता है कि गाँधी अनुभूति पर विश्वास नहीं करते थे, वो अनुभव में विश्वास करते थे,
इस अनुभव के लिए वो प्रयोग किया करते थे. किवदंतियों के अनुसार ब्रम्हचर्य में
स्खलन के बचाव हेतु वो कई बार पर स्त्रियों के साथ हमबिस्तर होते थें, यहाँ तक कहा
जाता है कि उनकी पौत्री मनु को भी कई बार उनके साथ एक ही बिस्तर पर, नग्न अवस्था
में सोते देखा गया था. गाँधी त्याग में विश्वास रखते थे, वे स्वाबलंबी थे,
कस्तूरबा को उन्होंने कुलीन रिवाज़ छोड़कर स्वयं पखाना साफ़ करने के लिए प्रेरित किया
था. परन्तु एक सत्य यह भी है कि वो कई बार आश्रम की स्त्रियों के सामने नग्न घुमा
व स्नान किया करते थे, स्त्रियों के कंधे थाम कर चला करते थे. महाराष्ट्र से आये
उनके एक शिष्य के चिट्ठी से ये खुलासा होता है. साथ ही साथ गाँधी वध के दोषी नाथू
राम गोडसे द्वारा दिए गये अदालत को कारण जिसे कि एक पुस्तक के रूप में संकलित किया
गया, (जो कई वर्षों तक प्रतिबंधित भी रहा था) के अनुसार भी गाँधी को मारने
के 6 प्रयास हुए थे, खिलाफत के बाद से उनके संहार तक. हालाँकि गोडसे के कुछ कारण
उनके मंशा को कमजोर कर देते हैं परन्तु अधिकांश कारण चीख चीख कर यह कहते हैं कि
गाँधी परम सत्य नहीं थे, ग़ुलाम देश में उन्हें इतनी आजादी कहाँ से प्राप्त हो गयी
थी कि वो जो चाहें प्रयोग कर सकते थे. सबसे बड़ा दोष है आश्रम से नित्य आने वाली करुण
रुदन की दयनीय आवाज़. गाँधी आश्रम स्वच्छ नही था, ये दूषित था, यहाँ सिद्धांत के
साथ साथ दुर्व्यसन भी पलता था, इसे जो नाम दे दिया जाये वो सही. गाँधी अपने अहिंसा
के कारण प्रसिद्द थे, आश्रम में किसी भी तरह का हिंसा वर्जित था, यहाँ तक कि यौन
सम्बन्ध बनाने पर भी रोक थी, क्योंकि ये भी एक तरह का हिंसा है परन्तु बा के साथ
हुए हिंसा का क्या? गाँधी के प्रयोग के दौरान होने वाले हिंसा का क्या? गाँधी ने
भगत सिंह के बम काण्ड को दमनकारी तथा पागलपन कहा था, उसी भगत सिंह ने 63 दिवस ताज
हक़ के लिए भूख हड़ताल किया था तथा अंग्रेजी हुकूमत कि जडें काँप गयी थी, २३ वर्षीय
भगत सिंह के समाजवादी सिद्धांत 70 वर्षीय गाँधी के सिद्धांतो को आसानी से टक्कर
देते थे, गाँधी सकारात्मक सोंच वाले, आस्तिक तथा कौमी एकता को मानने वाले थे, उनपर
अध्यात्म की छाप उनकी माता पुतली बाई के समय से ही था. आश्रम में सुबह शाम भजन
गूंजा करते थे, सारे विषों-विपदाओं को काटने वाले भजन. “वैष्णव जन तो तेने कहिये
जे पेड परे जाने रे”, परन्तु गाँधी से यूँ भगत के माता-पिता व देश के युवाओं का
दर्द क्यों नहीं देखा गया, यह रहस्य है. पर्दा उठाना नामुमकिन सा है. सिर्फ गाँधी,
उस फांसी को रोक सकते थे. परन्तु ऐसा नहीं हुआ. देश के सपूत हंसते हंसते फांसी को
चूम गये, गाँधी मौन रहे. सदा की तरह उनमे बौखलाहट नहीं दिखी. गीता में लिखा है कि
जिस समय सारे तर्क विफल हो जाते हैं, उस समय शस्त्र उठाना ही पड़ता है, परन्तु
गाँधी के शस्त्र ना उठाने की जिद्द देश को कई वर्ष पीछे ले गयी. न
देश तब तैयार था और न वास्तविक आजादी के समय. और देश को ऐसे प्रधानमंत्री का तौफा
दिया कि देश के मुकूट को ही विश्व समस्या बना कर रख दिया.
कारण कईं हैं,
परन्तु गाँधी कौन है ये कोई नहीं जान पाया. और न जान पायेगा य इतिहास उसे जानने
नहीं देगा. क्योंकि कलम सिर्फ उनकी जय बोलता है जिनकी स्याही किसी के सजदे झुक गया
होता है और इतिहास सिर्फ उनकी गवाही देता है जो अपने नाम को बेचना जानते हो. कभी
फिर बहस छेड़ेंगे, अनशन पर बैठकर गाँधी के लिए न सही तो गाँधी के विचारों ही के लिए
सही पर एक बार को आँखें जरुर मूँद लेंगे और कहेंगे “आज फिर से किसी माँ की कोख में
हलचल सी मची है, शायद ये नए क्रांति के अंकुरण का समय है.”
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