गुरुवार, 23 जनवरी 2014

Articless

कौन नगर से हो भाई?
-                                                                                                                                                                                                                                   -  अंकित झा

व्यंग्य का रिकॉर्ड काफी खराब रहा है हमारा, ऐसा ही कुछ सोंच के लिखने की हिम्मत नही जुटा पाते थे. पर अब क्या, अब तो लाज भी घोल के पीने की नौबत आ गयी है, जबसे कुछ लेखक-लेखक सा लगने लगा है, स्वयं में ही एक सम्पूर्ण ब्रम्हांड के ज्ञाता वाली भावनाएं आने लगती है, वो खाते हैं न दो ब्रम्हांड है; एक यथार्थ का व दूसरा लेखकों के कल्पनाओं का. ऐसे ही संसार का हिस्सा है हमारा देश भारत, वही विविधताओं में एकता वाला देश. याद है न, कि भूल गये हैं, नही विस्मृत हो सकते हैं, हालात ही ऐसे हैं कि अब क्या करें? दिल्ली आना हुआ, मई में पिछले साल. सुना था कि राजधानी बड़ी सुंदर जगह है, चौड़ी सड़कें, सड़कों के किनारे हरियाली, सड़कों पर दौड़ते एक से एक महंगे वाहन तथा ऐतिहासिक धरोहरें. क्या पता था कि इन धरोहरों के परे भी एक दिल्ली बसती है, प्रवासी दिल्ली. एक बड़ा क्षेत्र प्रवासी दिल्ली का ही है. ये वो हैं जो कभी काम, शिक्षा तो कभी मित्र से मिलने यहाँ आ पहुचे थे परन्तु अब यही के हो चुके हैं. इनमे बिहार, हरियाणा, राजस्थान, बंगाल तथा उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक है. पंजाबी इसलिए नहीं क्योकि, दिल्ली कभी कभी पंजाब का ही हिस्सा लगती है. डीटीसी की बसों से लेकर मेट्रो की खचाखच भरे डिब्बों में प्रवास की एक गंध आती है. यह दिल्ली किसी की नहीं है, किसी कीभी नहीं. फिर यहाँ ज़मीन खरीद लेने से क्या ये तुम्हारी हो जाएगी? ज़मीन खरीद सकते हो उसका इतिहास नहीं. अपना भूतकाल भुला सकते हो, इतिहास नहीं. प्रवासी होना कोई पाप नहीं, परन्तु अपनी जड़ों को भुला देना, एक पाप है, घोर पाप. तभी तो जब भी कभी, ऑटो या रिक्शे में बैठकर सफ़र करता हूँ तो एक प्रश्न अवश्य करता हूँ कि कौन नगर से हो भैया? जवाब मिला तो उस समय का मोल कोई लगा के देख ले, वह अनमोल है. छपरा से हैं, मुजफ्फरपुर से हैं, दरभंगा से हैं, इलाहाबाद से हैं तो रामपुर या श्रावस्ती से हैं, परन्तु हैं वहीँ कहीं के जहाँ से हम हैं. फिर उनसे अपनी जबान में बात करने का आनंद कोई लूट के देख ले, कोई नहीं कर सकता.

बस एक बात जो अक्सर झकझोर जाती है वो है, उपनाम, ‘बिहारी’. नगरीय अपभ्रंशों की फेहरिश्त काफी लम्बी है जिसमे साधारण वस्त्र पहनने वाली लड़की को, बहनजी कह कर संबोधित करते हैं तो किसी भी साधारण व्यक्तित्व के लड़के को बिहारी. बिहारी संज्ञा कबसे बन गयी? पता ही नही, वो भी एक नकारात्मक संज्ञा. जो कि किसी गाली के समतुल्य है. कोई पूछे जरा इन शहरी विवेकवानों से कि बिहारी का शाब्दिक अर्थ क्या है? ज्ञात है अथवा नहीं? बिहारी तो पाहून को कहते हैं, अर्थात मेहमान को. मेहमान इस देश में भगवान स्वरुप है, अर्थात किसी भी इंसान को बिहारी कहना उसे इश्वर के समतुल्य रखना है, परन्तु आप तो उसे गाली की तरह बोलते हैं. अनुजा चौहान की पुस्तक ‘Those Pricey Thakur Girls’ में सबसे छोटी बहन इश्वरी को उसके सहपाठी बिहारी कहते हैं क्योकि वो काफी ही स्फूर्तिवान तथा मुहफट है व बास्केटबॉल खेलते समय उसके जूनून में तार्किकता व हिंसा छुपी रहती है. क्या कारण है ये किसी को कुछ कहने का. मुझे सदा ही ये पुछा गया कि बिहारी हो तो कहते क्यों नहीं हो? यूँ तो मेरा सम्बन्ध बिहार से है परन्तु मेरी परवरिश मध्य प्रदेश की है. वहां ऐसा कुछ नहीं है, हां, कभी को कौतूहल वश मुझसे मैथिलि जिसे कि वो बिःरी कहते थे बोलने को कहते व मेरे बोलते ही सब तालियाँ पीट लेते. पता नहीं ऐसा क्या था उसमे, सोचता था कि बिहार में तो इनकी ज़िन्दगी तालियाँ पीटते ही गुजर जाएगी. परन्तु दिल्ली आने के बाद जब पता लगा कि बिहारी कहलवाना तो यहाँ पाप के सामान है तो फिर एक पल को सोंचा और गर्व से स्वयं को बिहारी कहलवाने लगा, वही बोली वही भषा व वही बोलने का ढंग. सब कुछ वही. कोई दो राय नही कि मैं बिःरी हूँ, हां बिहारी हूँ. जब तक साँसे रहेगी बिहारी रहूँगा, देखता हु पहले साँसे जाती है या पहचान. पहचान तो कोई नहीं मिटा सकता है, मेरा नाम मिटा दो भले ही. परन्तु यदि कोई अब मुझसे ये पूछे कि कौन नगर से हो भैया तो गर्व से कहूँगा कि मधुबनी बिहार से हूँ, और आप?   

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