शुक्रवार, 7 मार्च 2014

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इंसानियत के कंकाल तले
              
                                 -    अंकित झा

ज़िन्दगी महान बनने के कईं मौके देती है परन्तु मिसाल बनने के लिए सिर्फ एक. और ये मौका छीनना पड़ता है. मनुष्य अब केवल महान बनने की होड़ में लग गया है, मिसाल बनने की जिद्द अब कहीं पीछे छूट गयी है, जिसके पार जाना असंभव सा लगता है. खेल, मानव ज़िन्दगु का हिस्सा है. खेल परिश्रम से लेकर प्रतिज्ञा तथा मनोरथ से मुखरता सब कुछ सिखाता है. दिमागी कसरत हो या शारीरिक चपलता खेल के कुछ अभिन्न अंग हैं, साथ ही साथ खेल से जुड़ा होता है, सहनशीलता. सबसे महत्वपूर्ण व सबसे नाजुक. इसका दामन छूटने पर खिलाडी जीवन का दमन भी संभव है. परन्तु कईं बार ऐसे वाकये हो जाया करते हैं जब खेल भावना पर किस्सागोई भावना प्रबल हो जाती हैं व कब मनुष्य अपने कंकाल को पूजने लगता है पता ही नहीं चलता. खेल से देश की समृद्धि भले ही न जुडी हो परन्तु साख जुडी होती है, दुसरे देश के सामने घुटने टेकने का अर्थ क्या उस देश के समक्ष सर्वस्व समर्पण होता है, समझ में नहीं आता. खेल में नतीजे आते हैं, नतीजे या तो सुखद हो सकते हैं या दुखद परन्तु विध्वंशक तो कतई नहीं होते. फिर ऐसा क्या घट गया कि मेरठ के एक निजी विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों के जश्न पर इतनी बड़ी साहसिक पटकथा लिख दी गयी व नया वाद-विवाद शुरू हो गया. यह कतई नयी बात नहीं है कि भारत में क्रिकेट मैच का अर्थ क्या है व जब मुकाबला भारत व पाकिस्तान के मध्य हो तो उसका अर्थ क्या होता है. क्या ये शत्रुता खेल व खेल भावना से ऊपर हो जाती है. कैसी शत्रुता? ये कोई शत्रुता तो नही कि हम उनके मसाले खाते हैं, हमारे हर गोर चेहरे पर मुल्तानी मिटटी का प्रभाव है तो हर पाकिस्तानी चिकन मसाला में भारतीय प्याज. ये कैसा बैर है? ये सिर्फ वहम है कोई बैर नहीं. परन्तु कैसे खेल आर ये बैर भारी पड़ा इसका ताज़ा उदाहरण है, 2 मार्च को संपन्न हुए एशिया कप के भारत-पाकिस्तान मुकाबले के बाद का. मैच का अंतिम ओवर, जीत और हार के मध्य खड़े शाहिद अफरीदी. 2 लगातार छक्के और जीत भारत की झोली से फिसलकर पकिस्तान के आँचल में जा लिपटा. 27 वर्ष पुराना वाकया सबके ज़ेहन में उतर आया जब मियांदाद ने चेतन शर्मा को अंतिम गेंद पर छक्का जड़ा था. इस जीत के साथ ही भारत ख़िताब के दौर में पिछड़ गया. परन्तु एक ऐसी घटना घटी कि भारत मनुष्यता की कसौटी पर भी फिसल गया.
भारत की हार के पश्चात जहां देश भर में निराशा थी वहीँ कुछ कश्मीरी छात्र कथित तौर पर जश्न मनाने लगे. ये जश्न किस लिए मनाया गया, इसे जानने की चेष्टा किये बगैर ही सजा सुना दी गयी. यह जश्न भारत की हार पर था या पकिस्तान की जीत पर या फिर किसी तीसरे कारण से. प्रतिद्वंदिता में कोई न कोई पिछड़ता ही है, यह जग जाहिर है, इस पर जश्न कसा और मातम कैसी. परन्तु जब उल्लास उन्माद का रूप धारण कर ले, तो हालात बिगड़ना तय है. हुआ भी ऐसा ही. कुछ 65 कश्मीरी छात्रों को निलंबित कर दिया गया. हालात इतने बिगड़ गये कि यह राष्ट्री मुद्दा बन गया व अगले ही दिन कश्मीर के विधान सभा सत्र में इस पर विरोध प्रदर्शन भी हुए. हालात और बिगड़े तथा उन छात्रों के विरुद्ध एफ़आईआर दर्ज करवाई गयी तथा उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की गुहार की गयी है. यह मुद्दा कहाँ से कहाँ बढ़ता जा रहा है, इसे देख कर नयी बहस छिड़ रही है, एक गुट उनके समर्थन में आ खड़ा हुआ है तो कुछ लोग विश्वविद्यालय के कदम को सही बता रहे हैं.

मैं इस पर मौन रहना चाहता हूँ, कुछ भी कहना नहीं चाहता हूँ, इस नुद्दे पर कुछ कहने का अर्थ है कि या तो मैं समर्थन में हूँ या फिर विरोध में. ना ही मैं पाकिस्तान के विरोध में हूँ और न ही इस कृत्य के समर्थन में. कुछ भी कहने के लिए बाध्य नहीं होना चाहता हु. बस इतना पूछना चाहता हूँ कि पाकिस्तान से ही बैर क्यों, श्रीलंका और चीन हमारे लिए बड़ी समस्याएं पैदा करते रहे हैं. पाकिस्तान से ये सौतेला व्यवहार क्यों? अचरज की बात है कि इतने बड़े देश की ऊँगली एक ओर जा के थम जाती है. आफरीदी के छक्को का कोई मोल नहीं रह जाता, यदि भारतीय गेंदबाज को मारे गये हो परन्तु कैलिस का बिदाई शतक प्रशंसनीय लगता है, कारण समझ में नहीं आता. जब भारतीय खिलाडी ही फिक्सिंग में पकडे गये हो तो पाकिस्तानी खिलाडियों से परहेज क्यों? यह हमें रोग लग गया है नफरत और भेदभाव का. यह कुछ और नही बल्कि राष्ट्रिय भेदभाव है. सभी लफ्ज़ खामोश हो जाते हैं जब बात पाकिस्तान पर हो, ऐसा क्यों है. किसी अमन की आशा कि वकालत नही करता हूँ परन्तु ये भेदभाव पसंद नहीं है. ये बैर नहीं मनोरोग है, जो की लाइलाज़ है. कितनी ही मासूम जिंदगियां बेखता होने के बावजूद इस मनोरोग का शिकार हुई हैं. सरबजीत याद नहीं, इसी मनोरोग की भेंट चढ़ गया था. सत्य से सभी अनभिग्य हैं, व सत्य को मानव अपने कंकाल में छुपा के रखने लगा है. नग्न आंखों से इस सत्य को देख पाना असंभव है, इंसानियत का कंकाल ढूंढने की आवश्यकता है जिसके नीचे ये सत्य छिपा हुआ है कि गुनाह क्या था उन छात्रों का जो वो पढाई छोड़कर अपने घर लौट गये हैं व अपने सुरक्षा की भीख मांग रहे हैं. 

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